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यथावत
क्या ? फिकर का पहाड मानो उसके सिर पर पा टूटा था । यही कही, कस्वे मे, काम-धन्धे मे, लग जाता तो चिन्ता मिटती । फर्स्ट क्लास पास हुआ है, तो उसका हक है कि कालेज की सोचे । कालेज यहा कहा वरा है ? और यह जाना चाहता है इलाहावाद ।
इलाहाबाद की जगरूप ने बडी महिमा बतायी थी । जरूर इलाहाबाद की पढाई ऊची और बढिया होती होगी। पर इलाहावाद ?
यह सब भाव मनोरमा के देखने मे था । जगरूप कैसा होनहार लगता है । सच वह मा के सकट काटेगा । लेकिन इलाहाबाद ? वहा के कालेज की पढाई ??
उसने कहा, "मैं आगे तुझे कैसे पा सकती हू, बेटा ? बाहर तो खर्चा बहुत होगा।" ___ "खर्चा तो होगा मा । पर आगे की भी तो सोचो कि बेटा तुम्हारा ऊचा अफसर बनेगा और फिर कोई कष्ट तुमको नही होने देगा।"
उतने आगे की मनोरमा नही सोचती है, सो नही। कितना सुख होगा उसे कि बेटा अफसर होगा और मा घर मे राज करेगी। पर मन वहा जाकर ऐसे रमता है जैसे सपना हो । आख खुलने पर वह एकदम दूर हो जाता है और मालूम होता है कि उसका न सोचना ही अच्छा है ।
"मैं तो कर नही सकती हू "वज़ीफे मे तेरा नाम नहीं आया है ?" "नही, दो पोजीशन कम रह गए है।" "और भी तो लोग वज़ीफे दिया करते है ? कोशिश कर देख ।" "वह तो कर रहा हू मा । लेकिन कहते हैं सिफारिश चाहिए।" "तेरे मास्टर लोग सिफारिश नही कर देंगे?"
"वह तो सब करने को तैयार हैं, लेकिन कहते हैं कि सिफारिश बड़ी चाहिए।"
"तो फिर ? अगले साल देखा जायगा। मैने यहा उन फीचर वालो मे कह कर रखा है । तीन-चार महीने तो काम सीखना होगा, फिर वे कुछ देने लग जायेंगे । ऐमें बहुत ही पढना चाहे तो पैसा जमा
। मैने यहा झालना होगा.