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* छहढाला **
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शिव गए, जाहि अब आगे जे हैं। सो सब महिमा ज्ञान-तणी मुनिनाथ कहे हैं । विषय वाह दबदाह, जगत जन अनि दकावे । धान बुझावें ॥ ७ ॥ पुण्य पाप फल
यह पुद्गल पर्याय, उपजि विनशै
तास उपाय न आन, ज्ञानघन
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माहि, हरप विलखो मत भाई थिर थाई ॥ लाख बातकी बात, यही निश्चय उर लावो । तोरि सकल जगदन्द -- फन्द निज मातम ध्यावो || ८ || सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित लीजै । एकदेश अरु सकल देश, तसु भेद कही । सहिंसाको त्याग, वृथा थावर न संधारे। परवधकार कठोर निन्द्य, नहि बयन उचारे ॥ ६ ॥ जलमृतिका बिन और, नाहिं कछु है अदत्ता । निज बनिता बिन सकल, नारिस रहे विरता ॥ अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखें । दस दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सोम न नाखं ॥ तामें फिर ग्राम, गली ग्रह बाग बजारा । गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा। काहूके धनहानि, किसी जय हार न चिंते । देय न सो उपदेश, होय अघ बन कृषी ॥११॥ कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधे । असि धनु हल हिंसोप- करन नहिं, दे जश लाधे ॥ राग द्वेष करतार, कथा कबहूं न सुनीजं । औरहु अनरथ दण्ड, हेतु अघ तिन्हें न कीजै ॥ १२॥ घर उर समता भाव, सदा सामायिक करिये । परख चतुष्टय माहि, पाप तज प्रोषध धरिये ॥ भोग और उपभोग, नियमकर ममत निवारे । मुनिको भोजन देय, फैर निज करहि अहारे ॥ १३ ॥ बारह व्रतके अतीवार, पाय पन पन न लगावै । मरण समय सन्यास, धार तसु दोष नशावे ॥ यों श्रावक व्रत पाल. स्वर्ग सोलम उपजावे । तहंते वय नर जन्म, पाय मुनि हूवें शिव जावे ।
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