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* जिनवाणी संग्रह
अर्थ-.३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य, ४ अनतचतुष्टय ये अहं. नके ४६ मूलगुण होते हैं। अब इनका भिन्न २ वर्णन करते हैं ।
जन्मके १० अतिशय । अतिशय रूप सुगन्ध तन, नाहि पसेव निहार । प्रियहिमववन अतौल बल, रुधिर श्वेत आकार । लच्छन सहसरु आठ तन, समचतुष्कसंठान । वज्रवृषभनाराच युत,ये जनमत दश जान ॥६॥
अर्थ-? अत्यन्त सुन्दर शरीर, २ अति सुगन्धमय शरीर, पसेवरहित शरीर, ४ मलमूत्ररहित शरोर, ५ हित मितप्रियवचन बोलना, ६ अतुल बल, ७ दुग्धवत् श्वेत रुधिर, ८ शरीरमें एक हजार आठ लक्षण, समचतुरस्त्रसंस्थान १० बज्रबृषभनारावरहनन ये दश अतिशय अरहंत भगवानके जन्मसे ही उत्पन्न होते है।
केवलज्ञानके १० अतिशय ।। योजन शत इको सुभिक्ष,गगनगमन मुख चार । नहि,अदया उपसर्ग नहि, नाहीं कवलाहार ॥ सब विद्या ईश्वरपनों, नाहि बढ़े नख केश । अनिमिष द्वग छायारहित, दश वलके वेश ॥८॥
अर्थ–१ एक सौ योजनमें सुभिक्षता; अर्थात् जिस स्थानमें केवलो हों उनसे चारों तरफ सौ सौ योजनमें सुकाल होता है, २ आकाशमें गमन, ३ वार मुखोंका दोखना, ४ अदयाका अभाव, ५ उपसर्गरहित, ६ कवल (ग्रास) वर्जित आहार, ७ समस्त विद्या. ओंका स्वामीपना, ८ नखकेशोंका नहीं बढ़ना : नेत्रोंकी पलके नहीं झपकना, १० छायारहित शरीर। ये १० अतिशय केवलज्ञान उत्पन्न होनेसे प्रगट होते हैं ॥८॥
देवकृत १४ अतिशय ।