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जैनेन्द्र की कहानिया दमदा भाग "सुद गई थी ?" "वही पाकर ले गए थे, मैने फोन किया था।" राजेग पीहा से भर पाया । वोला--"सुपमा ।" "तुम जानते तो हो राजेश । मरना इससे अासान होता है !" "उन्होंने कुछ नहीं कहा " "कुछ भी नहीं कहा !" "क्या बात है ? पत्थर तो है नहीं वह 1"
"मैने पत्थर कर दिया है। इतना कि अब वह मुझ पर डाट-उपट भी खर्चना फिजूल समझते हैं ।"
"उनको तो हक है । और नहीं तो सस्ती ही करें।"
"सव हक तक कर दिया है उन्होने । मै नरक मे जाऊ, या पाप में पडू । लेकिन, उनकी परवरिश की छत मेरे लिए हमेशा पुली है। यही है गजेश, जो मै नहीं सह सक्ती ।''नही सह सकती ।''नहीं रह सक्ती। ये कृपा ये दया. ये भीस' बतायो राजेश मया ?"
"वही रहो।" "राजेश !" "हा, वही रहो।" "तुम कुछ नहीं कर सकते " "नही कर सकता।"
"राजेश । नुग सरत क्यों बनते हो? तुम वह हो नहीं । तुम्हारे पास सब है । जरा चाहो तो सब कर सकते हो । मेरे लिए एक कोटरी बहुत है । तुम्हे कने बताक कि घर मुझे हर घड़ी पीस्ता रहता है। उसकी परवरिश के में लायक नहीं है । तुम्हे गया बताऊ कि बहा मेरा अब भी श्रादर होता है ! सब मेरी फिमा करते है । मुमस मुछ नही रहते और मेरी हर स्वाहिम, हर जरूरत का स्याल रखते हैं। गजेग, मुझे उधार नो । मुझे वहा गेम सा जाता है जो अस्पताल हो, और मै मरीज। गा, मैंने जो विया गद भुगतने यो तयारी नगार ? मेरे