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मुक्ति ?
प्रश्न था कि क्या स्त्री को मुक्ति मिल सकती है ?
चर्चा मे तीन व्यक्ति थे। श्री शाडिल्य, उनकी पत्नी मनोरमा और आगत अतिथि श्री पार० नारायण ।
शाडिल्य व्यस्त वकील थे, अब उससे अधिक चितक हैं। मनोरमा ने घर को सम्पन्न और सुव्यवस्थित पाकर अपने समय को खाली बैठे लिखने में लगाया और देखते देखते साहित्य में अपना स्थान बना लिया हैं । भार० नारायण प्रारम्भ मे मुवक्किल के तौर पर मिले, पर धीरेधीरे वह परिवार के मित्र बन गए है । ऊचा उनका व्यवसाय है और तात्विक विपयो मे बुद्धि द्वारा रस लेने का उन्हे चाव है।
पार० नारायण का दृढ मत है कि स्त्री को वह सव प्राप्त हो सकता है, जो पुरप को । उसकी क्षमता कम नहीं है किसी अर्थ मे, हा, अधिक अवश्य मानी जा सकती है। ___शाडिल्य सहमत होने को तैयार हैं । लेकिन प्रश्न को व्यर्ष मानते है । क्योकि वह मुक्ति को मान भी ले तो समझ नही पाते हैं।
मनोरमा का विश्वास है कि स्त्री मुक्ति नहीं पा सकती। पा सकती होती तो उसके लिए माता बनने का विधान न होता। शरीर से वह ऐसी बनी है कि मुक्त होने की नहीं सोच सकती है । कारण, उसे सफल होना है। उसका भी कारण कि गृप्टि को चलते रहना है।
नारायण ने कहा-"भाभी जी, आपकी उक्ति मे कटूवित तो नहीं है ? मुझे उममे व्यंग्य की ध्वनि मालूम होती है।"
मनोरमा ने कहा-"व्यस्य । नहीं तो।" पाडिल्प मीन रहे। मानो उन्हें कुछ कहना नहीं था । नारायण ने