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* कल्याण मन्दिर *
तुम भविजन तारक किम होय। ते वितधार तिरहि ले तोय ॥ यह ऐसे कर जान स्वभाव । तरहिं मशक ज्यों गर्भित बाव ॥१०॥ जिन सब देव किये वश धाम । तिन छिनमें जीतो सो काम । ज्यों जल कर अग्नि कुल हान । बड़वानल पीवे सोपान ॥११॥ तुम अनन्त गुरुवा गुण लिये । क्यों कर भक्त धरै निज हिये ॥ है लघु रूप तरहिं संसार । यह प्रभु महिमा अगम अपार ॥ १२ ॥ क्रोध निवार कियो मन शान्ति । कर्म सुभट जीते केहि भांति ॥ यह पटुनर देखहु संसार । नील वृक्ष ज्यौं दहै तुषार ॥ १३ ॥ मुनि जन हिये कमल निज टोहि । सिद्धस्वरूप सम ध्यावै तोहि ॥ कमल कणिका बिन नहिं और । कमल बीज उपजनकी ठौर ॥१४॥ जब तुम ध्यान धरे मुनि कोय । तब विदेह परमातम होय ॥ जैसे धातु शिला तनु त्याग । कनक स्वरुप धवै जब आग ॥१५॥ जाके मन तुम करहु निवास। बिलय जाय सब विग्रह तास ॥ ज्यों महन्त बिव आवै कोय । विग्र मूल निर्वारै सोय ॥१६॥ करहि विविध जो आतम ध्यान । तुम प्रभाव तें होय निदान ॥ जैसे नीर सुधा अनुमान । पीवत विष विकारकी हान ॥ १७ ॥ तुम भगवन्त विमल गुण लीन । समल रूप मानहिं मतिहीन ॥ ज्यों नलिया रोग द्वग गहै । वर्ण विवर्ण शङ्ख सो कहै ॥ १८ ॥ ___ दोहा—निकट रहित उपदेश सुन, तरुवर भयो अशोक । ज्यों रवि उगते जीव सब, प्रगट होत भुवि लोक ॥ १६ ॥ सुमन वृष्टि ज्यों सुर करहिं, हेठ बोठ मुख सोय। त्यों तुम सेवत सुमन जान बन्ध अधोमुख होय ॥२०॥ उपजी तुम हिय उदधि तें वाणो सुधा समान । जिहिं पीवत भविजन लहै, अजर अमर पदथान ॥ २१ ॥