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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग जिया जाय ?
सुखिया मरी, यह समझ मे आता है। पर वह जीई क्यो ? यह समझ मे नही आता । इधर पैतीस वरस की उसकी जिन्दगी का फैलाव सामने आता है-छ वरस की उमर मे विधवा हो गई। लीलाधर की मा की सस्था मे सोलह-अठारह वर्ष की उमर मे काम करने आ गई । काम के साथ दो-चार अक्षर भी सीख गई। पहले बारह रुपये और रोटी-कपडा पाती थी । अक्षर सीखकर वीस रुपये खुश्क पाने लगी। बीस मे अपने ऊपर पाच खर्चती, पन्द्रह इधर-उधर, पास-पडोस के वालबच्चो पर निछावर कर देती। फिर कही दूर चली गई और मालूम हुआ कि किसी पाठशाला मे वही वीस रुपये पाती है और चाकरी करती है । उसने रूप नही पाया था और शायद जीवन भर पुरुप भी नही पाया था । मा की वजह से लीलाधर को वह जानती थी और कही हो और चाहे लगडाते-लगाडते उसे पाना पडे, राखी का दिन वह नहीं भूलती थी। राखी पर महीने की तनख्वाह से ऊपर का सामान वह ले आती होगी और वापिस एक पैसा स्वीकार नही करती थी। वह रहती चली गई, एकाकी और नीरस, और वीमारिया उसे घेरती चली गई। कान बेकार हुए, टागें बेकार होने लगी और फिर पेट बेकार हो गया।
दो वरस से राखी पर वह नही आई थी। कहा किस हाल रही, पता नही । कोई खैर-खबर नहीं मिली। मिला तो आखिर मे वह कार्ड मिला जिस पर जाने किस ताकत से उसने टेढी-मेढी वे सतरें लिखी
यह जीना क्यो हुआ ? क्यो हुआ ? लीलाधर समझ नहीं पाते । नही समझ पाते उस विधान को और विधाता को जो यह सब बेकार कर जाता है। इस सुखिया को आखिर क्यो जीने दिया गया-पचपन साठ वरस की उमर तक । क्या उस विधाता का या इस दुनिया का बिगड़ता था अगर उसे पहले ही उठा लिया जाता । और क्या था कि उसे जनमाया गया।