________________
२८४
जिनवाणी संग्रह।
मैनासुन्दर । हरा श्रीपालका कुष्ट कठोर उदम्बर । दिया धवल सेठने डार उदधिकी धार तो होगये पार वे उस हो पलमें । अरु जापरणी गुणमाल न डूबे जलमें ॥
( झर्व )-मिली रैन मंजूषा प्यारी। जिन ध्वजा शील की धारी । परी सेठ पै मार करारी । गया नर्कमें पापावारी॥
(झड़ी)-तुम लखो द्रोपदी सती दोष नहि रती कहें दुर्मती पत्रके बन्धन । हुआ धातकी खण्ड जरूर शील इस खण्डन । उन फूटे घड़े मंझार दिया जल डाल तो वे आधार थमा जल झर ना। निर्नेम नेम विन० ॥
चैत्र मास ( झड़ी) सनि चैत्रमें विन्ता करे न कारज सरे शीलसे टरे कर्मकी रेखा । मैंने शोलसे भीलको होता जगत् गुरु देखा। सखी शीलमें सुलसां तिरी सुतारा फिरी खलासी करी श्रीरघुनन्दन । अरु मिली शील परताप पवनसे अजन ॥ ___ (झर्वर्ट )-रावणने कुमत उपाई। फिर गया विभीषण भाई । छिनमें जा लंक गमाई । कुछ भी नहि पार-बसाई ॥
(झड़ो)-सीता सती अग्निमें पड़ी तो उस ही घड़ी वह शीतल पड़ी चढ़ी जल धारा। खिल गये कमल भये गगनमें जय जल कारा। पद पूजे इन्द्र धरेन्द्र भई शीतेन्द्र श्रीजेनेन्द्रने ऐसा बरना। निम नेम बिन० ।।
बैशाख मास ( झडो) सखी आई बैशाखी भेष लई में देख ये ऊरध रेख पड़ी मेरे करमें । मेरा हुमा जन्म यु ही उग्रसेनके घरमें । नहि लिखा करम