________________
झमला
७६
मन में अब भी नही है कि किए पर लौटूं । पछतावा मन मे नही है। प्यार को व्याह से बडा समझा, इसको क्या मैं गलती मान सकती है? लेकिन, मुझे उबार लो राजेग ?"
"उन्होने तो व्याह को बड़ा मानने को तुमसे नहीं कहा न ?" "ना |..नही कहा !" "फिर ?"
"राजेश ! तुमको क्या हुआ है । मोचो कि मैं कैसे सह सकती है ? दस महीने पूरे हो गए, मै सुलकर उनके साथ रही और घर की तरफ नही देखा । अव दस महीने बाद घर की गरण लेती हू और कोई कुछ नहीं कहना, तो क्या यह मुझे काटेगा नही ?"
"मन शरण लो।" "कहती तो हूँ, कुछ इन्तज़ाम कर दो।" राजेश अपने वावजूद अन्दर मे कसता पा रहा था । उसने कहा
"ठीक है । एक मुनासिब कमरा डेढ सौ से दो मी स्पये माहवार किराये में हो सकेगा। तलाश करूं?"
"राजेदा ।" सुपमा ने दवी चीस मे पहा-"तुम चले जाओ यहा ने "
"काफी न पीने दोगी? लो, वह ले भी पाया ।"
बंग मय सामान मेज पर रप गया । सुपमा सुन्न बैठी रही और राजेश ने प्याला बनाकर सुपमा को पेश किया । सुपमा ने चुपचाप सासर को हाप में ले लिया और फिर राजेश ने अपना यप बनाया और पोरे से सिप लिया। नाय ही मंडविच के प्लेट गो उनने सुपमा की तरफ नरयाया। कुछ देर कोई कुछ नहीं बोला । अन्त मे राजेश ने गहा-"पयो, बनाया नही ?"
मुपमा मानो पासुमो में से हमी । बोली-"मेरे पास बहुन पंगा है। बहुत · बहुत बहुत पैमा है। मानते हो औरतो के पास पैसा गने मा पाता है मनाते मर्द है, आ जाना औरतो के पास है। किं इस