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________________ विच्छेद केशव को मैं हर तरह से समझा सकता है। बतायो न, ऐसा क्या है ?" "कुछ नही ।" "फिर भी, तुम्हारा यही निश्चय है कि साथ तुम नही रह सकती ?" "जी " उपाध्याय जी सुनकर अपने मे चप और बन्द रह गए। अव उनमे दूसरे प्रकार के विचार आने लगे। मानो प्रश्न पारिवारिक और सामाजिक न हो , वह सस्कृति से कम और प्रकृति से अधिक सम्बन्ध रखता हो। कुछ देर वह अपने में ही सोचते रह गए। फिर एकाएक बोले, "देखना सविता, शरम न मानना । तुममे मार-पीट तो कभी नहीं हो जाती ?" सविता चुप रह गई । बोली कुछ नहीं। उपाध्याय जी के मन में सहानुभति जगी। चोले-"ऐसा हो तो भी घबराना नहीं चाहिए बेटा । प्यार में ही ऐसा हो पाता है। नहीं तो हममे मे शिप्ट कौन नहीं है, और कौन अशिष्ट शब्द तक बोल पाता है ? समझती तो हो वेटी।" । सविता चुप सुनती वैठी रह गई। उपाध्याय जी कुछ रुके, फिर वोलते गए, "जिन सम्बन्धो मे कही कोई तीसरा नही पा सकता है, वहा फिर व्यक्ति का कुछ भी पीछे नही रह जाता है, खोटा-खरा सब कुछ सामने या जाता है। पतिपली सम्बन्ध वही परिपूर्ण सम्वन्ध है। इसमे निर्लज्जता मे भी लज्जा - नहीं लगती है। दोनो परस्पर मुक्त हो पाते हैं। एकदम नियमो से ऊपर । प्रादमी इसमे असभ्य बने तो भी उसे चिन्ता नहीं होती है। यह अचूरा नही, पूरा सम्बन्ध है । और इसलिए उसे सहारना अामान नहीं है। वडी परीक्षा का काम है। विवाह का धर्म सबने कटिन धर्म इसीलिये है। ब्रह्मचर्य और सन्यस्त इसीलिये गृहस्थ आश्रम के मुकाबले खेल जमे हैं । सविता बेटी, तुमको कहता हू, कि इससे बड़ी वैतरणी दूसरी
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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