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जिनवाणी संग्रह।
बसे तहां साह । जाके जिनव्रतमें उत्साह ॥ धनवत बनिसी गृह कहो । मनोरमा ता पुत्री सही ॥ ८॥ सु गुप्तचार्य गृह आइयो। देख मुनीन्द्र दुःख पाइयो । कन्या मुनिकी निन्दा करी। कुछ मनमें नहिं शङ्का धरी ।। नग्न गात दुर्गन्ध शरीर । प्रगट पने देही नहिं वीर । मुख ताम्बूल हतो मुनि अङ्ग । मानो सुखको कीनो भङ्ग ॥१०॥ भोजन अन्तराय जब भयो। मुनि उठ जाय ध्यान वन दियो। समताभाव धरै उरमांहि । किञ्चित् खेद चित्तमें नाहिं ॥११॥ जीत अवधि समय कछु गयो । मनोरमाका काल सु भयो। भई गधी पुनि कुकरी ग्राम । अपर ग्राम भई सूकरी नाम ॥ १२ ॥ मगध सुदेश तिलकपुर जान । विजय सेन तहका नप मान । चित्ररेखा ता रानी कहीं। ता पुत्री दुर्गन्धा भई ॥ १३ ॥ एक स. मय गुरुबन्दन गयो। पूजा कर विनतीको ठयो ॥मो पुत्री दुर्गन्ध शरीर । कहो भवान्तर गुण गम्भीर ।। १४॥ राजा बचन मुनीश्वर सुने । मुनि वृतान्त रायसे भने ॥ सब वृतान्त हालिजो जान मुनि राजासे कहो बखान ।। १५ । सुन दुगंधा जोड़े हाथ । मो पर कृपा करो मुनिनाथ । ऐसा व्रत उपदेशो मोहि । यासे तनु निरोग अब होहि ॥१६॥ दयावन्त बोले मुनिराय। सुन पुत्री व्रत चित्त लगाय || समता भाव वित्तमें धरो। तुम सुगन्धदशमी व्रत करो॥१॥ यह व्रत कीजे मन वच काय । यासे रोग शोक सव जाय ॥ दुगंधा विनवे निकुताय । कहिये सविधि महा मुनिराय ॥ १८॥ ऐसे वचन सुने मुनि जये। तब बोले पुत्री सुन अवै ।। भादों शुक्ल पक्ष जब होंय । दशमो दिन आराधो सोय ॥ १८ ॥ चारो रसकी धारा देव । मनमें राखो श्रीजिनदेव ।। शीतलनाथकी