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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग
नही है। इसे जो तिर सका, उसके लिए फिर कोई संतरण बडा नही रह जाता है | पति-पत्नी एक दूसरे को चाहते है, यह तो सब जानते हैं । लेकिन उससे सच यह है कि वे एक दूसरे को सहारते सहते हैं । अपना निकृष्ट तो वे कही और समाज-ससार मे जाकर डाल नही सकते, सो उसका वे एक दूसरे पर फेंकने को मजबूर होते है । यह तो सविता वेटा, इस सम्बन्ध का वरदान है । इसमे घवराना नही होगा । सुनती हो न ? घबरा कर उस सम्बन्ध को तोडना नही होगा । वयो, बेटी सविता ?"
सविता चुप बनी रही ।
उपाध्याय जी उस मौन के अर्थ का कुछ अनुमान न कर सके । बोले, "तो मैं अब समझू न कि सब ठीक है ?"
सविता अव भी चुप रही ।
"क्यो वेटी ? इतनी ग्राश्वस्ति मुझे नही दे सकती हो ?" "मुझे साथ रहना नही चाहिए, यह धर्म के विरुद्ध होगा ।" "धर्म के विरुद्ध ?"
"जी ।"
"मैं उपाध्याय हू । धर्म में भी कुछ जानता है । विच्छेद धर्म नही है ।"
सविता ने ऊपर देखा । विन्दी भाल के बहुत भाग को घेर कर लाल लाल दमकती वहा बैठी थी । उपाध्याज जी को ग्रामो के बिल्कु सामने वह रक्ताकार बिव बड़ा होता चला गया। जैसे नया उगता पूनम का चाद हो ।
सविता ने कहा, "मैं पत्नी हू । मुझे धर्म पत्नी होना चाहिए । उम चर्म को समझना मेरा धर्म है और मैं आपको बहती हू कि साथ रहना धर्म होगा । मैं नाय नहीं रह नक्ती ।"
उपाध्याय जी एकाएक बोले, "सविता ।" उस सम्योधन में मानो क्या कुछ नहीं था ।