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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भार, दिया है। पर'... "
"मै कुछ हू, पर तुम छू नहीं सकते।"
"मै छू नही सकता ? मै तेरी बोटी-चोटी गर राबता हूं। पर छिनाल, सब वता, तेने मुझे रोका क्यो ?"
"मैने नही रोपा।" "अब ये नखरे । -मैं तुझे समझ लूगा।"
"तो मुनो ! इसलिए रोका था कि मैं तुमने अकेले में भुगत लेना चाहती थी । मुरारी के सामने स्वारी नहीं चाहती थी। मान बोलकर सुन लो। यह गरीर तुम्हे अब कभी नहीं मिलेगा। एक दफे नहीं, दस दफे वह चुकी हू । फिर शमं नहीं पाती तुम्हे कि लार टपपाते पाते हो। भगवान के घर में न्याय है, तो तुम्हे मिट्टी की औरत नहीं मिलेगी। औरत के मन घोडे ही होता है । तुम समभते हो मन तुम्हारे ही है। जो भुगता है, मै ही जानती हूं। कोई और होती तो शपल न देखती। घर तक में कदम न रसने देती। पर तुम तो गरम नाट गये हो । गालग है तुम्हें कि तुम्हारे बच्चे छोटे से पले हैं ? और उन वगत तुम उपदेशप नटे हुए थे। इन्सान को जीना होता है और जिलाना होता है। पहला फर्ज वह है, तुम फर्ज को स्तिाव में प्रोर गास्तर में टाले रहे । ऊपर से बैठ कर गालिया देते रहे और पवर नहीं ली कि जिया जा रहा है तो पिस विधि जिया जा रहा है। जीने में प्रेमा लगता है। तुमने म माया ? पाभी कुछ लिया? पनी गछ दिया ? बस देने की नीति के उपदेश रहे, जो उन्ही से पेट भरना हो । और पपडे उन्हीं को पाट-पाट पर बन जाते हो। तुम्हें इसलिए मैंने गंगा कि प्रागिने वार सुन लो कि तुम जायो अध्यागम मे और परम में रमों। और जगह-जगह जाके उपदेश हावा परो। हमको हमारे भाग पर छोर दो। कोई पता नमी नहीं मागता, कोई तुम पर चोभा नहीं बनेगा। बेटिया गई हन मा-बेटे जैसा होगा रह लेंगे। तुमारे प्राग मोसाथ पसार नहीं मायगा | मैंने एक महा या रि दिल्ली में मुछ याम-धाम देख लो