Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानियां (दसवां भाग) ('महामहिम', विच्छेद', 'निश्शेष' और अन्य कहानियां) पूर्वोदय प्रकाशन ८, नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्ली-६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक मुद्रक पूर्वोदय प्रकाशन संचालक पूर्वोदय प्राइवेट सि० ८ नेताजी सुभाष मार्ग दिल्ली-६ नवचेतन प्रेस प्रा. लि०, (लीज़िज़ ऑफ अर्जुन प्रेस) नया बाजार, दिल्ली-६ १९६६ जैनेन्द्र ट्रस्ट चार रुपये प्रथम सस्करण मूल्य Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानियां (दसवां भाग) Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहिम ७० निश्शेष १६ यथावत विच्छेद मुफ्त प्रयोग कष्ट हुए ६५ बेकार झमेला ७३ ये दो ६६ वेदो ६. पत्र दो राह ११० जीना मरना १२० उलटफेर १३७ चक्कर सदाचार का १४८ विक्षेप १३८ मुक्ति १६६ Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रस्तुत संग्रह में सालह कहानिया है। रोचकता, मामिकता व तीक्ष्ण आत्मपरक व वस्तुपरक गहनता की दृष्टि से यह कहानी-संग्रह अद्भुत है । सग्रह मे वैविध्य व कलात्मक सौष्ठव के अनायास दर्शन होते हैं । इससे लेखक का यह प्रतिनिधि सकलन है। कुछ अत्यन्त विवादास्पद कहानिया इसमे सम्मिलित हैं जिन्होने बौद्धिक स्तर पर गम्भीर उथल-पुथल उपस्थित की हैं। पाठको एव साहित्य-शोधको के लिए यह सकलन समान रूप से सग्रहणीय है । Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहिम 1 उपा परिचारिका नही है । कुछ सैक्रेटरी ही समझिए । वही महामहिम के सबेरे के नाश्ते पानी की व्यवस्था करती है । कमरे मे आई और देखकर वह दंग रह गई कि महामहिम बैठे है । दाहिनी बाह कोहनी से मेज पर टिकी है और चेहरा हाथ मे थमा है । वह ग्राई थी कि मेज़ साफ करेगी । चीजें सही जगह चुनकर रखेगी। और तैयारी हो चुकने पर महामहिम से कहेगी । पर अब वह ठिठकी रह गई । दरवाजे पर ही सोचती रह गई कि वह आगे बढे या वापिस जाय । ऐसा कभी नही हुआ है । महामहिम हमेशा उद्यत प्रसन्न दीखे है । यह तो कल्पना से बाहर है कि वह अपने से आकर इस कमरे मे बैठें और वह भी इस तरह कि वेभान हो और सोच मे हो । उसे खडे खडे अनुचित मालूम होने लगा और वह दबे कदम वापस जाने को थी कि महामहिम ने कहा, "अरे, " उपा उषा स्तब्ध रह गई । उसे पहचाना जाएगा, नाम लेकर सम्बोधन से पुकारा जाएगा, यह उसके लिए बहुत अधिक था । मानो वह जमकर पत्थर वन आई । "मेज साफ करोगी ?" ast कठिनाई से उसके मुह से निकला, "जी !” "तो, करो साफ ।" कहकर महामहिम कुर्सी छोडकर खड़े हुए और पीछे सरक कर दीवार से सट आए। उपा बुत बनी अपनी जगह खडी रह गई । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग "ग्रानो, साफ करो मेज ।" उपा डरी-सी डग डग भरती श्रई और मेज को साफ करने लगी । महामहिम खडे देखते रहे । उपा को मालूम हुआ कि उसकी पीठ पर महामहिम की निगाह है। वह जैसे अन्दर सिमटती गई। यह एकम अप्रत्याशित था, असम्भव था । "तुम्हारी मा की तबियत अब कैसी है ?" "जो ?" उसने मेज से अपना मुह नही उठाया था । कैसे उठा सकती थी ? उसके मा है और वह बीमार थी । यह पता महामहिम को हो सका, क्या इतना ही उसे विस्मय - विमूढ करने के लिए काफी न था ? " दवा कर रही हो ? क्या दवा कर रही हो ?" "जी ?" इस बार उसने हिम्मत करके महामहिम की ओर मुह फेरकर उन्हें देखा । महामहिम की आखो मे परिचय देखकर उसे बहुत विस्मय हुआ । बल्कि परिचय से आगे भी कुछ था - चिन्ता थी, करुणा थी । "क्या दवा करती हो ?" "जी, कुछ नही ।" " गलत बात है - मुझे क्यो नही कहा "जी, मा दवा नही लेती ।" " दवा नही लेती !" महामहिम मुस्कराए, बोले, "डाक्टरी दवा नही लेती होगी तो देसी लें। मा की बीमारी पर तुमने छुट्टी क्यो नही ले ली ?" ܝ ܕ ܐܐܟ "जी " " व पहले से श्राराम है न " जी ।" "अच्छा, तो मेज साफ करके और नाश्ता निपटाकर जाकर मा को संभालना और थाके मुझे बताना ।" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहिम उपा चित्र लिखी-सी महामहिम को देखती रही। उसे विश्वास न आ रहा था। महामहिम ने कहा, "वस, हो गई मेज साफ । जो हो ऐसे ही ले ग्राओ। फिर जाओ और मा को खवर लाकर दो।" उपा मुडी, एकाध हाथ मेज पर दिया और वरावर पैट्री मे चली गई। ___महामहिम को वक्त नही रहता । समय ही ऐमा है । देश विदेश की समस्याए बढती जा रही हैं । स्थिति विस्फोटक या बनी है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति बेहद उलझ गई है । राष्ट्र नेतागो के आपसी राग-द्वेष सभाले नही सभलते । वह सब है । लेकिन इस वक्त उपा की मा की तबियत का सवाल जो उनमे उठ आया, सो उन्हे बडा अच्छा मालूम हो रहा है । जैसे वह सब मिथ्या हो और यह सच ।। __महामहिम सच ही इस समय अपने ऊपर विस्मित है । बहुत-बहुत काम है । सब बेहद जरूरी है। उनसे बचकर वे पाए थे और यहा कुर्सी मे ठोढी को हाथ मे लेकर बैठ गए थे । फिर यहा ऊपा आ गई और उसकी मा की बीमारी का ध्यान हो आया । जाने कैसे उडती-सी बात की तरह उन्हें मालूम हुआ था कि उषा की मा की तबियत ठीक नही है । ध्यान देने जैसी वह बात न थी। फिर भी एकाएक उसका स्मरण उठ पाया और नागहानी उपा से उसका जिक्र हो आया तो अब उन्हे वडी सार्थकता का अनुभव होने लगा या । मानो बाकी और झमेला हो और अनायास यह एक सचमुच की असलियत बीच मे श्रा गई हो। महामहिम जैसे गहरे सोच मे पड गए । दिन रात वह देश और विदेश में रहते है । पत्नी नहीं है, कोई नहीं है । वेटी है, वह भी वस है और जैसे अलग है । मानो उसका होना आनुपगिक हो, असली होना देशो और विदेशो का ही हो । पर अब इस छोटे से कमरे में आकर दीवार के पास अकेले खडे वह सोचने लगे कि देश और विदेश जो इस समय मिट गये है, सो कुछ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की पहानिया दसवा भाग बुरा नहीं हुआ है । शायद दिन-रात उनका ही होना भोर रहना अच्छी वात नही है । कभी-कभी हम तुमको भी होना चाहिए। अभी वह खडे ही थे कि उपा एक-एक करके चीजें लाती गई और उनके सामने मेज पर सजाती चली गई । वह वैठे नहीं, देखते ही रह गए । उपा सामान्य-सी लड़की है । असुन्दर नहीं है, पर सुन्दर भी नही है। बहुत ज्यादा जवान भी नहीं है । उल्लेखनीय कुछ भी उसके आसपास नहीं है । पर महामहिम उसे देखते रह गए और उन्हे अपने मन मे यह अनुभव विल्कुल गलत नहीं मालूम हुआ कि उपा है और देश-विदेश नहीं हैं । उन्हे वडा अचम्भा मालूम हुमा कि देश-विदेश को उलझने किस आसानी से उतर कर दूर हो जाती है । मनुप्य को सामने और सच बनाने की देर है कि वाकी फिर आप ही गौण और क्या हो आता है। सहसा बोले, "वस, बस, उपा। बहुत हो गया । अब तुम मा के पास जा सकती हो।" उपा चकित-सी बोली, "जी !" "बस और नहीं चाहिए । इतने से चल जाएगा। तुम जानो।" "मा अब ठीक है।" "ठीक हैं तो जाकर मेरा उन्हे प्रणाम देना।" "जी?" महामहिम ने रुष्ट बनकर कहा, "इतना भी नमभती नही हो क्या ?" अपनी मा को जाकर मेरी तरफ से प्रणाम कह देना । और मुझे सब हाल बताना । सुना ? समझी ? बस अब जानो।" उपा जा को सपती थी । ब्रेकफास्ट की तिहाई भी तैयारी नहीं हो पाई थी ! काफी प्राई थी और बस टोस्ट । इस अधूनेपन में वह कैसे जा सकती थी? पर महामहिम रारे में और वह कह चुके थे, जाम्रो । मानो रोप में उन्होने कहा था। सच का वह रोप होता तो वह टिपती ही कैसे ? Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहिम अल्पाहार १३ पर वह तो कृपा से भी वडी करुणा का था । इसलिए और भी ग्रावश्यक था कि वह अपने कर्त्तव्य मे प्रधूरी न रहे । उसने इसलिए महामहिम की बात को सुना - अनसुना किया और उपाहार के अन्य पदार्थ एक-एक कर वह लाती चली गई । महामहिमकुम की पीठ थामे उसी तरह खडे रहे । देखते रहे कि उपा एक-एक कर पदार्थ लाती जाती है और मेज पर करीने से उन्हे रखती जानी है | उन्होने उपा के काम मे कोई व्याघात नही उपस्थित किया | जाने वह क्या सोचते रह गए । निश्चय ही उपा उनकी श्राज्ञा का उल्लघन कर रही थी । पर यह उल्लघन उन्हे खटक नही रहा था । उनका मन चिन्तागो और विचारो से मानो इस समय हल्का हो रहा था । वह महामहिम है । इसी का ध्यान उनसे खो गया था । कोई है जो एक-एक कर तरह-तरह की चीजे लाकर मेज पर रखता जा रहा है । वह स्वयं उनमे से किसी को छुएगा नही । उसका काम सिर्फ लाना और रख जाना है । वह तो कोई दूसरा ही है जो उन सब पदार्थों का भोग पाएगा । उन्हे अनोखा लग रहा था यह कि वह दूसरा कोई और नही, स्वय वही है । अब तक कभी उन्हें यह नही सूझा था । प्रक्ट था कि वह महामहिम हैं और दूसरे सेवक हैं । एकदम वैधानिक था कि दूसरे सेवा करे और वह सेवा पाए । लेकिन इन क्षणो मे वह वैधानिकता बीच से जाने कहा उड गई थी । एक व्यक्ति के मानिन्द होकर कुर्सी की पीठ यामे वह खडे रह गए थे और देखे जा रहे थे कि दूसरा व्यक्ति है जो सहमा डरता हुआ सा उनके लिए एक पर एक व्यजन और पदार्थ वाता और यथाविधि रखता जा रहा है । मानो उसकी कृतार्थता बस इतने मे ही है । उस अस्तित्व की, कौशल की, व्यक्तित्व की धन्यता इसमे है कि वह स्वयं उसे स्वीकारे और भोग पाए । इस समय बडा ही मनोसा लग रहा था वस्तुनो का यह विधान और उन्हें अपनी महामहिम की वात विल्कुल समझ न या रही थी । चीजें लाई जाती रही और रखी जाती रहीं । महामहिम अन्त Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग तक बैठे नही । सहसा उन्होने पाया कि जो रह-रह कर जा रहा था, और ला रहा था, वह इस बार जाकर वापस नहीं पाया है। दो एक क्षण इस पर वह ठहरे। फिर पुकारा, "उषा!" उपा अव जाने की तैयारी मे थी । महामहिम की इस नई अवस्था को देखकर उसने अपना काम कुछ सक्षिप्त अवश्य मान लिया था। अर्थात् कॉफी ढालकर कप स्वय तैयार करके देने की आवश्यकता उसने आज नही मानी थी। यह भी उसे याद आ रहा था कि आज्ञा हो चुकी है, उसे मा के पास जाना चाहिए । तभी उसने पुकार सुनी और वह उपस्थित हुई। महामहिम ने कहा, "यहा बैठो और एक कप और ले पायो।" उपा अविश्वस्त बनी सी खडी रह गई। "सुना नहीं, एक कप और ले पायो।" उषा काप पाई और हिल न सकी। "कहा यह है कि जाकर कप लाओ।" मानो करता ही थी महामहिम के शब्दो मे । उपा गई और कप ले आई । और प्राकर फिर खड़ी हो गई। "कहता हूं बैठो यहा । मेरे लिए कप वनायो। और अपने लिए भी।" सचमुच इसमे कहा दण्ड उसके लिए दूसरा न हो सकता था। वह वन्दी की भाति प्राजा पर काम करने लगी। "क्यो, मा का रयाल पा रहा है ? कहा था तव नहीं जा सकी। व काफी खत्म करके ही जाना हो सकेगा।" उपा घबरा रही थी। महामहिम को भी ध्यान पाने लगा था विधान की मर्यादा का । कर्मचारी-गण इधर-उघर या निकलेंगे । वे वयानीचेगे? उपा तो इस विचार में अपने भीतर मरती ही जा रही थी। लेकिन महामहिम उस विचार पर अन्दर ही अन्दर तनिक और उत्साहित हो पाए। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहिम १५ "क्या घवराहट है ? मा कोई मर नही जाएगी।" कहकर महामहिम ने अपने हाथो से उपा के लिए दूसरा कप बनाया । यह प्रावश्यक इसलिए भी हो गया था कि बाहर के दरवाजे पर एक बटलर दीखाया था । कप वनाकर महामहिम ने उसे आगे बढाकर कहा, "लो । ” यह तो हद ही थी । उपा इस पर उठी और एकदम डर की मारी भागती हुई-सी वहा से चली गई । महामहिम मुस्कराकर रह गए । सोच उठे कि नही, श्रादमी ही परस्पर सच नही है | मालूम होता है दूसरी वाते भी सच है । फिजूल की वाते, देश-विदेश जैसी बाते ! जनवरी, '६५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ লিহহীত্ব दरवाजे पर देर तक थपथपाहट होती रही तो शारदा घुटनो पर हाथ देकर उठी। दरवाजा खोला तो देखा मुरारी आए हैं। "नमस्ते भाभी ।" "प्राओ मुरारी " कमरे मे आकर बैठे तो मुरारी ने कहा, "भाई साहब पाए है-" शारदा ने उत्तर मे कुछ नहीं कहा। उसके चेहरे पर से भी कुछ प्रकट नही हुआ। "-शाम पाए थे, तभी इवर पाने को कह रहे थे। लेकिन... उनकी तबीयत ठीक नहीं है।" शारदा चुप ही बनी रही। मुरारी पर जोर पडा । फिर भी वह कहता ही चला गया "खासी है । तीन महीने से, बताते है, खासी का ठसका चल ही रहा है । मुझे तो हालत अच्छी नहीं मालूम होती । 'भाभी, अब पीछे की बाते-" शारदा ने दोनो हाथो से घुटनों पर फिर जोर दिया और मानो उठने को हुई । बोली, "चाय लाती हू तुम्हारे लिए।" नही भाभी, नही । तकल्लुफ की बात नहीं है । वह मेरे साथ ही आ रहे थे। मैंने रोककर कहा कि पहले मैं देख आऊ ।' भाभी, उनके मन मे पछतावा है।" "किस बात का पछतावा?" "बीती वातो को भुला दो, भाभी । दो तरफ जिन्दगी वखार होती Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्शेष १७ रहे, इससे कुछ फायदा है ? भाई अव पहले से बदल गए है।" ___ शारदा ने कहा, "तुम्हारे भाई है-तुम्हारे पास नहीं रह सकते ? मै कौन रह गई हू जो यहा आयेंगे ? मुरारी, तुम लोग उन्हे सभाल लो। उनका चौथापन है तो क्या मेरा नही है ? जाना तो मुझे चाहिए था सहारे के लिए उनकी तरफ । वह चले भी जाए, तो उन्हे वया? लेकिन मैं तो अकेली नही हू और अपने बाल-बच्चो को जैसे बना मैंने सभाला है। नौकरी कर रही हू और जी रही हू । अव मेरी शान्ति मे, मेहरवानी करें, विघ्न न डाले। वच्चो के लिए भी मैंने उनकी तरफ नही देखा है। मैं जानती हू, ये पन्द्रह बरस कैसे कसाले के मेरे गए है । मैं तो तुम लोगो के घर से निकली हुई है। फिर मुझे क्यो पूछा जाता है ? उनसे कह देना, सब ठीक है। यहा आने की, तकलीफ उठाने की कोई जरुरत नही है।" "भाभी, इतना कठोर नहीं होना चाहिए।" "तुम भी मुझे दोष दोगे मुरारी ? तो कठोर ही सही। मै अपनी विपदा लेकर तो किसी के यहा नहीं गई । बस, इतना करो तुम लोग कि मेहरवानी करो। और जैसे छोडा है, वैसे ही मुझे अपनी किस्मत पर छूटी रहने दो । मैं और कुछ नही मागती हूँ।" "तो भाभी, सच यह है कि भाई साहब नीचे ही खडे है ।" "नीचे ?" "कुछ उन्हे भी झिझक थी। कुछ मैने भी कहा कि जरा देखे पाता "तो उन्हे नीचे ही से ले जायो । देखो, मेरा दिन न खराव करो।" लेकिन शारदा को नहीं मालूम था। उसकी पीठ थी दरवाजे की तरफ । पर मुरारी ने अपने भाई रामशरण को झाकते वहा देख लिया था और इशारा कर दिया था कि आए नही, ठहरे। वह बोला-"उनकी नौकरी छूट गई है भाभी ! महीने भर से पुष्कर मे थे । सोचो तुम्ही कि कहा जाएगे ? मेरे पास कब तक रह सकते Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग हैं, या मेरे छोटे भाई के पास ? तुम भी यहा अकेली हो, वह उघर वेहाल है । पन्द्रह साल बहुत हो गया, भाभी । अव गुस्सा थूक दो और पहली वातो को भूल जायो।" ___"भूल गई हू मुरारी | विल्कुल भूल गई हू । कह देना उनसे कि यह भी भूल गई है कि व्याह हुआ था।" "भाभी " "मुझे तग न करो मुरारी, जानो।" "मैं अभी आया, भाभी।" कहकर मुरारी उठा और कमरे से बाहर आया ! वाहर रामशरण को सकेत किया कि वह जीने से फिलहाल उतर जाए, इतने वह आकर खवर देगा । रामशरण के चुपचाप जीने से कुछ कदम उतर के चले जाने पर मुरारी अन्दर आया और कहा, "प्रय कहो।" शारदा ने कहा, "वह दरवाजे पर पाए सडे थे न ?" "हा, मैंने उनको नीचे भेज दिया है । 'भाई साहब पर भाभी अापका गुस्सा हो सकता है । मैंने तो गुनाह नहीं किया है। मुझे मौका दिया होता।" ___"मुरारी" "भाभी, आप जानती हैं कि गिरिस्ती मे मुझे एक क्षण का सुख नही मिला है। हर समय का क्लेश और कलह ! आपके रूप ने भाभी, मेरे मन मे क्या जगह ले रखी है, कैसे बताऊ ? कभी नही वहा, आज कहता हू, जब भाई साहब को मैंने खुद ही जीने से उतार दिया है कि " ___ शारदा हसी । बोनी, "मेरे रूप की यह पूजा तुम्हें अब याद माई "नही भाभी । पहले दिन से जब तुम घर मे आई, मैने तुम्हें देवी की जगह रख कर पूजा है।" हम कर शारदा ने कहा, "पूजा है न ? बस, अब भी पूजते रहो और जायो।" Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्शेप "भाभी ?" "जाग्रो-" मुरारी ने जाना नही चाहा । जाने कब की साध थी और आशा मे वह टूटना नहीं चाहता था। भाभी की मुस्कुराहट ने एकाएक उसे सीचकर हरिया दिया था और मुरारी चिटका रह गया। उसकी आखो मे जाने क्या भर आया था। चाह तो थी लेकिन उसके मद के साथ जाने कैसी एक विनम्रता और कातरता मिल पाई थी। मानो एक साथ वह टूट पडना चाहता हो । भीतर अपने मे और बाहर उस नारी पर। शारदा ने इस मुरारी को देखा । वह फिर भी हसी । हसी मे वेद तीखी धार थी। वह आदमी की आशाओ को एक साथ भीतर तक काटती चली गई । उसने कहा, "मुरारी | तुम चले जाओ।" अनन्तर मुरारी एक शब्द नहीं बोला । चुपचाप वहा से चला गया। शारदा पीढे पर बैठी थी । घुटने पर हाथ देकर वह उठी। उसने भीतर बेहद क्लान्ति अनुभव की। जैसे बहुत थक गई हो और जीना वस भार हो । उठकर उसने बाहर जीने का दरवाजा वन्द करने की भी चिन्ता नही की और वरावर विछे पलग पर एकदम लेट गई । वदन के जोडो मे दर्द मालूम होने लगा था और वह ऊपर सूनी छत मे जाने किस विन्दु को टक बाधे देखती रह गई थी। कुछ इसी अचेतावस्था मे उसने जीने से चढते हुए डगो की आहट सुनी । उसे कुछ भय-सा मालूम हुआ । लेकिन वह उठ नही सकी। वैसी की वैसी लेटी ही रह गई। थोडी ही देर मे मुरारी और रामशरण दोनो चलते हुए कमरे मे आए। जैसे क्षण भर उसने किसी ओर देखा नही, उस छत में ही देखती रह गई। उसने उठने की चिन्ता न की । वह बाहट से ही समझ गई थी कि आनेवाले कौन हैं। एक अलस विरक्ति में मानो समझने के बाद भी उसे कुछ करने या मोचने की सुध न हुई। उसमे एक दहरात व्याप Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दरावा गाग रही थी जो मानो इस विरक्ति से मिल कर जम पाई और उसको जड बनाती जा रही थी। मुरारी के साथ रामशरण थोडी देर आए सडे रहे । फिर जोर मे बोले, "यह क्या फैले मचा रखा है ?" नही, सम्भव नहीं हुआ । काया स्थिरीभूत, निश्चल, निश्चेतन नहीं रह सकी । वह एक झटके से पलग पर उठकर बैठ पाई और धोती को माथे के जरा मागे लिया। कहा, "वैठिए।" रामशरण नही बैठे । और मुरारी भी उनके पास सठे रहे । पलग से उनकी दूरी दो वालिश्त की न होगी। वह सिरहाने की तरफ सडे थे । शारदा उठकर बैठी तो तनिक पायते की तरफ हो पाई थी। यह भर दिया था, 'वैठिये'-लेकिन निगाह को मोडकर उधर देखने का कष्ट उसने अपने को नहीं दिया था। अब धोती की किनार को जग माये के आगे लाकर उमने अकम्प स्वर से कहा, "बैठो मुरारीवैठिए।" "कोई यहा वैठने को नहीं पाया है ।" रामशरण ने तेज होकर कहा, "मुरारी | तुम जानो, टैक्सी लायो । 'और सुनती हो तुम ! दो मिनट मे तैयार हो जानो तुम्हे साथ चलना है । वहुत हो लिया यह हरजायीपन । अव वदमागी नही चलेगी।" मुरारीलाल चला गया था । शारदा ने जरा प्राव ऊपर करके रामशरण को देसा । रामगरण की आखों में अग्नि थी। वह कुछ देर देखती रही। अब उसमे दहशत नहीं रही । मस्ट तब तक ही था कि जर दूर था । अव बिल्कुल पाम पाने पर मानो वही एक निश्चय पीर स्फति के उदय का कारण बन गया था। उसने स्वर को भरनक थाम फर कहा, "खडे प्यो हो । बैठ जानी।" । "कोई जरूरत नहीं है बैठने को, और जठार तुम दो मिनट तयार नईतो......" "कुछ लाए हो-नमंचा वगैरह " Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्शेप २१ रामगरण ने कहा, "यह हाथ काफी है । क्यो, पहली मार भूल गई ?" शारदा बैठी-बैठी मुस्कुराई । उसके भवो मे तेवर थे । बोली, “वारवार तुम्हे मारने का कष्ट उठाना पडेगा--अगर जीती रहने दोगे । एक वार मे खतम क्यो नही कर देते ?" "खतम ही करना होगा, एक बार । अभी यहा से चलना होगा।" "कहा ले चलोगो ?" "वैठी-बैठी बातें न करो, खडी हो जानो । जहा मैं रहूगा, वहा तुम रहोगी।" रहती तो थी । निकाला तम्ही ने नही था ?" "निकाला था, मैने ही निकाला था। इसलिये निकाला था कि तुम घर के लायक नहीं थी। लेकिन अब देखता हूँ कि पति का कर्तव्य उतना ही नही है । घर की रक्षा के लिए तुम्हे निकाला था। पर देखताहू वह तुम्हे और मौका देने के बरावर हो गया। हद हो गई है तुम्हारे हरजाई. पने की। तुम समझती हो तुम गुलछरे उडाने के लिए हो । नहीं, तुम्हारा वाह हुना है । और पुश्चली व्यभिचारिणी को घर मे रखने का धर्म अगरचे, नहीं है तो भी अब मैने पहचान लिया है कि पति होकर मैं तुम्हे उस आवारगी के रास्ते पर बढते जाने का पाप अव नही सह सकता। आज समझ लो, तुम्हारी बदमाशियो का अन्त आ गया है।" ___ शारदा मुस्कराई । बोली, "मुरारी कहता या, नौकरी छूट गई है।" "तुझे इसी का गुमान है, बदकार, कि तू वी० ए० एल-टी० है और नौकरी पर वहाल है ! औरत की जिन्दगी खाविन्द के साथ है। और वह भीख मागेगा तो भी औरत को उसकी सेवा करनी है। व्याह पैसे से होता है कि मर्द से होता है? चलो उठती हो कि नही ?" ___शारदा ने कहा, "मुझे इरा वक्त पौने चार सौ मिल रहा है। दिल्ली वडी जगह है । दूटोगे तो तुम्हे भी काम मिल जाएगा। यही क्यो नही रह जाते ?" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनेन्द्र की कहानिया दमवां भाग "यह क्या कह रही हो तुम ?" "ठीक कह रही है। दिल्ली मे काम देखते रहना । कहां इसरउधर जाते हो । बनायो, इस वीच कुछ बवाया है तुमने ? न वच्चो को बुछ दे सके हो । तन भर पाला है, सो तो यहा भी हो ही जाएगा।" "मैं यहा रह सकता हू ?" "क्यो नहीं रह सकते हो।" "मुरारी तो कहता था कि " "तुमने मुरारी को अधिकार दिया है कि-तम्हारी जगह वह मेरे साय .." "क्या बक रही हो?" "-मगर शर्त है कि तुम आदमी बनकर हो । रह रहकर जो तुम उपदेशक और वहशी बना करते हो, सो नहीं चलेगा।" "तुमने समझा क्या है अपने को ? वकवाम बन्द करो। और तयार हो जायो। कोई नोकरी-वौकरी नहीं होगी। और जैसे मैं रहूगा और कहगा, वैसे तुम्हे रहना और करना होगा । गर्म नहीं आती तुम्हे कि मैं खडा ह, और तुम बैठो बतला रही हो?" शारदा पलग पर अपनी जगह से भी अब बडी नहीं हुई और मुस्कराकर कहा, "अभी मुरारी के यहा तुम ले जायोगे-शमं की बात यह है । मैं वहा नही जाऊगी।" ___ "छोडो, न सही । मुरारी वैसे अपना है और मौतविर है। लेकिन कोई बात नहीं । सीवे मेरे साथ चलो, जयपुर।" "जयपुर ।" "मालिक लोग अब भी चाहते हैं। नौकरी मैने अपने में छोड़ी थी। "रामू कहा है ? पच आएगा?" "वह तो गाम पो नात-पाठ तक पाता है। सात मीन जाना परता है। बड़ी मुनिल से नाल भर भटकने पर नौकरी लगी है !" Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्शेष २३ "तो - वह यहा रहेगा ।" " सवा दो सौ उसे मिलता है। उतने मे दिल्ली मे कैसे रह लेगा ?" "न होगा, हम कुछ भेज दिया करेगे । और बस अब तुम उठ जाओ ।" शारदा ने बैठे ही बैठे कहा, "अगर मैं न उठु तो ?" रामशरण ने पजा खोलकर दिखाया और जतला दिया कि न उठने का मतलब क्या हो सकता है । शारदा की मुस्कराहट इस पर और भी कटीली हो आई । उसकी चितवन मानो रामशरण को घायल करने लगी । मानो उस चितवन मे वर्जन की जगह आमंत्रण हो । शारदा बोली, “मुझे खड़े होने को कहते हो । अच्छा था तुम्ही बैठ जाते । " उस चितवन की भाषा का अपने मन के अनुसार अर्थ पढकर रामशरण ने कहा, "मुरारी टैक्सी ला रहा है ।" "लाने दो। मुरारी उसमे बैठकर चला भी जाएगा। फिकर क्या है ।" "शारदा । " " मुरारी का तुम भरोसा करते हो । " "तुम सच कह रही हो ?" "मै तुम्हारे भरोसे को तोडना नही चाहती । लेकिन " " "माने दो उस कम्वस्त को !" शारदा मन ही मन हसी । बोली, "यह तुम्हारे वह भाई है जिनके पीछे तुमने मेरे साथ जाने क्या बदसलूक नही किया । " "मुझे पहले क्यो नही बताया -- खून पी जाता उसका ।" " अव भी कहा बताया है ? वह तो बात मे बात आ गई । और बताया इसलिये नही था कि मुझे अपने पर भरोसा था, और है । तुम्ही Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की पहानिया दसवा भाग हो कि उन्हें अपना आधार मानते हो।" इतने में मुरारी टेनसी लेकर आ गया। रामशरण ने कहा, "मुरारी | टैक्सी मे जानो और मेरा सामान यही ले आयो। मैं नही समझता था-" मुरारी कमरे में आकर श्रममजस में खड़ा रह गया था। मान्दा पलग पर बैठी थी और रामगरण सडे थे। गारदा ने कहा, "वैठो, मुरारी। और तुम भी बैठो न । ऐनी जल्दी क्या है सामान की ?" ___ "तुम चुप रहो । • 'मुरारी, जायो । मुझे ऐसी अाशा न ची तुमसे , मैं यही ठहरगा। सभी सामान मेरा लेकर पा जानो।" । __ मुरारी पन्लग ज्यादे दूर नहीं था। शारदा ने हाथ बढाकर उसे बाह ने पकड़ा और उसी पलग पर बिठाते हुए कहा, "तुम भी बैठ क्यों नहीं जाते हो, कुर्मी पर । और मुरारी, इनकी बात पर मत जाना। क्यो, सामान लाना ही है ? में फिर जाकर ले पाऊगी।" "नही । मुरारी को जाने दो।" "तो अच्छा मुरारी, टमी ले जायो। दो घण्टे बाद नाना । सामान फिर देखा जाएगा।" मुरारी ने जाने से पहले रामगरण को देना। रामदारण तु की तरह राडे रहे । मानो उनकी अनुमति है । मुगगे कुछ देर अनमजा में रहा और फिर चला गया। रामशरण कुछ देर माये मे तेवर माले गरे ही है। फिर वापर पलग पर बैठ गये । माग्दा जरा पर हट गई। "नयो, पना वार है ?" "तुम-पया चाह रहे थे ?" "यह ठीक नहीं है हम लोगो का प्रग रहना । दग जने दगात पहले हैं । और बच्चों पर बुरा भगरा है।" भारदा ने दे। यह उनका पति है। उमसा मन अन्दर जन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्शेप २५ रहा था । और निगाह उसकी कठिन थी । बोली, "पड चुका असर जो पडना था। वच्चे अब बडे हो गए हैं। दस जनो के कहने की फिकर करते हो ! तुमने क्या-क्या कहा है, वह याद नही करते ?" "छोडो उन बातो को।" कहते हुए रामशरण जरा उधर सरके । शारदा परे हट गई । बोली, "आगे न बढना " "क्या मतलब ?" "मतलव अपने से पूछो।" "और मुरारी को वाह पकडकर पास विठा लिया था !...'' "हा, विठा लिया था । दस बार विठाऊगी। पर खवरदार तुम . " रामशरण का उस स्त्री से विवाह हुया था। सात भावरें पड़ी थी। फिर यह उसकी हिम्मत | तेजी से वाह वढाकर उसने शारदा की कलाई को पकड लिया। शारदा उसके लिए एक साथ अत्यन्त कमनीय और भर्त्सनीय हो आई थी। हाथ का छूना था कि एक झटके से शारदा ने अपनी बाह छुडा ली, "खवरदार | जो हाथ लगाया।" रामशरण ने दात पीसकर कहा, "मोह | पारसा बनती है। बदजात, छिनाल कही की।" और कहते हुए फिर उन्होने हाथ फेंका। शारदा तेजी-से पलग से हट गई । बोली, "मै छिनाल सही। पर तुम मुझे नही छू सकते।" ____ "तुझे ' तुझ हरजाईन को । छुए तुझे तो पाप लगे। तैने अपने को समझा क्या है ?" शारदा हस आई । कटीली वह हसी थी । बोली, "यही कहती हूं कि पाप लगेगा, छूना मत।" रामशरण पलग के सिरहाने के करीब थे। शारदा पायते से जरा हट कर खडी हुई थी। उसकी आखो मे चुनौती थी और रामशरण की निगाह में चाहत और नफरत की झुलस थी। "तू अपने को सूबसूरत समझती है। इसी गुमान ने तुझे वहका Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भार, दिया है। पर'... " "मै कुछ हू, पर तुम छू नहीं सकते।" "मै छू नही सकता ? मै तेरी बोटी-चोटी गर राबता हूं। पर छिनाल, सब वता, तेने मुझे रोका क्यो ?" "मैने नही रोपा।" "अब ये नखरे । -मैं तुझे समझ लूगा।" "तो मुनो ! इसलिए रोका था कि मैं तुमने अकेले में भुगत लेना चाहती थी । मुरारी के सामने स्वारी नहीं चाहती थी। मान बोलकर सुन लो। यह गरीर तुम्हे अब कभी नहीं मिलेगा। एक दफे नहीं, दस दफे वह चुकी हू । फिर शमं नहीं पाती तुम्हे कि लार टपपाते पाते हो। भगवान के घर में न्याय है, तो तुम्हे मिट्टी की औरत नहीं मिलेगी। औरत के मन घोडे ही होता है । तुम समभते हो मन तुम्हारे ही है। जो भुगता है, मै ही जानती हूं। कोई और होती तो शपल न देखती। घर तक में कदम न रसने देती। पर तुम तो गरम नाट गये हो । गालग है तुम्हें कि तुम्हारे बच्चे छोटे से पले हैं ? और उन वगत तुम उपदेशप नटे हुए थे। इन्सान को जीना होता है और जिलाना होता है। पहला फर्ज वह है, तुम फर्ज को स्तिाव में प्रोर गास्तर में टाले रहे । ऊपर से बैठ कर गालिया देते रहे और पवर नहीं ली कि जिया जा रहा है तो पिस विधि जिया जा रहा है। जीने में प्रेमा लगता है। तुमने म माया ? पाभी कुछ लिया? पनी गछ दिया ? बस देने की नीति के उपदेश रहे, जो उन्ही से पेट भरना हो । और पपडे उन्हीं को पाट-पाट पर बन जाते हो। तुम्हें इसलिए मैंने गंगा कि प्रागिने वार सुन लो कि तुम जायो अध्यागम मे और परम में रमों। और जगह-जगह जाके उपदेश हावा परो। हमको हमारे भाग पर छोर दो। कोई पता नमी नहीं मागता, कोई तुम पर चोभा नहीं बनेगा। बेटिया गई हन मा-बेटे जैसा होगा रह लेंगे। तुमारे प्राग मोसाथ पसार नहीं मायगा | मैंने एक महा या रि दिल्ली में मुछ याम-धाम देख लो Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्शेष और साथ में खर्चा ज्यादे नही लगेगा । पर वह नही होगा । यहा. दिल्ली मे तुम्हे नौकरी मिल जाए, चाहे कितना ही तुम पाने लगो, मुझे उससे कोई मतलब नही होनेवाला है । मैं साथ नही रहूगी, नही रहूगी, नही रहूगी । मैं हरजाई हू, छिनाल हू, वेसवा हू, पर मरते-मरते तुमसे कुछ कहने नही ग्राऊगी । अन्त समय है । मेरी शान्ति मे तुम विधन मत डालो । तुम्हारा जहा मन लगता हो, धर्म के स्थानो मे, तीर्थों मे जाके तुम भी शान्ति से रहो । और समझ लेना कोई शारदा थी तो वह मर गई ।" रामशरण सुनते रह गए थे । गुम और सुम अन्त मे बोले " तुम्हे मेरे साथ चलना है ।" "नही चलना है " कहता हू, चलना है ।" "नही, नही चलना है ।" "नही चलना है -- नही ही चलना है कहते-कहते रामशरण तडित वेग से आगे बढे और शारदा के गालो पर जोर से चाटा जड दिया । ײן " - २७ शारदा का गाल चाटे की चोट पर तमतमा आया । लेकिन उसमे क्रोध नही हुआ । वह झुझलाई भी नही । एक हाथ ] श्रनायास उसका अपने चोट खाये हुए गाल पर चला गया और मानो तनिक मुस्कराती हुई बोली, "साथ लाश को ले चलोगे ? लाश सडेगी, काम न श्रयगी ।" रामशरण ने कहा, "मैं थूकता हू तुझ पर और तेरी लाग पर । चदजात, रडी " और सचमुच रामशरण ने हलक से थूक निकाल कर शारदा पर थूक दिया और तेज कदमो से मुडकर वह जीना उतरते चले गये । शारदा ने घोती के पल्ले से अपना मुह पोछा । शीशा लेकर गाल की चोट का निशान देखा और सन्तोष की सास ली । जैसे बची हो और जीती हो । जनवरी ६५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथावत जगत्प मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास हुमा । मनोरमा गो यह सुनकर सुख हुना । पर बहुत जल्दी यह चिन्ता में पड़ गयी। मनोरमा एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिया है। महीने गा उसे पहचत्तर रपया मिलता है । इस कस्य ने एक हाई स्कूल भी है और वहीं से जगरूप ने मैट्रिक पिया है । यह तो जैसे-तैसे चल गया। मनोरमा सोबती थी कि मैट्रिक पढ़ लेने के बाद यही पिसी काम-धन्धे में लग लगा जायगा । उगने कुछ लोगो से इस बारे में पहनर भी रखा था। लेकिन उसे डर था । जगरूप पटने में तेज था और मनोरमा गोटर मगा रहता था कि अगर मैट्रिक मे वह बहुत अच्छे नम्बर्ग मे पार हया गो फिर क्या होगा? वर चाहेगा कि आगे पढे, पायद मास्टर लोग भी चाहेंगे । सुद उनके मन में भी यही होगा कि प्रागे पद पर परमागे पढना होगा कसे? अपने पारो तरफ देसनी थी पोर यह टर उससे दर नही होना था। बारह नौदह साल से नन नखे में अकेली रहती है और मास्टरी फरनी है। ममे विशेष अविना नही होती है और प्रानधाम लोगो में उनके लिए अच्छे भाव ।। पर मयने तो कुछ नही होता सब मे है। और पंगे या गवाल पाने पर नागे तरफ शोलकर मन उसपा का ह जाना है। जगरप ने अपने पार होने पी गबरी मी अपनी मा गो सुनाई। आने से पपने अरमान भी बतलाए कि में यह मालेज मे जाएगा, बी० ए० मरेगा, एम० एमगा। पीर गा तुम दुध पियरन परो । गुनार मा उग सलोने जगरूप मो देगनी दी । बोलत Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथावत क्या ? फिकर का पहाड मानो उसके सिर पर पा टूटा था । यही कही, कस्वे मे, काम-धन्धे मे, लग जाता तो चिन्ता मिटती । फर्स्ट क्लास पास हुआ है, तो उसका हक है कि कालेज की सोचे । कालेज यहा कहा वरा है ? और यह जाना चाहता है इलाहावाद । इलाहाबाद की जगरूप ने बडी महिमा बतायी थी । जरूर इलाहाबाद की पढाई ऊची और बढिया होती होगी। पर इलाहावाद ? यह सब भाव मनोरमा के देखने मे था । जगरूप कैसा होनहार लगता है । सच वह मा के सकट काटेगा । लेकिन इलाहाबाद ? वहा के कालेज की पढाई ?? उसने कहा, "मैं आगे तुझे कैसे पा सकती हू, बेटा ? बाहर तो खर्चा बहुत होगा।" ___ "खर्चा तो होगा मा । पर आगे की भी तो सोचो कि बेटा तुम्हारा ऊचा अफसर बनेगा और फिर कोई कष्ट तुमको नही होने देगा।" उतने आगे की मनोरमा नही सोचती है, सो नही। कितना सुख होगा उसे कि बेटा अफसर होगा और मा घर मे राज करेगी। पर मन वहा जाकर ऐसे रमता है जैसे सपना हो । आख खुलने पर वह एकदम दूर हो जाता है और मालूम होता है कि उसका न सोचना ही अच्छा है । "मैं तो कर नही सकती हू "वज़ीफे मे तेरा नाम नहीं आया है ?" "नही, दो पोजीशन कम रह गए है।" "और भी तो लोग वज़ीफे दिया करते है ? कोशिश कर देख ।" "वह तो कर रहा हू मा । लेकिन कहते हैं सिफारिश चाहिए।" "तेरे मास्टर लोग सिफारिश नही कर देंगे?" "वह तो सब करने को तैयार हैं, लेकिन कहते हैं कि सिफारिश बड़ी चाहिए।" "तो फिर ? अगले साल देखा जायगा। मैने यहा उन फीचर वालो मे कह कर रखा है । तीन-चार महीने तो काम सीखना होगा, फिर वे कुछ देने लग जायेंगे । ऐमें बहुत ही पढना चाहे तो पैसा जमा । मैने यहा झालना होगा. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवां भाग करके आगे पढ़ भी सकते हो तुम ।" जगरूप ने कहा, "अच्छा ।" लेकिन मरे मन से यह 'अच्छा' उसने कहा था। मनोरमा न जानती हो सो नही, पर क्या कर सकती थी। सच पूछो तो बेटे का मन जितना गिरा था, उससे कही गहराई मे उसकी मा का मन जा पहुचा था। उसको अपनी वेवसी इस वक्त बहुत ही चुभ रही थी। अपना अतीत उसके लिए सब व्यतीत हो चुका था। पर इस हालत मे वही उखड-उखड कर उसके सामने आने लगा और उसमे से नाना सभावनामो की चिनगारिया भी चमक देती हुई फटने लगी । पर वह संभावनाए जब थी, तब थी। अब तो सव सपाट हो गया है और आगे कुछ भी नही है। जगरूप 'अच्छा' कहकर वहा से चला गया था। मा मन मारे बैठी रह गई थी। अतीत उससे कट चुका है। जगरूप को उसे देकर वह स्वय मिट गया है । लेकिन क्या मिट हो गया है ? जगरूप के बाहर क्या उसका कुछ भी अब वर्तमान नहीं है। उसकी स्मृतिया जाती हैं और लौट आकर सिर्फ उसको मथ कर रह जाती हैं। ऐसे दिन निकलते गए । जगरूप का हसना-खेलना बन्द हो गया। ज्यादातर घर से बाहर ही रहता । घर मे दीखता तो उदाम और मलिन । वह मा से कुछ न रहता था । लेकिन एक-एक दिन वह गिन रहा था और उसकी निगाह में वह तारीख थी, जो कालेज के दाखिले के लिए फारम जाने की प्रतिम तारीख थी । उसने चुपचाप फारम मगाकर बड़े सुन्दर अक्षरो मे भर कर अपने पास रखा हुया था । वह निराश तो था लेकिन इधर भगवान का भरोसा भी उसमे होने लग गया था। भगवान सब कुछ कर सकते है । विलकुल हो सकता है कि एक दिन वह उठे और तकिए के नीचे उसे फीस के पूरे स्पये रखे मिल जाए ! क्यो नहीं हो सकता है ? जस्त हो सकता है । भगवान की कृपा से इससे वडी वडी बान हुई हैं । यह तो भगवान के लिए एकदम जरा मी वात Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथावत है । भगवान का भरोसा उसमे इतना हो गया है कि तकिए के नीचे रोज़ टटोल लेता है । पर यह क्या जरूरी है कि रुपये तकिए के नीचे ही रखे जाए ? इसलिए दिन जाते-जाते वह इधर-उधर पाले मे या खाट के पास या खाट के नीचे भी रुपए के लिए देखने लगा है । उसकी याद मे वह तारीख वरावर उभरती जा रही है कि जो दाखला फारम के लिए आखिरी है । उसे कभी होता है कि भगवान को तारीख की याद न रही तो कैसे होगा ? पर धत्, ये कैसे हो सकता है । भगवान मे भूल कैसे हो सकती है ? कमी भक्ति मे रहे तो दूसरी बात है। भगवान सब जानते है और सबके सहाय होते हैं । मैट्रिक तक की पढाई कम नहीं होती है। इतने मे लडका अच्छी तरह जान सकता है कि भगवान कोई नहीं होते, कहीं नहीं होते । वल्कि यह जान तो उससे पहले भी हो जाना चाहिए । जगरूप को यह सब मालूम है । भगवान का भेद मालूम है कि ढकोसला है। उसका विषय विज्ञान है कि जिसके हाथ मे सृष्टि का रहस्य है । फिर भी भगवान क्यो नही हो सकते ? मान लो अगर हो, तो ? मतलब कि ठीक तारीख से पहले भगवान पर भरोसा रखने से वह चुकेगा नही । तारीख अकारथ गई तो फिर ते है ही कि क्या सच है, क्या झूठ ! ___जगरूप अपने मे रहने लगा। मा से कहने को उसके पास मानो अव कुछ बचा नहीं है । उसकी तकदीर अलग है और मा उसमे कुछ नहीं कर सकती। मां इस सग्रह बर्प के जगरूप को एकाएक पानी है कि वह उसकी समझ से वरवस वाहर हो गया है । उसका हाल ही नहीं मिलता। पहले सव तरह की शिकायते उसके पास लाया करता या और तरहतरह के उलाहने । अव अपने मे समाया रहता है और जाने किस धुन में रहता है । उसके अदर इस बात पर एक गहरी उदानी घर करती जाती थी । जैसे अदर से कुछ खोखला हुआ जा रहा है। जैसे बरवस उससे कुछ छीना जा रहा हो । उसने कहा- 'जग्गी, वेटा, इतने न हो Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग कुछ काम ही कर लो । मै कहू उन लोगो से ?" "नही मा, भगवान कुछ अवश्य करेंगे ।" जग्गी बेटे ने उत्तर दिया और वह मा की उपस्थिति से भटपट अलग हो गया । मनोरमा भगवान को मानती है । पर क्या वह सचमुच कुछ करते है ? अभी तक तो कुछ करते उसने उन्हे देखा नही है । जगरूप का, भगवान का भरोसा उसे अन्दर तक काट गया । उसे ऐसा लगा कि जैसे यह उसका भगवान का भरोसा सिर्फ इसकी घोषणा है कि मा का भरोसा तो अब किया नही जा सकता ! मनोरमा इस पर गहरी पीडा से भर आई और उसकी आखो मे आसू आ गए । मे अकेली थी । श्रासू कब तक बहाती किसके लिए बहाती ? अत हठात् और मानो व्यस्तता के साथ इधर की चीज उधर और उधर की इघर उठाने-धरने लगी । इसी मे उसने यह देखा, वह देखा, और अपने सव ट्रक-वक्स खोल-खोलकर बन्द करने लगी । अन्त मे एक ट्रक के आगे, उसकी चीजो-कपडो को उठाते - पटकते के बीच, वह वैसी की वैसी बैठी रह गई । दो-चार छ-आठ मिनट वह ट्रक का एक हाथ से पल्ला पकडे, सामने अवर शून्य मे टक बाधे वस देखती रह गई । उसकी सुध जाने कहा गई थी और वह समाधि मे हो आई थी । अन्त मे उसने ट्रक की तलहटी मे से एक कागज में लिपटा और रेशमी विन से वधा पैकिट बाहर निकालकर अपनी गोद मे रखा । और फिर बेहद श्राहिस्ता और सभाल के ट्रक का सामान ट्रक मे चिन दिया । अव उसमे एक समाहित भाव था । मानो अवर मे पाव कही टिक आए हो । नगरप के आने पर मनोरमा ने कहा, "बेटा, दाखिला कव होता है ?" ?" जगरूप ने मा को देखा और प्रसन्नता से कहा, "क्यो, मा "कुछ नही, भागलपुर चलना होगा ।" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथावत "भागलपुर ?" "हा, वखत देरा के बता कि रेल कब-कब जाती है ? और ले यह ज़रा दो टिकट वहा के ले आ।" __जगरूप ने फिर मा को देखा । भागलपुर दूर जगह है और काफी खर्चा होगा। भागलपुर का कभी उसने जिक्र नहीं सुना है--फिर यह मा को क्या हुआ है ? लेकिन उसकी मा के चेहरे पर कुछ वह था कि जिसके आगे प्रश्न का अवकाश नही रह जाता है । ___ वह रेल मे जा रहा है और उसे कुछ नही मालूम है । मा चुप है और एक शब्द नही बोलती है । उसने बार-बार प्रश्न किया है और मा ने मानो सुना तक नही है । मा की दृष्टि स्थिर है और उसमे कोई गति नहीं है । जगमोहन अपने सामान मे फारम वगैरह लेता आया है । उसके मन मे है कि भगवान काम कर रहा है। भगवान के अजव ढग है । लेकिन मा को देखकर उसे सशय होने लगता है कि सब ठीक है कि नहीं। मा से एक भी शब्द पाना उसके लिए सभव नही हुआ है । यह सब उसके मन को हिला देता है। उसे आगे पढना है और जरुर पढना है । लेकिन मा को क्या हुआ है ? भागलपुर गाडी वडे वेवक्त पहुची थी । रात को उतर कर मावेटे मुसाफिरखाने मे सो गए और सबेरे उठने पर मा ने कहा, कि बेटा तुम सामान के साथ ही सावधानी से रहना । यह पैसे लो, कुछ खा-पी लेना । मै अभी थोडी देर मे आती है। ___मा की वही मुद्रा थी और जगरूप कुछ भी उनसे पूछ नही सका। पूरा दिन अभी नहीं निकला था और मा पाव-पैदल उसके सामने से बढती चली गई और वह उन्हें देखता सामान के साथ बैठा रह गया ! मनोरमा ने कुछ दूर चलने पर रिक्शा लिया और पूछती हुई वह सोचे भागलपुर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के बंगले पर पहुची । वहा उसको प्रवेश तो मिल सका लेकिन मालूम हुआ कि साहब को डेढ-दो घटा लग Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग सकता है, अभी बैठना होगा । मनोरमा बरामदे मे जो स्टूल बताया गया, उस पर शान्ति के साथ बैठकर इन्तजार करने लगी । आजकल अनिश्चित दिन है और शासन को कसा रहना पडता है । वर्मा साहब यू भी परायण और योग्य समझे जाते हैं। वह काफी सवेरे उठ जाते है और तैयार होकर मेज पर श्रा जाते हैं । श्राते ही एक कप चाय का लेकर दो ढाई घंटे तक लगातार काम करते है । इस काम के बीच उन्हे व्याघात पसन्द नही होता । इसीलिए कहला दिया गया कि डेउ घटा लग सकता है | लेकिन बीच में घटी बजाकर प्रर्दली से उन्होने पूछा, "आए है जो साहब, बैठे है न ? उन्हे कोई जल्दी तो नहीं है ?" "जी, नही बैठी है ।" "कौन ? स्त्री है ?" | 3, "जी, हुजूर "तो" अभी जरा बैठेंगी। माफी माग लेना कहा विठाया है " बैठक मे बैठेगी।" अर्दली ने विशेष चिन्ता न की । और बरामदे मे स्टूल पर मनोरमा बैठी रहने दी गई । थोडी देर डी० एम० श्रपना काम करते रहे । फिर हाथ उठाकर कुर्सी के पीछे टिके, अगडाई ली और एकाएक मडे होकर चले और अपनी वैठक मे प्राए । बैठक मे कोई न था । लोटकर उसी मेज पर आए और घटी दी । अर्दली के थाने पर उसे उन्होने शेप से देखा और वहा, "उन्हें भेज दो ।" मनोरमा आकर झुकी और सामने की एक कुर्सी पर बैठ गई । "कहिए, मैं क्या कर सकता हू थापके लिए ?" मनोरमा ने उठकर रेशमी विन से लिपटा वह पैक्टि डी० एम० के सामने किया । डी० एम० ने आभार मानते हुए .... पैकिट लिया और मेज पर एक Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथावत ३५ ?" तरफ रख दिया और कहा, "सेवा वताइए - मैं क्या कर सकता हू मनोरमा चुप वैठी रही । वह गहरे असमजस में थी । ऐसे एक-दो मिनट बीत गये | डी० एम० उसे देख रहे थे । उसने धीमे-धीमे कहना शुरू किया, "मेरा एक लडका है । सत्रह वर्ष की अवस्था होगी ।" डी० एम० देखते रहे । एकाएक वोले, "आप यही रहती हैं ? भागलपुर जिले मे ?” "जी, नही । दूर से आई हू | भाया है | श्रागे पढना चाहता है ।" लडका मैट्रिक मे फर्स्टक्लास डी० ० एम० देखते रहे । वह कुछ याद करना चाहते थे । याद मदद नही कर रही थी । अनायास बोले, "भागलपुर जिले की आप नही हैं?" "नही । " " तव तो " कहते हुए, श्रनायास उनका हाथ पैकिट की तरफ बढा थोर खीच कर उन्होने उसे पास लिया । उगलियो से रिवन को खोलते हुए बोले, "इस जिले की होती तो शायद मे कुछ कर सकता था । ग्रव निज निजी तौर पर कुछ दे भी सकू, ज्यादे इन्तजाम तो मुश्किल है ।" मनोरमा कुछ वोली नही । वह पैक्टि को खोलती हुई डी० एम० की उगलियो को देखती रही । "ग्रापका शुभ नाम ?" " जाने दीजिये ।" रिवन खुलने पर उन्होंने कागज हटाया । उसके अन्दर फिर एक कागज की तह को हटाया । आखिर सवसे अन्दर की तीसरी कागज की तह को सोला और नीचे जो चीज निकली उसको क्षण एक देखते रह गए । मानो समझ न पा रहे हो । मनोरमा ने उस निगाह को देखा । तेजी से उठकर वह गई और उसने दरवाजे की चटकनी अन्दर से बन्द कर दी। दूसरे दरवाजे को भी बन्द कर दिया। अब वह फिर अपनी कुर्सी पर श्रा गई बोली, "मैं मनोरमा हू ।" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग "मनोरमा । • यह क्या है ?" "अगिया है।" डी० एम० खडे हो गए। बोले-"यह क्या बदतमीजी है ?" उठकर वह खुद गए और देख लिया कि हा चटकनी वन्द है । दूसरे दरवाजे की भी बन्द है। वह फिर अपनी जगह पर आ गए और खडे रह गए । अब उन्होने मनोरमा को देखा-क्या सच, वह मनोरमा थी । वह यकीन नहीं करना चाहते थे। उसके लिए काफी अवसर भी था। बोले-"यह क्या तमाशा है ? ___मनोरमा ने धीमे से कहा-"मेरे पास इसमे कीमती उपहार दूसरा नहीं था। यह वही फटी अगिया है !" "मनोरमा ।" "नहीं, मैं याद दिलाने नही आई । लज्जित करने भी नही आई हू । उमसे क्या मिलेगा--तुम्हे या मुझे ?" "मनोरमा !" "मैं तो जान-बूझ कर दूर हो गई थी। मा-बाप से और तुमसे । तुम्हारे साथ बधकर तुम्हे रोकती और खुद को भी बोझ वनाती, क्या फायदा था उस सबसे । “अब वेटा सनह वर्ष का है। जगरूप नाम रखा है। नहीं तो क्या, जग का रूप तो है ही । फर्स्ट क्लास पाया है। आगे कालेज में पढना चाहता है। मेरे पास इन्तजाम नहीं है । तुम्हे कष्ट न देती, पर वह बहुत पढना चाहता है और " "वह जरूर पढेगा । जहां तक चाहेगा पढेगा । पर तुम गायव कहा हो गई थीं मनोरमा? मैंने बहुत याद किया।" "किया ही होगा।" "अब तुम क्या कर रही हो?" "नौकरी कर रही हू, पढा रही है।" "तुमको दया नही आई मुझ पर ? कि.. " "प्रेम मे दया कब होती है 'तुम दया नही कर सकते थे, मै दया नहीं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथावत BO कर सकती थी। दया मे एक दूसरे को हम भरते नही, मारते ही रहते । वह कैसे हो सकता था। तुमसे नहीं हो सकता था-मुझसे नहीं हो सकता था । अव भी दया नही है जो मागने आई हूँ। जगरूप मेरा है, वैसे तुम्हारा है।" "कहा है ?" "स्टेशन पर छोड आई हूँ।" "स्टेशन पर ? 'तुम कितनी बदल गई हो मन्ना ।" "नही, बदली नहीं है। यह अगिया तुम रखोगे या मेरे पास रहने दोगे?" "मैं उस दुस्साहस की क्या अब माफी माग सकता हू ?" "वही प्रेम की निशानी है । साहस नही जिसमे वह प्रेम होता भी है ?-लाओ, मुझे दो।" ___मनोरमा ने उसी ऐतिहात से फटी अगिया को कागज की तीन तहों मे लपेटा और रिबन से बाधा । डी० एम० देखता रहा। ___ बस । · और आगे कहानी की आवश्यकता नही है । कारण, जगरूप इलाहावाद कालेज में पढने चला गया, और मनोरमा अपनी प्राइमरी कन्या शाला मे आ गई, और भागलपुर के डी० एम० अपने प्रशासन के काम मे व्यस्त रहे चले गए। दिसम्बर '६४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छेद एक बुजुर्ग वहुत दूर से आए हैं। सिर्फ इसीलिए थाए है। परिवार के हितैषी है और जब सकट की बात सुनी तो उनसे रहा नही गया । दो-तीन रोज भी वडे बैचेनी से कटे । ग्रत मे वायुयान से यहा श्रा पहुचे । उन्होने एकान्त मे सविता से पूछा, "सवि । तुम वहू हो, लेकिन उससे भी अधिक मेरे लिए वेटी हो । सुनता हू बात जरा सी है, उसको मान जाती तो क्या हरज था ? तुम लोगो के परिवार की क्या जगह है, तुम जानती हो । वह टूटे, इसको कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है । कहो, मेरी एक बात रख सकोगी ?" सविता गुमसुम बैठी रही, वह कुछ न बोली । पैंतीस वर्ष की अवस्था होगी। दो बच्चो की माता है । कन्या का विवाह भी हो चुका है । फिर भी वह कुछ नही वोली । बुजुर्ग कुछ देर तक उत्तर की राह देखते रहे । फिर आप ही वोले, "मैं जानता हूं, तुम्हे इस समय कितना कष्ट होगा । श्रवश्य कुछ गहरी वात होनी चाहिए कि तुम मान नही पाती हो । मैंने सुना है, सारा परिवार असहमत है । तुम अकेली पड गई हो अपनी बात मे । जरूर उसमे कुछ सत् होगा कि तुम अकेली सबके सामने टिक सकी हो । लेकिन वेटा, घर की इज्जत बड़ी चीज होती है । उसमे मन को थोडा झुकाना पडे, तो इसमे कुछ हरज तो है नही । वल्कि इसी मे गृहिणी की शोभा है । हमारी भारत की संस्कृति पारिवारिक है । इसी से वह सब तरह की परिस्थितियो के इतिहास मे मे अब तक समयं बनी चली भाई है। परिवार मजबूत नही है तो समाज श्राप ही विसरा हो जाता है । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छेद पश्चिम का समाजवाद कुछ उनकी वहुत मदद नही कर पा रहा है । वह तो उद्योग-व्यवसाय का युग है और हमारे जैसे पिछडे देश उनके लिए मडी बनने को तैयार है तो ही वह समाज टिका हुआ है, नही तो आर्थिक एक भी धक्का वह सह नही सकता । क्योकि उन्होने व्यक्ति और समाज के प्रश्न के बीच मे परिवार को निर्वल बना दिया है । हरेक अगर अपने को माने और आजाद माने तो उस तरह परिवार की एकता कैसे रह पाएगी? मिलजुल के चलते हैं तो इसमे कुछ झुकना भी पडता है । इस झुकने मे तो वल्कि कृतार्थता है । क्योकि प्रकृति मे एक इसान ही है कि उसको गर्दन सीधी मिली है । अब यह उसकी सस्कृति है कि स्वेच्छा से वह उसे झुकाए ।" ___ सविता सुन रही थी और उपदेश उसे अच्छा नहीं लग रहा था। बल्कि इस परिस्थिति मे दुत्कार उसे पसन्द आ सकती थी, और समझ भी पा सकती थी। वह अब भी कुछ नही बोली। बुजुर्ग बोलते गये, "तुम्हारे स्वसुर की तुम्हे याद दिलाऊ । कितने वडे आदमी थे। सव उन्हे अादर्श के तौर पर मानते है । मैं तो जोह, उन्ही का बनाया है। सच बताओ, बेटी, क्या बात है ?" सविता अव भी कुछ नहीं बोली तो उन्होने हाथ बढाकर उसके सिर पर रखा और कहा, "बोलो, बेटी, बोलो।" । सविता का जी अब कुछ पसीजा । वोली, "कुछ नही।"] "ऐसा मुझे न कहो बेटी । कुललक्ष्मी के यही लक्षण हैं। घर की बात वह किसी तरह वाहर नहीं जाने देती है। लेकिन मुझे भी गैर मानकर बात करोगी तो कैसे होगा। कुनबे मे बड़े छोटे का लिहाज रखना हो सकता है । मेरे लिए वह वात नहीं है। केशव को मैं डाटफटकार भी सकता हू । जानता हूं, ऐसे में अक्सर वीतती स्त्री पर है, दोप पुरुष का होता है । सौभाग्य की बात है कि अब तक केशव मेरा मान कुछ रखता है। वैसे बहुत हैकड है यह सच है, और मैं अनुमान फर सकता हूं कि क्या कुछ तुम्हे सहना पडता होगा। इसलिये तुम Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग खुलकर कह सकती हो, जो भी वात है !" बुजुर्ग का हाथ फिर सविता के सिर पर चला गया था । वह सिर नीचा किये साडी के छोर को माथे के जरा आगे तक लाये बैठी थी और ऊपर की ओर नही देख रही थी। माथे पर उसके बडा-सा विन्दा चमक रहा था। सविता ने आहिस्ता से रूमाल से अपने को रोका मानो वह सुबकने के निकट आ गई हो। कोशिश से कहा, "कुछ नहीं।" बुजुर्ग का भी जी भर आया । बोले, "इससे पहले मैने केशव से वात कर ली है । मैंने कहा तो नहीं है, लेकिन अगर चाहो तो मैं उसे तुमसे माफी मागने के लिए कह सकता है। उम्मीद है वह मेरी बात रखेगा । वैसे इतनी सी वात कि किशोर घर न पाये और तुम साथ न जाग्रो, कौन ऐसी बहुत बडी है ? तुम्हारे बारे मे मेरे मन मे तो कभी सन्देह हो नही सकता । लेकिन कुल की पान के लिए ऐसा तुमसे आश्वासन चाहा भी जाए तो इसमे बेटी कोई बहुत बडी अपमान की बात तो है नही । मानता हू, इसमे अविश्वास है और अविश्वास मे अपमान भी थोड़ा-बहुत शामिल है ही । लेकिन अपवाद भी तो कोई चीज है । अविश्वास न भी हो तो लोकापवाद के कारण ऐसा चाहा जा सकता है । किशोर को थोडा मै भी जानता हू। कोई ऐसा अनिवार्य श्रादमी तो वह है नही, तुम्हारी रुचि के योग्य भी किसी तरह नहीं है । " इस स्थल पर पाकर सविता एकाएक बोली, "मुझे घर मे निकाल क्यो नही दिया जाता जो ऐसे सताया जा रहा है।" वुजुर्ग कहते-कहते झटका खाकर एकदम रक गये । सविता का मुख ऊपर उठ पाया था। ग्राखो मे के भरे आसू अब तक पूरी तरह सूग नही पाए ये । लेकिन तो भी एक आवेग की रेस उन पासो मे दीपने लग गई थी। वह धवराये से बोले, "नहीं वेटी ! ऐमा अशुभ नहीं बोलते । कुललक्ष्मी के जाने से कही फिर कुल बचा रह जाता है क्या ? नहीं नहीं, शिव, शिव ! ऐसी बात मन में भी कभी नहीं लाना। कोन Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छेद सता सकता है तुमको । मुझे कहो, में केशव को हर तरह मीधा कर सकता हूँ। "बस जरा कुल की लाज की बात है। उस बारे मे बडे लोग कुछ वचन भी तुमसे चाहे, तो उसमे तुम्हारी तरफ से तो मैं कोई कठिनाई नहीं देखता हूँ।" "वचन । कैसा वचन ?" सविता के माथे पर लाल बिन्दी समक्ष बनी बैठी थी। विन्दी नही, बिन्दा ही कहना चाहिए । माथे का काफी भाग उसने घेर रखा था। उसका आवेश उस सुहागबिन्दु के प्रतिकूल नहीं मालूम हुआ। बोली, "कैसा वचन आप मुझसे चाहते है ?" बुजुर्ग ने कहा, "नही बेटी, नही । देखो, गलत नहीं समझा करते । तुम्हारे मान पर इसमे बीतती है, यह मैं देख रहा हू । लेकिन अगर इतने से सबको आश्वस्ति मिलती है, तो तुम्हारा उसमे क्या जाता है ?" अब उन पाखो मे किसी तरह का भीगापन नहीं रह गया था। वल्कि सख्ती पाती जा रही थी। बुजुर्ग अनुभव कर रहे थे कि कही कुछ गलत हो रहा है। लेकिन मानो वात हाथ से निकलती जा रही थी। कुछ यह भी लगा कि इस तरह अन्दर को भभक निकले तो अच्छा सविता ने कहा, "मैं घर में रहती है। घर से बाहर मेरी तो पहरेदारी नहीं है । जिसको चाहे बाहर से ही रोक दिया जा सकता है । मैंने उस बारे मे कुछ कहा है ? लेकिन यह मैं कभी नही कर सकती कि घर के अन्दर कोई आए और मैं आतिथ्य न दू । जिसको यह घर नहीं चाहता है, उसको बाहर ही बाहर क्यो नही रोक दिया जाता है ?" __"इसमे तुम्हारे मन पर दबाव आए, यह तो घर का कोई आदमी नहीं चाहता, वहू रानी।" "फिर ये क्या चाहते है ? रोक दें जिसे रोकना चाहते है। फिर मैं शिकायत भी करू तो कहे । लेकिन पाने खुद देते हैं, चाहते हैं मुझसे कि अनादार मै करू । यह नहीं हो सकता। किशोर हो कि कोई हो, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेंद्र को कहानिया दसवा भाग मे तो यह नही हो सकता । मैंने उन्हे नही बुलाया है । मैं माथ गई शुरू अपने से नही गई, भेजी गई तो गई। फिर मुझ पर क्या इल्जाम है, मालूम तो हो ।” "लेकिन सुनता हू, हठ तुम्हारी है कि अलग होगी..." ( हा है | लेकिन वह दूसरी बात है ।" "इससे उसका कोई सम्बन्ध नही है ?" ४२ · "ना कोई सम्बन्ध नही है । वल्कि इस अपवाद के मुझे उल्टे रुकना पड रहा है । अब तक तो मुझे जाना चाहिए था ।" कभी का बुजुर्गं यह सुनकर दुविधा मे रह गए। उन्होने सविता को देखा । उसके चेहरे पर मलिनता नही थी, कठोरता थी । जैसे क्षमाप्रार्थना न हो, अभियोग हो । दोप स्वीकार की जगह, दोपारोपण हो । कारण तो अलग हो " बुजुर्ग ने कहा, "सविता वेटी ! मैं समझ नही पा रहा हू, ठीक तरह से । किशोर की बात को मैं समझता था, जड मे है । लेकिन "वह यही कहते थे ग्रापसे ?" ." "हा, केशव यही कहता था सुनकर सविता ने कुछ नही कहा । थोडी देर मानो सोच मे एकदम चुप बनी रही । फिर बहुत धीमे-जैसे मेरे सुनने के लिए न हो, उसने कहा, "तो ठीक है ।" और कहकर ऐसी चुप हो गई कि मानो आगे किसी के लिए कुछ नही बचता है । 1 बुजुर्ग को भी ऐसा लगा कि बात चारो तरफ से सपाट कट चुकी है । "नविता अव सूत्र कही शेप नहीं रह गया है । तो भी हठात् वोले, मुझे इतना बताओ कि किशोर को अपने जीवन से तुम बाहर मान सकती हो ?" उत्तर में मानो रोप में सविता ने अपने उन हिर्नपी बुजुर्ग की तरफ देसा । मानो अपने को उसे रोकना पड रहा हो। उगने यहा, "अपनी जिन्दगी में मैने लिया नही है और बाहर करने का गवान नही Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छेद ४३ है । कह दीजिए उनसे, कि उनका हक है कि किशोर को या किसी को अपने घर से हमेशा के लिए बाहर कर सकते है और मैं इसमे कोई नही हू, और मुझे कोई एतराज नही है । इससे आगे — मुझसे कुछ न कहा जाए, आप भी न कहे ।" "तो वह तुम्हारी जिन्दगी मे नही है ?" सविता ने सामने बैठे उन बुजुर्ग की ग्राखो मे देखते हुए कहा, "आपने दुवारा पूछा है । दोवारा कहती हू, नही है ।" बुजुर्ग ठिठक रहे । फिर उवर कर वोले " तो यह सब क्या बखेडा है ? मैं केशव से कहूगा, सबसे कहूगा कि नाहक क्यो तूफान खडा कर रखा है। बेटी, तुम घबरानो नही, सक ठीक हो जाएगा ।" सविता ने कहा, "क्या ठीक हो जाएगा ?" 1 "अपवाद यह जड़ मूल तक न रहेगा । और तुम्हारा मान पहली की तरह प्रतिष्ठित रहेगा ।" "मेरा मान ।" कहा और धीमे से वह हसी । बेहद कड़वी वह हसी थी । बुजुर्ग के मन मे वह हसी कौती-सी चली गई । एकाएक बोले, "क्यो बेटा, सवि ! क्या बात है। "कुछ नही ।" "क्यो, मैं तुमको कहता हूँ कि किशोर की बात जो अव यह साफ हो गई है तो तुम्हारी प्रतिष्ठा कुललक्ष्मी की तरह होगी और में इसका जामिन वनता हू |" सविता खिला खिला पडी । ऐसी तीखी वेधक हमी का सामना उन वुजुर्ग को कब करना पडा था ? बोले, "क्यो, तुमको विश्वास नहीं होता ?" ܪܕ "उस सवको आवश्यकता नही है, उपाध्याय जी । मुझको तो अलग रहना है ।" Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग बुजुर्ग को सहसा कोष सा आया, "तो यो कहो कि जिद तुम्हारी है ?" सविता ने कहा, “जी हा, यही कहिये कि जिद मेरी है ।" "लेकिन क्यो?" "मुझे कुछ नही ।" और कहकर उसने आखें नीची कर ली। उपाध्याय जी को कुछ सधान न मिल रहा था। वह मन मे पूरा विश्वास लेकर चले थे। विश्वास का अधिकार भी था । कारण, परिवार के सब लोगो का उनके प्रति सम्मान का भाव था और वह निस्पृह हितैपी थे। उन्होने केशव से बात की थी, उसकी माता से बात की थी, भाई से वात की थी और कहीं किसी तरह की अडचन अनुभव न की थी। परिवार के सब लोग छोटे-मोटे स्सलन तक को दर गुजर करने के लिए तैयार थे । केवल आगे के लिए आश्वासन चाहते थे। किशोर का नाम लोकापवाद का कारण बन रहा था । सविता के सम्बन्ध मे उपाध्याय जी को पूरा विश्वास था और वह मानते थे कि अवश्य कही गलतफहमी हुई है। किशोर मे कोई विशिष्टता न थी । सविता परिष्कृत रुचि की महिला थी। सविता के पास आते समय उन्हें विश्वास था कि बात को सुलझते कुछ देर न लगेगी। सविता से मिलकर उन्हे विश्वास हो गया था कि किशोर की बात मे ज्यादे दम नहीं है। मविता स्वाभिमानिनी है, इसलिये उसड सकती है। और फिर उगको अटिगता को गवर समझा और समझाया जा सकता है। अवश्य यही बात हुई है। - लिये यदि एक अोर से वचन पाने का आग्रह रहा है तो दूसरी ओर में वचन न देने का आग्रह वन पाया है। इसी पर बस दोनो और गे या कसती गई है और टूटने का विन्दु पापहुना है। लेकिन उस बात के बाद भी कुछ है, ऐसा उनको अनुमान न पा । इसलिए पहले तो वह कुछ अचरण मे रह गए, फिर जब उस दिगा में भागे करने की वही कोई राह न मिली तो उनमें आवेश हो पाया। उन्होने पहा, "जिद तो अच्छी चीज नहीं होती है, सविता बेटा । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छेद केशव को मैं हर तरह से समझा सकता है। बतायो न, ऐसा क्या है ?" "कुछ नही ।" "फिर भी, तुम्हारा यही निश्चय है कि साथ तुम नही रह सकती ?" "जी " उपाध्याय जी सुनकर अपने मे चप और बन्द रह गए। अव उनमे दूसरे प्रकार के विचार आने लगे। मानो प्रश्न पारिवारिक और सामाजिक न हो , वह सस्कृति से कम और प्रकृति से अधिक सम्बन्ध रखता हो। कुछ देर वह अपने में ही सोचते रह गए। फिर एकाएक बोले, "देखना सविता, शरम न मानना । तुममे मार-पीट तो कभी नहीं हो जाती ?" सविता चुप रह गई । बोली कुछ नहीं। उपाध्याय जी के मन में सहानुभति जगी। चोले-"ऐसा हो तो भी घबराना नहीं चाहिए बेटा । प्यार में ही ऐसा हो पाता है। नहीं तो हममे मे शिप्ट कौन नहीं है, और कौन अशिष्ट शब्द तक बोल पाता है ? समझती तो हो वेटी।" । सविता चुप सुनती वैठी रह गई। उपाध्याय जी कुछ रुके, फिर वोलते गए, "जिन सम्बन्धो मे कही कोई तीसरा नही पा सकता है, वहा फिर व्यक्ति का कुछ भी पीछे नही रह जाता है, खोटा-खरा सब कुछ सामने या जाता है। पतिपली सम्बन्ध वही परिपूर्ण सम्वन्ध है। इसमे निर्लज्जता मे भी लज्जा - नहीं लगती है। दोनो परस्पर मुक्त हो पाते हैं। एकदम नियमो से ऊपर । प्रादमी इसमे असभ्य बने तो भी उसे चिन्ता नहीं होती है। यह अचूरा नही, पूरा सम्बन्ध है । और इसलिए उसे सहारना अामान नहीं है। वडी परीक्षा का काम है। विवाह का धर्म सबने कटिन धर्म इसीलिये है। ब्रह्मचर्य और सन्यस्त इसीलिये गृहस्थ आश्रम के मुकाबले खेल जमे हैं । सविता बेटी, तुमको कहता हू, कि इससे बड़ी वैतरणी दूसरी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग नही है। इसे जो तिर सका, उसके लिए फिर कोई संतरण बडा नही रह जाता है | पति-पत्नी एक दूसरे को चाहते है, यह तो सब जानते हैं । लेकिन उससे सच यह है कि वे एक दूसरे को सहारते सहते हैं । अपना निकृष्ट तो वे कही और समाज-ससार मे जाकर डाल नही सकते, सो उसका वे एक दूसरे पर फेंकने को मजबूर होते है । यह तो सविता वेटा, इस सम्बन्ध का वरदान है । इसमे घवराना नही होगा । सुनती हो न ? घबरा कर उस सम्बन्ध को तोडना नही होगा । वयो, बेटी सविता ?" सविता चुप बनी रही । उपाध्याय जी उस मौन के अर्थ का कुछ अनुमान न कर सके । बोले, "तो मैं अब समझू न कि सब ठीक है ?" सविता अव भी चुप रही । "क्यो वेटी ? इतनी ग्राश्वस्ति मुझे नही दे सकती हो ?" "मुझे साथ रहना नही चाहिए, यह धर्म के विरुद्ध होगा ।" "धर्म के विरुद्ध ?" "जी ।" "मैं उपाध्याय हू । धर्म में भी कुछ जानता है । विच्छेद धर्म नही है ।" सविता ने ऊपर देखा । विन्दी भाल के बहुत भाग को घेर कर लाल लाल दमकती वहा बैठी थी । उपाध्याज जी को ग्रामो के बिल्कु सामने वह रक्ताकार बिव बड़ा होता चला गया। जैसे नया उगता पूनम का चाद हो । सविता ने कहा, "मैं पत्नी हू । मुझे धर्म पत्नी होना चाहिए । उम चर्म को समझना मेरा धर्म है और मैं आपको बहती हू कि साथ रहना धर्म होगा । मैं नाय नहीं रह नक्ती ।" उपाध्याय जी एकाएक बोले, "सविता ।" उस सम्योधन में मानो क्या कुछ नहीं था । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छेद पर सविता चुप की चुप बैठी रह गई । मानो धर्म का निर्णय हो चुका था और अब ग्रागे कुछ शेष नही वचता था । ४७ उपाध्याय जी ने बहुतेरा वल अन्दर से खीचा | धर्म का, नीति का सहारा लिया । चाहा कि कुछ कहे, बोले, समझाए । लेकिन सामने मानो अत्यन्त मौलिक ग्रनुलघनीय कुछ था जिसका स्वीकार ही हो सकता था । वह क्या था कि जिसमे मैल न था, मान न था, पर सत्ता थी, सत्यता थी । तो भी जोर लगाकर, सोचते हुए-से उपाध्याय जी बोले, "केशव मे कुछ दोष है ?" सविना नीचे देखती चुप ही रही, बोली नही । " लज्जा न करना, बेटा । सव उपाय हो सकता है ।" सविता ने व ऊपर देखा । स्थिर वाणी मे कहा, "आप परिवार के हितैषी हैं, पूज्य है पर पत्नी के धर्म मे पति का विचार नही है, धर्म का ही विचार है । धर्म परिवार से ऊपर होता है । माफ करें, साथ रहना न होगा । मैं जा सकती अक्तूबर '६४ ?" हू + Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त प्रयोग 'लिवरेटेड माइड ।' शेइलेन (शैलेन्द्र) ने ऊपर उटते हुए सिगरेट के धुए पो देखा । वह देर से सिगरेट लेकर धुए को इसी तरह देखते हुए रेस्तरा मे बंटा था, सिर्फ पानी के गिलास के वल अपने को सम्हाले रख रहा था। भीतर से वह सूना था और आसपास कई वार श्रापर घूमते हुए बैटर को देख कर भी उसने मीनू के शीट पर से कुछ प्राडंर नहीं दिया था। पानी पीता, फिर सिगरेट पीने लगता , सिगरेट पीता और पिर पानी का सिप लेने लगता । इसी समय मालूम हुना कि सिगरेट के धुए के ऊपर से होकर जैसे हवाई भाप से बने बादल के खण्ड-सा कुछ उसके सामने अधर में तैर पाया है। वह कुछ घचला है, कुछ उजला है। पहा उसे अजव लगा । फिर उसने पहचाना कि ग्रोह, वह तो उस का अपना ही है लिवरेटेट माइड । शेइलेन मामूली युवक नहीं है। अवस्था तीस वर्ष की होगी। लकिन वय से अधिक विश्वस्त है । अपनी प्रतिमा को जानता है और साधारण को नापसन्द करता है । स्याल उस के ऊचाध्या मे न्ह्ते है और वह रिसी तन्ह या वधन या सत्तंव्य यासपास पसन्द नहीं करता है। पर अधर मे तैरते हुए उस लिबरेटेड माइट को उमने फनगियो से देखा और मन ही मन कुछ कुटा । उस कुटन में पटवाट्ट थी । उरी फल को पाम याद आई, जब उसके साढे तेरह रपए एयः साय सचं हो गए थे। साढे बारह का बिल, एक रपया टिप | दो उसके माथी ये और एक हजरत जो माने हुए लेसका मान लिए जाते हैं। असल में तो वह घाम उन्ही के लिए बनाई गई थी और यहा उसने एमाह Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त प्रयोग ४६ लिवरेटेड माइड ऐसा चलाया था कि लेखक महाशय सकपकाए से रह गए ये । तब यह गन्द उसे स्वय गर्विष्ठ प्रतीत हुआ था। पर उस शाम के बाद आगे के लिए कुल जमा साढे सात रुपए उसके पास वचे रह गए हैं । बस यह पूजी है, वह है, और आगे की सारी जिन्दगी है । सवेरे से उस ने एक भी पैसा खर्च नहीं किया है। दिन मे खाना नहीं खाया है, पाव-प्यादे घमा किया है, और रेस्तरा मे पाकर भी पानी से आगे नहीं बढा है । वह कुछ हैरान है कि लिवरेटेड माइड 'लिमिटेड पर्स' के साथ ही क्यो हुआ करता है ? यही आज की समाज-व्यवस्था के खोखलेपन का प्रमाण है। या माइड ही तो कही 'लिमिटेड' नही रह गया है ? सम्भव है कि नीति-प्रनीति, पाप-पुण्य जैसी चीजे भीतर में कहीं दुबकी रह गई हो । नहीं तो चतुराई से पैसा बरावर आते रहना चाहिए । लिबरेटेड माइड के पास बटुमा अवश्य 'अन-लिमिटेड' चाहिए'' सोच कर वह मन ही मन फीकी हसी हसा । लेकिन उसने सतोषपूर्वक याद किया कि कन लेखक महाशय किस प्रकार एकाएक पिटे-से रह गए थे। सात वर्ष पहले शेइलेन कालेज मे प्राध्यापक बना था । उसकी योग्यता की धूम थी। हाल में ऊची शादी हुई थी। लोग सराहने से अधिक उसके भाग्य पर ईर्ष्या करते थे। लेकिन जल्दी ही उसे मालूम हो गया कि यह सव सार नहीं है। दो साल के अंदर पत्नी से विलगाव हो गया । अव्यापकी छोड दी गई और कलम की नोक से सयको सुधारने और इस-उसको फटकारने का काम उसने शुरू कर दिया । उसे निश्चय हो गया था कि दुनिया चावुक के ही लायक है । दुनिया ने सत्रमुच इसमे मजा भी लिया, लेकिन एवज मे काफी पैसा नहीं दिया । परिणाम, शेइलेन को मालूम होता चला गया कि दुनिया फरेब है, मक्कारी पर तुली है । पैसे वाले बडे लोग ठग और बेईमान है । और उस श्रेणी की स्त्रिया रूप-जीवी है । कोई डेनु-दो वर्ष तक उस का यह प्रयोगात्मक जीवन चला । याद मे शेइलेन के वसुर ने एक स्थान के लिए सिफारिश की, तो विरोधपूर्वक शेइलेन ने वह जगह स्वीकार कर Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दमया भाग ली। बडी कम्पनी थी, वेतन जचा था। पर शन. गर्न पुन. सिद्ध होने लगा कि आत्मा के साथ, नहीं-नहीं, अपने गर्व और गोरव के साथ, समझौता नहीं किया जा सकता। व्यवस्था यह मनमानी है, समाज कृत्रिम है और अधीनता किसी स्वाभिमानी को सह्य नही होनी चाहिए। यह नौबत आने के आसार प्रकट हो ही रहे थे कि पत्नी अपने पिता के पास लौट गई थी और अपने डेढ वर्ष के पुत्र की ओर देखते हुए, पिता की सहायता से, उसने रेडियो मे नौकरी कर ली थी। इस सुयोग के साथ शेइलेन का जीवन कुछ समय के लिए सूब उत्कट हो कर नमका था । मानो अदर की शक्तिया खुल खेलने पर तुल पाई हो और वह अकेला सबका सामना ले सकता हो । कम्पनी के चेयरमैन से वह उलझ पडा और उन्हे खरी-खरी सुनाने से नहीं चूका । वहा से छुट्टी पा कर मानो सत्य का ही एक अवलम्ब उस ने अपने लिए रस छोडा । लिहाजमुलाहिजे नाम की चीज को उसने सर्वथा खत्म कर दिया । उसने तय किया कि समझौते के विना उमे रहना हे । प्रण वाधा कि यह ऐसे रह कर दिखा देगा। यहा सब अकेले ही तो है । यो जिसके साथ एक कप चाय पी, वही अपना नाथी है । दो पैग माथ हो गए, तव तो वह साथी अभिन्न ही हो जाता है। इस तरह नौकरी छोड़ने के बाद दोबारा उस ने मिखानत प्रयोगमुक्त जीवन प्रारम्भ किया। मानना ही पड़ता है उनकी कलम के जोर को । अग्रेजी तो मानो उसके लिए मातृभाषा है । सब उमका मिक्का मानते हैं । पीछे चाहे जो कहे, सामने तो रास्ता ही देते चले जाते हैं । यह प्रयोगशील जीवन उसे इन बार फला नहीं, यह नहीं कहा जा सकता । उसकी मिप्रताप, उसका परिचय, सभी वर्गों में फैला है। सदा यह अच्छे लिबान में देखा जाता है । वर्च में भी हाय बुला दीपता है। अभिगात रेस्त्राग्री में अभिजात वर्ग के साथ आप अक्सर उसे पा सकते है। इन दूसरे प्रयोगकाल की ही बात है कि दूनग विवाह हुमा । रयम अच्छी माई, पर विवाह टिका नही । उनगी अपनी बात माने तो पत्नी पमाद न Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त प्रयोग थी। खैर, वे चर्चाए दब गई हैं। लेकिन जिन दिनो खूब चलती थी, तव भी शेइलेन उस कारण किसी ओर से मद नही दीखता था। अब तो वह और जोरो पर है । बौद्धिक क्षेत्रो मे प्रवेश से भी अधिक उस का प्रभाव है । लोग उससे दबते और रोब मानते है । कारण, वह हर समय मानव-जाति के अत करण का प्रतिनिधि होकर साफ-साफ कहने को उद्यत रहता है और झूठी विनय के चक्कर मे नही पडता। परिणाम यह कि वह ख्यात होकर भी पुरुषो मे एकाकी है । प्रिय और अभ्यर्थनीय है स्त्री-वर्ग मे । शेइलेन ने वटुआ निकाल कर देखा, वही ठीक साढे सात रुपये थे। बटुया बन्द कर उसने जेब मे रख लिया । टिन मे से नई सिगरेट निकाली, पहली वाली से छुला कर सुलगाई, और गहरा कश खीचा । फिर अलस पाराम के साथ पहली सिगरेट को घिस कर बुझाया। अब कलाई की घडी देखी । साढे छ से दो मिनट ऊपर हुए जा रहे है । उसको भल्लाहट हुई। मानो वह अपने तिरस्कार से विश्व को तोड़ डालेगा। उसने क्रोध मे निगाह उठा कर दरवाजे की ओर देखा। देखते ही निगाह हटा ली और वह कुछ मुसकराया। उस ने अनुभव किया कि रेस्त्रा के इस बिल्कुल सूने कोने-किनारे को चुन कर उसने ठीक ही किया था। द्वार में से प्रवेश लेकर ठिठकी खडी युवती ने हाल मे इस-उस मेज पर चारो ओर देखा। अनेक निगाहो ने उठकर उस की ओर निहारा । लेकिन उनमे वह परिचित निगाह न दीखी, जिसकी उसे तलाश थी । अन्त मे उसका ध्यान कोने की ओर गया। अवश्य वह शेइलेन है । लेकिन ऐसा वेभान और वेमन और अनुत्तुक । युवती तेज चाल से बढती हुई वहा पहुची । बोली-"हलो।" शेइलेन ने आवाज़ सुन कर निगाह सामने की । तनिक मुस्करा कर पहचाना और सिगरेट के रुके काश के धुए को होठो के परले किनारों से धीमे-धीमे करके छोडा, कुछ कहा नही । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग युवती बोली, "यह क्या बात है ?" "वेठो ।" "अाज यह क्या है ? वडे ऐसे-वैसे दोस रहे हो।" "हा | दावत मेरी ओर से है । है न ? लेकिन मेरे वटए मे कुल जमा साढे सात रपये बचे हैं ।" __ "वस ? यह कोई नई बात तो नहीं है।" "नई नहीं है । लेकिन कल साडे तेरह रुपये एक को उल्लू बनाने मे लग गए । मजा तो पाया । लेकिन उतनी रकम के लायक वह न था।" "कौन था? तुम्हारा शिकार नामी होता है।" __ "छोडो, छोडो' यह लो, (मीनू मामने करते हुए) बार तुम्हे देना है।" भागता ने मीनू के शीट पर मरमरी निगाह दौडाई और सासा आर्डर दे दिया। फिर बोली-"सच कहो, ऐसे कब तक रहने की सोचते हो?" "क्यो, इम रहने में क्या कमी है ?" "रुपए की कमी नहीं हो जाया करती है ?" "पोह | रुपया तो खेल है । नया उसकी कमी, यया ज्यादती । और तुम जो हो।" "अपने ही लिए तो कहती हूं। बोलो, क्या नोचते हो?" "तुम जानती हो, में शादी का प्रादमी नहीं है।" "लेपिन ऐसे में कब तक सचं परती जा सकती?' विवाह हो तो मेरा सब तुम्हारा है । नहीं तो..." "तुम्हारा मुझ पर बचं वरना, मैंने कहा न घा, सही नहीं है। कियो प्रागा मे ऐमा करना और भी गलत है।" "यह तुम यह रहे हो ? नोचो कि मय हमारे बीच वाली क्या बचा है ! विवाह की रूपरी विधि की ही तो पात है।" Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त प्रयोग "इसीसे विधि की जरूरत नही रहती है ।" "मुझे कुछ हो गया तो ?" "विवाह के बाद होता है, तब सबको खुशी होती है । विवाह के बिना और पहले हो, तो खुशी की बात क्यो नही है ? सच कहो, कुछ है ܙܙܕ "" ५३ "नही, नही, अभी नही । लेकिन "लेकिन की फिक्र क्यो करती हो ? तुम ने तो मुझे डरा दिया । " "तुम डरते भी हो ?" "डरूंगा नही ? तुमसे नही डरूंगा ? भगवान के डर से इसीसे बच पाता हू कि तुम लोग भी हो । ( सिगरेट देते हुए) लो, पिओोगी ?" ܐܐ ܕ "ना, नही । अच्छा लाग्नो । " दोनो सिगरेट पीते है, और कुछ देर कोई नही बोलता | प्रकट है कि स्त्री को सिगरेट का अभ्यास बहुत कम है 1] एक करा लेती है कि फिर देर तक सिगरेट उगलियो के बीच मे ही टिकी रह जाती है, दुबारा जल्दी नही उठती । शेइलेन 'चेन स्मोकर' है । वह जाने कहा देख रहा है । आगता ने अपनी ओर आते हुए धुए को हाथ से हटाया और शेरोन की निगाह अपनी तरफ खीच कर कहा - " मैने एक बात पूछी थी, तुम ने बताई नही ।" शेलेन ने जरा उसे देखा और मुसकरा कर फिर निगाह उसी तरह छत की ओर उठा ली, वोला नही । युवती ने साग्रह कहा, "वतायोगे नही शेइलेन ने सिगरेट का अतिम भरपूर कश खीचा और उस के सिरे को ऐश-ट्रे मे कस कर रगड दिया। कहा, हम तुम क्या " सशरीर एक दूसरे के लिए काफी नहीं हैं ? अतरात्मा मे भी उतरने की जरूरत रह जाती है। "अगर तुम कही भी और प्रेम करते हो तो मैं कुछ नही कहूगी। ?" Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनेन्द्र की पहानिया दनवा भाग शादी का नवाल नही करूगी । लेकिन..." "प्रमिला, प्रेम अच्छा है तो क्या एफ भर के लिए हो अच्छा है?" "बड़े बेहया हो जी, तुम " "मुझ पर से दो व्याह बीत चुके और टूट चुके हैं। इन ने ज्यादा और क्या तुम्हारी आंखें खोल सकता है !" "इसी से मेरा निश्चय है कि यह व्याह होगा और नहीं टूटेगा । मैं सब जैमी नही हू । मेरा इम्तहान ही है यह विवाह । इसीलिए तो सामने आती हू कि मुझे भी देखना है, वह क्या है, जिसके कारण तुम इधर से उधर भागते हो । वे गौरतें अनजान रही होगी । मैं..." "तुम जानती नहीं हो विवाह को । वह घेरे मे बचना है । तुग गयो बंधना चाहती हो, में यही नहीं समझ पाता । इसीलिए कि बताने को कोई बच्चे का वाप पाम वधा हाजिर रहे 1" ___ "देखती हू , तुम वाप बन सकते हो, रह नहीं सगते । भयो यही "प्रेम में अगर प्रकृतिवरा कोई पिता बन जाता है, तो इसमें समाज का क्या इजारा है ? लेफिन समाज को सातिर वाहा जाता है कि एक बाप घर के जूए मे जुता हुमा मौजूद रहे ! छोडो "छोटो, यह सच उकोसले है और तुम इस कदर सूबगूरत हो कि..." कह कर उगने सम्मानपूर्वक मागता या हाय उठाया और अपने सामने मेज पर रख लिया । उग पर फिर अपना हाय रन पर पाया, फिर दबोचा, कहा, "यू पार वन्डरफुल, प्रमिला ! (नुम विलक्षात प्रमिला " मानो प्रमिला ने युर अनुभव नहीं किया। वह उसी तरह घिर बेटी रही। इनने में ग्रार्डर का सामान लिए प्रातारा दीना । हाय मेज गेट गए और यानें उन पनेपन के स्तर में अलग था । नाने-पीने के बीच में प्रमिला ने पूछा, "तुम्हें गिनने में Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त प्रयोग जरूरत है ?" ५५ " तुम से - डाई सौ मामिक ।" --- "यह तो तुम्हारे लिए कोई बडी रकम नही है । सुनो, कुछ काम क्यो नही कर लेते ।” "बेवकूफ न वनो । वह नही हो सकता । जिस पाखड को ढाना है, उसी को सिर पर लू "तो फिर ?" ܕܕ "देखो, प्रमिला, जानता हू तुम्हारे पास पैसा है । लेकिन तुम जा सकती हो। मैं समझता था, तुम्हारे पास दिमाग है, और वह आजाद है । पैसे मे ज्यादा मेरे नजदीक उसकी कीमत है । लेकिन वह चीज तुम्हारे पास नही है तो अपना पैसा लेकर यहा से रुखसत हो सकती हो ।" "तुम ने ढाई सौ मासिक कहा । यही न ?” कह कर अजब व्यग से वह हसी, "और वह सब तुम मुझ से लोगे, क्यो ?" "नही एक पैसा नही लूगा । इस झार्डर के सामान का भी नही ।" "विगडो नही हा, एक मुझ से तुम सब चाह सकते हो । सव तुम ने लिया भी है । लेकिन 33 " फिर वही विवाह--यही न ?” "वह तो निश्चित ही है ।" "तुम शायद रसम को विवाह मानती हो । मेरे लिए मन का विवाह असली है और उसे ही बेमन ढोने-टिकाने की जरूरत भला वयो।" प्रमिला ने शेडलेन को देखा । कुछ देर जम कर देखती रही । फिर बोली--"यू प्रार ए चीट एण्ड ए स्काउन्ड्रल | (तुम एक घोसेवाज और आवारा आदमी हो । ) " दोइलेन ने सुन कर तत्काल प्रमिला को उगलियो को लिया श्रीर गर्दन नीची करके जल्दी से चूम लिया । कहा, “बैंक यू !" प्रमिला हस पडी । बोली, "तुम्हारी यही श्रदाए तो जीत जाती हैं ! वट यू प्रार ए लोफर श्रालराइट ।" Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग ' हजूर, यह नाचीज क्या है, अपनी मालिका का साकनार सादिम है ।" "लेकिन सुनो, व्याह से पहले श्रव एक पैना नही मिलेगा ।" तुम मिलोगी तो सब कुछ मिलेगा ।" "कैसे नही मिलेगा प्रमिला ! "तुम मोचते हो में बेवकूफ हू ?" "खुदा का खोफ करो, गजब की खूबसूरत हो ।" "हटो, तुम्हारी पैसे पर निगाह है ।" "ग्रजी, निगाह तो श्राप पर है । श्रापके प्राचल में पैसा है, तो उसमे मेरा क्या कसूर "अच्छा वादा करो, किसी घोर से मुहब्बत नही करोगे ।" "दोनो शादियों मे वादा किया था । वादा वही बघा रहता तो इस मुहब्बत की नौबत कैसे भाती, मेरी प्रमिला ! वह सब छोटो । गाडी लाई हो ? चलोगी ? चलो, श्रोसला चलें ।" ..") ܐܕ "फिर वही "देखो, भूखे को क्यों मारती हो? तुम्हारी रसम, सवेरे से मैने कुछ साया नही था । श्रव जरा पेट भरा है तो "बडे ढीठ हो !" "ग्रापकी दुआ है ।" प्रमिला का परिचय पाने को श्रावयता नहीं है । उम्र ऊने घराने को दिल्ली के लोग जानते हैं । कहानी में भी परिचय देने का काण नहीं है । कारण, खाना-पीना चल ही रहा था बीच में ही शेलेन स्पट मनाकर बोला, "यह सब रहने दो, उठी।" "क्यो, ऐसी क्या घवराहट है " "वह यम्बरन बुर्जुग चाहरदीप गया है, क जल्दी करो, नहीं तो सच मजा " विदा हो जाएगा। को तुम तो वह बनकर आई हो..." हाथ पर उठाया तो प्रमिलाबाई विषाया Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त प्रयोग ५७ गया और फिर दोनो जने हाथ मे हाथ डाले तेजी से रेस्तरा से बाहर निकल गए । हम रेस्तरा मे ही बैठे है । यह समा श्रौर यह शाम । प्रोखले के लिए मौका बुरा नही है । लेकिन आप मनाइए कि कहानी कहने वाले के पास भी खासी नई ऑटोमोबाइल हो, और वह इस तेज जिन्दगी के साथ लपकता जाए और कहानी के श्रागे के मोडो की भी खवर प्राप को दे सके । तब तक के लिए कहानी को यही समाप्त मानना होगा । अगस्त '६३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कष्ट बोलेन्द्र को विस्मय हुमा जय देवा मि देतीवोजन के सबसे बड़े अधिवारी उममी छोटी-सी बैठक में चले पा रहे है। उसपो और भी विस्मय हुआ यह सुनकर कि एक बडे महत्वपूर्ण परिगवाद मे उसे भाग लेना है और अभी साय चलना है । अधिकारी या व्यवहार म अम्पर्धनापूर्ण था और वह तज्ञ थे कि शैलेन्द्र ने उनका अनुनय अस्वीकार नहीं दिया है। "असुविधा के लिए क्षमा पीजिएगा । लेकिन । " "जी नहीं । जी नहीं .." "यह अनाचार है कि समय भी प्रापरी नहीं दिया जा रहा। लेरिन विदेश में जो मेहमान पाए है उनको पहले सयर गयी। ये अपने ममता बन्धुनो मे टेलीयोजन पर चर्चा करना पवाद गरेंगे। पताइए आपको छोर हा नहीं पाए ? गतिमा मह गट फिर भगामाी है।" "जी नहीं। जी नहीं।" बुटियोपचे नोगलेन्द्र मोर भी मिल ar हो नामी एक नाहियार यता मोजर पे । नाम RATोनसान धे जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय ग्यानि यो । रेन्द्रनार पर हुमा । लेकिन नभी हमने अपने गा मा गा पा प्राय गा, सनिय निरिमनार में उगो तर बगामे मोर चर्चा में सम्मिलित होगा। रजियानरमा भीरमा टीको माEिT or Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्ट પૂર है । स्वय टेलीवीजन पर जिस शालीनता से उसने व्यवहार किया वह मानो दूसरो को फीका कर देता था। चर्चा काफी फैली और काफी गहरी भी गई । अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज कोष उसने छुआ और मन के गहरे भेदो का भी भेद लिया । उस सब मे शैलेन्द्र ऐसा तैरता हुआ पार चला गया कि उसके साथियो को भी अचरज था। ____ कार्यक्रम पूरा होने पर सवको एक कमरे मे ले जाया गया जहा उपहार की व्यवस्था थी । वही उससे एक फार्म-रसीद पर दस्तखत कराया गया और दिलचस्प हल्की-फुल्की चर्चा होती रही । रेडियो के कुछ अन्य ऊचे अधिकारी उस समय साथ थे और वातावरण अपनी हनकी रगीनी मे उडता हुआ मानो सवको ऊचा ले जाने वाला था। शैलेन्द्र को वडा अच्छा लग रहा था । उसने घर की उदासी और निराशा को याद किया जो अव एकदम उपहास्य बन गई थी । वह देसता था कि विदेशी अमरीकी सज्जन लम्बे और ऊचे है। रूसी बन्धु उतने ही छोटे कद के हैं । दोनो के अग्रेजी के उच्चारण भी अनमिल है। दोनो मानो शैलेन्द्र को लेकर सम होते है, नहीं तो परस्पर विपम बने रहते है । दृष्टिकोण दोनो के अलग, व्यक्तित्व अलग । वह बातें करता जाता था और रह-रह कर दोनो को देखता जाता था। डील-डौल के लिहाज से स्मी वन्धु तगड़े ढग से खा रहे थे और अमरीकी धीमे-धीमे ग्राम उठा पाते थे। देसकर उसको तटस्थ प्रानन्द हो रहा था और वह चाहता था कि अमरीकी विद्वान इतने गम्भीर न रहे। फिर उसे ठीक-ठीक पता नहीं कि क्या हुआ । शायद वहा से उठ कर वे लोग एक-दूसरे कमरे मे ले जाए गए। शैलेन्द्र लोगो के ध्यान का केन्द्र था और विदेशी लोग अब उससे विछुड चुके थे । पर देगियों की तो भीड थी । नाना प्रकार के नाना लोग उससे बात करना चाह रहे थे । तरह-तरह के प्रश्न होते और वह अपने उत्तरी से एक चमत्कार पैदा कर देता था । इसी समय उनके सामने एक मोटा सा लिफाफा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जेन्द्र पनिया दायां भाग लाया गया । सोलने पर उसमे बिल्कुल नये दम-दस रपये के नोटों को ऊची की गड्डी थी जिसके ऊपर उसी तरह के कपान-पान के नोट रमे हुए थे। जिन्द्र ने उन्हें लिफाफे में निकास कर उमी पनिफे मे रस दिया और लिफाफा वही मेज पर रहने दिया । वह सोगों में बा करता जाता था और लिफाफे की तरफ ध्यान नही देना चाहता था । फिर सहमा उसने विफाफा लिया और नोट बाहर निका । यह रहा था कि उसके आस-पास के लोग जल्दी-जल्दी वदनते जाते है । गायद कमरे मे भीड़ है और दूसरो को अवसर देने के लिए पोटो - चीत करने के बाद पहले वाले हटते जाते है। उसने नोटो गोगिना, पहले पाच वालो को, फिर दस वालो को । गिनते समय वह बाद घर सकता था कि वह लोगो के प्रति सावधान तो नही वन का है। उ लिया गिनती जाती थी और मुह बात करता जाता था । उगलिया गिनती चली गई और वह दग रह गया कि नोट तिने अधिक मो, टेट सौ, दो सौ तक को के लिए वह तैयार था। पान के नोटो के बाद दस के नोटों की गिनती तो पूरी ही नहीं हो रही थी। उनके कुछ समभ में नहीं आ रहा था कि यह बात क्या है । ही समाधान था कि यह उसकी योग्यता कानावर योग्यता किसी तरह बढ़ाकर नही दियाना नाहना था। और को भोट के प्रति भोर विनत दीपना चाहता था। नोटो की गिनती जिन लोगों के प्रति उनका भावभीना वटुना जाता था । मातृम नही गिनती feat देवा पूरी भी कि नहीं हुई। मेसिन राशि का अनुमान उसे ठीक बैट गया था । उसने फिर नोटों को यही दरी देवी में हाय टाला। वह धनने में हो पाने तरह-रह के उसमें एप के मिले हुए नोट्स में दोनों जेबों मे ठात् एक प अपने चारो में बसे भागन है । और बाहर गीचा। ये नो नदी पर द्वारा दिए | नींद में Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ उन्हें अपने से ओझल चाहता था । जेव से ग्रन्त मे रूमाल निकला और वह भी उन कागजो के ऊपर छोड़ दिया । ग्रव उसने निश्चिन्त होकर कुर्सी की पीठ पर सिर पीछे किया और आराम से हो बैठा । मालूम नही कितनी देर यह मजलिस रहीं। काफी काफी काफी देर तक रही । उसे किसी की चिन्ता न थी । वह सानन्द और निर्द्वन्द था । वह अपने पूरे पन में था इसलिए सबके प्रति प्रसन्न था । उसे याद था कि कोई तिक्तता उससे नहीं प्रकट हुई है और वह किसी के लिए श्रगम नही बना है । कमरे का वातावरण प्रकाश को लहरो की तरह मानो उमडता और नया-नया रूप लेता जाता था । उसीके साथ लोग भी अदल-बदलते थे । निश्चित एक बात थी कि वह केन्द्र में है । अन्त मे समय होता गया और मालूम हुआ कि यह स्टुडियो है और उठकर घर जाना है । तब उसने रूमाल समेत सब कागजो का ढेर उठाकर दाहिनी जेब मे ठूम लिया । सब कुछ गडमड था और उसे चिन्ता न थी । उसने देखा कि उसके साथ प्रास-पास के लोग उठ खडे हुए थे । सव कृतार्थ दीखते थे और यह अपना सम्मान उसे विशद किए जा रहा था । सब कही श्रानन्द का भाव था और परस्पर मे विदा लेकर मानो कृतन वे अपनी-अपनी राह चले जाने को उद्यत ये । किंतु तभी मानो नितात उदासीनता में, एक बार फिर शैलेन्द्र अपनी आराम कुर्सी मे हो बैठा और जेब मे ठुसे हुए कागज उसने बाहर किए। लोग अव लगभग जा चुके थे । नव ढेर कागजी का उसने मेज पर पटक दिया और फिर एक-एक को हटा कर उनमें सरकारी सिक्के के नोट देखने लगा | यह क्या ? नोट तो वे कही ये नहीं । उसने सब कागजो को उलटा-पलटा । एक-एक कोर दश कर और फैलाकर देखा । लेकिन करारे कागज वाले वे पाच-पाच और दस-दस रुपये के नोट गायव थे । उनमे से एक भी कही नही मिल रहा था | उनने फिर जल्दी-जल्दी कागजों को देना । जेवो को टटोला | कोट उतारा, पैट सखोला, पर नोट हाथ नही थाए। उसने अपने चारों ओर देगा। लोग वन जा चुके थे । रोशनी थी लेकिन घुम्ती मालून कष्ट • Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र पी महानियो दया भाग होती पी । उनके गुर समान न पाया । उमे निमय था कि मिनीने उन नोटा मो ने लिया है और फिर चुपचाप गरमा गया है । मान हो रामना ? गया वार.. स्या यह ?..'या यह ...अनेक-अनेक पेहरे भीर में से टगे याद पाते । पौर प्रगट होने देर न होनी किचे गमको मय सामागोते भी चले जाते थे । उमने उन सभी को भी उनमेमएयो दोषी पाया । लेकिन पया हो सकता था | मन में यानों में रंगलिया जान फर दोनो हलियों के बीच उसने टोनों पनपटियों को मिया और गिर पाम लिया । देखते-देगते यह मिर नीचे भुम प्रामा। पुछ गुबनी की आवाज प्रतिमा ने सुनी । अमेराया और उठ पर नने बत्ती जला। पत्र मालूम हुआ कि उसमा पनि मोत-गोगे गुवा रहा है। उगने पर मा प्रगटा धीमे से हिलाते हुए पहा, "गुनो . अजी सुनो।" पति ने चौक गर माग गोली । मानो वह भाग पछपायानन ममी पा-बसरा गा पर देग उटा पोर निन्याय में बोला, "पापा?" पानी ने गृधा, "मी, मया बात है?" पनि ने भाग फाट पर T, "या" । "म.प्र. पटना। मापद सपना ।" "गा!" मार एमाण यह रना, पिता , "नही दिन ही। आने दो। परहमा समा" मापन गर" " !... " "न , दो, चार 'T TAM" "मर RT FI " गये ।" Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कष्ट इतना कहा और पति महाशय माथे को हाथ में लेकर रुग्रासे हो श्राए। प्रतिमा ने उनके सिर को लेकर अपने वक्ष मे समेटा । कहा, "कुछ नही । सपना था । सो जाओ।" "नही, नहीं । सपना नही था।" "तुम क्यो फिकर करते हो?" "सच कहता हूँ । मैंने गिने थे । एक-एक कर गिने थे । एकदम नए नोट थे और पूरे ढाई हजार थे।" ___ "सुनो, अव नही कहूगी । मरे रुपये का मुझे क्या करना है । तुम फिकर न करो । फिकर-फिकर मे जाने क्या-क्या देख जाते हो ?" "तुम्हे यकीन नही आता है ?" कहता हुआ पति पत्नी की गोद मे से छिनकर अन्नग हो बैठा । प्रतिमा ने उसे ऐसे देखा जैसे आखो मे निरी प्रोस हो । गिडगिडाती बोली, "नही । अब नहीं कहूगी । मेरे मारे ही तो फिकर है।" पति ने उठाकर एक जोर का चपन पत्नी के गालो पर जड दिया। चिल्लाया, "फिकर है तेरा सिर । मैं झूठ बोलता हू?" . पत्नी प्राख फाडे अपने देवता स्वरुप पति को देखनी रही । "यकीन नहीं पाता न ? और मैं झूठ बोलता है, क्यो ?" यह कह कर उसने भी जोर से अपने गालो पर उसने चपन जमा लिया फिर तो तडातड वह अपने को पीटने लगा । रहता जाता था, "मैं झूठा हू, कमाता ह तव भी झूठा • झूठा है ताले, तू मर ।" पत्नी ने पति के उठते हुए दोनो हाथो को जोर से परड फर वर जोरी अपने वक्ष के नीचे दवा लिया । कहा, "मुझे माफ करो । माफ फरो। अव कभी नहीं पहूगी।" पति में जाने कितना जोर या गया । हाय चीनकर उठ खडा ग्रा बोला, "मैं झूठा है न ? रुपये नहीं मिले और किसी ने नहीं चुराए Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दनमा भाग महीन' में निम्ना । नाताया, और न गती है । बहीन?" "करी, नहीं, नही। . ." "मैंने नोट नहीं गिने, यही न? में झूठा हूं और तेरे नाममा नहीं हूं, यही न?" प्रतिमा उठार उनी चरणों में लिपट गई। बोली, "ती, नहीं ! थे, गर । पिनी ने चुन लिए । भव तुम सो जामी।" ___ नमो में पटी पत्नी गो जोर गे लात मारपर उसने दूर पर दिया । यहा, "मैं भूला नहीं है, समवरन दोलेटर औरत सममी है क्या ?" रान गरी भी घोर लेन्द्र में सून उतर पाया था पोर नागा, तब मेनेन्द्रमा मरितकाम्प नहीं है। नही गलत जिनोमाति भी। प्रस्नूबर '६१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेकार "हुकुम आया है कहानी भेजो। बतायो क्या करू ?" “भेज दो कहानी।" "क्या भेज दू ? कहा से भेज दू ? मन ही किसी काम को नहीं होता है।" ___"क्यो ? ऐसा तुम्हारे मन पर क्या प्रा बीता है ? मुझे देखो, सारी चिन्ता मुझ पर है । तुम्हे वया पि.कर कि क्या चीज क्या भाव आती हैं, बच्चो के लिए दूध कैसे जुटता है । तुमको तो पडे रहना और सोचते रहना है । इस पर कहते हो, मन नहीं करता। अच्छा तुम्हारा मन है । उठो, और लिखो कहानी । नही तो वे लोग भी क्या कहेगे ?" ___ अब कैसे बताऊ इनको जो चूल्हे-चौके मे रहती हैं, बामन-बुहारी में रहती है । ना तो रिश्तो वाले लेन-देन मे रहती हैं कि ख श्चेव पर क्या बीती, कि चीन के अणुबम विस्फोट का क्या मतलब है, कि वर्तानिया की सरकार पलट कर एकदम दूसरी बन गई है । वगैरह-वगैरह वाते है जो असली हैं और मेरे दिल पर बैठी हुई है। उन बातो के बोझ से अगर वह दिल उठता ही नही है तो उसमे उम दिल की ओर कायल ही होना चाहिए । मैं अपने बारे में बिल्कुल विश्वस्त हूँ कि मेरा दिमाग दूर तक जाता है और बारीक बातो को पडना है, और हर छोटी-मोटी ले-दे से ऊपर रहता है। "फिर वही | अभी बैठे ही हो ! मगीन लेकर टाइपिस्ट कमरे मे पैटा इन्तजार कर रहा है। वहा कहानी की राह देसी जा ही होगी। विशेपाफ दीवाली तक निकल जाने वाला है। उधर रेडियो पर उपन्यास भी जाना है । और तुम ऐने मुक्त बने हुए बैठे हो कि जैने सब कर Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ नेन्द्रको हानिया पाया भाग हो । मेरी गुनते ही नरी हो । पत्नी है कि मात्र नही जान ली। पहने माए में व्याह जरर हो जाना चाहिए। हिरनमा मेहनने पच्चीस हजार लगाया था, इतना तो वे गर देंगे ग?" "कहा का भमेला ले बैठी हो? चलता, मुनानी ह ।" "बस, तुम्हे तो यहानी उपन्यास की नगी है, बेटे-बेटियों को फिर नहीं ! पर मे यहू माती तो कुछ तो गभालती माग मोम बग मेरे तिर । तुम्हें पया है, दिन-गत पिमनी नी में है, या पिन्न पन्ना गन में बीमार है, तुमने मुड मिया ? पहा था, प्रादमी में चुना गो, यहा पन्छ टास्टर है, ठी तफतीश हो जाएगी। पर न उपन्या फुग्गा मिले तब न ? यो पोर होता तो अब . पर फरमें बन्ने दिनाई देते। तुमतो चले जाते होगपने दातर पोरग सपने. अपने काम में। पर यह पीन-गा गाने को मानिन बार गोपाल न हो । पर पा, उसे वीगना पहो । सी की गर Prima जार हो गई। काम से भी लगामा भय वापर भाग 1 पर तुम ऐने हो कि पिकर पटानी पो तो , मोर हिगी योगी पात है रिलिगना-लि पाना मुझे भी मुसीया मागहोगी। जय तर दल ग अन्धा है। लेकिन मैंने गुम्मा दिE AT- "तो मारी , मुग्ने को मानौगय मान-माल पोई, तुम श्रीमती अपनी उठगि ,में पानी writy ! मोर मचान मोदी र मेनारि योगी स र , पदी नारकर दोगान पर सोनी, " !" " मग?' हो । ‘नो या पोरगी पाय मिनट मीरीजानी।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेकार ६६ "उसकी श्रव फिकर नही है- हा, क्या कहते थे, दो बहने है और " "मैंने छोटे बाबू को फोटो के लिए कह दिया है, ठीक हुआ तो बाकी विचार पीछे होगा ।" "फोटो से कही ठीक पता चलता है ? यही पडोस की बात है, फोटो से कैसी सुन्दर लगी थी, पर बहू ग्राई तो ऐसी कि । जाके तुम देस श्राते तो कैसा ?" "किसे देख श्राता ? बात न वात, वेबात की वात । मुझे अव जाने दो ।" "वम्बई मे है लडकी ? धारीवाल साहब को फोन कर दें कि देख के पता दे । शाम तक उनका फोन ग्रा सकता है । इन बातो मे देखो, देर नही किया करते । और तुम हो कि एक काहिल हो । लो, धारीवाल को मिला फोन ।" "क्यो, तुम्हे कोई और काम नही है कि " "तो में मिलाती हू, धारीवाल को । वताना क्या नम्बर है ?" देती हू बम्बई की लडकी तुम्हारी डायरी मे होगा न ? अर्जेन्ट किये का पता तो है न तुम्हारे पास ।" "नही है ।" . "नही है ? वम तुमसे हो लिया कुछ पता भी नही पूछा छोटे बाबू करते । लो श्रव पूछ लो । देस-भाल के शाम तक वापस से ' अरे ऐसे घर-गृहस्थी के काम नही हुआ पूछ के, फौरन धारीवाल को कहो कि सब फोन पर सवर करे । श्राज क्या है, तीज र असोज का महीना । कातिक मे गजे में व्याह हो सकता है, जोग भी है । तुम्हारे पान किनने की तैयारी है ? ज्यादे फिकर की बात नहीं, जेवर के लिए मेरे पास ने हो जाएगा। काफी तो पुराना पडा हो है । कल ही बुला के उसे नया करने के लिए वह दूगी। वह फिकर मुझ पर | ऊपर की तैयारी के लिए तुम्हें चिन्ता होती हो तो में राधे बाबू से वह तपती हू । तजुर्वेकार है Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेन्द्रकी कहानियां भाग पौर पहतों के काम उन्होंने किए हैं। उन्हें सौंप में रम पम निमिता हो सकते हैं।" में अपनी जगह मे उन । श्रीमती बोनी, "तुम तो भी में रिकर में धाने लगे। मैमती , मेरे रहने नुम्हें जग मिना मरने की मन नही । दमे तो तुम्हारे पास हो जायगान ?" "क्या ये बड़बार मचा रखी है। तुम्हें नहीं गो मुझे तो माम " श्रीमती उठी मोर टेलीपोन सागर मेरे दो मे दमा दिया। मा "लो छोटे बाबू में पना पूर लो।" हाथो में में टेलीपान को फैश नहीं गरा। धीम में बराबर की तिपाई पर रखा और गहा, "वम्बई का पासो" श्रीमती जी उड वर योती, "तो फिर मया गाव, गोपागणार को मिलायो । मह देना, माम को अपना मगर र पारें पोर दम अनेन्ट गगम कर। और पाग पोनय मातीपूर्ण गवर ? रामने । या पटोग" में भी पीर साग न देर, टेलीफोन में कमा, नही कर पा पा। लेगिन यह सर कुन हो रहा था। मग पाहा, "पाटील , चीनी देय ते । तर उनको राय में माना जारी होनारियाणा नापनी में कुछ ना हो इनटे पाम किग ___" गाली है और नोमोजोम बरगहा मानिया, गी तुम्हारा धीरज भाटारमा भीम गो, मापाय गो पोत" Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेकार ७१ छोटे वाव के हाथ में रहने दो। वह बीच मे है तो उन्ही का जरिया ठीक है । सब तरफ से मुनासिव हो, तभी हममे मे किसी का बढना सही होगा । उससे पहले नही ।" "क्या तुमने किया है अब तक कोई रिश्ता या टेला- -जो अपनी अक्लमन्दी लगा रहे हो ? ये काम ऐसे नहीं होते। मुझे बतायो, धारीवाल का नम्वर क्या है ?" "मुझे नही मालूम।" कहकर मे तीर की मानिन्द वहा से चलता हुआ बाहर के कमरे मे आ गया । पर कमरा खाली था । वहा कोई गोविन्द न था । लोटकर आया तो श्रीमती जी सचमुच नम्बर के लिए डायरी टटोल रही थी । मैंने कहा, "बाहर कमरे मे कोई नही है । टाइपिस्ट क्या हुआ २" श्रीमती जी डायरी टटोल रही थी और टटोलती रही । "तुमने टाइपिस्ट को कुछ कहा था ?" मालूम होता है कि धारीवाल का नम्बर मिलने में समय लिये ही जा रहा था । "सुनती हो, कुछ कहा था श्रीमती जी ने डायरी से हटाकर अब मुह मेरी ओर किया। कहा"हा, कहा था। तुम्हे तो अपनी तन्दुरुस्ती की फिकर है नही, खासी तब की अब तक चल रही है । श्राराम को तुमने हराम मान रखा है । ऐसा भी क्या काम ? जब देखो तब लिखाई । लिखाई जाय भाव में, सबसे पहले तन्दुरुस्ती है "" • मैंने जोर से कहा, "क्या कहा था उस टाइपिस्ट को ?" "कहा था, भाई आज जाओ, उनकी तबीयत ठीक नही है । प्राज विसाना नही होगा ।" 7" ?" - "तुमने यह कहा था "हा। और शब तुम ग्राराम करो । धारीवाल का फोन भी वाद Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग मे हो जाएगा । ऐसी कोई तवाही नहीं है । तन्दुरुस्ती है तो दुनिया है और सब काम वकत पर हो सकते है । लो, पायो यहा लेट जानो।" ____टाइपिस्ट चला ही गया था और आराम मे लेटे रहना मुझे कभी बुरा नही मालूम होता है ! अक्तूबर '६४ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झसेला जगह पाने में समय लग रहा था और में बार-बार घडी देखता और जुझलाता था । पाच कहा गया था और अब उसने पाच मिनट ऊपर हो गया था । एक-दो मिनट और निकल गए तो अनुमान ने एक द्वार मैने ठेलकर खोला । वहा साइन बोर्ड नहीं था और मैं शका में था। दरवाजा खोलने पर अन्दर अन्वेरा दिसाई दिया। थोड़ी देर मे -मालूम हुया कि एक मद्धम वत्ती है और बाहर के प्रकाश से पाने के कारण ही अन्येरा इतना घुप्प दीसा था। मैंने पाखें मली और कमरे को भेद कर देखने लगा। कमरा लम्बा था और शुरू मे कुछ-दिसाई न दिया। फिर दूर परले किनारे से एक नूरत इसी तरफ बढती मालूम हुई । क्या वही सुशी है ? पहचाना नहीं जाता था और चाल उस जैसी न थी। तभी मालूम हुआ कि पीछे एक और व्यक्ति भी है जो कद मे ऊचा, पूरा और विश्वस्त मालूम होता है । कौन हो सकता है ? यह सोच न पाया था कि सुपमा की आकृति मुझे पहचान मे या गई । मैं तेजी से आगे बढा चौर दूसरी ओर मे मानो सुपमा झपटती हुई मुझमे आ गिरी। बोली-"राजेश !" में सन्न रह गया। सुपमा जो थी उसने अव याधी भी नहीं थी। सूरत पर गे सब उजड़ गया था। बाल विसरे थे और सव विखरा था। पायें फोनी, खोई, बदहवास थी। यह सब अभी ध्यान में न ला पाया था कि सुपमा अलग हो गई। साथ के व्यक्ति पान आ चुके थे। सुपमा ने परिचय कराया और उन्होंने महा, "मजा, अब में जा सकता है?" सुपमा ने हाथ जोड दिए । व्यक्ति ने मेरी ओर हाथ बटाया और Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया सवा भाग विदा लेकर वह तभी चले गए। मैंने निगाह घुमाकर अब जगह देशी । मोमबत्ती में भी धीमी एक लाइट जल रही थी। अच्छा मालूम हुआ । मानो दिन न हो, न रात हो । एक धुधलका हो और सब सपना हो । उस सुती सक्षिप्त देह को कधे से लिया और मानो पूछते हुए मैंने कहा-~"मुशी ?" • "मैं इन्ही के यहा हूँ । नही,~थी !" उत्तर का मर्म न मिल सका । वह सफाई थी कि चुनौती हम चलते हुए एक मेज़ के किनारे पा गए। उसके गिर्द घूम कर सुषमा एक कुर्सी की ओर वढी और बैठने पो थी कि मैंने दोनो कधो में उसे पकड कर सामने लिया। फिर एक हाथ से ठोढी उठाते हुए महा"यह क्या कर लिया है तैने ?” उसकी प्रा तिर आई थी और वह कुछ बोल नहीं सकी। कधे पर दबाव देकर उसे बिठाया और मैं आप भी पार्टी पर हो बैठा । मुझे सूभता नही था कि क्या कहू ? गया पूछू? वह भी नुप थी। मैंने उसकी चिट्ठी का जवाब नहीं दिया था । मुभमे गुस्सा था। मैं देश से बाहर गया कि यह सब घटना घट गयी थी। पीछे हिसाब लगाकर देखा कि मेरे विदेश जाने मे दो दिन पहले की घटना थी। इसी पर मेरे मन में क्रोध या ! इतनी बड़ी बात होने वाली हो और मुझे मालन न हो । इस पर मैं किसी तरह सुपमा को क्षमा नही कर पाता था । बहुत सोचता था कि हो सकता है कि यह गमभनी हो में विदेग के लिए निकल गया है। पाखिर प्लेन की दो-एमः तिथिया चली तो थी हो। इस तरह नाना तक उसके पक्ष में करना, लेकिन मन शिली में मतोप न पाता था। विदेश मे लौटने हो मैने फोन किया, फिर फोन किया। कोई उत्तर न पाया। फिर फोन किया तो निमो ने उठाया और नाम लेते ही पप ने बन्द कर दिया! मैं व्यग्र था और न वास पर सोर भी नाराज कि मुझे तुद योज-तलाश पर उगो बारे में पता Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झमेला लगाना होगा। इसके काफी दिनो बाद उसका पत्र मिला था। पत्र मानो मेरे हाथ में पाकर गिडगिडा पाया था। लेकिन मन का क्रोध उससे और उभरता ही गया। मैंने मन मे कहा--'मर कम्बख्त । मुझे क्या है ? लेकिन सच कहता है कि कितना ही मैने मन को समझाया कि मुझे क्या, लेकिन मुझे ही चैन नहीं था। क्या हुआ होगा ? जन-प्रदवाद ने क्या हाल किया होगा? क्या उसके मन पर बीत रही होगी ? क्या आस-पास का व्यवहार होगा? सब प्रश्न मन मे उठते थे और सबके उत्तर में एक घोर अन्धेरा ही हाथ आने को रह जाता था और में और भी ग्रोध से भर पाता था। सोचता था-चलू, एक बार उस शहर मे जाकर देख ही आऊ । लेकिन जाने कौन मुझे रोक देता था और मालूम होता था कि ऐसा होना असम्भव है। यही महीने भर पहले की बात है। तब से उसके नाम पर सिवा कष्ट के मैने कुछ नही भोगा । वैचैनी के हाथ कही कुछ विन्दु भी प्राता तो उसको मसल कर अपने को कुछ हल्का भी किया जा सकता था। लेफिन खत का जवाब मैने नही दिया । न फिर कोई खैर-सवर प्राई। इग सुन्न सन्नाटे पर कोई क्या कर सपाता था? लानत-मलामत, फटकार-दुतकार किस पर डाल सकता था? कि आज फोन मिला। पूछा, क्या पाच बजे मै पा सकता हूँ? मावाज फाप रही थी, गला भरा हुआ था। लेकिन उत्तके इस 'क्या' पर मे झुंझना पाया । "क्या में आ सकता हूँ?" क्यो, वह क्मवस्त जानती नहीं कि दुनिया के नय काम छोडकर मुझे जाना होगा, 'क्या' का नवाल नहीं है । फिर भी यह उमका 'क्या' मुझे अन्दर तक चोर गया । मानो उसने अपना विश्वास नो दिया हो, मेरा विश्वास खो दिया हो । दुनिया में पाही उसके लिए किसी विश्वास का ठिकाना न रह गया हो । मैने कहा था "कोन सुपी ? तू भी है ?" Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग "मरी नहीं " "नही ! अभी नहीं मरी।" "मैं क्यो पाऊ ?" 'मारने भी नही पा सकते ? उसी के लिए आ जायो। दया करो।" इन बात का मैं महसा उत्तर नहीं कोई बना सका और फोन कान पर लिए चुप रह गया। "राजेश" वाणी मानो भीतर पानी से भरी काप रही थी और मुझमे मान चढता जाता था। "राजेरा ? . राजेश ! सुनते नही हो? मैं मर रही है ।" पाके देखोगे नहीं कि मैं मर रही हू ?" मैने जोर से टेलीफोन वही दे मारा और इग पाच बजे तक इतजार करता रहा। गायद उसे प्राशा नहीं थी। शायद उसे श्राशा थी । मन कहता था कि वह जानती है कि कुछ और मेरे लिए सम्भव नहीं है। जाए विना मुझ से रहा नही जा सकेगा । और सचमुन ही ग विम्मित नहीं हुना जब देखा कि मेरे पाते ही उसके साथ के गज्जन विदा ले गए हैं। सुपमा को मैं जानता ह । हीरे वी मनी-मी वह कठार हो गाती है और काट कर सकती है। "म्बई से कर पाई ?" "मान रोज हुए !" "सात रोज?" "श्रीर मेरा गुग्ना फिर मुभगे घने लगा। "प्राण भी मजबूर होरर तुम्हें याद किया है।" "न करती आज नो क्या चुरा था?" "अन्धा ही था। लेनिन हो नहीं ना । “राजेग, ये क्या हो जाता है ? जिन्दगी क्या है ? दुनिया क्या है ? प्यार क्या पाजून है ?" Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झमेला.., ७७ "क्या मगाऊ ? काफी, चाय ?" "ग्रह, छोटो । 'सच, राजेश । प्यार क्या है ? धोखा है ?" "जाके कहता हू, कि जल्दी करे।" "नही, बैठो। पाता होगा । क्यो, मुझे मह नहीं सकते हो ?" "नही सह सकता । शकल तो देखो | और यह लिवास ! वाह ! क्या कहने है | बम्बई मे यही सीखा है ?" "तुम विलायत मे क्यो जा बैठे थे ?" "वको मत । मेरे जाने से पहले तुम यह कर चुकी थी।" "कौन कहता है " "मैं कहता हू । तुमने फोन किया था ? पूछा था ? अव वात बनाती हो ।" "सच, तुम तेरह को नहीं चल गये थे ?" "नही, सत्रह को गया था ।" । सुनकर उसके मुह से लम्बा सास निकला । जैसे गहरी हाय हो । फिर बोली, "छोडो राजेग । अब कहो, तुम्हारे पान या जाऊ ?" राजेश ने उस अन्धेरे उजाले में सुपी के चेहरे को भन्पूर देवा । प्रश्न मे पारदर्शी ईमानदारी थी । बोला-"सुपमा । तू बक तो नही रही ?" 'नहीं, बक नहीं रही, तुम जानते हो।" "प्रय कहा हो" "घर मा गई है। एक पांव इनफे यहा भी है जो अभी गये हैं !" "सातो रोज रही थी ?" "घर आज गई हो ?" " " 'स्वागा मिला?" "नही, योई मुभगे नहीं बोला।" Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दमदा भाग "सुद गई थी ?" "वही पाकर ले गए थे, मैने फोन किया था।" राजेग पीहा से भर पाया । वोला--"सुपमा ।" "तुम जानते तो हो राजेश । मरना इससे अासान होता है !" "उन्होंने कुछ नहीं कहा " "कुछ भी नहीं कहा !" "क्या बात है ? पत्थर तो है नहीं वह 1" "मैने पत्थर कर दिया है। इतना कि अब वह मुझ पर डाट-उपट भी खर्चना फिजूल समझते हैं ।" "उनको तो हक है । और नहीं तो सस्ती ही करें।" "सव हक तक कर दिया है उन्होने । मै नरक मे जाऊ, या पाप में पडू । लेकिन, उनकी परवरिश की छत मेरे लिए हमेशा पुली है। यही है गजेश, जो मै नहीं सह सक्ती ।''नही सह सकती ।''नहीं रह सक्ती। ये कृपा ये दया. ये भीस' बतायो राजेश मया ?" "वही रहो।" "राजेश !" "हा, वही रहो।" "तुम कुछ नहीं कर सकते " "नही कर सकता।" "राजेश । नुग सरत क्यों बनते हो? तुम वह हो नहीं । तुम्हारे पास सब है । जरा चाहो तो सब कर सकते हो । मेरे लिए एक कोटरी बहुत है । तुम्हे कने बताक कि घर मुझे हर घड़ी पीस्ता रहता है। उसकी परवरिश के में लायक नहीं है । तुम्हे गया बताऊ कि बहा मेरा अब भी श्रादर होता है ! सब मेरी फिमा करते है । मुमस मुछ नही रहते और मेरी हर स्वाहिम, हर जरूरत का स्याल रखते हैं। गजेग, मुझे उधार नो । मुझे वहा गेम सा जाता है जो अस्पताल हो, और मै मरीज। गा, मैंने जो विया गद भुगतने यो तयारी नगार ? मेरे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झमला ७६ मन में अब भी नही है कि किए पर लौटूं । पछतावा मन मे नही है। प्यार को व्याह से बडा समझा, इसको क्या मैं गलती मान सकती है? लेकिन, मुझे उबार लो राजेग ?" "उन्होने तो व्याह को बड़ा मानने को तुमसे नहीं कहा न ?" "ना |..नही कहा !" "फिर ?" "राजेश ! तुमको क्या हुआ है । मोचो कि मैं कैसे सह सकती है ? दस महीने पूरे हो गए, मै सुलकर उनके साथ रही और घर की तरफ नही देखा । अव दस महीने बाद घर की गरण लेती हू और कोई कुछ नहीं कहना, तो क्या यह मुझे काटेगा नही ?" "मन शरण लो।" "कहती तो हूँ, कुछ इन्तज़ाम कर दो।" राजेश अपने वावजूद अन्दर मे कसता पा रहा था । उसने कहा "ठीक है । एक मुनासिब कमरा डेढ सौ से दो मी स्पये माहवार किराये में हो सकेगा। तलाश करूं?" "राजेदा ।" सुपमा ने दवी चीस मे पहा-"तुम चले जाओ यहा ने " "काफी न पीने दोगी? लो, वह ले भी पाया ।" बंग मय सामान मेज पर रप गया । सुपमा सुन्न बैठी रही और राजेश ने प्याला बनाकर सुपमा को पेश किया । सुपमा ने चुपचाप सासर को हाप में ले लिया और फिर राजेश ने अपना यप बनाया और पोरे से सिप लिया। नाय ही मंडविच के प्लेट गो उनने सुपमा की तरफ नरयाया। कुछ देर कोई कुछ नहीं बोला । अन्त मे राजेश ने गहा-"पयो, बनाया नही ?" मुपमा मानो पासुमो में से हमी । बोली-"मेरे पास बहुन पंगा है। बहुत · बहुत बहुत पैमा है। मानते हो औरतो के पास पैसा गने मा पाता है मनाते मर्द है, आ जाना औरतो के पास है। किं इस Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैनेन्द्र को गहानिया दगवा भाग खूवी से कि वे औरत हैं । त्यो, मुझमे क्या अब कुछ वाकी नहीं रहा गो पैसे की बात करते हो ?" ___"वाकी होगा, इसीलिए शायद चुपचाप पति ने अपना पर फिर तुम्हे पेश कर दिया |-है न?" " "गजेश, निकल जायो यहा से । मै बेवकूफ थी जो तुम्हें बुलाया।" "हा, देवकूफ थी। और इससे पहले भी जो की बेवकूफी की । तुम प्यार करती हो, मैं वेबकूफी वहता हू । सुपमा, इसीलिए पाया है कि तुम समझ जायो कि बेवकूफी क्या होती है।" ___ "तुम प्यार को बेवकूफी कहते हो, तुम ? अभी तक तुम्ही न थे कि मुझे समझाते थे कि वही एक सत्य है, वही परम सत्य है । परमेश्वर उसने दूसरा नही है । और अव ये क्या कहले लगे?" राजेश ने कडवा बनकर कहा-"कह ये रहा ह कि दो सौ रपये मे एक ठीक कमरा हो सकता है । उस हिसाब से पाच-उ. सौम्पया ऊपर का और सर्च समझ लो। सात सौ रपया माहवार तुम कितने महीने तक चाहती हो मै तुम्हें उधार देता रहू ?" सुपमा व्यथा और वेदना से भरे स्वर से बोली-"राजेग ।" "शायद सामयिक पतित्व मुझे एवज में देने की बात तुम्हारे मन में हो । नव अवश्य उधार उधार नही रह जाता। पयो, वह वान है?" "राजेग, में रह चुकी है कि तुम चले जायो यहा में !" "-नहीं । वह मुझे मजूर नहीं है। वह महगा नौदा होगा। इसमे तो नन्ना प्यार होता है। प्यार में राव मुपत मिल जाता है क्या यह तुम्हारे पास है, या मेरे पास है, जो दिया जा सके ? मुझे तुम पर माननी हो जो प्यार तो परमेश्वर कहता है । में अब भी उने परमेघर पता हु । तव प्यार हमारा रहा है, परमेश्वर का है और उसमे गौरा नहीं हो सकता।" गुनो नुपमा, बहको मन, योर बकाया मत ! ये तीय है कि कमाता मदं है, गनंती प्रोग्त है। पंगे पर प्रधिका गोरा मानती और भोली है, ग तो मनाने और गनिमाने भर काम Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झमेला दार है। मर्द की इसी कमजोरी को अगर औरत अपनी ताकत समझे जाएगी तो वह पागल होगी । तब जानती हो, पति उसका मालिक बनेगा और साथी नही बन सकेगा। पति मालिक का और पत्नी माल मालिकी का नाम होगा और उसका बन्धन अन्तिम होगा । तुम्हे नहीं मालूम कि जिस भापा में सोच रही हो वह प्रेम की नही, अर्थ की है। इसीलिए तुमसे कह रहा हू कि पति के घर की शरण ली है तो वही रहो और वही ठीक है । उसमे तुम पिम जानो, मर जाओ, तो भी गलत नहीं होगा। क्योकि क्योकि 'वतायो, जो प्यार था वह प्यार निकला ? फिर वह उड कैसे गया ? • 'मैने तुमसे पूछा नहीं है "सुपमा, माफ करना । सच बतानो, क्या हुगा ?" 'तुम क्या उसे नही जानते ? देखा तो है। कई बार देखा होगा।" "हा, देखा है । जानता हू । लेकिन, हुआ क्या ?" "क्या बताऊ राजेश । मुझमे सब हो गया था। कोई खूबसूरती न थी जो मुभमे न हो! वह जिन पासों मे देखता था उनमे कुछ कमी न रहती थी । मानो वह निगाह सारी दुनिया, सारा खजाना, सारा स्वर्ग मुझमे पा जाती थी । राजेग, वे दिन ऐसे स्वाब मे गुजरे किं कुछ कहा नहीं जा सकता । मै उमगी रहती थी और घर में नौकर को भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। मेरा मन नहीं भरता था जब तक बर्तन में न गाजू, मफाई मै ही सब न मरू और साना भी खुद ही न पकाऊ । एक दफे पाना बनता पा और हम निकल जाते थे। जहां चाहते जाते, और सब जगह रंगीनी थी और पूवमूरती थी और वन मसमल बन जाता पा। लेकिन मेरे जिस्म मे से जाने गया सोने लगा। और उसगे यानो मे से भी न जाने क्या कम होने लगा । लमहे वहीं होते और सब मंजर बनी रहता । लेकिन, यह बतलाता कि मैं उन्नीस-बीस वरन की क्यो न हुई और कुपारी पयो न हुई। बोर मुझे भी सोचना परना कि हाय उन्नीस-चौरा वरनीवारी में पयो न हुई । लेकिन, कुवारपन मेरै बस का न था । और उसको उनी यो पाहत होने लगी थी। मैं मैने Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र मी कहानिया दसवां भाग जहर भी साया ! और भी रास्ते आजमाये । पर अपने से और प्रापरा से नफरत ऐमे घुमड़ती हुई उठती कि हद पार फर वह प्यार बन पाती। हम एक दूसरे को नफरत करते और फिर एकाएक प्यार में डूबकर, फिर नफरत करने का दम पा जाते | उस सबमे स्वाद भी पा राजेश । वा तेज स्वाद था । मै उसमे रहे जा सकती थी। मरती-मरती भी जिए जा सकती थी • पर क्या हुआ कि उसने कहा, दिल्ली चलेंगे।" ___मैंने इस बीन सुपमा का एक हाथ अपनी दोनो होलियो के बीच ले लिया था और वह वही टिका हुआ था। अब स्वय उठापार सुपमा के हाथ को मैंने सुपमा की गोद में ही छोड दिया। सुपमा ने कहा-- "वो ?" मेरा स्वर भरा था । बोला- "कुछ नहीं !" सुन कर सुषमा ने अपना हाथ वढाकर मेरी उ गलियो को ले लिया और कुछ देर उन्हे उमी तरह थामे रही । लेकिन मुझ से सहयोग, सहाग न गया और सुपमा का हाथ वापन अपनी ही गोद में सिंच गया। मैने जाना कि उसने मेरी ओर देखा है। मै जाने पहा पार देरा रहा था और जाने क्या देख रहा था। "सुन रहे हो?" __जाने दूर कहीं कुए के भीतर से पावार पा रही हो, ऐमे बोला ___ "नहीं । गुन नहीं रहे हो !" "हा, छोरी । वह सब होता है । तुमने बहुत सहा । प्रागे मुझे तहने को न कहो ।" "नहीं, सुनो। हम दिल्ली आ गए। फिर जानते हो, म रोज गया दुमा ? बात थी कि तीमरे रोड बम्बई लौटेंगे 1 में उसी पी मोपती थी और चीज़-चन्त के इन्तजाम में थी। तभी या देती है कि एक संबरे वह चुपचाप गायब हो गए है ! बानी नियान जी की और अपना सामान गहना लिया था । मुझे पता नहीं हुमा, शाम त पता नहीं Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झमेला ८३ हुमा। आखिर पता चला तो यही मेरी समझ मे नही पाया कि न कहने की और चोरी की इसमे क्या बात थी । मै जबरदस्ती तो साथ बधने वाली थी नहीं । कहते तो कुछ उनके लिए सुभीता ही कर देती। लेकिन, राजेश, वतायो यह यया होता है ? जो एक दिन सव कुछ थी वही भार और बोझ कैसे बन जाती है ? मैं औरत हू और किसी तरह इस बात को नहीं समझ पाती ।" ___"तुम नहीं समझ पामोगी । कोई नहीं समझ पाएगा। छोडते हैं, उसको समझने की जरूरत नहीं रह जाती है । पाना चाहते हैं, वही पाखों मे वसा रहता है। सुपी, कई होगे जो राह मे तुमसे भी छूट गये होंगे । उनके बारे मे तुम समझ सकती हो, सोच सक्ती हो! . "यही उस विचारे के साथ हुश्रा । उसके मन में कभी तुम वत्ती थी, अब जो और सूरत और मूरत वहा बस गई होगी वह उसी के पीछे चला गया । तुम्हे अगर छोड गया तो तुम्हे समझने की उने जरुरत ही कहा रही? छोडो । 'बन्द करो। पात्रो, उठो । हल्की बनो और रज को पी जायो । “पिक्चर चलोगी ?" ___ "नहीं, आगे सुनो 'यह प्राज उसका सत्त पाया है । इसी के लिए तुम्हें बुलाया था कि पूछू, रया करूं ?" उस घुधली रोदानी मे गजेग ने सत पना । बचकाना-सा था लेकिन पल में बहुत दर्द था । वह सच्चा खत था । पटकार राजेग चुप हो गया। "बोलो, बतायो । छ बाहो न?" "तुम पया सोचती हो?" "मैं कभी कभी नही जाऊगी!" "वह पागल हो सकता है। तुम्हारे बिना जीना उसे मुश्किल है। ऐसे में जो पार गुजरे चोदा है" यह सब तुम जानती हो।" नही जानती। कने जान सपती ह । मुह छिपापर मेरी तौहीन मारपो जो चला गया है, गया वह यह सब बनाफर नही लिस तक्ता ? "नही, नव घोगा है।" Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दो राम कुमार जी को 'महाशय' कहना पात्र का स्ढ प्रयोग नहीं है | श्राशय वह अपना भरसक महान् रमते है । लेकिन उन्होंने निर पाया, बाल खीचे, पर कुछ समझ मे न श्राया । सवेरे का समय था, और वह अकेले थे । कुछ काम-धान हो नहीं सका था। रात को नीद नही ग्राई थी । और वह चुपचाप उठकर सपेरे मुह-प्रवेरे ही इस ग्रपने अध्ययन के कमरे मे आ गये थे कि कुछ करेंगे। पर किया कुछ नही जा सका । आकर पहले तो वह इस कमरे में पर से उधर घूमते रहे । फिर मेज़ पर घंठे भी, तो कुछ देर बाद कुहूनिया मेज पर टिक गई, और हथेलियों मे ठोडो तथा मनपटियों के सहारे चहरा टिक गया । श्रोर वह सोन में बैठे रह गये । वैठे-बैठे फिर उटना पहा । श्रीर फिर टहलने लगे । ऐसे हो नमय बीतता गया । पक्षी पहूचहाने लगे | और सवेरा निकलता चला पाया । मालूम हुआ कि समय प्रवस्य चला है, और शायद कदम भी बराबर चलते रहे है, पर बात यही की वही रही है, तनिक भी चल-बिनल नहीं हुई है। 1 बात मनमुच ही प्रगम थी । श्रजव जिच को स्था थी । इस पर यकीन करने को जी नहीं होता था । पर यह भी, और पोरता से सामने थी । अन्त में उन्हें और कुछ नहीं सूभा, नो हार पर मेज पर बैठे, और हाथ चढाकर मेज पर लगी घटी को जोर से दवा दिया | श्रावाज सुनकर याने नोकर ने बदगी बजाकर नहाराम कुमार जी ने ऐसे देगा, कि जैसे हा से यह कोन सा गया है। पर मन पर पहा - "बीपी रही है उन्हें भेजना ।" जो 7" Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दो ८७ वीवी जी आई, तो वह कोई विशेष विश्वस्त और आश्वस्त भाव लकर उपस्थित हुई, यह नहीं कहा जा सकता। आते ही बोली-"क्या है ? तुम सोये नही ?" "तुम्ही क्या सो सकी हो ? सुनो, अब और कोई रास्ता नही है । उससे मिलना ही होगा ?" "मिलकर क्या होगा? उसकी ज़िद तो जाहिर है । वह एक नम्बर है, जो तुम समझने हो । झुकने वह क्यो लगा? तुम्ही सोचो, इपर ही ठीक न होगा, तो उपर क्या प्रागा रसी जा सकती है ? अपनी लाडली को तो सभालो । उनी के वन-बूते पर वह कूद रहा है।" "तुमने उससे बात की?" "यात क्या साक करू ? वह तो गुम-सुम हो रहती है । बोले जाक, पूछे जाऊ, और अन्त मे हार कर में ही मिर फोड लू । मैने कहा था, कि तुम बात करो। तुम मे वह कुछ डरती भी है। मुझे तो गिनती तक नहीं । तुम्ही ने उमे चढ़ाया है । "तव ने कहती पा रही थी, कि समझो-नमो। लेकिन तुमने एक नहीं सुनी । तुम्हें लडकी का भरोसा पा, तो अब सभालते गयो नही ? हर बात मुझ पर देते हो। बिगाड़ते बुद हो, सभालने को मैं हू ।" "अच्छा, अच्छा नाके उमी को भेज दो।" “भेज तो दूगी, लेकिन देखना, डाटना-उपटना नहीं। दो दिन में बेचारी प्राधी हो गई है । वह पौन नुग में है । लेकिन कम्बरल'"उने तो जेल होगा चाहिए, जैत । पर तुम में कुछ नहीं होने का दुनिया मे । मम लिया।" उनके पर्तव्य का मान इतना रह जाय, यह प्रसन्नता का भवादन पा। सुनकर महामाय को भौहें चडी । लेकिन उन्होंने अपने को काबू में किया। महा--"अरला, यावा । जामो, टुप्पी को भेज दो।" "देगना प्यार मे नमाना। एक दफा गार निया, वन्न वह बहुत Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनेन्द्र की कहानिया दगमागम "तुम जाके भेजो तो उने।" । भल्लाहट में बात को सक्षिप्त करते हुए बोले-"तुम जाके जा उने ।" अभी भेजती है । लेकिन तुम्ही सार करते हो। और बनत पर तुम्ही हाय भी उठाते हो । अव मत उठाना हाथ । काहे देती ह।" । राम कुमार बहुत ही सीझ गये। उन्होने माथे पर हाग मार पर पहा-"अरे, बाबा, खतम करो । जाग्रो।" "हा, सतम भी अव में ही कर ।" पाहती हुई, बीवी जी कमरे से बाहर हो गई। राम कुमार क्षुब्ध-मन वैठे रह गए। थोडी देर मे वह वहा प्राई, जिसका नाम दुप्पी बताया गया था। वह द्रौपदी थी । सच्ची और पहली द्रौपदी कैसी होगी, पता नहीं। पर ऐमी रही हो तो भी महाभारत का काम पायद थोडाबहुत नल जा सकता था । गुन्दर थी. यह गाना पर्याप्त नहीं। गौन्दयं मे जो अतिरिक्त था, वह ध्यान खीचता था। अवस्ना अधिक नहीं थी। पर अभी मे अन्दर को दृढता और प्रसरता गना दे जाती थी। राम कुमार जब अपनी इस कन्या को देसते, तो किनित चपिन रह जाते । 'वह गब इसमे कहा मे या गया है, जो हम इगो माता-पिता दोनो मे किचिन भी नहीं है ? छुटपन गे देगते पाये है। बच्ची थी, तब भी नामान्य रूप और प्रचार मी बच्ची नही थी। अपनी रणने और चलाने को जगे छुटगन गही उसके पाग कुछ-न-नाष्ट हो जाता था।' पाज हर समय उनको समक्ष देखकर गम चमार पो सचमुच लगा, कि तारना-प्रताडना सब व्यर्थ है। भाग्य ही पान गमयं ।। आगे कहा-"बैठी, बेटी।" द्रौपदी बैठ गयी। "एक बात पृछ, तो बतायोगी।" नोपदी चुप रही। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 ये दो ८९ वोनी । "जी।" "तुम वहा रह मकोगी?" "जी।" "रह सकोगी ?... लेकिन पली तो उस घर मे मौजूद है ?" "मैं निभा लूगी।" "वया कह रही हो?" राम कुमार कुछ देर निस्तब्ध रहने के बाद वौसला कर बोले-"निभा लोगी? पर कैसे निभा लोगी? उप-पत्नी बनकर ? विपली वनकर ? एक्स्ट्रा वनकर ? तुम निभा लोगी, पर जानतो हो कि कानून निभाने को तैयार नही होगा ? दूसरी पत्नी हो नहीं सकती।" "आप उनसे बात कर लीजिए।" "तुम किससे बात कर रही हो, मालूम है ? बाप से बात कर रही हो । में उसने यया वात करू! यह कि तुम पाने को तैयार हो ? और मै तुम्हारा पिता तुम्हें वहा विठाने को तैयार हूं? यही बात करने को रह जाती है, "क्यो ?" "वह मुखी नही है । बडे दुखी हैं, बाबू जी।" "गोह । तो वह सुख तुमसे हो सकेगा । तुम शायद यही सोच रही हो, कि उने सुन मिलना चाहिए, और तुम सुख दे सकोगी। विमला को तुम गाभी गहनी प्राई हो । उनने तुम्हें मा का प्यार दिया है । उस दुनार का यह प्रनिदान दोगी । क्या तुम सचमुच समझ सकती हो, कि विमला को दुरा देवर तुम्हारे पास मुग बचा रह जायेगा, कि खुद पा समो या गिनी को दे सको ? विमला को चिन्ता और चिता पर पया तुम उमले पनि के सुनो भवन मा निर्माण करना चाहती हो?" __द्रोपदी ने पनी । उनने अपने मुह यो हायो से हक लिया। हठात् बोली-"नहीं, नहीं, नहीं ! में उन्हें दुल नहीं दे सकती। किसी तरह में यह नहीं पर सख्ती । लेकिन वह तो यह तो मैं उनमे यही कहती रही। पूछती रही है। यह परते हैं-" Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Eo जैनेन्द्र की कहानिया दम भाग "क्या कहते हैं ? बोलो न, चुप क्यों हो गई ?" "नहीं । नहीं, नहीं । मैं भाभी जी के दुगका कारण नहीं बनूंगी। लेकिन वह कहते है-" कुछ स्वर मे पिता ने कहा- "यही तो पूछ रहा है, पिता है वह "" उच्छ्वास धीरे-धीरे समाप्त हो चुका था, और पेहरा भी हाथों से टका नही रह गया था । द्रोपदी जोर लगा हुए महा"हते है वह, कि यह मेरी कोई नहीं है । कभी कुछ नहीं की है। मेरी फिक्र उसे क्या है? उसने अपना सहारा पा लिया है। 'मेरा कोई नही है । मा नही है, बहन नहीं है, भाई नहीं है। बाप है, और यह नहीं से भी नहींतर हैं । में है, और मेरे चारो तरफ युग होम है।" कहते-कहते प्रोपदी फिर उच्छ्वास से भर गई । उसी तरह बेहरे को हायो मे लेकर सुबक उठी । बोली, "बाबूजी गया यह झूठ है झूठ है ? प्यार झूठ है ? धीर गया में झूठ के यग में थी ? नहीं, नहीं। ऐगा कैसे हो सकता है ? यह बातें, वे वायदे, वे गसमें ।" नहीं, नहीं। सब झूठ कैसे हो गगता है ? राव झूठ नहीं हो सकता है। श्री बाबू जी में बायक मुझे और पोटिये कि मैने झूठ को अपनाया है, योपा माया और योग दिया है। आपको परेशान किया है। लेकिन घी या गा वह वया रेव था? नहीं, नहीं। एक बार घापके सामने पूछ बार जान लेना चाहती है। किराया? सच व एक्दम नया ? कहने यह कुर्ती से नीचे गिर भाई मोद सगीर पपपपप पर रोने लगी। ही जाती थी- "मुझे पौर मारिये, बाबू जी मोर मारिये में झूठ में गरी 1 ܕ nanda रही पर गया था? गातो नहीं है। पर ह दीजिये कि यह पाउने एमा होगा ।" Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दो ६१ महाशय राम कुमार का चित्त पसीग गया। उन्होंने बेटी की बाहो को अपनी जाधो पर रो गोनकर उसे उठाते हुए कहा-"उठो, बेटी । सामने बैठो। हा, ऐसे।" उसी की पोती का पल्ला लेकर पासुनो से भरे उसके चेहरे को पोछते हुए कहा----"स्वरथ हो के बैठो, बेटी । तुम पटी-लिसी हो, और अब एम० ए० हो जायोगी। माफ करो कि मेरा हाय तुम पर उठ गया था। अब समझता हू, कि वह गलती थी। क्योकि तुमने झूठा प्राचरण किया भी था ! तो उसके भीतर सच है, यह समझ फर किया था। समझा था तुमने कि प्यार की रक्षा कर रही हो, और जहा दुस है यहा सुत्व की सृष्टि करने मे अपना विसर्जन कर कर रही हो । अब मैं समझ पाता है कि क्या चीज़ तुम्हे दृढता दे रही थी। मैं जिद समझता था, पर जिद को भी जो एक यान थामे हुए पी, उसको मैंने नहीं देखा था। अब वह अन्याय मुनरो न होगा। लेविन, बेटी, अव मैं तुम्हारी सच्चाई को देखता हूँ, तो तुम्हे बतला भी मपाता है, कि तुम भूल में थी, और झूठ में थी, कि तुमने एक नही, दो नहीं, पूरे भार महीनो से हम लोगो से झूठा व्यवहार रसा, हमे भूठा पाश्वासन दिया। और इसमे उस पादमी ने तुम्हे उपासाया, जिसगो तुम गहती हो कि प्यार पानता और चाहता था । सोचोगी तो पता भरोगा कि यह सब कितना मिच्या व्यापार था। प्यार तो रामगुर गुच में भी बज सच होता है। अगर उसमें घर मा मिला, मोर उसकी बगह से झूठ गौर पोरी भी मा गई, तो सोचो कि गया यह मूत में प्यार भी रहा होगा? या कि यह असल मे छत ही होगा?.. बिमला के लिए उसने कहा कि यह सभी उनकी कोई या कुछ भी नही रही । बारह वर्ष से यह स्ना सार देती रही है। हम राव ने देगा: जिउनी जैमो परायणा पस्निपा धान तौर पर नही होती "तुम पोमपने घर में कुल पोर पोरी मा पाचरण पाराता रहा, जो स्पर्ग मापने पर में भूत का व्यवहार करता रहा, फिर जो तना लन बना हि परायणाली में दुरस की तरफ से विमुख होकर उसकी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनेन्द्र को महानिया दरायो भाग .. सब तरह की निन्दा और गुरमा तुम्हारे मन मे डालता रहा, महू मे तुम्हें सच मे ऊपर उठाने को गोच रहा होगा ? का नहीं है, कि तुम देग लो कि प्यार के नाम पर जो तुम सोगों ने पैदा कर लिया था, उसमे यही गोरे याता न भी, और यह एक कोरा झूठ पा ? तुम बाघ पर उसी को हो । निस पर मुट्टी वाथी है, सोलकर जग देखो कि क्या उगे उन कुछ है भी एक बार बतामो | पासपोर्ट बनने पर तुम लोग सात जाने वाले ये ?" रहना "फोरन चले जाते ।" "मानं मे ही ?" "हा, शुरु मार्च मे ।" "का गया होने वाला था "जी ?" "में उनकी हालत जानना है | पाच हजार का भी इनजाम लिए माना नहीं है। उसे वही उधार नहीं मिलेगा। फिर मह पर यह मामला ? यहि पढ़म्हातारी या मुली वेढे, नरोमा था, जो सुन पारंगी, तुम्हारे बाबु जी चुही, कि तु कभी तुम्हें उस नहीं कि कुछ होगा, कहा मेइन हो दूरी नहीं हो नहीं गयी माना दोनों चीजों को ऐसा होगा और समाज में किपरियार गनाएगा। भी मैंने है। ईश्वर प्यार में है नहीं माना है । । दिया जाए। है, नहीं है। # पर मेला है और नामोहर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागना चाहते थे । शायद जरूरत पड़ने पर नाम तक बदलते और दवेछिपे रहने की कोशिश करते । बोलो, इसमे तुम बडाई देखना चाहते थे ? मालूम है, तब क्या होता ? तुम कानून से भागते, और कानून तुम्हे पपाडने पीछे-पीछे जाता । सोचते होगे, कि देश से पार विदेश में जाने से कानून की गिरफ्त छुट जाती। वह बात सच नहीं है। देशविदेदा मय आपस मे ऐसे मामलो में सहयोग करते है। सब देशो मे मोनोगेमी है। दुप्पी वेटे, तुम समझदार हो। इस साल एम० ए० हो जानोगी । तुम्हारी कोई स्वतन्त्रता मैं तुमसे छीनने वाला नहीं हूँ। लेकिन तुम्ही उग स्वतन्त्रता को अपने चारो तरफ से काट कर अपने को कंदसाने में डाल लो, तो इसमे मैं तुम्हारी कोई सहायता नही कर सकता। तुम वही करने जा रही हो। सच के प्रकाश से फटफर तुम झूठ के अधेरे में ही छिप कर अपना स्थान बनाने को रह जाती, और इसकी अनुमति मेरे पास से पा न सकती । अव भी देखो कि तुम बाल-बाल किरा नरम की सभावना से बची हो। मैं पूछता हू, क्या है कि वह आदमी माज भी मेरे सामने नहीं पाता है ? जब पता चला, उसी क्षण से वह मान्नी माटता पिता है । यह प्यार है, जो ज्योतिप्क और उग्रीव होता है ? मैं समभना ह, द्रौपदी, कि तुम पहचानोगी कि यह वह चीज है, जो मुह टिपाकर रेंगने को प्रवेरी सीली गरियो और मोरियो को इलती है । यह प्रेम नही हैं, कि जो एकमार पुण्य है। यह दम्भ और एल है, जो निरा पोर पोरा पाप है।" ___ "पाप " द्रोपदो ज़ोर से यह शब्द माहकार, हमपी-बपको गी अपने पिता को देखती रह गई। फिर अपने भीतर जाने कहा से गस्ति खोपती हई चोली--"प्रेम पाप नहीं होता, वाबू जी।" राम पुगार ने अतिशय स्नेह से रहा-"ठीक कहनी हो, बेटी ! प्रेम पाप नही होता । पाप है, और गोलिए वह प्रेम नही है।" __ "चावू जी, मैं मापने हाथ जोड़ती है। मुझे गध-कुछ दीन रहा है। लेकिन एमा बार आप उन्हें बुला दीजिए। घामको सामने पूछ कर मैं Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनेन्द्र को महानिगा दनया भाग अपने मन में भरछी तरह जान लेना चाहती , कि गया जो था, वह राय भुव मा । नहीं, वह गझरो मनरी मह रायते । मेरो पालो में देतार वह मनही बोल मरते, मभी नहीं बोल गरो।" "पापको विचान नहीं होता?" "अविश्वास की बात नहीं है, बेटी। विस्मय पारी है गिगम चीसी गयानी को नही दीख रहा है, कि इस मारे मामले के गीतरागा पीया है।" __ "दीग रहा है, पाबुजी । दीगने लग रहा है। भाप उर युनाए नो। जो मुझे अब कुछ-कुछ दीन रहा है, देगी नि उसी को यह देगने से रो पनसार पारते हैं। माप पहने थे, कि उन्हें जिद है।" ___"हा मुझे बताया गया है. कि जिद ही है। यह उम गरसे में पान नही पाना चाहना, जिसे सीधी गापा ले अपराप गा रास्ता गहना चाहिए । तुम्हारी यणा से मैं हाय मीने हुए है, नहीं तो पागप शो रोपने लिए मानन ने जो बातें तैयार पर नमी हैं, पर गाय बगर उनको दबोच नँगी, मैं कह नही पता। ताही बनामो, जिद गागरा जान हो भी गया गरता है?" मैं वानिगह, पिता जी । मोर बालिग लोगों को पतलता पर पोई माननाय नहीं थाल माता !" गम कगार का नारा मनीन हो पाया । मो-नगम पती-रिमोमासर गुम गामाती हो, शिगान मे बारे में लग गही मोती। वन में नारी जाता और प्रभागा गोगों को अगवा न पाया, मगर गीत मनमानी । यमन मारा हरीर भरना नागीनीया, गोयना मेशित मगर दर गगम दर न , मोरगपागामा पाने में बतौर राना गा ET, गोगा ranी मोरा गाना भीनों पिना गरी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दो L रहेगी। इसमे कोई कुछ नही कर सकता है, बेटी, कि अपराध को कानून से निटना पडे । फल क्या होगा, निश्चित नही है । लेकिन परिवार भग हो, श्रोर दमन श्रोर विद्रोह का आमने-सामने द्वन्द्व हो निकले तो यह खानदान के लिए या किसी के लिए भी शोभा की बात नही होगी "पिता जी, धमकाइए नही ।" "बेटी, तुम को धमकाने के लिए कोई और आने वाला नही है । मुझको भी बन्द करती हो, तो लो बचा-सुचा मे भी वन्द हो जाता हूँ | लेकिन छोडो | बात अपने बीच मे है | दमन और दलन का जो यन्न सडा है, वह दूर और बाहर है, और उसके प्रावाहन के लिए में श्रातुर नही हूँ | लेकिन वोलो, बात करोगी ? उसे बुलाक ? फोन करू ?" "हा । बुला लीजिए ।" "वया तुम इजाजत दोगी, वह श्राये, तो पहले में ही उनसे बात करू ?" ܐܐܐ "यो ? ग्राश्रमवाइएगा तो नही ?" "इसीलिये किसका प्रश्न अभी तुम्हारे मन मे टना दोपता है ? नही, धमकाऊगा नही ।" "बाबूजी, श्राप लोग उन्हें दुश्मन न मानिये । वह दुष्ट भी नहीं हैं । ऊपर से कोर पटता है, तो यह अन्दर से कस जाते हैं । लेकिन मेरा बहिन वह किसी तरह नहीं कर सकते । में उनपा हित सोचती हूं कि दू, कि 'यो तुम्हारा दिन इसमें नहीं है, और तुम अपना हुत्रा व्याह निभाने से जिदगी, बाबू जी, पर वह नही झुकेंगे । और यह घर से नहीं छोडने, सब तक दिया वचन में घी मोटान मे गती हूँ ?" , का? फिर वही ? राग कुमार ने आवे मे 'दो के बीच एक ने तो पता है? मानून पान पर तोड़ देगा, या प्राप लोगों की नातिर काटेगा, तो या हो ? मन के अन्दर या सगरबा हो का जायेगा, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेन्द्र मोनिका दाना तो उसमे गया होगा, बारीमा पानी देवी मानना चौर गुनी होगा ?" "स्या मदतीत द्रोपदी ?" "यही गस्ती हु, वाजी, कि अगर आप पहने उग में धान रखा माहो, तो जरर करें । लेनिन धमनी या ओर से काम जोगा , तो फिर मागे का माग मुगिन हो जाएगा। और मुनगेन या सरे, तो फिर मुने दोष मत दीजिएगा।" "तु विश्वास है, मिन ममान नंगी? या तप, मो में भी मा ___ "रिम्वारा की बात पहा है, पाबूजी ? उन पर में पागप नाग मगा गानी । प्रेम पटिग तगी तो होता है, सच प्रतिम नोटी। दमा निर्दोष तो नही है। गलि उनको पार से मै गर भो म पगी। लेगिन गर. सुध भीती, मेरे सामने नहीं महंगे। मंगधारिणी नही सगे। मुझे पग रा. पिजोमा, ठौर नीमार जागे नही देश हो । मुर्गी दोगने लग गया, frrमारे प्यार की गचाई में उम्र मही-ग-गही करवाई की गी! नागोर हम नहीं अपनात, न मास-पास नांगो मे गमोला मगमगर पानेही गुमनो बटामिनने नग जाने । सामागार में की जमही सायं सामा। 'गम द्रौपदी" "स, बारी ! गा में देगी। और पप ग मोगा में दर देगा। और मन में बीमार मा ! गमि गोपन गरी । और रिमोमा मरद पायो ।' रामगार गारमा ", 7 Tr---"T", " मान Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दो बात करने की कोई जरुरत नहीं। न यहा तुम्हारी बातो के वीच शायद मौजूद रहने की ही जरूरत है। तुम दोनो सुलकर बात क भोर पीछे मुझ से कहना।" ____ "नही, वावूजी," द्रौपदी ने कहा--"आपको अपना मन ज़रार र कर लेना चाहिए, और उनसे भरपूर कह-सुन लेना चाहिए। बस, मे पुलिस वगैरा को मत लाइएगा । पाखिर प्रात्मीयो में डर-लिहाज बात क्या है ? गलती हम लोगो की तरफ से यही तो हुई, किड बचाव से काम लिया । तभी जो हमने सच माना था, वह सराय से होने के कारण अन्त मे झूठ निकला । और आत्मीयता मे गुस्सा व हो, तो वह सब निकल-निकला कर आखिर भलाई को ही राह देता इसलिये प्राप मेरे परोक्ष मे हर तरह उनमे अपने मन की कह-सुन लं येगा । वस्शने की बिल्कुल न सोचिये। सिर्फ बाहरी धमकी को लीजियेगा । और यह भी जरूरी है, कि आप रहे, जब हम दोन बातें हों।" "नहीं, नहीं, दो जवानो को बीच में मेरा क्या काम ?" और प्र भाव से अपनी बेटी द्रौपदी को दोनो गालो पर थपथपा कर, वह तरफ रखे हुए टेलीफोन की ओर बढकर, चोगा उठापार, डायल । लगे। प्रल '६२ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे दो "गायो, अजित श्राश्रो, वैटो ।" महाशय राजकुमार ने उग युवक के अभिवादन में नहा जो हर तरह योग्य जान पटता था और जिस पर व्यय न दोगती थी । युवक ने तनिक कार प्रणाम दिया | कहा, "सागने मुझे याद किया पा ?" "हा। मैंने गुड फोन मिया था। तुम उस वक्त से नहीं । विगता थी । असुविधा तो नहीं हुई?" "क्या पूछी जाए ?" वे नए इतना दूर बन गया हू बाबूजी विगा 7 1 राजकुमार जी ने एक भरा गाम गिया । वा, "हां । दूर तो चन गए हो कुछ | लेकिन मैंने यह नहीं मोना या होगा तुम लोग क्यो नहीं सके " "पाय मेरा नहीं है। दद कोई बुरी चीज तो मेरा दी, पारी रक्षा को आप बचा यह और 7. नहीं, वही बढ़कर प्यार वन जातो बुराई देगी जाती है। महारा से पते हैं। समाज के नौनि घोर नियम की है । उसी बिहान सेवई को भी स्थिर है। यह को योग 7 भो।" "सरी ! भने नहीं में बहुत घना है बावुजी ! कोई 4 ን हम तुम हो !" Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे दो εε "अपने किस बारे में बाबूजी ? यह कि नियम हम कम देख पाते है और स्नेह को ज्यादे मानते है । यह बात तो सच है ।" " विमला को तुम स्नेह नही करते ?" "नही ।" "व्याह तो किया है। "हा ।" י! 1 'वह भी तुम्हे स्नेह नही करती ?" "वह नही सकता ।" "स्नेह को तुम मानते हो ?" "ती को मानता ह {"1 "द्रौपदी को तुम कव से जानते हो ?" "श्राप क्या पूछ रहे हैं ?" "नही, बतायो । वह उस समय सग्रह वर्ष की रही होगी । इटर मे थाई थी और तुम नये लेक्चरार लगे थे । तब से ही न यह स्नेह ग्रनुभव हुआ होगा । उससे पहले तुम्हारे स्नेह की क्या दशा थी ? माफ करना यह जिरह नहीं है । स्नेह को समझने की बात है । स्नेह तो जीवन है, क्यो हैन ? अर्थात् उसके बिना जीना हो नही पाता । यौवन को तुम महत्व देते हो और ठीक देते हो । लेकिन स्नेह के बिना गंगव मोर वायंग्य भी नही कट सकता है । घजीत, तुम लोग स्नेह पर अपना पाणिपत्य मानते हो | यही यौवन की भूल है । ग्रव सोचो और बताओ दीपक इंटर में घाई और तुम कालेज में आए तो उसने पहले स्नेह तुम भी के जीवन में अनुपस्थित तो होगा न ? अपने-अपने वृत्त - रहा होगा ।" पीत को नहीं लगा । उसने पहा, "श्राप गया चाहते है 7" 'तुमपो बुलाया है और बाप कुछ गमम्ना सोचना चाहता हू । तुमने परिस्थिति ऐसी है" बात आपने सोच ने सगे नहीं बढ़ा दिया है ? Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनेन्द्र सो माहानियां समा भा पिता जी के पान मा पनी का पार है।" "हा, यान आगे यह गई है और तुम पायद उमे भय पीछे नहीं रोगा चाहते हो । तब तो उसे पौर मी मागे बहने से रोका नहीं जा सकता!" "बढिए, और यहाए । मैं मापको रोकाया नहीं। आपने शायद भाई जी पुलिस से बात की है । और सबसे भी पाहे तो गीजिए। नेकिन आप भी नहीं रोक सफेंगे और हम भी नहीं रोगः सकेंगे। प्यार गलत चीज नहीं है और कोई उमे रोग नहीं समेगा।" "तुम समनदार हो अजीत ! मन में सही और गलन नहीं होता, काम मे हुमा फरता है । वहा पर तना जादे होता है कि हम समोर की इज्जत के लिए ही गायद हम रहते हैं और दुनिया उनमें पल रही है। पली रहते हुए विवाह दूसरा नही पिया जरा सस्ता, पाक मि गग साध चाहने वाला प्रेम भी नही नगा जा सकता ? मंचन गा में याला प्रेम हो तो कौन रोक सस्ता? तुम लोग जो गाम रहमा पाएगे हो ! तुम जानते हो, यह मभव नही है।" ___ "मैं तलाय ले सकता।" "तो लेने तक रहरे पयो नहीं ? राप माय विदेश भागने यी नमागे गमे ठन गई!" "तलाक में समय लगेगा।" "तो इतना चे गाना पाहिए पा।" " । " पहार अजीत एक पदको मुम्मान में मुग्म राणा । मा, "कमोजिएगा। हम लोग उगने नहीं है । र सो गुण नही मानते।''उपका उमीद मे गे माता रमा, यथा । मापन राजपाई पर थैटरर बान भरनी की नो मु, बनाने की बारस न दी। मादापों के पिता पनि निमी को भी निरनी है। माप प दायरे में अपने पितार में दायरे में गो इन्दगीको पररी गर । मागनीमार मलाणा में भी जग गियान में कार मर गाने मेरे दिमाग ifrrit Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे दो १०१ बाधक है और जिसके लिए मै जिम्मेदार नहीं है । वह जिमे पत्नी कहा जाता है, साथिन नही है । और हम दोनो एक-दूसरे का साथ नहीं दे मकते तो विवाह फो समाधि वनापार उसके नीचे स्वय शव बनकर जीने का कोई अर्थ नहीं है । विमला आज़ाद है और तभी से आजाद है, जब द्रौपदी का मेरा परिचय हुमा । उस पर मेरा कोई अधिकार, कोई पआरोप नहीं गया है। मैं..." ___ "तुम मे नैतिक साहस देखता हूँ अजीत । और यह अच्छा है। लेकिन फिर ये चोरी-सूट क्यो चलता रहा?" "आप नमक न पाते । माता-पिता अगली पीटी को समझ नही पाते हैं।" ___ "यह जोसम भी तुमने गयो नहीं उठाया ? विद्रोह कायरता से तो अच्छा रहता है।" "माज में जहर यह सोच रहा हूँ कि कायरता हमने क्यो दिखनाई । हो रागाला हे नि पायरता वह न हो, करुणा रही हो । प्राप मोगो का चित्त हम नहीं दुवाना चाहते थे।" "अब तुम देखते हो कि चित्त दुमा नहीं है, फट गया, टूट हो गया है। उस वक्त तुम लोग खुलकर सामने प्रा गए होते तो मैं ममता दि गुम् दुममा ध्यान है । और दुःस देने की कीमत देकर तुम लोग लको एकदम बाद दे देना चा तोट टालना नहीं चाहते । मै उसको साहन महता । पाहे सहमत न होगा और विरोध भी फरता, पर गोलर ही भीतर उसको सराह गमता । लेनिन जिसको तुम पारणा पहोलो, पारना नहीं थी, लिप्सा पी लिप्यागी सीने तुम्हें फापर बनना पला । पौर पनीने जररी होता है कि तुम पर रान्ता छोडो, सीधा रास्ता परलो।" "गुनिा, वायुनी ।" मान पर प्रजीत ने कहा, "सबने का राता हमारे लिए सीधा नही है। अंग में राले पर सीधा पलने धौर उगो को जीता गिर करने में नए जवानी है और उस चुनौती Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र मो गहानिया दरो भाग से हम पीछे नहीं हट सनरी | मापने अपने पितृल में पराम में माँ: वद होकर शायद समस्या को यह रूप दे दिया है। मापने पालो यो और चुनौती फनी है। मंगुनकर परताrि में उन पुनौती घो उता घोर पाप जो चाहे पर नीजिए । होगा यो, जो मान । हम लोगों की प्रतिमा बनपने को नही है और यह टूटगा नही जानती।" राजकुमार जी को जाने कैसा लगा । यह गोनर होम पाए । प्यम मे हमार बोले, "तुम दोनो मी प्रतिज्ञा हो Ranit है. लेकिन समाज की भी कुछ प्रतिमा है । नसमा प्रारी पार गरा बन कर राज्य मराटामा है । उसो तुम बन कर भागने की मोनोगे, यही न" "वही में प्रापी सलाह लेना परता, बनाए म पार? हम जीवन के प्रारम्भ में हैं, हमारी महायता नीजिए।" 'महामना यही है कि गर भूल जायो। प्रभी तो भून ही मानो। घगर घर में तुम्हारे कलह बडे और रातार जस्नेहो गए पौर गिर भी जाए राय जो हो गौन गेना । मम तर गर भोगमित रगी पोर गगनो परीक्षा में हो।" __"म बने भा गमदून, हा मोई हमला नहीं जानता।" "या भी गाद रहोगेनो नाम बदन मर और नामा मरदेशा हो तो हमलोग ही तो गुल में मादायो।" "गयो, दो पमना जन माय नहीं पते?" "प्रिवाहित पत्नी में रहमान "यहा मौन होगा । नये नाम में ना की । मोर मोई जानकानेवाला नहीं मिलंगा।" T, मानो होगे तोर प्रादी में शाहर हो । शिरगेमी माrिariat गुम किसीमोनाने हो ? तो मया की start Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे दो १०३ बीच में ही अजीत ने कहा, "और पाप अपने को विचारशील रहते हैं । यही आपकी विचारगीलता है ? बाप होने भर से बेटी को अपनी चीज मानते है और उसके जीवन का भला-बुरा नहीं सोच सकते । अपनी और समाज की नीति को रसने और सन्तान के मन को कुचल कर मार डालने की जो बात करता है वह अपने को विगरशील कहता है । "मैं चलता हूँ । सब व्यर्थ है।" "बैठो, बैठो " राजकुमार जी ने उटते-उटते अतिथि को टोपते पौर रोकते हुए कहा, "ठीक कहते हो तुम कि शायद पिता मुझ मे बोल रहा है। इस समय विचारशीलता उसके अधीन हो गई हो सपती है । लेकिन द्रौपदी से तुम्हारा परिचय हुआ, उसमे पहले उसे स्नेह कहा मे मिलता था और उसका स्नेह फिसको मिलता था ? उस मवको योता नहकर आज तुम क्या किसी तरह अस्त और प्रवर्तमान कर सकते हो । यह यात सच है कि तुम्हारी पत्नी के जीवित रहते मैं यह कमी नहीं होने दूगा कि यह तुम्हारे सग-साथ रहे । इसको रोकने के लिए कानून की सब पक्ति का प्रावेदन करते भी मैं नहीं निमगा। तुम्हारा मन और द्रौपदी का भी मन बाद मे प्राता है, तुम्हारा असली सामाजिया हित पहले है । उग सहवास मे से विप पोर नरक उपजता है जिनो बाहर की भोर में विश्वास पोर सद्भाव नहीं प्राप्त होता पौर नलिए जो दो मे हो घुटकर रह जाता है । प्यार प्रफाग चाहता है। पन्धेरे में ही जिसती रहना पडेगा, वह पार इतनी जल्दी सट्टा और ना हो जाएगा कि उनमे से देश की लपटें फूट निकलेंगी। मैं पह राव माजही ये सपाता हू । तुम नहीं देग रायते, पयोकि वीच गे वे सपं सुमने सभी पार नहीं किए हैं, जिनमें यह दर्शन प्राप्त हुमा करता है । रोपिन सिहन बनुगवहीनता के नाम पर तुम लोगो को जमान परमानोंगे गुन मेलने में गिर नही पहा पा रायता • यह छोटो। एक वाजतामो, विमला पर तुम्हें नाप है" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जो मो महानिमा भाग "मग मा सना । बड़ी पाने पेटीमा । पोरगी ? पर भी नहीं मिलेगी।" "मार माह है?" " नहीं । विमला मारण नुम भागया ! साता है। तुम्हारे माय मेनुगत पार न पा गाने को न में, ना निरन हो गौर तुमने उगने कोई दावा भी न टाना नदियाद उपम्मिा विमा हो। लेकिन तुम उमे गजान मगन्ना।" "मामा यात नमीलिए । पानीमा पहिए।" ___ "अपनी ही पाता।ौपदी अपनी ही है, बिमना अपनी म मपन हो। दोपदी को शिमला में शिवना-गितना प्यार किया है । गोरे रष्ट मी पूजी में तुम कोई योजना मारम न पला । विगना को दूर जाना पहें, टूट जाना पड़ें, रेला मोई याम गुपन न माना।" "HITोद्विा उग, उमपी पगे।" पीत में स्वर में पटना मान पानगर होने कहा। "नों बेटे, पमा ना ?" "शाने श्रीजिए ! यह पार नोटि" "दो, गनी' नो, नहीडा ! गुम दुयो मेशिनमा "दुधी भीनी!" मीमा म मादीन हा मोरोपा, "शो में मो६ पाना नहीं है। मोर पार और निरसी गोडामा माप For mix मा. नामा मोपदीय नगनही समान" ___ भी और iiti ript" पर 24 mirarar को नाम नभर ITEM Tr En, "zा, मनिrya! म ? " Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे दो १०५ हू, तुम दुमी हो । ऐसी बात नया है ?" अजीत का गला भर आया । उसने कहा, "कुछ नहीं ।" और हठात् कचे पर पाए उनके हाथो को उसने हटाया । कहा, "आप मुझे छोर दीजिए । मैं अकेला हू और अकेला रह सकता है । और पिसी में कुछ नहीं मागता है।" गमकुमार एक-दो कदम पीछे हट पाए । बोले, "मैं अभी द्रौपदी को बुलाता ह । तुम लोग बात करना और मैं यहा न रहूगा । और तुम सराय में न रहना।" वाहकर रामकुमार मेज़ की तरफ वटे कि बटन दयाफर घटी दें। तभी अजीत ने कहा, "ठहरिए। अभी दुप्पी को न युलाइए । मैं पाप से जाने कब से कहना चाहता था, हिम्मत नही होती पी। पाप-पाप बैठ जाइए।" राजकुमार बैठ गा और भीनी वाणी-से बोले, "बेटा, फहो क्या यात है?" मनीत का गला भर्रा माया, 'पया पहू, बाबूजी । मेरी मा नहीं है। मामी, घुगा को नहीं है । यहिन नहीं है । पिना जी मुन से पचपन में जो स्ठे है, जो ऐगे रठे हैं कि वह नही ये बराबर हो गये हैं। या मलेन गेट चुके हैं । मै उनका पालीता है और जानता दिनार पार के लिए उनके पास एफ केवल मै हू । लेकिन वह मुन ने मानिसमोर उनको प्रय सब पागाए गुम कुलागार से जल चुगी हैं। दुनिया में गया पता है । यही मोपना नहीं है । विमलाजमीन, तो पाया है । यह पारनाई, पानी, र आ. तो पीकोकी। मशागद भोला नहो पा मार मगर मेरा हो । Fiगा । में अगमा पता गमा और वा प्रयती पती गई। गोरखगर म पर ही में अपने लिए योटा-चन मा पानी र पहा तो एका दम देता है. सो में या तोर सपना हलि देगीनादमी में मोना में अनिल रर गया मारा । गमग अगर पीने वरती तो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग • इसीलिए कि इधर सव वीरान है और उसकी प्यास प्यासी ही रह जाती है । इस अपने सिर को लेकर में कहा जा मरू कि जो तन मन के साथ दिमाग का भी साथ चाहता है । पतिव्रता ठीक है । लेकिन जिन विषयो पर मुझे रस है, क्या उन पर भी मुझे कोई साथ और सहारा नही चाहिए ? और मै जितना सोचता हू, एकान्तता बढती जाती है और मेरी आवश्यकता भी उतनी ही निविड होती जाती है ।" द्रोपदी मिली थी 'भाप उसके पिता हैं । आप जानते हैं, मैं सिगरेट पीता था । शराव पीता था । रुपया उडाता था । उडते रुपये को ऐसे देसता था जैसे फूटते सूरज की किरणों को कोई देखता है । वडा श्रच्छा लगता था और उस रम्य दृश्य के और अपने वीच मे सिगरेट के उठते हुए झिलमिले धुएं को वीच मे डालकर उस सब को आाख-मिचौली के खेल मे स्वर्गीय स्वप्निल बना लेता था । तब वह दृश्य मुझे बडा गुदगुदाता था। अब वह सब खतम हो गया है। शराब छूता नही, सिगरेट एक दम छूट गई । और उन रगोले- सजीले सपनीले मुग्ध दृश्यों से भी नाता मैने तोड़ लिया | क्यो ? क्योकि आपकी कन्या द्रौपदी देवी थी । उसने मुझे उत्कर्ष का मार्ग दिखाया । उसके कारण मैने इन्सान बनना शुरू किया है | उससे मैंने कल्पना सजाई है कि मैं सचमुच कुछ वन सकता हू और कर जा सकता हू । 'विमला खुश है तो खुश रहे । खुशी जहा से ले सकती है, वह स्थल प्रावाद और खुशहाल बना रहे । इस भावना को लेकर मैं घर से बाहर भटक गया हू और मैंने सबके लिए सुस को कामना की है । उसी मे जोर पड़ने पर सिगरेट और शराव श्रा गए तो आ गए, अन्यथा मैं उधर जाना नहीं चाहता था। जो गया एकवार उसे लोटना सभव नही हुआ करता । दुप्पी ने सब सभव कर दिया है । उसने जानवर को प्रादमी बना दिया है । आप चाहिए तो मुभमे उसे छोन लीजिए । श्रापको कन्या " है, आपका सव है । लेकिन में भपनी कहा जाऊगा । तरफ से उसे छोड़ दूंगा तो रह ही है । दूसरा कही पोई ठौर-ठिकाना मुझे नही है । मेरे लिए एक वही श्रब आप क्या करते Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे दो १०७ हैं, समाज क्या करता है, राज क्या करता है- - इसमे में क्या कह सकता हूँ ? मुझे अगर जीना है, जीते रहना है तो कोई कुछ करे, मेरे लिए दूसरा रास्ता नही है । श्रापका बाप का हक है, मेरा कोई हक नहीं है । जानता हू पति और पत्नी जीवित है । शोर में भरसक अपनी स्त्रह छाया उस विचारी भौली विमला पर से हटाना नहीं चाहता । इसीलिए तलाक की बात नही सोची और श्रव भी सोचना टालना ही चाहता हू । लेकिन अगर और राह नही है तो श्राप से सौगन्ध खाकर हता हू कि मानसिक या शारीरिक या कहिए तो मार्थिक कोई संबंध उधर नही रसूगा और परिपूर्ण पार्थक्य का पालन करुगा। लेकिन मुझे जीने दीजिए। सभव हो सकता है कि निकम्मा ही मे न निक और कुछ काम की किरणें भी मुझसे फूट निकलें। बाबूजी, मैं आपका हूं, मुझे अपना बनने दीजिए। में दुष्ट नही हू, श्रपराधी नहीं हूं। लेकिन कभी लगता है कि रास्ता मुझे नही मिलने दिया गया तो में सब कुछ, सभी कुछ बन सकता हूं । सच यहता हू, बाबूजी, इस वक्त कुछ मुझ से बाहर नहीं है। देवता भी बाहर नही है और दानव भी बाहर नहीं है | कुछ मोर मतलव न लीजिएगा। लेकिन हत्या भी करनी पड़ जागगी तो इन हाथो से हो सकेगी। यह में बिल्कुल संभव मोर भासान मानता है ।" "मजीत !" राजकुमार जी ने देखा कि प्रजीव टूटने के बिनारे भा गया है। जाने से यह सपने और अपने मांयों को धामे हुए है । सम्बोधन सुनकर भजीत चौका। यह एक क्षण नृला सा सामने देवता रहा | जैसे पापों में ष्टि न हो या घांसों के पीछे मोसम में से पप गायन हो गई हो। फिर यह सहना उठा और राजकुमार की के परणों में गिर कर फुट उठा, "मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है, बानूजी ! मेरी रक्षा दीजिए।" राजकुमार जी पसीजे और गलकर इतने पाटन गए। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग उनको कुछ सूझा नहीं । तभी एक हाय बढाकर उन्होने बटन को दवा दिया । जोर से दवाये रहे। घर के अदर वजती हुई घटी की आवाज इस कमरे तक साफ कानो मे आकर पडती थी। अजीत ने भी वह गज सुनी । वह तनिक घवराया। राजकुमार जी ने कहा, "वेटा उठो, द्रौपदी माती होगी।" द्रौपदी माती होगी। क्या सचमुच वह पाती होगी ?.. श्रजीत राजकुमार जी के चरणो मे से उठा और झटपट उसने गर्वथा स्वस्थ हो जाना चाहा। "बेटा, ठीक वैठ जाओ। मुह-उह पोछ लो। तुम्हे स्वस्थ और प्रमन्न दीखना चाहिए । है न?" अजीत ने जल्दी अपने कपडे सवारे और आगे बढकर आलमारी के शीशे के सामने जाकर बाल-वान ठीक किए और सभल कर गहरी एक काऊच मे निश्चितता के साथ हो बैठा। तभी द्रोपदी ने कमरे मे प्रवेश किया। राजकुमार जी को उधर ही निगाह थी और अजीत की जानबूझ कर पीठ थी। द्रौपदी एक क्षण ठिठकी। फिर आधी की तरह भागती हुई प्राई और दोनों बाहो ने बैठे हुए अजीत की गर्दन में भूल पडी। उच्छ्वान के साथ बोली, "भाई साहब" राजकुमार जी आस में भर कर पाते हुए पासुओं को रोककर हठात् पासो को पोछते हुए चुपचाप कमरे से बाहर निकल पाए। उन दोनो को मालूम भी नहीं हुआ । बाहर आते ही उन्होंने दरवाजे को चटसनी लगा दी। घर के अन्दर पहुचे तो घर की मालकिन ने पूछा, "क्या हुआ?" वोले, "कुछ नहीं । सब ठीक है। दोनो अन्दर है।" "यह क्या गजव कर दिया है तुमने !" "पिफर न करो। बाहर मे चटगनी बन्द है।" Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे दो १०६ प्राधे घटे बाद कमरे मे दरवाजे पर अन्दर में लगातार पप्-थप् को धावाज पाती ही चली गई तो दरवाजा खोलना पडा। दोनो के चेहरे पर म्वगं लिखा हुआ था। अजीत ने राजकुमार जी के पैर छुए, माताजी के भी पर छए और कहा, "द्रौपदी का कोई भाई नही है, सब बहने ही है । आज से सामने यह सगा भाई उसका रटा है । इस बात पोआप लोग कभी न भूलियेगा।" अजीत की भागो मे सामने और वह हन रहा था। जुलाई '६३ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः पत्र, दो राह प्रिय विम्मी । तुम्हारे पास से पाने मे मुझे शाम हो गई थी। बहुत अच्छा लगा था और मन लौटकर किसी दुनिया के काम-धाम के लिए वाकी नही बच गया था। मैंने कहा था कि मीटिंग है, लेकिन मीटिंग मे में नहीं गया । सव तुच्छ लगता था और तुम लोगो की खुशी को देखकर जो खुशी मैं अपने मन में भरकर लाया था, उसे बखेरना नहीं चाहता था इसलिए शाम का सव कार्यक्रम टालकर में चुपचाप पाव-पाव पास गाधी समाधि पर चला गया । वहा एक तरफ घास पर तब तक बैठा रहा जब तक उठना जरूरी नही हो गया । समाधि शान्त थी और धीमे-धीमे नीरव भाव से उतरती हुई सन्च्या बडी मुहावनी लग रही थी । जैसे छू कर और छन कर मेरे भीतर ही उतरी जा रही हो। मुझमे बड़ा सुसद उजाला था। लेकिन विम्मी में नहीं जानता कि कैसे धीरे-धीरे मुझमें एक मधियारा छाता चला गया । जैसे कोई भार चित्त को दवा रहा हो। मैने याद किया, तुम दोनो को उन किलकारियो को, उधम को, दंगे को, मस्ती को, जो मेरी उपस्थिति तुमगे और उमगा देती थी, रोक तो क्या पाती । तुम पीछे से आकर कुर्सी पर बैठे नीरज के कपों पर झूल गई थी । तुमने उसके बालो को महेजा, फिर धीरे-धीरे तुम्हारे हाथ उसके कानों की लोरी को सहलाने लगे । फिर ये उगलिया उसके गातों पर घूमी और मानो फिर ओंठो को पुचकारने लगी। तभी तुमने एकाएक शुफकर उसके बाएं कान की मोर को दातो के बीच देकर काट जाना। नीरज 'मी' । करके जो उठा तो उसने तुम्हारी हाय को उगली Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ पत्र, दो गह को पकड़ कर चवा लिया ! तुम दोनो विगडे और फिर सिलसिला पढ़े। सच मानो तो ये सब देवकर मैं धन्य अनुभव कर रहा था। लेकिन फिर भी जाने ययों, धनी और गहरी होती हुई सांग के साथ मुझ पर एस. भारीपन बैठता चला गया और मेरा मन जाने कैसे पास से भर गया। गाची ममाधि से लौटने में मुझे रात हो गई। मैं याना नहीं सा सका और पत्नी ने पूछा, तो कुछ बता भी नहीं सका । वह नाराज हुई पोर विगी और मैने झिडक दिया । उनको प्रादत तो नही है कि मुझे सहमा छोर दे। लेकिन इस बार उन्होंने कुछ जिद्द नहीं की और मुझे अकेला छोड दिया । प्रच्छा ही हमा, पयोकि मैं किसी से बात नहीं फर समता या । मंग मन इस पर भारी था कि जिस प्रसन्नता को अपने गोली में भरकर में तुम्हारे पास में लाया था । वो पाने किरा विध गहरे रिपाद में बदल गई भी पौर मुझे घाह नही मिल रही थी। जैसे मैं टूया जा रहा था, और यह तल न पाता था, जहां मार लू फि बस पन्त , पीटा मागे नही जा सकती। गोया सो मैं गवस्य, लेकिन भार पल्दी तुन गई । भर चार बना है।म विसर पर हूं, कमरा अमेला है गौर तुम्हें यह पत्र लिख रहा है। जानता नहीं में गया चाहना है । पायद कुछ भी नहीं चाहता हूँ ! उपदेश तो दे ही नहीं मरता । उस में कहा है, काफी बाइ, सेफिन भर समा मह नहीं मार पाया हु कि जवानों की जवानी पोई दोपया पर किसी तरह हलो अनलगन्दी है । अनुभव को और क्य को में बहुत महत्व न दे पाहू और मुझे लगता है कि मीना ने माता पा प्राणों का वेग जो नकोरी पो नही देग पाता, नही मान पाता, तोढ़तामामारिबानी सासरतातामा पत्ताही पन्ना , पाल्पपान नहीं है । किन दिमना, मेरे मन में विदा होती है पर इस पनामा पाता। पाने के बाद गुम पारितोदे पाई होगी। पन्दे दो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनेन्द्र की कहानिया दनवा माग घन्टे, तीन घन्ट । फिर तो तुम्हे जाना ही पडा होगा। प्रान्विर तुम्हारा घर है और वहा दो प्यारे-प्यारे बच्चे है । पति हैं, लेकिन एक बार उन्हे छोड भी दो, क्योकि वह अपने लिए और तरह की व्यस्तता ठूठ सकते हैं । दिन में कारोवार है, शाम को क्लव है और 'लेकिन वह छोटो । पर बच्चे तो तुम पर है ! तुम नही पहुचोगी तो नौवर से लेकर खाना-पीना तो वे अपना तव भी कर लेंगे, देर हो जाएगी तो शायद विस्तर पर पहुच कर लेट भी जाएगे। लेकिन क्या उन पालो मे नीद आयगी ? क्या वे अपनी मम्मी की राह ही देखते नहीं रहेंगे? इसलिए आखिर तुम घर गई ही होगी। शायद हो कि साने के वक्त से पहले पहुच गई हो और बच्चो के प्यार मे एकाध चीज़ अपने हाथ से भी बनाई हो । फिर उनके साथ होकर तुमने भी कुछ साया-पीया हो और उन्हें वहानी लोरी सुनाई हो। जरूर तुमने यह किया होगा। पयोकि तुम्हारा मन प्यार से भरा है और बच्चो की उस मन मे बडी ममता है। लेकिन में सोचता हूँ और मन भारी हो पाता है । समझ ही नहीं पाता कि इन दोनो खुशियो को तुम एक में समाकर कैसे मनाल पाती होगी। क्या दोनो मिलकर तुम्हारे भीतर दुस्मह व्यथा का निर्माण न कर देती होगी। विमला, में विवाह का प्रहरी नहीं है । उस कर्तव्य में प्रेम फा निन्दक भी नहीं बन सकता है। लेकिन सच बताना, बच्चो के पिता रात को क्या जल्दी श्रा गए थे ? मैं जानता हूं कि वह जल्दी नही पाते । जानबूझ कर जल्दी नही पाते । सव मो जाते है, तभी यह घर मे पाते हैं। ऐसे कि जमे मेहमान हो, जैसे चोर हो । वह पनि हैं, पिता हैं. उन्हें अधिकार है, मव न्वत्व उनका है। लेकिन गती पाते हैं घर पर और दूर-दूर दुनिया में रहते है और यही दूर में घर में सामान और सुविधा जुटाने रहते है। इसलिए कि यह निी एमा भी उपयोग न कर सकें और तुम्हे पिनी तरह का पट न हो। तुम डापोर से तनिा भी विघ्न न अनुभव करो । मैं उन्हें जानता, नम Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ पत्र, दो राह ११३ जानती हो । घर में बेबस सोचता हू कि क्या ये सब तुम्हे बहुत भारी न हो जाता होगा ? नचमुच गुमने इस समय सहा नही जा रहा और तुम्हारे प्रति सहानुभूति में मन उमटा या रहा है । तुम प्रत्यन्त स्वाभिमानी हो । ऐसे पति का श्राश्रय तुम अगर छोट नही पाती हो तो मैं जानता है इसके लिए तुम्हारे मन मे कितनी गहरी वृतज्ञता का भाप होगा 1 तुम धायद पलित्व नहीं दे पाती हो, फिर भी पतित्व उनका अपने ऊपर धारण किए हुए हो । सोनना है और न अपने में गना नही चाहता, रोना चाहने लगता है । माना हो विमला तुम रकची को ममता है । लेनिन ही भर जाता तुम उस घर में अगर पनुभव करती हो कि जिसमे तुम अपना जीवन बिताती हो, जहाँ से अपने सब श्राश्रय लिए सब सुविधा प्राप्त गरती हो, तो दिग्मी, गोपि यह काफी है ? ये उपा उनित प्रतिदान है ? और यदि प्रतिदान की घपेक्षा दूसरी ओर से नहीं है तो उनी वारण ये और भी अनुचित नहीं हो जाता है 2 और गया ? दया नही जाता है । १ भाग्यपर (२) तुम्हारा, ग० दे० के लिए भागे ! लेकिन नाम कहिए पापा वर्ष भो देवाने है। में यह गरमी । मैंने पापको भाता है। 1 कही होगा ! मेए नहीं। दिन का है और का हो जाएगी। बाकी ये पान यह पर पाना । रागगैर है, नदिया होगा? परर Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जनेन्द्र की कहानियां दसया भाग इधर-उधर जाएगी-तो तब क्या होगा? और मुझसे रहा नहीं जाता है और मैं वहा पहुच जाती है। क्योकि यह अकेला रहता है और कमरा बहुत सूना है और उसका कोई नही है । चौके मे लगकर कुछ उसने लिए तैयार कर देती है। लेकिन ज्यादातर वापत जल्दी मा जाती है । क्योकि घर में फिर आकर बच्चो के लिए अपने हाथ से कुछ बनानावनूना होता है । कभी अवश्य ऐसा होता है कि उसकी प्राख में जाने क्या देखती हू कि जा नहीं पाती है । वह वहा मचलता है और वडा ढीठ है और मुझे रुक जाना पड़ता है। क्या यह सव में ठीक समझती हू या पसन्द करती है ? या मुझे अच्छा लगता है ? लेकिन मैं सब भूल जाती हू और सचमुच फिर समय भी भूल लाता है और कभी तो रात काफी देर से पहुच पाती हू । घर तो है ही, और वह सबसे बडा कर्तव्य है। उस कर्तव्य मे त्रुटि में भरसफ नहीं करती। लेकिन उसको निबाहते हुए अगर मुख की वूद एक राह में मिल जाती हो। तो क्या सूसे कंठ मे उसका अपमान करती हुई मैं निकलती चली जाऊ और उसी में कृतार्थता मानू ? अगर ऐसा नहीं करती है तो क्या मत प्राप भी मुझे दोष देंगे ? गिरस्ती एक जूवा है और पन्धे पर लिए-लिए पातों को सब ओर से बचाकर मैं अब तक उसे ढोए चली गई है। आप जानते हैं कि एकाएक मेरी भाग पुली तो कमे सुली ? बताइए कि मैं फिर अपने को रोक सकती थी ? कर्तव्य का चक्कर अगर था तो उनके लिए भी न था, सिर्फ मेरे ही लिए था? या तो दोनो के लिए था } नहीं था तो मेरे लिए भी नहीं है। आप मच काहिए ! पर्शन नहीं, विचार नही, फैसला दीजिए । दो टूक जो हो वह शलिए ! प्यार और व्याह की गोल बान न कीजिए। तात्विक विवाद में ने कुछ नहीं मिलता । मैं प्यार को नहीं जानना चाहनी । विवाह को भी नहीं जानना चाहती । ये शब्द हैं और मेरे पल्ले में स्वय हूं। उस निपता को लेकर मुझे द्विविधा में न हानिए । मेरे मन मे पाट-फाय न पैदा योजिए । देखिए, भाप ही कही ये कि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ. पर, दो गा' पाप नहीं है ! फिर ऐमा न कीजिए कि पाप पैदा हो और मेरा मन मुझे ही हका मारने नगे । प्रापकी चिट्टी मुझे इसीलिए डराती है। मेरा दिन मढे में निकल जाता है और उसकी पामे जो मैं इस घर में नही, उन पर में बिताती है, मुझे अपने दिन से विही नहीं मालूम होती। फिर यह आप क्या लिख रहे हैं ? कहीं तो किमी को कुछ शिकायत नहीं है । मन तक में नहीं है। मैंने पापा पाग्रह-पूर्वक अपने उस पर में क्या इसलिए बुलाया पा, गया पाप भी उत्सुकता पूर्वक इमनिए पाए थे, कि मेरे मन मे सराय पा कीडा डाल दे ? नहीं, नहीं ! मैं यह नव नहीं लेना चाहती ! उहानुभूति नहीं लेना चाहती। प्रसन्नता हो वीप है। वही धापस में नी दी जाती है। हमारी प्रसन्नना मे गे अगर आप प्रसन्नता ही लेकर गुप्ट हो तो हमे याद रगिए । नहीं तो भूल पाए । पापको, विम्मी प्रिय दिगल ! गुमने मुझे ठीक निक्षा दो ! यही नो पता था कि उमर से मकान नहीं पाती ! यहे गतीहत देने लग जाते हैं। पह नहीं सोचते कि यह परे गो जिन्दगी में दाल देना हो सकता है । पिन विग्मी, में नामाश्मिता भौर नंतिपता को बिल्कुल नही गोपन नीति समाज सनी मन्त्री पी है कि गुमने गा नुमने ₹। सो समोर यद धनोपानिए उन निन्ना मे मैं मर रहा कमानी रहा है, या त गपभी न चना । बात दूसरी है और यह पर मैं मारेपारमानिया का विका, गे पोर पर हो गए धौरान मद मोहमपी अगर भने रातरिम दाम की हम पानी में घर पर न होगी ! Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दरावा भाग तुम्हारा घर है, परिवार है। भावना मे अवश्य सब एकाकार हो जाता है, लेकिन भावना ते यथार्थता कटती नहीं है । यथार्थता के तल पर भेद भेद ही है । और ये भेद जब भावना डलती है इतने उभरते और चुभते है कि उस कप्ट को बचाना ही चाहिए । मर्यादा ये समाज की है इसलिए नहीं, बल्कि इसलिए वि वे यथार्थताए हैं उनमा ध्यान रखना पड़ता है । आज भूलने से जो कल उन्ह फिर याद करना पर जाएगा तो वह याद सहज न रह जाएगी, तीसी वन पाएगी । इसलिये यदि कुछ कहता हूँ तो पाहता हू । बुरा न मानना । उसके जीवन की सोचती हो कभी यि जो तुम्हें प्यार करता है और जिसे तुम प्यार करती हो? अभी नया सिलता जीवन है उगया। तीस वर्ष की उमर होगी । पित्तना सुन्दर नौजवान है। देखते ही मन मुग्ध हो जाता है । तुम्हारी पास उस स्प पर मोहित हुई, तो ये मासे कौन हैं जो नही होती होगी ? और उस युवक ने लिए मेरा मन पराहना से भर जाता है । जव देखता हूँ कि उसने तुमको चुना, और जबकि इतना ससार उसके सामने सुला पडा है । तब भी तुम्ही पर टिका हुधा है । अब सोचो विमल, उसकी तरफ से सोचो । उसको पया अपना घोसला या बनेरा नही चाहिए ? बाम तो ठीक है, लेफ्नि गत गो अगर उसे कुछ हो जाए, क्या इस प्रदेशो में तुम अपने बच्चों के पास सोने से इन्कार कर दोगी? नुनो विमल, तुम्हारी सुन्दरता कर सक योगी ? उमर का अन्तर क्व तक दबंगारन यथावंतानो पो फली न पभी पहचानना ही होगा। भूले रहने में जब तक पनना है, तभी तक चलता है । अन्त तक नहीं चलेगा ! नहीं चलेगा, नहीं बनेगा। लेकिन तुम अपने लिए सोनो ही गयो ? मानता है तुमने दह कीमिया मिद कर ली है कि यौवन तुमने कभी उतरेगा ही नहीं । उमग सदा ही बनी रहेगी। जादू टगा नहीं, तुम्हारी मानी गे यमा ही रहेगा। लेनि गोचो उसोफ में । ग्या में भी बनेकी जालन होगी जिस पर पाने ला दोन मरे और बारे में निग Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ, पप, दो राह पर महाग टाल सके । क्या उमे कभी पत्नी को धावश्यकता न होगी जो प्रेयनी न हो, दानी भी हो ! मागिया न हो, गासिता भी हो । ज्या तुम उसे वादे गाती हो? पत्नित्व दमकती हो? कभी बात गर क्षेगो, पूछ देगो ! पालोग वर्ष ने ऊपर पी पत्नी को नीर वर्ष पो धम्या में यह स्वीकार गरेगा? मैं स्वप्न को बहल मानता ! माया को भी मानता है ! मानता पहना काही मनोरम प है। यही व्या है । मन रुप मे वही मत्य भी है। लेकिन माया दगेगी घोर फटेगी तो क्या ोगा ? भ्रम गम नग पायेगा तो यया होगा? गया उग रोज की याद दिलाऊ : तम पाई थीं और रो रही थी। में किसी तरह तुम्हें सान्त्वना नहीं पहुंचा सका या । सान्निर तुम्हारा जाट गही तो था कि यह तुममे तुमको नहीं, जाने किगको पाता है ? मुम पर प्रगट हो माया पाकि जगतीरोज जिसके लिए है, सनी वह मूरा उगममे दीपनी गाठिन हो जाती है और उसपो माग नुमंग पार गर दौटने लगती है। दिमन, ऐना होगा और उसे समय बीतेगा चार-गार होगा ! बहुत बार होगा और चार तुम्गो रोना पगा। मैं समा में पोज महीं इस हर तक न पहने कि जहा प्यार है, यहा नफरल हो पाए । मुभसे यह र दर नही होता है। यग हरगिर नहीं पारा किया पर तुम पेमाहो, मगर ना निकर होन. र पोरन समा गोमारामती ना ! प्यार की होमो, गा गुमको बरको छोयो, पर भी सामना है! निसार पोरन जिगरनामे लगा सीमाली नया होगा? चा ? पर म ग मग मी मामा फिगर :: ༑ ཁ } ཨཱརྣམས༔ ཙ st, , ཝཱ ཨཱཙྪ༔ བཙྩམ་? Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ बनेन्द्र की कहानियां दयवा भार मान्यवर । पत्र मिला! क्या ठीक हो जाएगा? मैं नहीं मानती कि मेरे साप कुछ भी वेठीक है। आप अपनी मेहरवानी को अपने पास रखिए। अपना ज्ञान, अपना उपदेश भी पास रखिए । भापको जानना है, मुझे जीना है । आप जानने को ऊपर रख सकते हैं। मैं जीने से अपने लिए फुसंत नहीं निकालना चाहती हूं। श्राप भव मेरे बारे में कुछ फप्ट न कीजिए ! कहीं पतिदेव हो आपको इघर नही मिलते रहे हैं ? ऐसा ही लगता है । अब मिलें तो फहिए कि करनी भोगनी भी होती है। पापको, दिमवा दिमल! प्रिय नही लिखता हू | शायद तुम चाहोगी नहीं। परित पी पिणे है, कई वार मिले हैं ! पर प्रगसा के अतिरिक्त तुम्हारे सम्बन्ध में एक भी अन्यया शब्द उनके मुह से नहीं निकलता। वह अवगर भी तब पाता है, जब दूसरे हात् उसे बना ही टालते हैं । यह प्रायश्चित पूर्वक नहीं बल्कि उदारतापूर्वक तुम्हें लेते हैं, यह मै तुम्हें कैरो वताक ? सुनो ! मालूम हुआ है कि मकान तुम्हारे अपने पैसे का है। यानी तुम समझ सकती हो कि वह तुम्हारे पति को फमाईमा नहीं है । मुझे दुख होगा अगर तुम्हारे व्यवहार में यह मान भी कारण बना होगा। मुझे गलत मत मममना ! जीने वालों में समयता से जीने का प्रयास फरने वालो में मैंने तुम्हें देखना चाहा है। गीतिए नुम्हारे लिए गदा मन में संघ्रममा गाय रमा है। किसी नीनि-निगम के नाते वह नाव वहां से हटने वाला नहीं है। लेकिन यह अब भी माना है कि तुम Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ. पत्र, यो राह ११६ निरामा से बचीगी, निराशा का सामान पैदा करने से भी बचोगी। भगवान तुम्हें सुसी ररो। तुम्हारा, रा० ० (६) श्री रा०६० पन्यवाद ! बस! बिमस प्रगरत '६३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना मरना पति ने कहा, "ग्राज मंगलवार है । चोबा रोज हो गया बुगिया को प्रन्पताल गये । हम श्रव तक जा नहीं सके है | जाने क्या हाल होगा ? श्राज जरूर चलना है, चार बजे ।" पत्नी बोली, "आज ? आज तो माटे तीन बजे शान्तिलाल जो के यहां सगाई है। सुद आये थे, बहुत बहुत कह गये हैं । नही जायेंगे तो बुरा मानेंगे। और हरदम पढोग ना सवाल है ।" "लेकिन 1" "परयो तो रघो गया ही था । कहता था पहले मे तबियत ममली बताती थी । कल चले जायेंगे ।" 'विचारी तीन दिन से राह देखती होगी | कौन बैठा है । और मैं सगभता हूँ, यह उसका अन्त समय है ।" "अकल चलेंगे । या तुम ऐना करो कि सगाई निवटा र पाच बजे अपने ले जाओ। मुझे तो छुट्टी मिलेगी नहीं ।" "पाच बजे से तो काका के जन्मदिन का उत्सव है। टाल भी जाना, सेनि उन्होने छाप दिया है हि श्राता मुझे करनी है। ऐसा करो हि घर पर पर्ने, जन दे कर नाटे चार नया जाए ।" हम तीन पर ही "नहीं, नहीं । शानिवान जी तो ।" की परिवार के लिए उपाय चुत लिए जाना नहीं की, यह जाना की थी। ही भी शेयर दिन यही कया। उनके मुनिया अमान में ध्यान पाया । जोर विर है - पानी में रहने दो। मन्ना , Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना-मरना १२१ तान जाकार स्वारी कराने से क्या फायदा! लीलाधर के मन मे हुमा था कि एम्बुलम को जो गाडी मंगवाई है, उसे वापिस कर दिया जाय । नेफिन दिल्ली शहर में जगह की बडी तगी है । सेवादार भी नहीं मिलते है। सुमिया कोई नाते रिश्ते में तो है नही। ठीक है कि प्रभागिन है, कोई उसे पूछने वाला नही है । लेकिन एक कमरा उनी के निमित्त कसे और पाय तक रखा जा सकता है ? सच है कि नाहक का बोकया गया । हे एक महीने में पड़ी थी वहा और भुगत रही थी। जैसे-तंगे कारट पर दो रानर लिसकर मेहतर के हाथ टनवाया था। फाई परफर ये देवने पाले गये, बेदाग देखकर तय किया फि भरपताल भेज देना चाहिए। फोन किया, जोर लगाया, और पामिर दागिला मिल गया। लेकिन लीमरे रोज नीचे से पोसिन ने भापर बनाया कि बाहर ठगेपर एक चुडिया पड़ी है, प्रापको पूछ रही है। पनी गवाहर जागर देवा, सुप्सिया पी।स्पताल के पानी घर में दरवाजे नानाार ठेगा वही रोष्ट गये थे। मुनगुनाती पत्नी वापस पाई शिया यया भला कहा पर लिया है ? मैं गहा तू उगे, अपने रिप बम, मेरे पालेजे पर पाये दिन नई-नई बेगार होनते रहते पत्नी ने और rat यह अपस्य , लेगिन गाहने के नाम ही पर बाहर गई mrar free Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनेन्द्र की पहानिया दमवा माग "सर माप एस० एम० पो फोन तो कर दीजिये।" "वह तो मैं अभी कर रहा है।" "तो देखिए, में सुद पा रहा हूं। फोन के अलावा मैं आपसे एक पुर्जा भी ले लूगा । अमल में केस काफी सराव है, नहीं तो तपतीफ न देता।" डिप्टी साहब के यहा पहुच कर अपने नामने एम० एम० फो जो फोन कराया तो मालूम हा फि निस्सा ही दुसरा है। मरीज को डिस्चार्ज कर दिया गया है । मज साम नहीं है। दवा बता दी गई है, घर पर रहकर इस्तेमाल करती रहे, ठीक हो जायेगी। लीलाधर अजव चपकार में पड़े । हालत उन्हें जीने-गरने को दासतों थी। इधर अस्पताल में यह सवर पा रही थी! डिप्टी साहब ने मजबूरी जतलाई । लीलाधर ने उन्हीं मे पूछा कि बताइपे, गया किया जाय ? बोले, "टागटर मेहरा, हेल्प चार्ज हैं। यह चाहें तो कर सकते हैं।" "तो जरा उन्ही ने पूछ पर देस नोगिये।" टिप्टी साहब के पी० ए० ने मालूम फिया को महरा चीफ कमिस्नर के यहा गये हुए थे। पब तक पायेंगे, गुछ टोग पहा नहीं जा समता । टिटी नाहब ने अपनी तरफ गे और मातम गन्फे बताया कि मेहरा दफ्तर एक बार मागे जार ! भार नही तो बाद मार र सहो । जारी रामगत हो तो पाप इतजार गार गमत है। गया उनमें माफिस में पहला दिया जाय कि पाते ही गहा नपरी गपहास मगीन माप नगमते हों तो जरा इन्तजार गार नाही मुनासिव होगा। लीसापर ने गहा, "ठीप है, जरा इतजार ही कर लेगा। मार देगली गली है, कोई बात नहीं, चरा दाम ही पा जायेगा।" मया पार हो गया । मापार में मगर मोने लगा। बार से अगर रहा था । दिप्टी मात्र भरने मागने नी पालो पर और सामने ना ग पर गा गो गant पर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना-गरना १२३ विचार करता रह गया था। बाहर आधी फाग दूर सडी टेपत्ती के चलते हुए नीटर का टिक टिक उने सुनाई दे रहा था । माबिर माडे चार ले घटी पी सुई पार कर गई तो उसने बाहा, "जरा पूधिएगा, शायद है कि बापटर मेहरा मा ही गये हो।" "पी, यह तो कह दिया गया है कि पाते ही यहा सबर दें । फोन पा जायेगा, पाप फिकर नीजिये।" ____ महकार डिप्टी पागज परमुक गये । उसको नमझ मे न भाया कि फिर न की जाय तो संगेन की जाय ? श्रीमती जी को बहादुरी के साथ मह भाया कि अभी अस्पताल का इन्तजाम हुआ जा रहा है। यहां दिन इन रहा है। पाच बजे दपतर बन्द हो जाते है। फिर माज बत्न है, पौर रात को तारने या नसीव ही बन जाता है। मजबूरन उठार उसने पी० ए० गो पागादा किया कि यह जग फोन करके मालूम तो करे। मालूम किया गया कि पटर गहरा साप घण्टे के गमरे मे माये हिटी मारव में गयर पर डाटर मंहगरो पात की फि. भाप सोलापर जो सोमानते ही होंगे। पाताल में एक नगीन नेस वासिन लिया हो । सामी तरफ पा रहे हैं, जो मुमकिन हो पर सादर मेहगाए मादूम हुए। बट नपान में मिने और बाकि पतात जाम, या गगा पिदमत र साहै। बनाया गया। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैनेन्द्र की कहानिया पसमा भाग वाद माइयेगा, तो दागिले का इतजाम मैं गरा दुगा।" "लीन. . ." __ लेकिन जितना ही किया जाय, बात तो उपर गे कट कर म धी। स तरह मुखिया पत्नी को हाथों मा परी । उमने पति को यह सुनाया, वह मुनामा किया गहे। लेकिन उसके घगरज पी सीमान न्ही जब पान रोज तक सुन्निया घर पर नही मोर पत्नी ने उगमाननी रोया गी, इतनी सेवा की कि मोई ट्रेन ननं भी गती गर तो नी। अजन रोग पा गुपिया ना कुछ सपानी न पी, पेट सफा रहता पा मोर जी प्रधानामा । जीम जर कमी-मानी मानी ! एक बार नौरगगे में दही मोठगी गाट ही उगने गगा ली। सीमार मागती, सभी मुबा। लेपिनीही जनता पा, गीभ पर इन भीगो पो जग लेते ही अन्दर ने पेट रोंकार कर देता कामाने माग हाल था, लेकिन दम्लो पा हान इन उत्साहा। गोया रानी ही नहीं थी, हिनना-तुलनामा दिन होता का। लेशिन जय देशो :पंग नही मिलता पनी गुरनाम श्री गोरजोपर गदे हो , जन गरमाग गे पोती । बैटगर र गोमुनिका पुराने पर उगना रन नाना, सम यान गमा। दरसोई माने घरहनी नी, नगिन और पनियों ना हो गावगम दिपा किन गरे म व नीना गुपिता कमा नाम freीवी पिन पलीका परमी पन्न मगर उनीने मारी गा मावि पर मरना सी मारनी। पाई नानी पड़ी और है। जिसमें गली माग Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना मरना १२५ ने इन्तजाम किया था और एम्बुलेंस गाडी दरवाजे पर श्रा लगी थी । पत्नी का मन भी सुनिया को भेजते कट रहा था । पर चिकित्मा को व्यवस्था तो यहां उस तरह की हो नहीं सकती थी, न तिमारदारी का वंशान्ता था | डक्टरों की हर समय की देव-रेग चाहिए थी । इसलिये अस्पताल भेजना भी जरूरी था । दूमरे सच यह है कि गिरनी का सच क्रम नग हो गया था धौर पत्नी पर काम का भार इतना हो गया था कि कुछ दिन में वह गुद टूट जा सकती थी। इसने चारा दूसरा जपा पर अस्पताल की यह यात्रा प्रिय किसी को न हो रही थी । जाने के बाद पत्नी ने कई बार बाद रिया श्रीरमीनाघर को भी स्याल बाता रहा। पर जनरल मिलवा में के लिए सिर्फ एक घटा चार ने पातक किन-किन दूसरे मी घरी में भरथा । प्रामि पनि प्या, गया और नाम भी गया । बीच कर दो। नीता के म थेाकाना पान्ति अप में मन र काम किया में सिर्फ रात्री को मेरा कि गगन नहीं नगी को पा गई। लोग मामू कही सेवा।दिर परमो लोप हो । नर } पली के नाम नामे दिन हो गये। यह हो गई। एक न के कोई भी विकर्म पर दोनों कभी या में गोर नया मा पोर नियोग भी I परह एका पक्षमा गया उनके मेरे दोनों तरफ मोकर व पापीन ि रोष में पात Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र को माहानिया दरायां भाग बनान थी कि जिन पर अन्यागतो के भरण पर सनः । परनी अन्दर चली गई और मैं उनमें गे एम गुर्ग पर बैठ गया। ___ इन्तजाम की नारीफ र रनी होगी। सापट-दिगम् नमूनी मीनरमार थी और यहा यहा ट्रे पर तरह-तरह में स्नगार और हिपत तिये चपराव वाघे बरे घूम रहे थे। मैं अन्दर नही गया । लेगिन उत्साह में जो अन्दर नागर सोग लौट पर बसान कर रहे थे, उसने मालूम हुमा फि चानीय गार पासो दहेज जरूर होगा। ऊपर का सनं अलग । रोशनिया इग सदर मी शाहर जगमगा उठे । मचमुच दावत पा इन्तजाम भी जबरदस्त था । मयों न हो, गान्तिलाल जी, दरियादिल प्रादमी हैं। और ऐगिएन गिगामने रिश्ता पिन पदर बालातर मिला है, महर नागी जौहमालहरा। और उन जोहरियों मे यहा की नैयारी तो और भी मारा। शान्ति नाल जी की टरा गगाई में पधारे नए महासाना मोगी के उत्साह और प्रानन्द ने नीनाघर को जगाया। उन्हें भी गय पान सूब मालूम हुमा । पभी कभी पती देग लेते थे । मागिर पौने पाप बजे उठकर उन्होंने शान्तिलान जी को बधाई दी और जाने के लिए अनुमनि मागी । शानिलाल जी भाभार में अवगत धे। मंपिनीमार जी यो जाने ना दे माते । माटा पिपं विना जाना न पायेगा। पानिपत जोगीलागर गोवा में सारा गरम में गमे । उपर की व्यवधीसान्नितालमीने देशामी , मिठासी, पाट मी, पोपा भी नाना नारिगा गगमा int माने मायामी | मन मेयर दिमिरा मसामायिक मापन धौर पर मानमर गमा । उदागना राना र यमय fre मनापर मानो ग पानी fraat । समय पान मे मीनापीकर rar! HTET और में एक की मार rn. ATTITE:र Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना-मरना १२७ हो रहा है। जन्मोत्सव में जन्न को शोमा निराली थी। बीच में दीप-न्तम्भ पा। और उसमे उन महाप्राण प्रायु मे वों की गिनती के अनुसार चार स्तरों पर दीप गजाये गये थे। सात मे तीस वर्ष तक कन्याओं की तीन अलग-अलग नृत्य टोलिया थी। इसी अदमर के लिये बनाई गई कविता के भागार पर मिगुपो की नृत्य रचना की गई थी। वटा सुन्दर दोगता पा, उन यातिगामों का परिधान । अन्त में गरबा नृत्य तुग्रा था। उसकी मनोदरता मे हम सभी विभोर हो पाये थे । लीनाघर मन्त्रमुग्प से दस गोमा पो निहारते रहे । लोगो में वटा उत्साह था और दृश्य अत्यन्त मनपा । मीनापर मध्य में बैठे थे घोर समधा नृत्य-बाध का एक कार्यक्रम चल रहा था। इतने में बराबर में शा० मेहरा गा प्रागमन हुमा । लीला. पर घोप्रिय मा मिसागर स्वय उनकी तरफ पा रहे है । उन्होने पूछा कि गोरल का क्या हाल है? नीनायर ने रहा कि संगल ही नागा । सदया गया पा, पापर उसने बताया था कि तश्वित में गधार होगा। मेरा ने पहा, "वही गुमी को वान । भने म एम में माजमनियामागीप नहीं दिया परने सनीलिए दिया गया गार पर फिर दोनीन रोज में हिस्सा मित सवैगा, ऐला मे महिनो मेनोपमान परमा! "श्री. र मानही वीमी फार गई। दो गेल में धारा जायेगा।" पर रामामार मार मार में पर आरो WRITERTrir TET परशुरामा काम wer ATM मा नारा मना ! माना ना ना बनेगा ! Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ नेन्द्र बानियों का भाग होने उसने दी से ऐतिहात सारे का समय जा रहा था। लेकिन विना भाषण में दो दशक का नया । सामने नृत्य वा वार्यकम घन रहा था। इतने में देगा कि एक राजन आये है और पाया उन्होंने उसने हाथ एवं पूर्वा चमा दिया है। लिया है कि ग्रन्थमोचन के समारोह की ओर से था यहा हूं। गाटी माया हूं, फौरन चलना है । वाद याप घटा और लगा । प्रतिवा कुछ घाट चीन में ए । बोलना हुआ और तब छुट्टी पर पर के लिए स्याना हुआ जा स स्थान बहुत ही भव्य और बाहर ही काकी महत्वपूर्ण ! गारग था । नार पर मतिदिती पोरगी है। उपने ओर मानेको वा । म्या नि गहरा गया। नगर में मील की पर होगा पोरगी दानिय नकार मिरिन दिरा ना भाई का भजन शेर मन में जो मारिरह में विभाग में ही की है, यि पानापा भारत की था और गोसाई देने नगर के 1 कभी कुछ। याद मानपान का था। य की है। पति या और बह मेरा पर पाना Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना-मरना १६ या। घर पर गोने की तैयारी ही कर हे घे वि दरवाजे पर प्राद हुई। युरा मालूम हुमा गि यह मिनी के लिए गया ममय है । पर दरवाजे पर पाने के गाय लीलाधर मे शाथ मे तार दिया गया। उन्होने देगकार कहा कि यह नाम हमारा नहीं है, किमी दूसरे का नार है। "नीलागर जी का यही पर नहीं है।" "सचिन तार पर मेग नाम नही है।" "जी, अपनाती नार है और धाप यहा देने को कहा है।" तार दिया और बोला । लिना था-मुपदवी मर गई। भारीर उठा ले जाए। ग्याना बज गया। रात अधेगे। नार हाथ में है। दुनिया गर गई: गेरको उठा मगा । नीलार गार कोहार में लिये रह गये । गत पीपीग में बिजली मी पगम्य रोगनिया जाना मारपालि जी. पता दिल नगाना गानाTोगा । यो पारनाई। मोनार प्रदर पारे । चपापना पानी गोदिता। पली में विगट पर AI, "या होगा अब ?" "मय मोना " मन शो मेकानिमा-गरमले हो परपंगामने ले में माता माँ -गची मागटराग पिग" "Iform HiT Hध में नामी गोनी, गोई गगा, रोई ने शनि ।" "की मांग पर मरना । मागे । तर fraना माना गय नही करना 'यो नमोनोपमा मगे" " Frimar आगे Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनेन्द्र पी महानिमा दगा माग मारमा जाते हैं।" लीलाधर गरेदीये । गोचा किस राम मार ही है। लगाई बार का चार, जन्मदिन को उछाह का चमार, सवागन के पपगप्रजापान और विज्ञापन का गर। और राग अन्न में यह गोहमा चकर । लेकिन मौत पर भी पगार समाप्त नहीं है पमोरि गरने में मरने वाले की छुट्टी हो जानी हो, नीने वालों को एट्टी मना है? ___"पा मोच न्हे हो ? पर दो सम्पताल पालो को गिम कुछ नती जानने।" लीलाधर ने गोमा मिटीक पली गी यान ही है। जो मुर्श हो गया है, उगर कोई यो जानेगा, या उनमा पोई पपा जानेगा ? हो. फोन मे गयो नही पर देने हो धम्पनास पानी मी!" या गलो, अप मार जायो । अपने माप करते फिरेंगे।" पत्नी को नीलार गे देगा । यही थी जो अपार जमुगिया दह की अन गमन र नन्द की पग्नियाँ कमी की थी। देर यह मनी मी, गात गेमिट पाईयो । यह देह पप निक न गभान नी । जगमे गाना नाना की भी जिनकी। पदारसे पर पशि जी और रारदी। पर उसी को पोसना, कपडे पाना, नो पामगार और प्रना मत-मताने माग मन पनी मोगनिम मान-मन पायापारण भर शिरापोरवालों पर भार नो गुरतमा पाराम गामा । मनोनदा र पानसार नागतीलो नहोमी र मन्ने ?' मारो गला गा। पानी TET, " पोन गोणा" in.ar गेरशामा ' टो, मोमोमो मो "rriremi" Tyr inो ? मा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जना-मरना निमत्रण दिया । सीनाघर गढ़ा ही रहा। जीवन भी केमा विवश है ! कैसा निर्मम थोर नितांत | गीत पग-पग पर उसके नामने क्यो न आती है, वह ant प्रवृति जैसे एक क्षण के लिए भी रुक नहीं सकता । उल्लासविमान को प्रवृत्ति करने परने को, बटने उठने की प्रवृत्ति । लीलाधर सीधे टेलीफोन की तरफ बढ़े और डाईरेक्टरी में देखकर एम० एम० के घर का नम्बर मिलाया। मालूम हुआ, वह घर पर हैं नहीं । गय आयेंगे | मानूम नहीं । एक क्षण गोवा और टी० एन० दिया। उनके स्वर में उतार मोर मीनार में यहां विनार भी मिला है। में जानना चाहता हूं किबी हुई तो फोन पर वर मुरुको गयो नहीं दी गई ? "नही है । भाप चाहते क्या है दे" "क्त यहा होगी और उसका क्या किया जायेगा ?" "सभी शायद वा मे हो । धेरे घर पहुंचा दी जायेगी ।" का क्या होगा ?" ० एम० ए० पार रहा, "ले जाये, और जो चाहे 1 मेरे पाप नहीं है ।सान मे बात पीजिएगा ।" "परी हो या मानला | मरीज कोई मेरा था मे को बोरिंग के तौर पररता है । धाप का यह दोष भी पर्व है। ST CLTÀ DA TZ DOT 4 I पीयू, षकृ *1 मीजजवर ने हाई वश क गने मानी कर लिया एम० के पर पा नम्बर डायल भनाहट थी । दिया। गुमसुम वह पर गुण किसी पर नहीं था दिदी के पर १३१ कम है। पीठ पीछे भी उ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग जिया जाय ? सुखिया मरी, यह समझ मे आता है। पर वह जीई क्यो ? यह समझ मे नही आता । इधर पैतीस वरस की उसकी जिन्दगी का फैलाव सामने आता है-छ वरस की उमर मे विधवा हो गई। लीलाधर की मा की सस्था मे सोलह-अठारह वर्ष की उमर मे काम करने आ गई । काम के साथ दो-चार अक्षर भी सीख गई। पहले बारह रुपये और रोटी-कपडा पाती थी । अक्षर सीखकर वीस रुपये खुश्क पाने लगी। बीस मे अपने ऊपर पाच खर्चती, पन्द्रह इधर-उधर, पास-पडोस के वालबच्चो पर निछावर कर देती। फिर कही दूर चली गई और मालूम हुआ कि किसी पाठशाला मे वही वीस रुपये पाती है और चाकरी करती है । उसने रूप नही पाया था और शायद जीवन भर पुरुप भी नही पाया था । मा की वजह से लीलाधर को वह जानती थी और कही हो और चाहे लगडाते-लगाडते उसे पाना पडे, राखी का दिन वह नहीं भूलती थी। राखी पर महीने की तनख्वाह से ऊपर का सामान वह ले आती होगी और वापिस एक पैसा स्वीकार नही करती थी। वह रहती चली गई, एकाकी और नीरस, और वीमारिया उसे घेरती चली गई। कान बेकार हुए, टागें बेकार होने लगी और फिर पेट बेकार हो गया। दो वरस से राखी पर वह नही आई थी। कहा किस हाल रही, पता नही । कोई खैर-खबर नहीं मिली। मिला तो आखिर मे वह कार्ड मिला जिस पर जाने किस ताकत से उसने टेढी-मेढी वे सतरें लिखी यह जीना क्यो हुआ ? क्यो हुआ ? लीलाधर समझ नहीं पाते । नही समझ पाते उस विधान को और विधाता को जो यह सब बेकार कर जाता है। इस सुखिया को आखिर क्यो जीने दिया गया-पचपन साठ वरस की उमर तक । क्या उस विधाता का या इस दुनिया का बिगड़ता था अगर उसे पहले ही उठा लिया जाता । और क्या था कि उसे जनमाया गया। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना-मरना १३३ लीलाधर को गुस्मा यही था। उग पर या जिस पर गुस्सा चल नहीं नकता । जिस पर किमी का कुछ वश नहीं चल सकता। जो हैं घऔर नही होता तो अच्छा था ! "मोते क्यो नहीं हो ? आमो, सो जायो।" और पन्नी का हाथ चढ़कर पाया कि सोचो नहीं, लेट जायो । वह यहाा प्रगर जिन्दगी का पा तो इस वचन वह भी लीलाधरको उतना भी बेकार मालूम हुमा । जंगे वह सिर्फ दाल हो और दोष उसमे कुछ घय न हो व्यवं हो। __"मोन में बसे पते हो ? सुगिया तो प्रव पाने से नही। और फिर मगेर जो हमने मरघट ले जाकर जलाया, मैंने अस्पताल वालों ने प. दिया । गमे पिता की मचा वान है" नीर ने अनुभव लिया कि यगक इसमे चिन्ना की बात नहीं की गति को उनके मन में सराहना कि वह गितनी व्यावरिस पामो समय वह नार थी, वही अब काम चिन्ता गीन रे ये रिए भार नहीं थी। गरीर जो सब है। मप्रश्नोको माया गरा पागों की निजती मे नर दिया गया या भोगतोयोEिRT गानो गया होता है ? मन नारो में पारने पोर को लेकर ऐन जिया माना योगे में गौर पर जाना! Homपोलिसार नीरापर मन को घर गया । सी बहामारी र पी. भमेना हो। TERो कोर जोगाएन यो मोविएको मे मरने Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग श्राग्रही मालूम होता था। ____ कुछ नही है, एक दम कुछ नहीं है। लेकिन हा, शायद वाह है और उस बाह का घेरा है। उस घेरे मे घिरने के लिए लीलाधर अनायास अपने सोच से उवरे और चारो तरफ के भीषण नकार को देखते-देखते मुस्कराते स्वीकार ने लील लिया। पर रात वीतती है, सवेरा आता है और उसके साथ मानो कर्तव्य जागने लग जाता है । लीलाधर ने फोन किया डी० एस० एम० को। इस समय वह तने अफसर न थे और लीलाधर के कहने पर कि क्या हम लोग पाकर शव देख सकते हैं ? उन्होने अभ्यर्थना के साथ कहा, "अवश्य आइए । सीधे मेरे दफ्तर मे पाइएगा तो कोई असुविधा न होगी। मैं साढे आठ बजे पहुच जाता है।" लीलाधर ने कहा, "चलोगी ?" "अव, सवेरे ही सवेरे इतने काम की भीड़ मे ?" "देख लो, लेकिन चलना चाहिए।" "तो चलो, दया को भी बुला लू" । "दया को-चुला लो।" दया सहेली है। तत्पर और सेवा भावी है । और हिम्मत के कामो मे आगे रहा करती है। डी० एस० एम० ने पहुचते ही लीलाधर जी का स्वागत किया और तत्काल फोन से हिदायत दी कि एक मित्र पा रहे हैं, उन्हें कोई कप्ट न हो । और शव नम्बर 'अ' उन्हे दिखा दिया जाय । लीलाधर ने पूछा कि शव का क्या किया जायेगा? "कोई अगर नही मागता है, तो अडतालिस घटे के बाद उसको किनारे कर दिया जाता है । आप शरीर ले जा सकते है, चाहें तो।" "शरीर-~-क्या आपके किसी उपयोग में नहीं आ सकता ?" "क्यो नही । यहा तीन मेडिकल कालेज हैं। सबको जरूरत रहा करती हैं ।" Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना मरना १३५ पत्नी की सहेली दया का आग्रह हुआ कि नही, शरीर की विधि - वत् अन्त्येष्टि होनी चाहिए। सब झभट और खर्च दया भुगतने को तैयार हुई | तैयार हुई कि शरीर को अभी साथ ले चला जायगा । मालूम हुआ कि पत्नी भी इससे सहमत है और उद्यत साथ ले चलो र खर्च सब अपनी तरफ से होगा । है कि शरीर को लीलाधर ने कहा, "अडतालीस घटे लाश को सडाने से क्या फायदा ?" डी० एस० एम० ने बताया कि एतिहात की जाती है लाश की । बर्फ वगैरह का पूरा इन्तजाम रहता है ।" मानना होगा कि माकूल इन्तजाम है मुर्दों के लिए | जीनेवालो के लिये अगर नही है तो सिर्फ इसलिये कि जीते फिर वे श्राखिर किस - लिये हैं ? लीलाधर ने कहा, "अभी क्यो नही लाश को कालेजो के इस्तेमाल के लिए भेजा जा सकता है ?" "आप लिखकर दें कि वारिस कोई नही है और हमको इजाजत दें तो फौरन इन्तजाम हो सकता है ।" लीलाधर के मन मे वही पहली रात वाला गुस्सा उठ आया था । उनके मन मे हुआ कि जीतो की या मुर्दों की जिस कदर चीड़-फाड हो श्रीर उसमे से ज्ञान-विज्ञान की जितनी व्यर्थता को निकाला जाय, उतना अच्छा है । लीलाधर ने उसी वक्त कागज लेकर उस पर लिख दिया कि अस्पताल वाले लाश का मुनासिव इन्तजाम कर सकते है । उसे सभालने वाला कोई नही है । उसके बाद तीनो गुर्दाघर गये । श्रादमी ने ताला खोला और जिस कमरे मे दासिल हुए, वहा थैले मे बन्द दो लाशें तख्तो पर विछी थी । एक पर बर्फ की दो जगह आधी-आधी सिल्लिया रसी थी । वरावर मे गठरी सी थी जिसमे मालूम हुआ कि एक बच्चे को लाश है । तीसरी लाग सुखिया वाली थी । आदमी ने गाठ सोलकर कपडे से उसका चेहरा बाहर किया था । वह चेहरा राख सा सफेद और शान्त या । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग दया ने कहा, "देखो, बहन जी । कैसा शान्त चेहरा है । कष्ट से नही मरी, सुख- साता से मरी है ।" "हा, देखो, पलक जैसे चाहिये वन्द हैं, माथे पर सलवट नही है । कष्ट की कोई लकीर नही है हे राम !" लीलाधर कमरे को देख । रहे थे । नीचे टीन का वडा वक्स था । एक तरफ कई कुडो सी जडी अलमारी थी। मालूम हुआ, गर्मियों मे खास कर मुर्दे ज्यादे हो जाते हैं तो वक्स मे भर दिये जाते है । अलमारी भी इसी काम के लिये हैं । २" १३६ " भर दिये जाते हैं श्रादमी ने कहा, "जी नही, इन्तजाम पूरा रहता है, वर्फ वगैरह का । मजाल कि वदवू आये ।" लीलाधर ने कमरे को चारों तरफ से देखा, खिडकी से बाहर सफेद हड्डियों के टुकड़े-टुकडे हुए ढाचे पडे थे । और देखा कि पत्नी और दया सुखिया के शान्त चेहरे को देस रही है । उन्होंने कहा, "चलो " और तीनो चले आये | और शव रह गया और बाहर सब वैसे ही हुआ जा रहा था जैसे हो रहा था । दिसम्बर, '६४ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलट फेर अन्त मे अडतालीस वर्ष की अवस्था मे प्रमीला रस्तोगी को तय करना पड़ा कि वह इन्टरव्यू मे जाएगी और लाइब्रेरियन की जगह पाने का प्रयत्न करेगी। अभी माधव पढ रहा है, राघव भी स्कूल मे है, और उनके पिता से कुछ आशा नही हो सकती है । पाशा थी सुशीला से । वह पुरानी साथिन है और भाग्य से स्कूल की मुख्याध्यापिका है । दूसरे उसने सुना था कि इन्टरव्यू मे माथुर बैठने वाले हैं। वह 'इनके' सहपाठी रहे थे और विवाह जव नया था तो कभी कदास घर पर आ जाया करते थे । प्रमिला ने उन्हे देखा नहीं, न उन्होने प्रमिला को देखा था। घर बडा या और पर्दा रहा करता था। वह भी शर्मीली थी, सुन्दर मानी जाती थी इसलिए और भी शर्मीली थी। किन्तु शायद है कि नाम की याद उन्हे हो और इस कारण इन्टरव्यू में प्रमिला को महारा हो जाए। माथुर वढते-चढते गए थे और इसी सस्था से सम्बद्व एक इन्टरमीडियेट कालेज के प्रिंसिपल के पद से निवन हुए थे। इन्टरव्यू सैर हो गई और प्रमिला को उसमे नियुक्ति भी मिल गई। लेकिन पौने दो सौ की जगह वेतन उसका सवा सौ नियत हुआ। इस पर उसने सुशील से पूछा, "सुगीला, यह वेतन के मान में फर्क यो पदा ? और बतायो मुझे क्या करना चाहिए ?" सुशीला ने कहा, "मैं क्या करती? तुझी ने मेरा मुह सी दिया था। और यह माथुर साहब थे जो पौने दो सी के लिए राजी नहीं थे।" "माथुर नाहव ।" "हा । उन्होने कहा कि पीने दो सौ वेतन देना हो तो हम प्रतिभा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैनेन्द्र को कहानिया दसवा भाग को क्यो न रखे जो वी ए की जगह एम ए है। मेरा आग्रह तुम्हारे लिए या । उन्होने कहा कि अगर तुम एम.ए की जगह वी ए. को ही रखना चाहती हो तो ठीक है, रख सकती हो । लेकिन फिर सस्या को कुछ लाभ भी होना चाहिए । अगर तुम्हारी कैंडिडेट सवा सौ लेने को राजी हो तो उनकी नियुक्ति हो सकती है। मैने इस पर बहुत प्रतिवाद किया। लेकिन माथुर साहब अपनी बात से न डिगे । बताओ मैं क्या करती ? मुझे ध्यान भी आया, इशारे से तेरी बात कह दू । लेकिन भलीमानस, तैने तो मुझे कसम दिला दी थी।" प्रमीला ने कहा, "तो माथुर साहब वही थे जिन्होने तुम्हारी बात को टाल दिया था, इन्टरव्यू में कि जब तुमने मेरे बारे में कहा था, यह सस्कृत भी जानती है, बी ए मे एक विषय इनका सस्कृत था ! ओह ! वही न जो सुनकर अवना से हस पडे थे, वोले ये, एक विषय तो ऐसे बहुतो का होता है । मैं नहीं मगझती थी कि माथुर ऐसे होंगे।" "हा, बडे सख्त है । मैने कहा भी, तुम्हारी स्थिति के बारे मे कि दो बच्चे हैं, असहाय है । लेकिन माथुर साहव बोले, कि हम क्या कर सकते हैं । यह शिक्षण संस्था है, सदावर्त तो है नहीं।" "अच्छा, यह कहा " "पौर सच बताऊ सुशीला, मुझे लगता है कि वह तेरा चेहरा देश कर सुश नहीं हुए । तुझे पता है कि तू अव तक गजब की खूबसूरत बनी हुई है और कुछ मर्द होते है जो अपने को बतलाना चाहते हैं कि ग्रह, हमे सुन्दरता का आकर्षण नहीं खीच सकता । सच कहती हू जरा तू काम सुन्दर होती तो डेड सो तो मैं तुझे जगर ही दिला सकती थी।" ___ "चलो, हटो ! तुम तो चाहती थी कि मुन्दरता मेरे काम पाएगी। और अब यह .." ___ "मैं क्या करती, तुम्ही नीची, भोली-सी निगाह किए बैठी रही, मौका था कि एक कटाक्ष ही छोटा होता । पर तुम तो." ___ "हसी न रो मुगोला । मै पचास की होने जा रही हूं"यह Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलट फेर १३६ बतायो, मैं क्या करू, स्वीकार कर लू ?" "नहीं तो क्या करोगी?" 'यही सोचती हू कि नही तो क्या करूगी। लेकिन वडा अपमान जैमा मालूम होता है।" सुशीला ने गहरी सास छोडी । वह इस प्रमोला के प्रति प्रगमा से भी आगे अब लगभग श्रद्धा के भाव रखती थी। छोटी थी, तभी से वह प्रमीला की विलक्षण सुन्दरता के जादू मे आ गई थी। उसके बाद जीवन निकलता चला गया। प्रमीला जो हर तरह सम्पन्न थी। अब इस अवस्था मे आकर विपन्न और प्रायिनी वन आई थी । और मुशीला जो आरम्भ मे असहाय जैसी ही थी, अब इम हाई स्कूल की अधिष्ठात्री थी। वह कुछ दग थी भाग्य के खेल पर । दग यह देख कर भी थी कि प्रमीला भाग्य के थपेडे खाते-खाते भी हारने को तैयार नहीं है और जीवन से जूझे ही चली जा रही है । उसने क्या-क्या नहीं देखा ? क्याक्या नहीं सहा । क्या या जो छुटपन मे उसे प्राप्त नहीं था। राजसी ठाठ-बाट और लाड-प्यार में पली । दूसरी होती उसकी जगह तोटूट ही गई होती । लेकिन प्रमीला जी ही नही रही है, अपने को पूरी तरह सचित रखे हुए चल रही है । विखरी नहीं है जरा भी । सौदर्य उस पर में अब भी उतर नहीं गया है । वह है और समाहित है । एक विस्मयजनक सम्भ्रम अव भी उसके व्यक्तित्व के आसपास दीखता है। सुशीला यह सोचती हुई प्रमोला को देखती रह गई। एकाएक कुछ बोली नहीं। प्रमीला ने कहा, "वताया नहीं, मुझे क्या करना चाहिए ?" मुशीला का मन भारी हो पाया । बोली, "वताने को उसमे क्या है ' स्वीकार करना ही पडेगा । स्त्री को विवशताएं हैं । लेकिन सुन, अब भी कुछ विगडा नहीं है । माथुर साहब बात को नभाल सकते है। तू मुझे कहने क्यो नही देती कि तू......" __ "नही सुशीला, नहीं । तुझे मैं फिर कसम देती हूँ।" Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग "आखिर क्यो ?" "नही मैं कृपा नहीं ले सकती। उनके नाते भाई कृपा तो और भी किमी तरह नहीं ले सकती।" तो वता, मैं क्या करू ? तेरी हालत मे पचास रुपये का फर्क कम नहीं है और तू कहने देगी तो मैं समझती हू आगे तरक्की का रास्ता भी खुल जाएगा। और तू सच जान, माथुर अपना वचाव कर रहे हैं। वचाव की जरुरत नही रह जाएगी तो वह बहुत उदार है और आगे तेरे सामने कोई कठिनाई नही आयगी।" "फिर वही, सुशीला । कह चुकी हू, वह नही हो सकता । देखना किती तरह का जिक्र उनसे न करना । और चलो, यह सवा सी ही सही। कोशिश करू गी कि इतने मेसवके पेटो के लिए प्रा.ा दाल तो जुड जाए।" नियुक्ति हो गई । और प्रमीला काम करने लगी। नौ बजे जाती और छ बजे घर आ पाती । सव काम अपने हाथो ने करना पड़ता। सिर्फ वर्तन साफ करने के लिए महरी रसना जस्री हो गया था लेकिन उसको दिया जाने वाला वेतन अखरे विना नहीं रहता था । राघव की फीस माफ नही होती थी, माधव ने एक छोटी सी तीन रुपये की ट्यूगन कर ली थी । जैसे तैसे गाडी खिंच रही थी। न्हने को तीनो के लिए एक बरसाती हाथ आ गई थी। किगया उनका पच्चीस रुपया । प्रमीला का वडा लडका दूर निकल गया था । वह कभी छठे छमाहे कुछ पया भेज दिया करता था। पर इधर उमे भी कठिनाई की। उमर पा गई थी, और उसे विदेगी कन्या मे प्रेम हो गया था। ऐग में छठे छमाहे भी कुछ पा जाए, यही क्या कम था। यो डेड एक साल निच गया । काम के बोझ के कारण प्रमोल का शरीर दई देने लगा पा । बरसाती तीसरे मजिल पर थी। चटते मरते अब वह हाफ जाती थी और जोड पिराने लगे ये । उसके मन में या था कि जैसे भी हो, बच्चो को कावित करना है। उनके मन को मरने Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलट फेर १४१ या दबने नहीं देना है। खुद अपने पर कितना भी वोझ क्यो न पड़े। चाहे काम का, चाहे चिन्ता का या निन्दा का । उसे लगने लगा था कि जीवन सचमुच बलिदान है । एक का बलिदान ही है जो दूसरे को यहा खिलाता है । और यदि उसका जीवन खुद पिस रहा था तो माधव पौर राघव तो थे जो उस पर पल-बढ रहे थे । यही मानो उसकी अपनी सार्थकता यो और इसी मे वह हर दिन के सवेरे को उसकी शाम से मिला देती थी । अवेरे तडके उठती और काम मे प्रवृत्त हो जाती । माधव और राघव दोनो को खिला-पिला कर नौ वजे ड्यूटी पर पहुच जाती। शाम को हारी थकी छ बजे आती और फिर रोटी-चूल्हे के झझट में जुड जाती । माधव ने जो शाम की ट्यूशन ली थी, सो रात नौ बजे घर या पाता था । रायन भी इन कठिनाई के दिनो मे से अपने लिए शिक्षा ग्रहण कर रहा था । वह मा के लिए जितना वनता सहाई और उपयोगी होने की कोशिग किया करता था। इसमे फुर्मत ही न मिलती किसी बात की । दूसरे तीसरे महीने बच्चो के पिता की चिट्ठी मिलती तो उसका मन उखड आता था । अधिका चिट्ठी उनको नहीं आती थी, बच्चो को पाती थी। वही उनके दुख के उभार के लिए काफी हो पाती थी। लेकिन अच्छा था कि काम का ताता ऐसा था कि दुख को सहलाने को समय न छोडता था । और जिन्दगी की गाडी रुक न पाती थी, आगे सरकती बढती ही जाती थी। सुशीला कभी-कभी घर आ जाती या प्रमीला ही सुशीला के पास चली जाती । या तो नाते-रिश्तेदारी से कभी किसी टेले का बुलावा आ पहुचता और बचना नभव न होता। लेकिन नातेदारियो का निवाह भारी बहुत पडता और उसके मन का बोझ वढ जाता । कारण, अवेले होकर जिन्दगी से जूझती हुई नारी के लिए सराहना के भाव होने वा कायदा समाज मे नही पाला जाता है | उसमे भी यदि वह निन्दा दबीडकी हो, मुह पर मुल कर न आती हो, वन एक ऊपरी शिष्टाचार के व्यग्य ने ही प्रकट हो पाती हो, तब तो वह असहनीय ही हो जाती है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग पर असह्य को भी सहा जाता है और जीना पडता है। बात बहुत पुरानी है । माथुर साहब के एक छोटा भाई था । नाम था शेखर । वह प्रमीला के बडे लटके वीर से एकाध साल हो वडा होगा। जब-तब घर पर आ जाया करता था और वीर के साथ प्रमिला को वह भी भाभी कहता था। उन्हे बहुत ही मानता था । भाभी को भी उससे वडा लाड था । कभी वह माथुर साह्व के साथ आता। तब माथुर तो वाहर मरदानी बैठक मे अपने सहपाठी मित्र से वतियाते रहते और शेखर की भाभी भूले भी बाहर न निकलती। शेसर भीतर अपनी भाभी के पास रहकर और मचल कर जाने क्या क्या उनसे सुनता और लेकर खाता रहता था। हुआ यह कि प्रमीला को वह शेखर ही मिल गया । खासा जवान हो गया था। लेकिन देखते ही पहचानने मे उसे देर न लगी । वह नाया और एक्दम भाभी से लिपट गया । प्रमीला वेहद सकुचित हुई। माथुर माहब के यहा कोई पार्टी थी और स्कूल के कर्मचारी के नाते प्रमीला भी वहा गई थी। उस पार्टी में अनेकानेक गणमान्य लोग थे । प्रमीता एक किनारे बच-वच कर निम रही थी । गेसर के इम अचानक प्रेमाप्रमण पर वह घबरा पाई । बोली, "अरे, शेखर | तू है ? तेपिन जरा देख भाई चुप कर, बोन नहीं।" गेदर भाभी से हट तो गया, लेविन उसके मन में बहुत उत्साह था। कैसे बताता कि इन पन्द्रह-बीस वर्षों के अन्तराल में भाभी बराबर उनके मन मे क्या बनी रही है। किन्तु भाभी की निभक पर अन्त में उनको भी कुछ अटपटा लगा और थोड़ी देर बाद वह चुपचाप वहा से चलकर माशुर माहब के पास पा गया । उन्हे सबर दी कि यहा भाभी आई हुई है। "भाभी, कोन नामी ?" "वही, रतोगी साह्य वाली । श्राप भूल गए ?" मायुर एक्दम आश्चर्य मे प८ गए । पुगनी गटी बात पल में नई Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलट फेर १४३ और जीती हो गाई । पढाई के वाद अभी जीवन गुरू ही हुआ था। सहपाठी मित्र के यहा जाते थे और कभी वहा हठात् इधर से उधर जाती हुई रमणी की पगध्वनि उन्हे सुन जाती थी। कभी अचानक उसके पगतल भी दीख जाते थे। अचानक, क्योकि वह फौरन उधर से आख हटा लेते थे। एक ही वार शायद ऐसा हुआ था कि उसके दोनो हाथ भी दीस गए थे । चेहरा दीख सकता था यद्यपि साडी की कोर को काफी आगे तक ले आ गया था और उसको पर्दे का निमित्त समझा गया था। देरा सकते थे और देखना भी चाहते थे । लेकिन देखना सभव हो नहीं सका था । और मन ही तो है । फिर वय की बात है । तब जाने क्या चिन क्षण मे बन जाएगा और शाश्वत होकर रह जाएगा । कुछ ऐमा ही उनके साथ हुआ था। वोले, "क्या बकता है ? वह यहा कहा पाएगी?" गेसर ने कहा, "लाऊ उन्हे यहा बुला के ?" "हा, ले के प्रा।" शेखर ने जाकर कहा कि भाई साहव बुला रहे है । मुनकर प्रमीला धक से रह गई । इत्ती क्षण को वह डर रही थी। हुआ कि कह दे वह नही जा सकेगी। पर माथुर माथुर ही न थे, स्कून कमेटी के उपाध्यक्ष भी थे। मनमारी वह साथ-साथ हो ली जैसे वन्दिनी हो । पार्टी का गवसर था और आस-पास भीड थी। प्रमीला शेखर से एकान डग पीछे रह गई थी । पास पहुचने पर माथुर साहब ने शेखर से वाहा, "अरे कहा है तेरी भाभी?" अनायाम उत्साह से यह वोल पडा, "क्यो, यही तो है !" बोलने के साथ उमने अगल-बगल देखा और पीछे एक पदम हटकर प्रमीला को बाह से पकडाभार माथुर साहब की ओर आगे वटा दिया। माथुर ने देखा । जैसे उन पर गाज गिरी । सामने प्रमीला मुरझाई सी जा रही थी। वह पास उठाकर देर नहीं सकती थी। माथुर को सब भूल गया । अपनी वायु भूल गई, पद भूल गया। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग अपना पापा ही जैसे उनसे खो गया। क्या इन्ही के सौन्दर्य से अपने को बचाने के लिए वह सस्त हुए थे । क्या इन्ही के वेतन का पनास रुपया पन कर डाला था । वह किसी तरह अपने को समझा नहीं सके । उनकी कल्पना वेकाम हो गई। सम्पन्नता की किस ऊचाई पर उन्होंने इन महिला को देखा था-वह भूल नहीं पाते थे । बल्कि देखा कहा था। नही तो भाकी तक नहीं पाई थी 1 देखने की स्पृहा ही मन में जुटाकर रख पाई थी। वही उनके अधीन मामूली-सी जगह की नौकरी पाने की प्रायिनी बनकर आने को विवश हुई। यह तहमा उन्हे अकल्पनीय और असहनीय हुआ। मानो वह अपने को धिक्कार रहे हो। इस विभाव मे माये मे वल डालकर वह वहा से एकदम लौट पडे । एक शब्द भी प्रमीला को नहीं कहा । सिर्फ ताकीद के स्वर मे गेगर को कहा, 'इधर प्रायो।" ___ शेखर जाते हुए भाई साहब के पीछे चल दिया और प्रमीला अपराध की मूर्ति बनी-सी वही अकेले खडी रह गई । उमको भी एक क्षण कुछ नहीं मूझा । फिर एकाएक नाना दुसम्भावनाए उसके माथे मे कोलाहल मचाती हुई भागने-दौडने लगी । उसके मन मे निश्चय-ना वनकर जाग उठा कि अब उसकी नौकरी समाप्त हो गई है । उसके साथ जैन सारा भविष्य भी उसके लिए समाप्त हुआ जाता लगा। माथुर के माये पर पडे वक्र को देखकर उसके चित्त में सराय नहीं रह गया था-या बडा मराय पैदा हो गया था ! शेखर लौटा तो उसकी भाभी वही की वही राडी यी । उनका चेहरा देखकर वह मन्न रह गया । उसका मन उठला आ रहा था। लेकिन अब ऐना बैठा कि उसको कुछ नहीं सूझा। उगने वाहें अपनी भाभी के कन्धों पर की और मानो उन्हें पामते हुए वह उन्हें ले चला। वहा, "भाभी, अनी जाना नहीं होगा। भाई साहब ने कहा है कि ठहरना होगा।" प्रमीला ने मेयर पो देखा । जैन वह गद गमन नहीं पा रही थी। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलट फेर १४५ शेखर ने जल्दी से कहा, "भाई साहव ने कहा है, पीछे हम पहुचा देगे घर | ताकीद से कहा है कि तुम्हारी भाभी अभी जाएगी नही, कह देना ।" प्रमीला ने सुन लिया । उसको अपना अपराध समझ न पा रहा था। लेकिन अब एकाएक शेखर के स्वर से हठात् उसे लग पाया कि कही उसका भय निर्मूल ही तो नही है ? फिर भी डेढ माल के अनुभव में उसने पाया था कि माथुर साहब उसकी तरफ खासतौर से सख्त है । उसे तरक्की नही मिली है और उस पर दूसरी ताकीदें भी रही हैं । जाने एक साथ आश्वासन और आशका से कैसी वह मथी जाने लगी। "क्या हुआ भाभी ?" शेखर की भाभी कुछ नहीं बोली। "यह तुमको क्या हो रहा है ?" "कुछ नही।" शेखर की बाहो ने अनायास भाभी को कन्यो-से जैसे अपनी ओर खीच कर सरक्षण मे लिया। उस दवाव पर एकाएक प्रमीला मे समय फटता चला गया और विश्वास भरने लगा। भीड छट चुकी थी, लोग चले गए ये और प्रमीला मायुर माहव के सामने अकेली बैठी थी। शेखर था और कमरे से वह जा चुका था। गए एकाच मिनट हो गए और उन दोनो मे कोई कुछ नहीं बोला था। अन्त मे माथुर ने कहा, "प्रमीला |" स्वर भारी था और काप रहा था। प्रमीला ने घवडा कर ऊपर देखा। माथुर ने अपनी निगाह नीची नहीं की । वह प्रमीला को देखते रहे । देखते-देखते उनकी आखो मे आसू भर आए । भर कर वे टप-टप गिरने भी लगे। प्रमीला विमूढ-मी बैठी रह गई । स्कूल की वह कर्मचारिणी थी, मायुर उपाध्यक्ष थे। यह न होता और प्रमीला नारी हो सकती तो पुग्प की ओर बढकर वह नान्त्वना देती और ग्रामू न वहने देती। पर Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग अब वह विमूढ वनी बैठी रह गई। ___माथुर निर्लज्ज नियाज कोई दो मिनट तक टप-टप प्रासू गिगते रहे । निगाह उन्होने नहीं हटाई और बोले भी नहीं । अन्त मे उन्होने स्माल निकाला, आखें पोछी, नाक माफ किया और भर पाते कठ-से वोले, "प्रमीला ! .. यह तुमने क्या किया ?" प्रमीला चुप रह गई। "वताया क्यो नही मुझे ? मेरे हाथो यह पाप क्यो करवाया ?" प्रमीला अब भी कुछ बोल नहीं सकी। माथुर ही कहते गए "और अब छ हो भी नही सकता है। ' छोटो, देवा जाएगा । पर प्रमीला, यह हुआ क्या ?" पूछ कर माथुर उसे कोरे से कुछ देर देखते ही रह गए तो प्रमीला ने अपने को समाहित किया । बोली, "होता क्या, भाग्य का उलटफेर । और क्या ?" "वह कहा है-सरप ?" "शायद नौकरी में हैं।" "गायद ?.. और तुम ?" "मैं यहा हू-आपके स्कूल में।" मायुर मुनते और देखते रह गए । आखिर पछताए-से स्वर में वही वोल पटे, "मुझे बताया क्यो नही तुमने पहले ?" "क्या बताती ?" "मझे पहचान तो सकी नी न ?" "नहीं।" "पहचाना नहीं ? 'जानती तो होगी?" "जानती थी इनीलिए तो स्कन में नौकरी के लिए दरखास्त दी थी। लेकिन मैने पूरी तन्ह पापको देवा कद या कि पहलानती ?" माथुर गार देर र के, फिर बोले, "मैंने देखा था। चेहरा नही देखा था, पाव देवा या । और एक बार हाथ भी देना था। और हरा'' Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलट फेर १४७ नही, देख नही पाया । देखा होता तो यह पाप कैसे होता ? लेकिन तुम अकेली क्यो हो ? वतायो, मैं कुछ कर सकता हू?" "क्या लव अकेले नहीं है ? और इसमे कौन क्या कर सकता है ?" मायुर प्रमीला को देखते रह गए । समझ गए यह महिला सपनो मे पली अव अन्त पुर वासिनी नहीं है । जीवन यथार्थ के अनुभवो ने बाहर से वादाम की तरह इसे कठोर बना दिया है। शायद वह कठोरता ही है जिसने इसे टूटने नही दिया है और उसकी सुन्दरता की कसावट को ज्यो का त्यो रस लिया है। ठीक है, शायद यही ठीक है। विधाता के मर्म को कौन जानता है ? बोले, "प्रमीला | तुम पर्दे के पीछे हर तरह की सुख-सुविधा के वीच रहती थी। मैं मास्टर लगा था और तुम्हारी परिस्थितियो की ओर ऐसे देखता था जैसे धरती पर से कोई स्वर्ग को देवता है । और तुम 'नही, मैं ज्यादे नही कह सकूगा। इतना ही पूछना चाहता हूं कि मुझे माफ कर सकोगी?" "आपने मुझे नौकरी दी है।" "देखो, इस बात को फिर मुह पर न लाना ! छोटा लडका तुम्हारा किस स्कूल में पढता है ? माधव के कालेज मे क्या-क्या विषय है ? देखना, कुछ हो मुझे जस्र मौका देना । सस्प तव भी सनकी था। छोडो तुम्हे कष्ट होता है, उसकी वात छोटो । लेकिन अगर तुमने अव याने किसी तरह का कप्ट पाया, नित्य-निमित्त की आवश्यकता मे सकोच किया और मुझे नहीं कहा तो मुझसे मेरा कसूर उठाया नहीं जायगा । और दोप तुम्हारा होगा। सुनती हो प्रमीला ! हुआ सो हुना, आगे मुझे और उड न देना ।" प्रमीला ने मुस्कराकर कहा, "मापने नियुक्ति के नमय मेरे पचास रुपए कम क्यो किए थे ?" "मैं पागल हो गया था।" "क्यो?" "पागल होने में भी कोई 'क्यो' होता है ? • 'तुम एम ए० नहीं थी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जनेन्द्र की कहानिया दमवा भाग और सच कहू ? • मैं भी एम ए नहीं है।" प्रमीला हम पडी । कहने को हुई "और • " माथुर ने बीच मे ही कहा, "और ? वजह हो तुम " प्रमीला मुस्कराई । बोली, "मैं !" "हा, तुम।" __ और अव आयु का साव्वा वर्ष निकट या रहा है । वडा लडका माधव एम ए० करके अच्छी नौकरी पर लग गया है। राघव पी अन्त तक फीस माफ रही और वजीफा मिलता रहा । अव वी ए० करके वह भी नौकरी पा गया है । प्रमीला स्कूल मे लाइबेरियन चल रही है । नौकरी जाने की सूरत नहीं है । सत्प पति है और दूर है और साली हैं और ऐठे है और दुनिया जारी है । फरवरी '६५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्कर -सदाचार का ! मैं कुछ चक्कर मे हू । मालूम न था कि सदाचार मे भी चदकर I ---- निकल आएगा । शायद अपने वारे मे कुछ यहा कहने की जरूरत है । तीस वर्ष का हू, विवाहित हू, ग्रच्छी आय है । लेकिन मुझ पर काम की जिम्मेदारी बिल्कुल नही है और एक कार मेरे लिए अलग कर दी गई है । पिताजी का कहना है, जिसमे भाई साहब सहमत है, कि फल बडो की सेवा का मिलता है । काम करने वाले हम हैं ही तुम पढे-लिखे हो, समाजसेवा की रुचि रसो र सार्वजनिक सम्पर्कों की ओर ध्यान दो । यह सलाह मेरी वृत्ति और प्रकृति के अनुकूल है और मैं मिलने-जुलने का काम किया करता हू । - अब बात यह है कि सदाचार की जरूरत है—और भ्रष्टाचार की बिलकुल जरूरत नही है । कहा जाता है कि भ्रष्टाचार यो रहा होगा हर काल मे, पर जरूरत की माना के ग्रन्दर । ग्रव जरूरत की रेखा से वह बाहर था रहा है । ठीक ही है कि समाज के और राज के नेता लोग उधर व्यान दे । उस ध्यान देने के कारोवार मे मेरे जैसा व्यक्ति सम्मिलित न होगा, यह कैसे हो सकता है । मेरे पास समय था, कार थी, साधन चे श्रीर काम बेहद श्रावश्यक व समाजोपयोगी था । श्रत देसा गया कि में दोड-धूप मे हू मेह और भ्रष्टाचार की रोकथाम के प्रयत्नों में व्यस्त हू । नदाचार होना चाहिए र उसको जारी करने और रखने का काफी भार अपने कधो अनुभव करता रहता हूँ । लेकिन श्रवस्था मेरी तीन ही वर्ष है । इस कारण कुछ मर्यादाएं हैं । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग हुआ यह कि सदाचार समिति के अध्यक्ष का स्थान खाली हुआ, जो थे उनको बडा पोहदा दिया गया और वह दूर चले गए। कुछ दिनो तक सोच-विचार चलता रहा । एक रोज मिस्टर वर्मा, जो यो सदाचार में कुछ न थे, मगर डिप्टी सेक्रेटरी थे और सदाचार वाली समिति के लिए नेपथ्य के सूत्रधार थे, एकाएक पूछ बैठे, "शर्मा जी को जानते हो?" __ "कौन शर्मा जी ?" "अच्छा, नही जानते हो ?" उस प्रतिप्रश्न मे लगा, यह तो बात गडबड हुई जा रही है। गने जल्दी से कहा, "शर्मा जी, एक तो अपनी ही तरफ है, कमलानगर में।" मिस्टर वर्मा ने मेरी ओर देखा । उन दृष्टि में दया थी और मानो क्षमा भी थी। मुझे लगा कि मैं उन निगाह मे गिर रहा है। मुझे हर हालत में नहते रहना चाहिये था । इसलिये कहा, "कहिए, उन्हें क्या कहना होगा?" "जाने दो, तुम उन्हें नहीं जानते ।" "लेकिन-जी-" मिस्टर वर्मा जरा हने और घटी बजा कर मेशन आफिनर मानूम किया कि हा, गर्मा जी उधर कम ना नगर मे ही रहते है। मैंने मपट कहा कि उन्हें तो में सूब जानता है । यहिए? वर्मा मुस्कराए, वोले, "एच० एम० का रयाल था गि अध्यक्षता पे लिए उनमें यहा जाय । तुम" "शर्मा जी से " मैने भरसक स्वर को दुमानी रगा। गर्मा जी थे तो एक हमारे मोहल्ले में, पर ननकी से आदमी नमझे जाते थे । सात की अपनी मार्वजनिा दोष-धूप में मभी मुझे उनकी प्रास्यकता नहीं हुई। गुना था कोई हैं, कुछ है । लेकिन अध्यक्षता में प्रसग में इस तरह उनमा नाम सीये एन० एम० की तरफ से सुनने को मिल जाएगा, प्रगती Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्कर-सदाचार का । १५१ कल्पना भी कभी मुझे न हो सकती थी। वही नाम मिस्टर वर्मा की ओर से चुनौती की तरह चौकाता हुआ, जब मेरे समक्ष आया तो बहुत समझिए कि मैं अपना सतुलन बचाये रख सका और यह नही प्रगट होने दिया कि शर्मा जी के व्यक्तित्व के लिए मेरे मन मे कम आदर है। कहा, "शर्मा जी से वताइए, क्या कहना होगा ? वह तो मुझे वेहद अपना अजीज मानते है । मैं अवश्य उनसे कह सकता हू और स्वीकारता ला सकता हूँ ।" वर्मा ने मुझे देखा । फिर उनके होठो मे मुस्कराहट का वक्र था। पूछा, "तुम्हारा क्या रयाल है ?" "शर्मा जी, "मैने टटोलते हुए कहा- “एच० एम० ने बहुत मुना. सिव सोचा है।" "तो जाकर तुम उनसे मिलो। अभी अध्यक्षता की बात कहने की जरूरत नही । बन रुख देखो और मुझसे कहना । तब एच० एम० खुद मिलना चाहेगे।" एच० एम० खुद मिलना चाहेगे कि अध्यक्ष होने के लिए समक्ष निवेदन कर सके । मुझे लगा, दुनिया गलत है और यही कुछ भूल है । लेकिन कहा कि अच्छी बात है और गाम को ही मैं आपको वापिस आकर मिल सकता है। वर्मा ने कहा कि नही, जल्दी की बात नहीं है और परसो से पहले शायद उनसे मुलाकात भी न हो सकें। मैंने कहा कि अच्छा, और देख लिया कि गम खाए विना दुनिया मे बटना नही हो सकता है, और अफसर सदा अफसर होता है । पर यह सब तो भूमिका हुई । दार्मा जी के यहा जाना हुआ तो वहा ड्राइंग रम तक न था। वाहर एक तस्त पडा था । मालूम हुआ कि यही वैठना होगा । पाच वरत का एक बच्चा पाकर मेरा कार्ड भीतर ले गया और पाच मिनट तक मैं उन छोटे से बरामदे के सूने मे बैठा देखा किया कि पजव तमाशा है । मैं यहा बैग है कि जहा तरीके से बैठना भी नहीं Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनेन्द्र को पहानिया दसवा नाग नमीव हो सकता । और वैठा इसलिए है कि एच० एम० इन महागय ने मिलना चाहते है और मैं किसी तरह एच० एम० तक अपनी पहच बनाना चाहता है । कुछ बेतुकी सी मालूम हुई वह पाच मिनट की देर कि जव शर्मा जी वरामदे मे उपस्थित हुए । मैने पडे होकर हाय गोटे और उन्होंने कथा पकड पार पहले मुझे उसी तरत पर बिठाया और वगवर में फिर सुद बैठ गये । पंगे मे लकडी की चट्टी थी और पहने हए थे प्राधी धोती और प्राधी वाहो की बही। चेहरे मे कोई सान प्रभाव नहीं नजर आया। मौम्य था अवश्य, पर रोगीता नहीं कह सकते। "कहो, भाई, यही रहते हो, मामला नगर?" "एले न बोली, जैसे मैं तुम्हे जानता नही हु, गालीगामजी के तो लडके हो न? कहो, कैने पार किया ?" ___ हम लोग मानते थे कि रघर श्राप चुछ उदागीन रहते हैं । देश को सबस्था विपम है । पर की लोलुपता हैं। भावाचार रद रहा। ऐसे में पाप में कहे वि उदामीन रहने का हक नहीं है, भारए नार हम नौजवानो का मार्गदर्शन कीजिये । माग पर गनिक मूल्यों की तरफ वा दुर्लक्ष हो रहा है अाजकल । एक ग्रापा-पापी चल रही है । दैगिए ती दया नमः शुद्ध नहीं मिलती। गाने-पीने की नीजो मे तो मिलान पी हद नहीं रह गई है। 'गोरी की पूलिसी नती । म घोर दमा मे प्रापत उठना चाहिए और ." "ठीक है, बीक है। तुम पर क्या हो " "छह वर्ष हुए पालिटिग में हम लिया या गिनहर परिया मोकग-गे-कम धारगी ना देना चाहिए बैंग मेधा के Fिre गिना जी ने यही गोनार याम का योग मुन पर नती माना और प्राग-जैगो के मार्गदर्शन में सेवा के निमिचोट दिया है।" "चन्ने कितने है?" Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्कर- सदाचार का 1 "लडका है ? कितने वर्ष का है ?" " दो वर्ष की बच्ची है ।" " तो तुम देश के काम मे हो ?" "जी ।" १५३ "अच्छा है, अच्छा है ।" बात खतम सी लगती थी । मैंने हठात् कहा, "सदाचार के प्रचार 1 के लिए बताइए क्या किया जाना चाहिए ?" -- -की समितिया वन तो रही है । काम भी तेजी से "सदाचार ? हो रहा है । तुम्हे उसमे लग जाना चाहिए ।" "लेकिन, आप — " "हा, हा, कहो । मैं क्या ?" "आपका उसमे योग चाहिए ।" "योग है क्यो नही । अवश्य है, अच्छे काम मे भगवान का योग होता है । फिर सवाल क्या "हम श्रापको अपने साथ समझ सकते है ? समिति मे ले सकते हैं ?" "साथ में क्यो नही है । लेकिन समिति — उसको जाने दो ।" " समिति तो कार्य को स्वरूप देने के "हा, हा, वह तो है ।" शर्मा जी ने जैसे देखना श्रव प्रारम्भ कर रहे हो । लिए है ।" कहा- और मुझे ऐसे देखा ܙܙܕ कुछ क्षण उस निगाह के नीचे में अस्तप्राय सा बैठा रहा । फिर हठात् कहा, " तो आपकी अनुमति हम मान सकते है ?" उन्होने उत्तर नही दिया । चेहरे पर कुछ काठिन्य फलक श्राया । लेकिन हठपूर्वक मानो हसते हुए बोले, "तुम्हे उसकी बहुत चिन्ता है ? तुम तो जवान हो, बड़े लोग चिन्ता कर ही रहे है । देश की बातें उन पर छोड दो ।" "लेकिन, सर, यह देश की बात नही है, जनता की बात है । जनजन की बात है ।" Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनेन्द्र की कहानिया दसया भाग हमार बोले, "हा, हा, जन-जन की बात है । बोलो, गया लोगे? लस्मी ले सकोगे ? या कोकाकोला ही चाहिए ?" "जी नहीं, कृपा है । लेकिन-" । "देखो वेटे, देश नेता लोग मो नहीं रहे हैं । ये जगे हुए है और तत्पर हैं । ऐसे में बहुत ज्यादे जिम्मेदारी औरो को अपनी नहीं माननी चाहिए । समझे न ? समितिया है, और काम के लिए तुम जवान लोग हो । फिर क्या चाहिए ? नेता है जो कटिबद्ध है, कार्यकर्ता हैं जो तुम जैसे परायण हैं। मैं बहुत अधिक व्यक्ति हू, मेरे लिए काम रोको नहीं, चले चलो।" ___मैंने मन में अपना माथा ठोका । यही वस्तु है जो हमारी प्रवनति के मूल मे है । यह असलग्नता और तटस्थता । जगे जो है, दूसरे पर है। आप बस साक्षी हैं और द्रष्टा हैं । अरानोप मे कहा-~-"नागरिक प्राप भी है और हर नागरिक का दायित्व है-" गर्गा जी का चेहरा काटोर होता दिखाई दिया। वह पडे हुए और पहा-चंठो मैं अभी पाया। कहकर वह चले गए और मैं पाटा हुमा या मूने उग बरामदे में अपने रोप को लेकर एकाएक अकेला बंटा रह गया। बहुत विवि मातम हुया उनका व्यवहार और तर्क का तार जिस जगह छुटा पा उनके प्रतिवाद का जोग मुभमे उफना पा रहा था। आये तो उनके हाथ में लम्सी पा गिलागधा । यहा-"तो, पियो। गर्मी है, ठटक पायेगी।" गिलान हाथ में लिया और मैंने भगवर तपत पर रख दिया। कहा-"पाहिए, मेरे लिए गया पाना है ?" "अरे भई, पहले पियो तो।" । "मापने वृया यह कष्ट गिया" "देपो न स्तिनी गर्मी है भोर यहा पना भी नहीं है। माफ करना, घर में नहीं है और लस्मी घायद माफी ठटी न हो। पियो, पियो, रामांपो मत। तुम्हारा ही घर है।" Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चक्कर- सदाचार का १५५ उपाय न था और मन ही मन में झल्ला रहा था कि किस जगह आकर फसा । लेकिन मिस्टर वर्मा से मुझे मिलना था और मै अवश्य चाहता था कि एच० एम० से जो बात निकली है, उसकी पूर्ति मे मैं किसी न किसी तरह काम ग्राऊ, जिससे वहा तक मेरी रसाई हो सके । गिलास लेकर मैं सिप करता जाता था और शर्मा जी की ओर इस प्रत्याशा से देखता जाता था कि वह पिघलेंगे और मेरा काम पूरा हो जाएगा। लेकिन मालूम होता था, लस्सी के गिलास से बाहर किसी देश और सदाचार की उन्हे चिन्ता नही है और उनका मानस घिरा ओर सिमटा है । पर तोवह, उस ढीम गिलास के आधे तक आने मे मेरी सामर्थ समाप्त हो गई और गिलास को मैंने एक तरफ कर देना चाहा । शर्मा जी बोले - " अरे भई, जवान हो। यह क्या, पूरा पी डालो।" लेकिन वह किसी तरह सभव न हुआ, और में लज्जित हो प्राया और शर्मा जी ने कृपा की और मैंने अन्तिम बार कहा कि वताया जाय कि समिति मे होने की अनुमति में प्राप्त मान सकता कि नही शर्मा जी के चेहरे की कठोरता एकाएक बेहद उघर आई । बोले"तुम जवान हो, साफ कहो, किसने तुम्हें भेजा है ?" ? मैं घबराया । बोला - "भेजा ! जी नही " समिति तुम नही बनाये हो, नही बना सकते हो | यह काम राज्य के मत्री से शुरू हुआ है। सचमुच काम भी उन्ही का है । सदाचार कानून से चलेगा श्रौर बनेगा । जैसे दुराचार स्वभाव हो आदमी का । तुम्हारे कधे क्यो फालतू हैं कि उस बोझ को ढोते हो । बडी ताकत है कानून के पास | क्यो उसका भरोसा नही करते हो और उसमे दखल देने पहुचते हो ? फिर कहने आते हो, वैसी बेवकूफी में करू सच बोलो, किसने भेजा है ?" - " "जी नही ।" मेरी मुद्रा शायद इसी योग्य हो आई होगी । शर्मा जी मज्ञ देखकर Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग हमे । वोले-"अच्छा अच्छा, किसी ने न भेजा सही। पर भाई सदाचार के लायक तो मैं हू नही। सिर्फ तीन सौ रुपये मेरी प्राय है, सोचने की बात है कि तीन हजार मासिक पाय से पहले सदाचार क्या शुरू भी हो सकता है ?" मै तो भौचक्क होकर शर्मा जी की ओर देखने लगा। वह कहने के अनन्तर कुछ हस आये और वह हसी बहुत निर्मल मालूम होती थी। लेकिन देखते देखते वह चेहरा कस आया और मानो उन्होने उपट के साथ मुझे देखा । बोले-"तुम यहा आये हो, सदाचार के बारे मे पूछते हो । तुम्हे बैठने को कुर्सी नहीं मिली। गर्मी मे हवा का पखा नहीं मिला । लस्सी मे बर्फ नहीं मिल सका । मैं पूछता हू, यह सदाचार है ? जितनी देर तुम्हारे साथ बैठा रहा है, लगता रहा है कि मैं यथायोग्य तुम्हारा सत्कार भी जो नहीं कर पा रहा हू, सो दुराचार कर रहा हूँ। श्रामदनी होती तो मैं तुम्हे सोफा पर विठा सकता था और तुम्हारी खातिर जरा तरीके से कर सकता था' समझे ? सदाचार पैसे से होता है, इसलिए पैसे के लिए जो किया जाता है, उसे दुराचार मानना इकतरफा है"भ्रष्टाचार तुम लोग किसको कहते हो ? मेरा यह प्राचार भ्रष्ट क्यो नही है कि मैं जी खोल कर स्वागत सत्कार भी नहीं कर सकता। क्यो मैं दवा और सिमटा रहता हू । खर्च कम करने की फिक्र मे रहना क्या कभी सदाचार हो सकता है ? इसलिए गलती करते हो, अगर सदाचार मे मुझे आगे करना चाहते हो । मिनिस्टर लोग, अफसर लोग हैं, जिनको हक है कि सदाचार करें और कराए । 'तुमको किसी ने भेजा नहीं है, खुद आये हो । मुझे यकीन नहीं करना चाहिए इस बात का। तुमने पालिटिक्स मे एम० ए० किया है। तुम ऊचा देख सकते हो, मैं जानता हूँ कि ऐसी भूल तुम्हारे बस की नहीं हो सकती । समझदारी का रास्ता वह नहीं है। लेकिन लोग है जो राज भी चाहते हैं और सदाचार भी चाहते हैं । दोनो चाहे अपनी जगह नहीं है. "उनमे जाकर कहना, अगर इशारा तुम्हे वहा से मिला है, कि शर्मा की आमदनी जिस Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्कर- सदाचार का 1 १५७ रोज वे तीन हजार मासिक की बना देगे, उस रोज से वह अवश्य सदाचार शुरू कर देगा । और जिस समिति मे कहो, होने की योग्यता पा जाएगा | फिर अनुमति का सवाल नही रह जायेगा । वल्कि समितियो पर होने की श्रातुरता उसमे होने लग जाएगी । ऐसे न देखो, जैसे मैं बात अनोखी कह रहा हू । बताओ तुम्हारी आमदनी कितनी है ? - बता भी । " ... "जी ?" " अरे भई, मैं इन्कमटैक्स का आदमी नही हू ।" "जी 'जी नही ।" "छोडो छोडो, मैं देख सकता हू कि तुमने अपने लिए सदाचार का काम जो चुना है सो ठीक चुना है । आमदनी तुम्हारी ठीक ठाक लगती है । इसलिये तुम्हारा चुनाव भी ठीक है । लेकिन अगर ग्रामदनी ठीक नही हो तो फिर उसको ऊची और काफी बनाने के लिए भी उस कार्यक्रम का चुनाव मुनासिब समझा जाएगा। यानी तुमको देखना चाहिए कि हर तरफ से सदाचार का सम्बन्ध समीचीन ग्राय से हो जाता है। "} मैं शर्मा जी को अविश्वास की निगाह से देखता रह गया । कहते कहते यह खडे हो प्राये । मानो उन्होने पहचान लिया कि मैं चला जाना चाहता हूँ और मानो वह भी अपनी ओर से विदा के लिए तत्पर है । उन्होने कहा - " लेकिन सदाचार के साथ दुराचार भी ग्रामदनी को चढाने चढाने की कोशिश में होता बताया जाता है ।" मेरे भाई, यही मुश्किल है । माफ करना, तुम्हे में कोई सीधा जवाब नही दे सकता । सदाचार विना वढी चढी घाय के हो नही सकता । वही चढी आय के लिए ही फिर दुराचार किया जाता मालूम होता है। इसलिए मैं तो चक्कर मे हु । लेकिन तुम लोगों के प्रयत्नो की सफलता चाहता हू ।" मैं सुद चक्कर मे हो प्राया । सडा हुआ तो सचमुच जैने घिरनी श्रा गई। मैं कुछ बोल नही पाया । ठीक तरह बिदा का अभिवादन भी नही Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग कर सका। __ शर्मा जी ने शायद मेरी हालत देख ली हो, उन्होने मुझे गले से लगाया फिर अलग करते हुए कधे पर थपथपाकर कहा-"हम जैसे भटके लोगो की चिन्ता न करना । जवान हो, और अपने सेवा के कामों मे दत्त-चित्त होकर बढते रहना और यशस्वी होना।" -इसी से कहता हू, मैं चक्कर मे हू, बडे चक्कर मे हु और कप्ट ये है कि चक्कर सदाचार मे से बन गया है । जुलाई '६५ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्षेप दिल्ली विश्वविद्यालय के नये कान्वोकेशन हाल मे जल्सा जारी था । एक व्यक्ति सीघा चलता हुआ पाया । देह पर सिर्फ कोपीन और हाथो मे कुछ अटर-सटर । मच थी तक पाकर वह आराम से बैठ गया और हाथ की चीजो को एक पर एक चिनकर सामने अपने एक स्तूप का निर्माण कर लिया । सकेत हुआ कि उसे उठा दिया जाय । पर प्रगट हुआ कि चलती हुई सभा का ध्यान ऐसे और भी अधिक उसकी ओर आकृष्ट होगा और उससे विघ्न अधिक ही वढेगा। किन्तु वक्ता बोलना समाप्त करके, से हटकर गये तो यह महाशय वढकर वहा अपना वक्तव्य देने या पहुचे । पहुचते थे कि इधर-उधर से दो-चार प्राध्यापक लपके और एक ने तो उन महाशय की गर्दन ही जा धरी । इस भाति हाल से उनको बाहर किया गया । सवने माना, वह विक्षिप्त थे । क्या कहानी के लिए भी यह मानना आवश्यक है ? अहा-हा । क्या माया है | उस्ताद, मानता हू तुझे । हम परमात्मा है, लेकिन मान लिया कि तू भी है । क्या आसमान से पानी बरसता हैधार की धार, धार की धार । लेकिन तू समझता होगा कि सब किसी को भिगो देगा? पर हम भी हैं कि देख तो भिगो के ! ले साली, यही तो भीगेगी। और एक झपाटे मे उसने कोपीन खोलकर बरसते पानी मे मानमान में फहराई और फिर उसको मुट्ठी मे वाघ लिया।] अव वता, तू हमे कैसे भिगोयेगा? वह तो मुट्ठी मे है, जो भीग सक्ती थी! हम हैं तेरे सामने, कर ले जो तेरे बस मे हो । एक बूद पानी नहीं छू सकता। दरम ले जितना चाहे और वरसा ले तू जितना चाहे । हमारे बदन पर Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग गिर के ग्रासू की तरह ग्राप ही ढरता जाएगा सब । अपने को क्या, अपन सूखे के सूखे ! बारिश होते-होते कम हुई और फिर थम गई । महाशय उस वक्त सड़क पर थे । सडक सूनसान थी । वारिश रुकी तो महाशय ठट्ठा मार कर हसे । ... ग्रव वोल | देखा कि नही ? यह है इस हम परमेश्वर का करतब । ले खोलता | यह रही जो भीग सकती थी । पर तुझ से तो इसका भी कुछ न विगडा । आा, वेटी ग्रा जा । अपनी जगह श्राराम से हो जा ! महाशय ने कोपीन को यथास्थान बाघ लिया । चलते-चलते देखा कि बाईं तरफ दरवाजा है और सड़क साफ है । सामने भी सडक है, सडक बाईं तरफ भी है । पीठ की तरफ मुड़कर देखा कि सडक पोछे भी है । ऊपर ग्रासमान की तरफ देखा कि सडक उधर भी हो सकती है । भई, वाह । उन्होने सिरके बढे हुए वालो मे हाथ फेरा। ठोढी पर बढती हुई दाढी पर भी हाथ सहलाया और सोचा, सोचने की ग्रावश्यकता थी । देखो न, जिधर देखो, सडक ही सडक । ऐसे समय विचार ही काम दे सकता है । इधर से तो हम चलकर या रहे है । ध्रुव रही तीन । सामने, दायें, वाये । ऊपर की बात छोड दो। हम सीधे ग्रासमान की तरफ सडक बनाते हुए जा सकते है, पर उधर ऊपर साला परमात्मा रहता है । दो परमात्मा कैसे रह सकते हैं ? ऊपर नही जाएगे । ऊपर वाला टगा रहे चाहे तो ऊपर ही । क्या करेगा ? पानी बरसा देगा । धूप फेंक देगा । विजली गिरा देगा । पर इसमें हमारा वह क्या कर सकता है ? देखो, हम हैं कि सामने जाए, चाहे दाए जाए, चाहे वाए जाए । वह तो बैठा है घर मे जहा का तहा ! हम हैं कि चल रहे है। मरजी है कि नहीं भी चलें । या चाहे इधर चलें, चाहे उधर चलें, चाहे किवर भी चलें । तरफ - इसलिए हम 1 पर नही, दाये नही, बायें । दायें तो दक्षिण होता है । दक्षिण मे Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्षेप १६१ सिर्फ दक्षिणा हो सकती है । वाम मे होती है वामाग्नी कहो, कैसे रहे ? अहा हा-हा। इसीलिए देख लो, वाईं तरफ ही दरवाजा है ! द्वार से होता है द्वाराचार । चलो भई, द्वाराचार देखे। ___ वाह भई | मानना होगा लोगो को | जभी तो विश्वविद्यालय कहते है | क्या खूब बनाई है इमारत ! कितना पैसा लगा होगा ? बडा पैसा लगा होगा ! पैसा साला बहुत लगता है । जाने यह पैसा कहा रहता है ? हमको तो दीखती नही जगह ? पर है साले मे करामात । इधर दो, उधर जलेबी का दोना तुम्हारे हाथ मे । और वह जलेबी वाला बनाता ही है, खाता नहीं है, न घर ले जाता है । पैसा दो और जलेवी ले लो । या और चाहे कुछ तो वह ले लो। पर हम परमात्मा को पैसा क्या करेगा ? जलेबीवाला अाज हमको जलेवी नहीं दिया । बोलता, पैसा लायो । हम हस दिया । हमने का बात है कि नही ? जलेवी वह खाता नही है और पैसा मागता है । पर पहचानता नही हम परमात्मा हैं । क्या पैसा, क्या जलेबी | हम सबको लात मार सकता है । विश्वविद्यालय | यहा लोग विद्या पढते हैं । पढ कर विद्या को पढाता है । पढा कर नया करता है ? पैसा पाता है, पैसा हाथ से देकर जलेबी पाता है । जलेबी खा के फिर पढाने आ जाता है । पढा के पैसा लेके फिर साता-पीता-पहनता है । एई ढो विछा का चक्कर । अलवत चवकर | हम खायेगा, काहे कि खाना स्वाद लगता है । पर उनके वास्ते करेगा काहे को । खाने के वास्ते पढायेगा, पढा के पैसा पा के नायेगा । हम मुफ्त पढायेगा । मुपत खायेगा । जिन्दगी हमारी है और आजाद है और मुफत । एकदम मुफत ।। प्रो-हो-हो । यह वारिग फिर होना मागता है । वादल काला हो गया है । ऊपर घूमता है । हम नहीं भीगा, पर वाल काला है और साला वह भीग जाता है। (और उमने सिर के वालो को दवाकर हाथ मे मूता ।) इस बार यह नही होएगा। हम एक दम नही भीगेगा, वाल भी नहीं भीगेगा । कुछ भी नहीं भीगेगा । और महाशय ने यान्वोकेशन हाल Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग गिर के प्रासू की तरह आप ही ढरता जाएगा सब । अपने को क्या, अपन सूखे के सूखे । बारिश होते-होते कम हुई और फिर थम गई । महाशय उस वक्त सडक पर ये । सड़क सूनसान थी । बारिश रुकी तो महाशय ठट्ठा मार कर हसे। ..'अव वोल | देखा कि नहीं ? यह है इस हम परमेश्वर का करतव । ले खोलता है । यह रही जो भीग सकती थी। पर तुझ से तो इसका भी कुछ न विगड़ा । श्रा, वेटी आ जा । अपनी जगह आराम से हो जा। ___महाशय ने कोपीन को यथास्थान वाघ लिया । चलते-चलते देखा कि बाई तरफ दरवाजा है और सडक साफ है । सामने भी सडक है, सडक बाई तरफ भी है । पीठ की तरफ मुडकर देखा कि सडक पीछे भी है। ऊपर आसमान की तरफ देखा कि मडक उधर भी हो सकती है। भई, वाह | उन्होने सिरके बढे हुए वालो मे हाय फेरा । ठोढी पर बढती हुई दाढी पर भी हाप सहलाया और सोचा, सोचने की प्रावश्यकता थी। देखो न, जिधर देखो, सडक ही सडक । ऐमे समय विचार ही काम दे सकता है । इधर से तो हम चलकर पा रहे है । अब रही तीन तरफ । सामने, दाये, बायें] ऊपर की बात छोड दो। हम सीधे ग्रासमान की तरफ सडक बनाते हुए जा सकते है, पर उधर ऊपर माला परमात्मा रहता है। दो परमात्मा कैसे रह सकते है ? इसलिए हम ऊपर नहीं जाएगे । ऊपर वाला टगा रहे चाहे तो ऊपर ही । क्या करेगा? पानी बरसा देगा । धूप फेंक देगा। बिजली गिरा देगा! पर इसमे हमारा वह क्या कर सकता है ? देखो, हम हैं कि सामने जाए, चाहे दाए जाए, चाहे वाए जाए । वह तो वैठा है अघर मे जहा का तहा। हम हैं कि चल रहे है । मरजी है कि नहीं भी चलें । या चाहे इधर चलें, चाहे उधर चलें, चाहे किधर भी चलें। पर नही, दायें नही, वायें | दायें तो दक्षिण होता है । दक्षिण में Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्षेप १६१ सिर्फ दक्षिणा हो सकती है । वाम मे होती है वामाग्नी कहो, कैसे रहे ? अहा हा-हा। इसीलिए देख लो, वाई तरफ ही दरवाजा है । द्वार से होता है द्वाराचार | चलो भई, द्वाराचार देखें। ___ वाह भई । मानना होगा लोगो को जभी तो विश्वविद्यालय कहते है ! क्या खूब बनाई है इमारत | कितना पैसा लगा होगा? वडा पैसा लगा होगा | पैसा साला बहुत लगता है । जाने यह पैसा कहा रहता है ? हमको तो दीखती नही जगह ? पर है साले मे करामात । इधर दो, उधर जलेबी का दोना तुम्हारे हाथ मे | और वह जलेबी वाला बनाता ही है, खाता नहीं है, न घर ले जाता है । पैसा दो और जलेवी ले लो । या और चाहे कुछ तो वह ले लो। पर हम परमात्मा को पैसा क्या करेगा ? जलेबीवाला अाज हमको जलेबी नही दिया । बोलता, पैसा लायो ! हम हस दिया । हसने का बात है कि नही ? जलेवी वह खाता नही है और पैसा मागता है | पर पहचानता नही हम परमात्मा है । क्या पैसा, क्या जलेबी । हम सबको लात मार सकता है । विश्वविद्यालय । यहा लोग विद्या पढते है । पढ कर विद्या को पढाता है । पढा कर क्या करता है ? पैसा पाता है, पैसा हाथ से देकर जलेवी पाता है । जलेबी खा के फिर पढाने आ जाता है । पढा के पैसा लेके फिर खाता-पीता-पहनता है। एई ढो विछा का चक्कर ।। अलवत चक्कर । हम खायेगा, काहे कि खाना स्वाद लगता है ! पर उसके वास्ते करेगा काहे को । खाने के वास्ते पढायेगा, पढा के पैसा पा के सायेगा । हम मुफ्त पढायेगा | मुफ्त खायेगा । जिन्दगी हमारी है और आजाद है और मुफत । एकदम मुफत ! ___ो-हो-हो । यह बारिश फिर होना मागता है । बादल काला हो गया है। ऊपर घूमता है। हम नहीं भीगा, पर वाल काला है और माला वह भीग जाता है। (और उसने सिर के वालो को दवाकर हाथ से सूता।) इस बार यह नहीं होएगा। हम एक दम नहीं भीगेगा, वाल भी नहीं भीगेगा। कुछ भी नहीं भीगेगा । और महाशय ने कान्वोकेशन हाल Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग १६२ के पोर्च मे दौडकर दाखिल हो जाते है | ले भाई, ठीक है । अव वरस ले, जितना जी चाहे ! वाह उस्ताद परमात्मा, तू भी पानी का बडा भण्डार जमा करके रखता है । हम पढते थे, मानसून है और पानी का भाप बनता है, उसमे से बादल बनता है और समन्दर के किनारे से उड़ते-उडते जहा तहा पहुचकर वापिस पानी बरसाने लग जाता है । यह विग्गान है । हम विज्ञान पढे थे और विद्यालय मे विज्ञान पढाया जाता है । ऊचा विज्ञान, तरह-तरह का विज्ञान | पर हम हसता है और परमात्मा हसता है । और वह पानी वरसाता है । हमारे पास पानी करने का वडा सामान नही है । नही तो हम भी हसी को पानी बना के बरसा देना । तो हम श्रव हसी को हो मीधा बरसाता है । काहे कि लोग विज्ञान की बात करता है। पानी को पानी नही बोलता है, कुछ और बोलता है । हाइड्रोजन श्रावसीजन बोलता है । काम की बात को वेकाम बना के विज्ञान बोलता है । पानी का प्यास लगता है, और हम पानी पी लेता है। तुम भी पी लेता है । सब लोग पी लेता है, पर विज्ञानी पीता नही है । विश्लेषण करता है । विश्लेषण से पानी को उठा के कुछ प्रोर वना देता है । कहता है यह नही है, वह है । और वह वह नही है, यह है । श्रादमी श्रादमी नही है, तत्व है । और तत्व श्रात्मा है और श्रात्मा हम तुम नही हैं, पार है ठीक है, पार है । हम श्रात्मा है, हम परमात्मा है, हम विज्ञान है । 1 महाशय ने पो के बाहर देखा । पानी पड़ रहा था । सामने देखा पानी पड रहा था । मुडकर पीछे देखा, पानी पड रहा था। लेकिन वार्ड तरफ पानी नही था, सीढिया थी । सीढियो के बाद वरामदा था । वरामदे के बाद फिर सीढिया थी और तब दरवाजा प्राता था । - महाशय ने उस सव स्थान को गौर से देखा जो ढका था और जहा पानी नही पड रहा था । मालूम हुआ कि यह श्रनोसा घटना है । पानी तीन तरफ है, एक तरफ नहीं है । श्रोर जिधर नही है, उधर श्रासमान भी नही है । वहा दीवारें हैं और उपर छत है । दिशाए उससे Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्षेप १६३ रुक गई हैं और प्राकाश खतम हो गया है । महाशय को यह सचमुच ही बहुत विलक्षण मालूम हुआ । दिशा अनन्त हैं, और आकाश सर्वव्यापी है। लेकिन ठोस ईट के जोर से अनत खतम हो जाएगा, और सब कही होने वाला आकाश बाहर ही रोक कर खडा कर दिया जायेगा । और वहा फिर क्या होगा ? विद्या होगी और उसका प्रालय होगा । विश्वभर की विद्या को लाया जाएगा और दिया जाएगा। विश्श विद्यालय । कारण कि विद्या अनत मे उड न जाए। और घिर के वन्द व सुरक्षित रहेगा। उसने सव तरफ देखा। वह अब पहली सीढियो से चढकर ऊपर या गया था। पाखो से देखा, फिर पास जाकर दीवार पर हाथ लगाकर देखा । ठीक है, और मजबूत है । हवा आर-पार नही जा सकती है। उसे अनुमान न हुआ, दीवार कितनी घनी होगी । उगली मोडकर उसके कोने में उसने दीवार को ठकठकाया । ठक-ठक को फिर कान पास लाकर मुना । उसने अपने को पूरा विश्वास दिला लिया कि दीवार पोली नही है, बल्कि सानी मोटी है । उमने ऊपर छत की ओर देखा। जैसे उसने कोशिश की कि हम छत को भेद कर उसकी निगाह पार जा सके । वह देर तक इम तन्ह देखता रहा । छत ज्यो की त्यो रही और उस निगाह को अपने मे पीती समाती चली गई। मालूम हुआ कि वहा कुछ भी जुम्बिश नहीं हुई और छन ऐने टिकी है जैसे प्रतिम और परमसत्य वही हो । उसको एक क्षण के लिए अपने बारे मे सशय हुआ। यह कि क्या वह परमात्मा नहीं है ? छत अपनी जगह से उड नहीं रही थी। मानो उनके दर्शन को रोकने को अडी हो । पर उसका दर्शन परम है, अवाध है । वाघा वही हो नहीं सकता। इसी से वह परमात्मा है । लेकिन निगाह ने छत उडी नहीं, नहीं उडी, तब वह हना। उसकी मुस्कराहट परम उतीणं थी । जैसे मानो यह कृपा कर रहा हो। फिर उसने ऊपर फो मुह किया पोर छत की तरफ फूक छोड़ी। सचमुच फूक में छत वह उड़ गई। एफदम उड गई और दिक-काला-आकाश सव Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग एकदम खुल पाए और तब मानो विजय गर्व मे वह आगे वटा । ___ सभा शुरु हुए समय हो चुका था। अब चौकसी की आवश्यकता न थी। इसलिए हाल के दरवाजे पर कोई न था । लोग सव मच पर होती हुई कार्रवाई देखने और सुनने, सुनने से अधिक देसने और देखने मे अधिक सुनने, मे तल्लीन थे। ___ महाशय वह द्वार पर ठिठके । एक निगाह मे सब कुछ को उसने समेटा । दूर, नीचे किन्तु ऊपर, मच था, जहा पाच-मात कुसियो पर पाच-सात लोग बैठे हुए थे । वरावर में एक पुरुष खडे हुए बोल रहे थे। बाकी नीचे कुसियो मे बैठे थे । उनकी पीठ महाशय की तरफ थी और मुह मच की तरफ था। उसने ऐसे देखा, जैसे दिक्कालजयी हो । रास्ता सामने निर्वाध था। बल्कि बनात-विद्या था। वहाँ परे कुछ कहा जा रहा था और सुना जा रहा था । लेकिन उसके कानो मे कुछ नही पडा । उसे लगा कि बम प्रतीक्षा है । वेशक उसी की प्रतीक्षा है। उसने अपने हाथ की साफी को झाडा। दूसरे सामान को भी इस हाथ से उस हाथ किया । सामान मे कागज के गत्ते का बना हुया एक डिव्या सा था जिससे भोपू का काम लिया जा सकता था। फटी पुरानी जीनुमा एकाध किताब थी। पास मे सरकडे की मानो एक पेन्सिल थी। यह सब कुछ पहले वायें मे उसने दाहिने हाय किया, और दाहिने मे फिर बायें हाथ । शायद उमै सन्देश देना था और इस प्रकार वह उसी की तैयारी कर रहा था । उसने फिर एक बार चारो ओर ग्राख घुमाकर देसा। जैसे अपने को और अवसर को तोला। मानो उमने उम थोडे ममय में भरपूर भर लिया। भर लिया कृपा से जो उसके अन्दर यहा इस प्रकार नितान्त ग्रहणीगील भाव में बैठे हुए लोगो के लिए उसमे उदय हो आई थी। एक गहन अगाघ अनुकम्पा कि विचारे मूर्ख हैं कि यहा बैठे हैं । वाहर पाकाग है और वर्षा है और अनन्त है और शून्य है। यहा दवे-लिपटे बैठे हैं। बाहर आते तो देनते कि भीगा में जाता है । और देसते कि भीगने से बच कोन मरता है। कोई नहीं बच सकता । उस परमात्मा की वर्षा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्षेप १६५ से बस यह हम परमात्मा ही बच सकता है, जो सब कुछ है, और जिसे कुछ नही छूता है। हा, हम, हम, हम । हाल मे दोनो तरफ कुसिया लगी हुई थी और वीच मे से मार्ग छूटा था जो मच तक जाता था । मानो सब कुछ का निरीक्षण करने के वाद, उसके मन मे अपना कर्त्तव्य स्पष्ट हो चुका था। वह बिन्दु स्पष्ट हो चुका था, कि जहा पहुचना और जमना है । जहा कुछ देर अपने को समाहित करने के बाद परम दया मे इन विखरे और भूले हुओ को अपना सन्देश देना है । मुक्तिदायी और परम हितकारी सन्देश | सन्देश कि ए पढ़े-लिखे लोगो, मूर्ख बने यहा क्यो बैठे हो ? लो, यह मै प्राता है। सुनो, और वम यहा से भाग जाओ। बीच के मार्ग मे से मानो ध्यानस्थ और अवध्यानस्थ वह वढा और बढता हुआ चला गया। एकान, एकनिष्ठ । पता तव चला जबकि ठीक मच के समक्ष वह खडा हुआ और उसने क्रमश सामने देखा, दायें देखा, वायें देखा । अध्यक्ष के सामने मेज थी और उस पर गुलदस्ता था और घडी थी और पहनाए गए पुष्प हारो का ढेर सा था । उस सबके बीच मे आ जाने से अध्यक्ष को वह मूर्ति दिसाई न दी । पर व्यवस्थापको का ध्यान गया और श्रोताओ ने भी इस निस्मगनिग्रंथ पुरुप को देसा । किन्तु अव तक वह स्थिति का पारायण पूर्ण कर चुका था और प्रासन मार के वही बैठ भी गया था । प्रासन पद्मासन नही था, और थोडी देर मे ही उसे मालूम हो गया कि वह तो पद्मासन ही चाहिये । तनिक उठकर झाडे गए झाडन वो उसने अपने नीचे लिया और दिव्य-भाव के साथ वह पद्मासन लगाकर बैठ गया । तव उस गत्ते के भोपू को उसने अपने समक्ष मानस्तभ की भाति टिकाया और उस पर विश्व कोप स्प यह जत्री प्रतिस्थापित की। फिर अभिषेकपूर्वक वहा रारकडे को कालम को प्रस्थापित किया। मानो ज्ञान के सुमेरु को ही उसने इस प्रकार रचना कर ली । फिर दृष्टि को नामाग्र करके मन ही मन उसने कुछ उच्चारण करना प्रारम्भ किया। प्रोठ अवश्य Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनेन्द्र की कहानियां दसवा भाग उसमे बुदबुदा जाते थे किन्तु ध्वनि वाहर नहीं आती थी । कुछ क्षण उपरान्त उसने उस ज्ञान के सुमेरु को शीश नवाकर नमस्कार किया । अनन्तर अव तक अर्थ-निर्मिलित अपने नेत्रो को सर्वथा ही निमिलित करके वह ध्यानमग्न हो रहा । __ व्यवस्थापक ने सकेत किया। दो ओर से दो व्यक्ति बढे । एक निकट ही आ गया और मानो उस व्यक्ति ने इन ध्यानस्थ योगी को कन्वे पर तनिक छुआ । योगी ने वाया हाथ तनिक हिला दिया । जैसे कि योग मे विघ्न डालने मे वर्जित किया हो । प्राख उसने नही सोली और वायें हाथ की झिडकी का वह नकेत ही मानो भरपूर पर्याप्त हुा । दूसरी दिशा से आता हुआ व्यक्ति इन व्यापार पर अपने स्थान पर रुका रह गया और पहले व्यक्ति ने देखा कि कार्य कुछ कठिन है । वह असमजस मे हुमा । उसने करुणभाव से निगाह उठाकर व्यवस्थापकाध्यक्ष से आगे के लिए वे फर्मान मागा । सकेत हुना कि छोडो, छेड़ने की अावश्यकता नहीं है । और वे स्वयं सेवक दोनो फिर जैसे के तैसे अपनी-अपनी दिशा में लौट गए। ___ आखें अव खुल पाई थी । वह देख रहा था । देय रहा था कि लोग पीछे बैठे है और पाच-सात जने सामने भी बैठे हैं । एक कुछ सडे होकार यम मे कह रहे हैं और सब सुन रहे हैं। क्या कहा जा रहा है और चया सुना जा रहा है ? क्यो इन्हे इतना भ्रम है कि बैठे है और मुन रहे हैं । सुनना है तो हमे सुने । या फिर कुछ योग ही करें । और उसको अपनी तरह अनढके क्यो नहीं बैठते ? ऐसे वेकार और पहने और लिपटे क्यो बैठे हैं ? और सामने ज्ञान स्तूप बनाकर क्यो नहीं बैठते कि जैसे में बैठा हूँ। और क्या सब बच्चे हैं ? पागल हैं ? इतना नहीं समझते कि मैं बैठा हूँ। ढग मे तो व्यवहार करें ! ऐं, यह हो क्या रहा है ? शायद सभा हो रही है । ठीक है कि चभा हो रही है । पर क्यों हो रही है सभा ? कुछ और क्यों नहीं हो Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्षेप रहा है। पागल है कि देखो कि करने को बस सभा ही कर पाते हैं। और यह कौन है कि जो बीच मे बैठा है । आखो पर चश्मा हैं और चमकती चाद है । कैसा बैठा है कि हस तक नहीं रहा है । लगता है कि हस ही नहीं सकता है। जैसे आटे का न हुआ ज्ञान का ही पिंड हो । जान की जगह उसके अन्दर कुछ वह हो जो जड पडकर सिल हो गयी हो। एकाएक अट्टहास हुमा । लोग चौंके । सवका ध्यान उधर गया जिधर जाना था। लेकिन जोर के ठहाके के बाद वह अाख मीचकर अपने सामने के सुमेरु के आगे हाथ जोड कर नमन करने लगा था । बराबर से स्वयसेवक फिर लपकने को हुआ। पर व्यवस्थापक की ओर से सकेत हो गया कि जाने दो, जाने दो। सब शान्त था और उसकी पाखें खुल पाई थी। उसने देखा कि वक्ता हाथ जोड रहा है। अपनी जगह से उसने हाथ जोडे । तभी सुनाई दिया कि तालिया बज रही है। उसने भी ताली बजाई । लेकिन एकाएक क्या देखता है कि यत्र के सामने का स्थान खाली है। बोलने वाला लौट गया है और तालिया पीछे से वजी जा रही हैं। ठीक है । ठीक यही अवसर है। सबको इसी की प्रतीक्षा है। पागल हैं तो भी मेरी प्रोक्षा मे है । बच्चे हैं और उन पर दया करने को चलना होगा। कुछ कहना होगा। कहना होगा और बताना होगा। बताना होगा कि यह सब नहीं है कि जो है । प्रमच है वह सब जो तुम फरते रहे हो और करते रहते हो । देखो, यह मैं प्राता हूँ और बताता है । बताता हू कि .. यह अपनी जगह से उठा । अपने नीचे की साफी उठाई, फिर समझ कर उसने उने यही छोड़ दिया। अब वह गिनती की सीडिया चढता हुमा मच पर पहुचा । पहुचा, पहुचा कि गर्दन पर उनके एक कसा हाथ पडा । गर्दन दबोच ली गई थी और उसे ठेल कर बरबस एक ओर ले जाया जा रहा था । गरदनिया वाता हाथ चाहे एक ही रहा हो, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग १६८ पर अनेक जन और थें । उसमे हुआ कि हाय, ये नही जानते है । हुप्रा कि में इन्हें क्षमा करता हू । श्रौर तब ऊपर वाले परमात्मा से भी उसने कहा कि सुन, तू भी इन्हे क्षमा कर देना । बेचारे है औौर पागल है | हम-तुम जैसे परमात्मा को पहचान नही सकते है } अगस्त '६५. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति ? प्रश्न था कि क्या स्त्री को मुक्ति मिल सकती है ? चर्चा मे तीन व्यक्ति थे। श्री शाडिल्य, उनकी पत्नी मनोरमा और आगत अतिथि श्री पार० नारायण । शाडिल्य व्यस्त वकील थे, अब उससे अधिक चितक हैं। मनोरमा ने घर को सम्पन्न और सुव्यवस्थित पाकर अपने समय को खाली बैठे लिखने में लगाया और देखते देखते साहित्य में अपना स्थान बना लिया हैं । भार० नारायण प्रारम्भ मे मुवक्किल के तौर पर मिले, पर धीरेधीरे वह परिवार के मित्र बन गए है । ऊचा उनका व्यवसाय है और तात्विक विपयो मे बुद्धि द्वारा रस लेने का उन्हे चाव है। पार० नारायण का दृढ मत है कि स्त्री को वह सव प्राप्त हो सकता है, जो पुरप को । उसकी क्षमता कम नहीं है किसी अर्थ मे, हा, अधिक अवश्य मानी जा सकती है। ___शाडिल्य सहमत होने को तैयार हैं । लेकिन प्रश्न को व्यर्ष मानते है । क्योकि वह मुक्ति को मान भी ले तो समझ नही पाते हैं। मनोरमा का विश्वास है कि स्त्री मुक्ति नहीं पा सकती। पा सकती होती तो उसके लिए माता बनने का विधान न होता। शरीर से वह ऐसी बनी है कि मुक्त होने की नहीं सोच सकती है । कारण, उसे सफल होना है। उसका भी कारण कि गृप्टि को चलते रहना है। नारायण ने कहा-"भाभी जी, आपकी उक्ति मे कटूवित तो नहीं है ? मुझे उममे व्यंग्य की ध्वनि मालूम होती है।" मनोरमा ने कहा-"व्यस्य । नहीं तो।" पाडिल्प मीन रहे। मानो उन्हें कुछ कहना नहीं था । नारायण ने Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग उनकी ओर देखा, और देखा कि वह किसी और नहीं देस रहे है, सोये से है। उसने कहा-"स्त्री को परयस रहना होता है, क्या यही प्राप कहना चाहती है ? लेकिन भाई माहव तो किसी को वश मे रस नही सकते । उस तरह की कल्पना ही इनमे नही है । और फिर यह तो समाज की प्रथा की बात है । विवाह परवशता नहीं है।" मनोरमा ने देखा कि चर्चा अव तत्व की नहीं रह गई है, एकदम पास भाती जा रही है। उसको कुछ सकोच हुआ। फिर भी उसने कहा-"परवशता की बात में नहीं कहती। विवाह मे भी कोई परवशता नहीं है । पर स्वतन्त्रता स्त्री को पूरी तरह प्रिय ही नहीं होती। आप उठा दीजिये विवाह का बन्धन, या परिवार का दायित्व । सारे समाज कोही चाहे तो आप उजाड दीजिये। परस्पर कर्तव्य का प्रश्न ही मिटा डालिये। फिर भी स्त्री अपने राग-तन्तुओ से अपने लिए बन्धन पैदा किए बिना न रहेगी। इसलिए मुक्ति की मम्भवता उसके लिए नहीं है । मैं तो कहूगी की मगतता ही नहीं है।" गाडिल्य अव भी कुछ नहीं बोले । उनकी दृष्टि दूर थी और मानो वह अन्यमनस्क ये । नारायण ने देखा और पूछा-"और पुरुष ?" "पुस्प !" कहते कहते जैसे मनोरमा की । और बोली-~-"वह रह सकता है स्वप्न मे, या महत्वाकाक्षा मे। रागात्मकता हम स्त्रियो की प्रकृति होती है । पुरुप के लिए वह परिग्रह है । लगता है, उमगे वह घिरता है और उसनी मारी कोशिश छूटने की हो रहती है। इस तरह मुक्ति की धारणा वह पैदा करता है और उमको अपनी साधना बना लेता है। कहते हैं, स्त्री और पुरष परस्पर योग और राहयोग के लिए है। लेकिन यह साबित नच नहीं है, पुरुप को वियोग उससे अधिष प्रावस्यक मालूम हो सकता है ! योग-सहयोग जैसे शब्द उसे पहा रोरतेसे लगते है । अगल में वह वियोग टूटता है। वियोग पद तक को उगने इगलिए इतना ऊचा उठा दिया है कि उसका अर्थ सगार में वियुक्त होना बन गया है, युगत बग किमी परमेश्वर से । जिसमा प्रारम्यक अयं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति ? १७१ होना चाहिए, वियुक्त इस जगत से और सब हम-तुम से । नहीं तो पूछ देखिये अपने भाई माहब से।" __नारायण ने कहा-"सुना, भाई साहब ?" ___ भाई साहब ने सुना । मानो कही से टूटकर वह वर्तमान में उपस्थित हुए और बोले-"तुम्हारी भाभी जी को नारायण तुम पा नहीं सकोगे । बात तक में यह अगम हो जाती है।" ___ नारायण को कुछ अच्छा मालूम हुआ । जैसे बात मे अव स्पदन पड रहा हो । अब तक जैसे वह दूर और वायव्य थी। अब वह घनिष्ठ और वास्तव हो । उसमे जिये जाते हुए जीवन का सन्दर्भ हो और वस्तु-स्थिति से दूर कटी निरी सैद्धान्तिक ही न हो। वल्कि दर्द की तरह कसकती और रक्त की तरह धमनी मे धडकती भी हो । "मैं निगम " मनोरमा ने कहा, "अगम है तुम्हारा मोक्ष ! नहीं तो बतानो वह क्या है ? छूटना चाहते हो, तो किससे ? मुक्ति क्या और कहा और क्यो ? तुम लोग जीवन भर ससार रचते हो । कमाने के लिए लडते हो, लड़ने के लिए कमाते हो-और कितावो में लिखते हो कि जीवन का आदर्श मुक्ति है। मतलब कि सृष्टि के सब पदार्थों से और हम सब जीवो से खेल खाल कर गर जायो तो कहो यह सव माया है, सब प्रपत्र था, और असल मे जीवन की यात्रा सच मे जिस तीर्य के हेतु मे थी, वह तो मोक्ष है। राह के पडावो पर कुछ हम टिके रह भी गये तो यह तो विधाम था केवल अगली यात्रा के लिए सक्षम होने के अर्थ । नहीं तो मसार वाधा है और विघ्न है।" __ पाडिल्य ने सुनते सुनते भवो मे बल डाला और पूछा-"तुम क्या चाहती हो?" मनोरमा सचेत हुई। बोली-"क्या मतलब ?" "मैंने तुम्हे पया कह नही दिया है कि तुम स्वतन्त्र हो !" "कह दिया है, लेपिन रया में भी नहीं रह चुकी हू ? एक बार नहीं, दम दार कि मैं स्वतन्य हो नहीं सकती हू, गोच नहीं सकती हू । उस Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनेन्द्र की कहानिया दरावा भाग शब्द का ही मेरे लिए कुछ अपं नहीं है। तुम्हारे नजदीक अर्थ हो तो मेरी चिन्ता तुम्हारा काम नहीं है, न किसी दूसरी चिन्ता को तुम्हे ओढना चाहिए। वह सब मैं समेट लूगी । तुम मन को रोको मत, जिवर भीप्ट हो, बढ जायो।" ___"सुनते हो नारायण ?" शाडिल्य ने कहा। "तुम्हारी भाभी गया कह रही है ? कह रही है, में सन्यासी हो जाऊं।" ___हा, नारायण, मैं इनसे कह रही है कि तुम कभी कभी विकत और व्याकुल क्यो दिवाई दे पाते हो ? जसे साली हो और सव वृथा हो, हम लोग जग-जात के अग हो। तुम्हे अावश्यकता परमेश्वर की मालूम होती है । छूटना चाहते हो तुम जग से और पाना चाहते हो परमात्मा को । छूटना चाहते हो इस सब से और पाना जिसे चाहते हो उसे बस मुक्ति यानी पूरी तरह छूटने का ही नाम देते हो। तो कहती हू, अटको मत । हम सब पर एक क्षण के लिए मत रुको । नहीं कहती रान्यास, पर मुक्ति का जो भी वाना होता हो तय कर लो। गाम्मो मे उस वाने को ही सन्याम का नाम दिया है। कपडे भगवे हो जाते है, और घर घर नहीं रहना । ठीक है, वह सही । लेकिन, नारायण, मैं इन्हे अगर अकेला और प्राकुल नहीं देख सक्ती तो बाहती है कि मैं बेवन हू । अपनी इस बेकली पर नाराज भी नही हू । मुझे वह प्रिय है। मेरा वह स्वधर्म है । हो मुक्ति तो हो, स्त्री होकर मुझे उसे छूना भी नहीं है । जब तक यह घर में हैं, में इन्हें अपने राग अनुराग के सूतो की लपेट मे मुक्त नहीं कर सकती है । यह-यही गहते रहते हैं कि मेरी चिन्ता मत करो। लेकिन निश्चिन्त रहना हम स्त्रियो को मिला नहीं है। इसलिए मेरा राग, मेरी चिन्ता ही इनके लिए बोझ बन गई हो तो पत्र तुम्हारे सामने यह रही है, कि यह प्राजाद हैं।"तुम्हें मातृम है, नारायण ? इन्होंने सब जगह से अपना नाम हटा लिया है, मेरा टाल दिया है । भारत छोड दी है, पविता परने लगे है। भक्ति गी और रहाय की वारिता । मच्छी तो बात है। लेकिन मगित और रहन्न गो Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनेन्द्र की वाहानिया दसवा भाग शब्द का ही मेरे लिए कुछ अर्थ नहीं है । तुम्हारे नजदीक अर्थ हो तो मेरी चिन्ता तुम्हारा काम नहीं है, न किसी दुसरो चिन्ता को तुम्हे मोठना चाहिए । वह सब मैं समेट लूगी । तुम मन को रोको मत, जिधर गभीप्ट हो, बढ जायो।" ___ "सुनते हो नारायण ?" शाडिल्य ने कहा । "तुम्हारी भाभी क्या कह रही है ? कह रही है, मैं सन्यासी हो जाऊ ।" । हा, नारायण, मैं इनसे कह रही हू कि तुम कभी कभी विकल और व्याकुल क्यो दिखाई दे आते हो ? जैसे साली हो और सव वृथा हो, हम लोग जग-जात के अग हो। तुम्हे आवश्यकता परमेश्वर की मालूम होती है । छूटना चाहते हो तुम जग मे पोर पाना चाहते हो परमात्मा को । छूटना चाहते हो इस सब से और पाना जिसे चाहते हो उसे बस मुक्ति यानी पूरी तरह छूटने का ही नाम देते हो। तो कहती ह, अटको मत । हम सब पर एक क्षण के लिए मत हो । नही कहती सन्यास, पर मुक्ति का जो भी वाना होता हो तय कर लो। शास्मो में उस वाने को ही सन्यान का नाम दिया है। कपडे भगये हो जाते हैं। और घर घर नहीं रहता। ठीक है, वह रही । लेकिन, नारायण, मै इन्ह अगर अकेला पोर पाकुल नहीं देख सकती तो कहती है कि में बेवरा हूँ। अपनी इरा बैकली पर नाराज भी नहीं है । मुझे वह प्रिय है। मेरा वह स्वधर्म है। हो मुषित तो हो, त्यी होकर मझे जमे छूना नी नहीं है । जब तक यह घर में हैं, में इन्हें अपने राग अनुराग के मुमो की लपेट से मुक्त नहीं कर सकती हू । यह-यही व्हते रहते है कि मेरी चिन्ता मत करो। लेकिन निश्चिन्त रहना हम स्त्रियों को मिना नही है। इसलिए मेरा राग, मेरी चिन्ता ही इनके लिए बोम बन गई हो तो पर तुम्हारे सामने कह रही ह, कि यह प्राजाद हैं।" तुम्ह मालूम है, नारायण ? इन्होने सब जगह से अपना नाम हटा लिया है, मेरा साल दिया है । यमालत छोड दी है, कविता करने लगे हैं। भक्ति मी और रहन्य की कविता । अच्छी तो बात है । लेगिन भक्ति और रहस्म की Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जिनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग कर दो और उनसे भी ऊंची चोटी पर चढकर दिखा दो, श्रपने को और दुनिया को, कि तुम कम नही हो । त्याग के सहारे अपने को अधिक मानने की प्रावश्यकता तुम्हारे लिए अगर होती है तो इसीलिए कि मन मे कही तुम्हारे भीतर है कि दूसरे लोग तुम्हारे बडप्पन को अन्यथा जानते नहीं हैं ।" "छोडो मन्नो । " एकाएक शाटिल्य ने कहा । "तुम नही समभोगी | नारायण, शायद तुम भी नहीं समकोगे । इस सगार मे मालूम होता है कोई नही समझेगा । हम क्यों एक दूसरे को समझ नही पाते हैं ? क्यों अपने-अपने पिंजरे में हैं कि चाहे एक दूसरे से बात कर लें और भी तरह-तरह के सम्बन्ध पैदा कर लें, लेकिन पिंजरे के भीतर सिर्फ और सुद ही बने रहे ? नारायण, यह पत्नी है। चालीस वर्षों से हम साथ हैं। हमारे प्यार की कथाए बनी है, मोर सचमुच उसमे उन्नत प्रेम का भोग किसी ने पाया नही होगा। तुम मित्र हो और जानता है, मेरे लिए क्या कुछ तुम भुगत नहीं सकते हो । लेरिन यह ययों है कि में अकेला हू और मनोरमा तक मुझे गलत समझ सकती है ।" नारायण वा अन्तरंग सममंजस मानो बढ़ता गया उसने हमकर वहा, "भागी मनोग्मा जी, भाई साहब को भाप वो गनन समभती हैं? कविता करते हैं तो करने दीजिये । वकालत नहीं करते, सत करने दीजिए । भाई साहब, भाइए प्राप ही छोटिए । कहा से हम लोग गफान से बैठे | लेकिन मैं जाऊगा । जाने में पहने वचन दीजिए कि मुक्तिकम्बन्ता लोग मुक्त ही रखेंगे प्रौर अपनी बातों में उस या आपस में किसी को घेरना वाघना नहीं चाहेंगे | महिए भाई साहब, पहिए भाभी जी ? मुझे पब रजाजत दें ।" नारायण उपम्पति में पता गया तो मानो उसे यह सेव गया जो दोनों तटों को तो भी किसी तरह मिलाव हुए था। पति पान दोनों की निगाहों में गातो परिचय ही और बोपन कितनी भी अभिता नहीं रह गई थी। जैसे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति ? १७५ का भी वास्ता एक दूसरे के बीच न हो। दो-एक क्षण कोई कुछ नही बोला । शाडिल्य खडे थे, मनोरमा बैठी थी। दोनो ने एक-दूसरे को देखा और देसकर अनदेखे हो गए। कुछ करने के लिए शाडिल्य के हाथो ने मेज पर से ट्रे को और गिलासो को उठाया और बराबर में कोनिस पर रख दिया । जैसे कुछ करें तभी अपना होना सहा जा सकता है । लौटकर उन्होने मेजपोश के कोने को ठीक किया । जरा इधर-उधर अपेक्षा की निगाह से देखा और फिर सोफा के पीछे अलमारी के सामने जाकर वहा से किताब निकाली और वैठकर पढने लगे। __ मनोरमा अपनी जगह पर ज्यो की-त्यो बैठी रह गई। गिलाम उठाने, मेजपोश ठीक करने और फिर जाकर अलमारी मे से पिताव खींचते और बैठकर पढने लग जाने की पति की सारी विधि को मनोरमा बिना देखे देखती रह गई । जानती थी, कुछ नहीं है, केवल किया है। उसमे प्रात्मता नहीं है, केवल व्यर्थता है । व्यस्तता बस बचाव है । किताब कोरी क्रियमाणता प्रतीक है कि जिसकी प्रोट वह मुझसे बचे और अपने को झेले । मनोरमा का मन इस अनुभूति पर भीतर-भीतर ऐंठ-सा आया। लेकिन वह अपनी जगह से हिली न डुली । मानो दुर्लध्य चावधान बीच मे हो और दोनो ओर निरुपायता हो। शारिल्य दूर उस कोने मे पढते रहे। मनोरमा अलग इस तरफ बैठी रही। पाटित्य फी मायु तिरसठ वर्ष है। मनोरमा अठावन है। चालीस वर्ष के लगभग दोनो साथ रहे हैं। पर शाडिल्य पढ पर पढ रहे हैं, मनोरमा पेटी की बैठी है। समय सरक रहा है-और मालूम होता है, बीच में निपट 'अन्तराल है, सम्बद्धता के सूम वहा से लुप्त हो गए है । शुद्ध प्राकारा रह गया है, अपवा काल । अन्यथा दो निजतायो पौर महतामो मे नितातता है और बीच में माम शून्य । जंग सागो ने अलग हुए दो द्वीप हो कि मध्य में निताना घोर अपरिचय पौर अनभिजता ही समय हो। मिताव सामने है मौर अनुभव होता है कि दुनिया है पीर नहीं हैं। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग क्या है मब है, और व्यर्थ है । पड़ रहे है और शब्द और नापय भी पढे जा रहे हैं, पर कुछ नहीं है और सब धोया है। कार और व्यर्ष है। जीना बोम है। मान करना है पीकर । गव जी का जाल है, नहीं तो। और मनोरमा बंटी है । राहती हुई विमनम्मा एक विधा किनिसको टालने का या निबटाने या उपाय नहीं है । एक दो पान दस मिनट हो गए। नही राहा नही, जाता है । था अब तक कि होने दो ओ हो मै दया गरु ? लेगिन वह सब था, पर नहीं चल रहा है। नहीं, कुछ करना होगा। अपने में घिरपर बैटना नहीं हो पाएगा, नहीं हो पायेगा । मनोरमा अपनी जगह से उठी। अट्ठावन वर्ष की मनोरमा । पलते-चलते गोफे दुर्मी में पीठ के पीछे यह पहच गई। रोफिन पति पर रहे है । उन्हें नहीं मालग । उसने कन्धो पर हाथ रामा । उन्हें नहीं मालूम । शान्यो को दवाया । उन्हें नहीं मालूम । ___ जोर ने दवाया । नहीं मालूम "सुनो ।" "पया है ? मुझे पहने दो।" पली ने कर मिनार बनने हावा ने छीनी पौर यही में गोर में मज र क दी। धौर गम गाहा "पोन" "यह वा वस्लमोग।" "अनमा प्रछा, उठो।" "मिजार लामो पा मेरी नठा फे।" "पिनायपोगे?" "नी तो इन नम्झाग गिर" "शिर यो, पौरपुर की गायों देनो।" "हटो तुम, र साम्रो पदा" मनोरमा गामने मा गई थी। उसने उटारर पनि या Fre र Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति ? १७७ लिया। पतिने झिटक दिया । वह और निकट ग्रा गई। बोली, "मुनते हो, में भारी बहुत हो गई है । तुम्हें तकलीफ न हो।" "वको मत ।" "देखो, कह रही हू । फिर जो बुरा मानो।" "क्या हुआ है तुम्हे । शर्म करो जरा।" "तो लो।" __ मनोरमा वैठे हुए पति की जानु पर धब्ब से आ बैठी और चिबुक मे हाथ देकर पति के चेहरे को ऊपर उठाया और चूम लिया । पति ने कहना चाहा कि कुछ तो शऊर सीखो। पर उसका समय न था और मालूम हुआ कि अव उसके लिए कही कुछ नहीं रह गया है। न कविता, न सभ्यता, न मुक्तता । स्वय जो मिट गया है तो क्या इसी मे सब मिल गया है। जुलाई '६५ Page #178 --------------------------------------------------------------------------  Page #179 -------------------------------------------------------------------------- _