________________
जैनेन्द्र की कहानिया दसवां भाग
करके आगे पढ़ भी सकते हो तुम ।"
जगरूप ने कहा, "अच्छा ।"
लेकिन मरे मन से यह 'अच्छा' उसने कहा था। मनोरमा न जानती हो सो नही, पर क्या कर सकती थी। सच पूछो तो बेटे का मन जितना गिरा था, उससे कही गहराई मे उसकी मा का मन जा पहुचा था। उसको अपनी वेवसी इस वक्त बहुत ही चुभ रही थी। अपना अतीत उसके लिए सब व्यतीत हो चुका था। पर इस हालत मे वही उखड-उखड कर उसके सामने आने लगा और उसमे से नाना सभावनामो की चिनगारिया भी चमक देती हुई फटने लगी । पर वह संभावनाए जब थी, तब थी। अब तो सव सपाट हो गया है और आगे कुछ भी नही है।
जगरूप 'अच्छा' कहकर वहा से चला गया था। मा मन मारे बैठी रह गई थी। अतीत उससे कट चुका है। जगरूप को उसे देकर वह स्वय मिट गया है । लेकिन क्या मिट हो गया है ? जगरूप के बाहर क्या उसका कुछ भी अब वर्तमान नहीं है। उसकी स्मृतिया जाती हैं और लौट आकर सिर्फ उसको मथ कर रह जाती हैं।
ऐसे दिन निकलते गए । जगरूप का हसना-खेलना बन्द हो गया। ज्यादातर घर से बाहर ही रहता । घर मे दीखता तो उदाम और मलिन । वह मा से कुछ न रहता था । लेकिन एक-एक दिन वह गिन रहा था और उसकी निगाह में वह तारीख थी, जो कालेज के दाखिले के लिए फारम जाने की प्रतिम तारीख थी । उसने चुपचाप फारम मगाकर बड़े सुन्दर अक्षरो मे भर कर अपने पास रखा हुया था । वह निराश तो था लेकिन इधर भगवान का भरोसा भी उसमे होने लग गया था। भगवान सब कुछ कर सकते है । विलकुल हो सकता है कि एक दिन वह उठे और तकिए के नीचे उसे फीस के पूरे स्पये रखे मिल जाए ! क्यो नहीं हो सकता है ? जस्त हो सकता है । भगवान की कृपा से इससे वडी वडी बान हुई हैं । यह तो भगवान के लिए एकदम जरा मी वात