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* जिनवाणी संग्रह #
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पदांबुज सेवहु जाई । सर्वे मनोरथ सिद्ध कराई ॥ मङ्गल प्रश्न हिये रखि लीजे | श्रीजिनवेन सुधारस पीजै ॥ १२० ॥
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हंहंर | ह जुग अन्त रकार पुकारे । मंगल मोद समस्त तुझा रे ॥ पुत्रविवाह अवश्यक होऊ । जज्ञ विधान बने कछु सोऊ ॥ १२१ ॥ तासु प्रसाद सु संपति भूरी । है धन धान्य वस्त्र पर. चूरी ॥ मङ्गलधाम बड़े अधिकाई। जाहु जहां तह लाभ लहाई ॥ १२२ ॥ देव जजौ जपि दान करीजै । संजम होम सबै विधि कीजं ॥ पुन्य किये सुख संपति नाना । बालगुपाल सबै यह जाना ॥ १२३ ॥
हंहं । ह तिहुं आय पर जब पासा । है तह मङ्गलमन्दिर खासा ॥ सर्व मनोरथ सिद्धि प्रकाौ । अर्थ सुलाभ प्रजाजुत भासे ॥ १२४ ॥ भूमि मिले रनमें जय पावें । उद्यममें बहु लच्छि कमावै ॥ बांधव मित्रनसों अति नेह । रोपत है वरधर्म सुगेह ॥ १२५ ॥ आनन्द सर्व भविष्यति तोही । यों प्रतिभासत है सुनि मोही ॥ कारज सिद्धि समस्त तुमारा । सेवहु धर्म लहो भत्र पारा ॥ १२६ ॥
हंहंत । ह' जुग अन्ततकार दिखाई । उत्तम लाभ सबै तसु भाई ॥ चाहत हौ परदेश पधारे । है नहीं निद्धि मनोरथ प्यारे ॥ १२७ ॥ खेतो वानिज में सब ठाई। सर्व फरो मनवांछित भाई || श्रीधनधान्य सुकंचन आदी । जे सुख सपति अर्थ अनादी || १२८|| ते सब तोहि मिलें मनमाने । देव गुरुदति विधाने || यो सुनि चित्त थर होई । श्रीजिनराज भजो भ्रन खोई ॥ १२६ ॥