________________
* अरहंतपासाकेवलो *
अरथलाभ तह हो । तनय धरनि धरनो मिले, नृप सनमाने सोय ॥ ८६ ॥ वसन मिले घोड़ा मिले, अनायास हो काज । शुभमंगल तोहि सर्वदा, सेयें श्रीजिनराज ॥ ८७ ॥
२१७
रतहं । रतहं कहत प्रचारिके, सुनि पूछक दे कान । पहिले कष्ट बहुत सहे, सो अब गये सुजान ॥ ८८॥धनकी चिंता रहत चित, सो सब पूरन होहि । वनिता सुत बसनाभरन निश्चल मिलिहै तोहि ॥ ८६ ॥ आधिव्याधि दुख नहिं सब, चिंता करहु न कोय । देवधर्म परसादसों, काज सफल सब होय ॥ ६०॥
रतत । रतत वरन सुनि पूछक, सकल सुफल तुव काम । मनवांछित धनसंपदा, पै हौ अति अभिराम ॥ ६१ ॥ जो कारज चितवत रहौ, अनायास सो होय । मनमें मति संशय करो, धर्मबृद्धि फल जोय || २ || शिवहित चाहत तप धरन, तामह' हैं है सिद्धि । हो जिनेश्वर कथित तप ज्यों होवें सुखवृद्ध ॥ ६३ ॥ अथ हंकारादि तृतीय प्रकरण ।
हं अ । हं अअ वर्न परे जहँ आई । तासु सुनो फल है दुचिताई । सुचत कष्टरु चित्त विनाशं । लोकविषै निरआदरभासं ॥ ६४ ॥ संगरमे नहिं जीन दिखावै । उद्यममें नहिं लाभ लहावे । जाहु जहां कछु कारज हेनी । सिद्ध न होय तहां तुम सेती ॥ ६५ ॥ त्याग करो यह कारज यातें । सेवहु श्र जिनधर्मसुधा तैं । धर्म बिना सुखको
1
नहिं लेखा । श्रीभगवान कहें जिन देखा ॥ ६६ ॥ रोग निवार अरोग शरीरं । पुष्ट महा वलपौरूष धीरं । चाहत हो परदेश सिधारो । होय मिलाप तहां शुभ सारो ॥६७॥