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जिनवाणी संग्रह |
के । मिर्ट सफल सन्ताप
मिळे निघ आपके ॥ मति सागर इक सेठ कथा ग्रन्थन कही। उनहोने यह पूजा कर आनन्द लही ॥ ताते रविवृत सार, सो भविजन कीजिये । सुख सम्पति सन्तान, अतुल निध लीजिये । दोहा - प्रणमो पार्श्व जिनेशको, हाथजोड़ शिर नाय । परभव सुखके कारने, पूजा करू बनाय । एतवार वृत्तके दिना एही पूजन ठान । ता फल सुरग सम्पति लहैं, निश्चय लीजे मान ॥
ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अत्र अवतर अवतर तिष्ठ २ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो ।
अष्टक ।
उज्जल जल भरके अति लायो रतन कटोरन माहीं । धार देव अति हर्ष बढ़ावत जन्म जरा मिट जाहीं ॥ पारसनाथ जिने श्वर पूजों रविवृतके दिन भाई । सुख सम्पति बहु होय तुरत ही आनद मंगलदाई ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ मलयागिरि केशर अति सुन्दर कुमकुम रंग बनाई। धार देत जिन चरनन आगे भवेआताप नसाई । पारसनाथ० । सुगन्ध । मोती सम अति उज्जल तन्दुल ल्यावो नीर पखारो। अक्षय पदके हेतु भावसो श्री जिनवर ढिग धारो । पारस० । अक्षतं । केला अर मचकुन्द चमेली पारजातके ल्यावो । चुन चुन श्री जिन अग्र चढ़ाऊ मनवान्छित फल पावो । पारस० । पुष्पं । वावर फेनी गोजा आदिक घृतमें लेस पकाई । कञ्चन थार मनोहर भरके चरनन देत चढ़ाई। पारस०| नवेद्य । मनमय दीप रतनमय लेकर जगमग जोत जगाई। जिनके