________________
* अकलंक स्तोत्र *
मन हो मेंढक जी, हुआ स्वर्गो ताहो, समय गुणधारो अति. सुखी । लहैं जो मुक्तीके, सुख भगत तो विस्मय कहा, महावीर. म्वामी, दरश हमको दें प्रगट वे ॥ ४॥ तपे सोने ज्यों भो, रहित बपुसे, नानगृह हैं, अकेले नाना भी, नुपतिवर सिद्धार्थ सुन-हैं । न जन्मे भो श्रीमान्, भवरत नहीं अद्भुतगती, महावीरस्वामी दरश हमको दें प्रकट बे ॥ ५॥ जिन्होंकी वाग्गंगा, अमल नयकल्लोल धरती, न्हवाती लोगोंको, सुविमल महा ज्ञान जलसे। अभी भी सेते हैं, बुधजन महाहंस जिसको, महावीरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे॥ ६॥ त्रिलोकीका जेता, मदनभट जो दुर्जय भहा, युवावस्थामें भी, वह दलित कोना स्वबलसे। प्रकाशी मुक्तीके, अतिसुसुखदाता जिनविभू, महावीरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे ॥ ७॥ महामोहव्याधी, हरणकरता वैद्य सहज, बिना इच्छा बंधू, प्रथितजग कल्याण करता। सहारा भन्योंको सकल जगमें उत्तम गुणी, महावीरस्वामो, दरश हमको दें प्रकट वे ॥८॥
संस्कृत वीराटक रच्यो, भागचन्द रविवान । तस भाषा अनुवाद यह, पढ़ि पावै निर्वान ॥ ६ ॥
१८ अकलंक स्तोत्र ।।
शार्दूल विक्रीडित छन्द। त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयंसालोकमालोकितम् । साक्षा. छन यथा स्वयं करतले रेखांत्रयं सांगुलि ॥ रागद्वेषभया मयान्तकजरा लोलत्वलोभादयो, नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया वंद्यते ॥१॥ दग्धं येन पुरत्रयं शरभवा तीब्राचिषा बन्हिमा ।