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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग खुलकर कह सकती हो, जो भी वात है !"
बुजुर्ग का हाथ फिर सविता के सिर पर चला गया था । वह सिर नीचा किये साडी के छोर को माथे के जरा आगे तक लाये बैठी थी और ऊपर की ओर नही देख रही थी। माथे पर उसके बडा-सा विन्दा चमक रहा था।
सविता ने आहिस्ता से रूमाल से अपने को रोका मानो वह सुबकने के निकट आ गई हो। कोशिश से कहा, "कुछ नहीं।"
बुजुर्ग का भी जी भर आया । बोले, "इससे पहले मैने केशव से वात कर ली है । मैंने कहा तो नहीं है, लेकिन अगर चाहो तो मैं उसे तुमसे माफी मागने के लिए कह सकता है। उम्मीद है वह मेरी बात रखेगा । वैसे इतनी सी वात कि किशोर घर न पाये और तुम साथ न जाग्रो, कौन ऐसी बहुत बडी है ? तुम्हारे बारे मे मेरे मन मे तो कभी सन्देह हो नही सकता । लेकिन कुल की पान के लिए ऐसा तुमसे आश्वासन चाहा भी जाए तो इसमे बेटी कोई बहुत बडी अपमान की बात तो है नही । मानता हू, इसमे अविश्वास है और अविश्वास मे अपमान भी थोड़ा-बहुत शामिल है ही । लेकिन अपवाद भी तो कोई चीज है । अविश्वास न भी हो तो लोकापवाद के कारण ऐसा चाहा जा सकता है । किशोर को थोडा मै भी जानता हू। कोई ऐसा अनिवार्य श्रादमी तो वह है नही, तुम्हारी रुचि के योग्य भी किसी तरह नहीं है । "
इस स्थल पर पाकर सविता एकाएक बोली, "मुझे घर मे निकाल क्यो नही दिया जाता जो ऐसे सताया जा रहा है।"
वुजुर्ग कहते-कहते झटका खाकर एकदम रक गये । सविता का मुख ऊपर उठ पाया था। ग्राखो मे के भरे आसू अब तक पूरी तरह सूग नही पाए ये । लेकिन तो भी एक आवेग की रेस उन पासो मे दीपने लग गई थी। वह धवराये से बोले, "नहीं वेटी ! ऐमा अशुभ नहीं बोलते । कुललक्ष्मी के जाने से कही फिर कुल बचा रह जाता है क्या ? नहीं नहीं, शिव, शिव ! ऐसी बात मन में भी कभी नहीं लाना। कोन