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जैनेन्द्र की कहानिया सवा भाग
विदा लेकर वह तभी चले गए।
मैंने निगाह घुमाकर अब जगह देशी । मोमबत्ती में भी धीमी एक लाइट जल रही थी। अच्छा मालूम हुआ । मानो दिन न हो, न रात हो । एक धुधलका हो और सब सपना हो । उस सुती सक्षिप्त देह को कधे से लिया और मानो पूछते हुए मैंने कहा-~"मुशी ?" • "मैं इन्ही के यहा हूँ । नही,~थी !"
उत्तर का मर्म न मिल सका । वह सफाई थी कि चुनौती हम चलते हुए एक मेज़ के किनारे पा गए। उसके गिर्द घूम कर सुषमा एक कुर्सी की ओर वढी और बैठने पो थी कि मैंने दोनो कधो में उसे पकड कर सामने लिया। फिर एक हाथ से ठोढी उठाते हुए महा"यह क्या कर लिया है तैने ?”
उसकी प्रा तिर आई थी और वह कुछ बोल नहीं सकी।
कधे पर दबाव देकर उसे बिठाया और मैं आप भी पार्टी पर हो बैठा । मुझे सूभता नही था कि क्या कहू ? गया पूछू? वह भी नुप
थी।
मैंने उसकी चिट्ठी का जवाब नहीं दिया था । मुभमे गुस्सा था। मैं देश से बाहर गया कि यह सब घटना घट गयी थी। पीछे हिसाब लगाकर देखा कि मेरे विदेश जाने मे दो दिन पहले की घटना थी। इसी पर मेरे मन में क्रोध या ! इतनी बड़ी बात होने वाली हो और मुझे मालन न हो । इस पर मैं किसी तरह सुपमा को क्षमा नही कर पाता था । बहुत सोचता था कि हो सकता है कि यह गमभनी हो में विदेग के लिए निकल गया है। पाखिर प्लेन की दो-एमः तिथिया चली तो थी हो। इस तरह नाना तक उसके पक्ष में करना, लेकिन मन शिली में मतोप न पाता था। विदेश मे लौटने हो मैने फोन किया, फिर फोन किया। कोई उत्तर न पाया। फिर फोन किया तो निमो ने उठाया
और नाम लेते ही पप ने बन्द कर दिया! मैं व्यग्र था और न वास पर सोर भी नाराज कि मुझे तुद योज-तलाश पर उगो बारे में पता