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जीना-मरना
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लीलाधर को गुस्मा यही था। उग पर या जिस पर गुस्सा चल नहीं नकता । जिस पर किमी का कुछ वश नहीं चल सकता। जो हैं घऔर नही होता तो अच्छा था ! "मोते क्यो नहीं हो ? आमो, सो जायो।"
और पन्नी का हाथ चढ़कर पाया कि सोचो नहीं, लेट जायो । वह यहाा प्रगर जिन्दगी का पा तो इस वचन वह भी लीलाधरको उतना भी बेकार मालूम हुमा । जंगे वह सिर्फ दाल हो और दोष उसमे कुछ घय न हो व्यवं हो। __"मोन में बसे पते हो ? सुगिया तो प्रव पाने से नही। और फिर मगेर जो हमने मरघट ले जाकर जलाया, मैंने अस्पताल वालों ने प. दिया । गमे पिता की मचा वान है" नीर ने अनुभव लिया कि यगक इसमे चिन्ना की बात नहीं
की गति को उनके मन में सराहना कि वह गितनी व्यावरिस पामो समय वह नार थी, वही अब काम चिन्ता गीन रे ये रिए भार नहीं थी। गरीर जो सब है। मप्रश्नोको
माया गरा पागों की निजती मे नर दिया गया या भोगतोयोEिRT
गानो गया होता है ? मन नारो में पारने पोर को लेकर ऐन जिया माना योगे में गौर पर जाना!
Homपोलिसार नीरापर मन को घर गया । सी
बहामारी र पी. भमेना हो। TERो कोर जोगाएन यो मोविएको मे मरने