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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग बुजुर्ग को सहसा कोष सा आया, "तो यो कहो कि जिद तुम्हारी है ?"
सविता ने कहा, “जी हा, यही कहिये कि जिद मेरी है ।" "लेकिन क्यो?" "मुझे कुछ नही ।" और कहकर उसने आखें नीची कर ली।
उपाध्याय जी को कुछ सधान न मिल रहा था। वह मन मे पूरा विश्वास लेकर चले थे। विश्वास का अधिकार भी था । कारण, परिवार के सब लोगो का उनके प्रति सम्मान का भाव था और वह निस्पृह हितैपी थे। उन्होने केशव से बात की थी, उसकी माता से बात की थी, भाई से वात की थी और कहीं किसी तरह की अडचन अनुभव न की थी। परिवार के सब लोग छोटे-मोटे स्सलन तक को दर गुजर करने के लिए तैयार थे । केवल आगे के लिए आश्वासन चाहते थे। किशोर का नाम लोकापवाद का कारण बन रहा था । सविता के सम्बन्ध मे उपाध्याय जी को पूरा विश्वास था और वह मानते थे कि अवश्य कही गलतफहमी हुई है। किशोर मे कोई विशिष्टता न थी । सविता परिष्कृत रुचि की महिला थी। सविता के पास आते समय उन्हें विश्वास था कि बात को सुलझते कुछ देर न लगेगी। सविता से मिलकर उन्हे विश्वास हो गया था कि किशोर की बात मे ज्यादे दम नहीं है। मविता स्वाभिमानिनी है, इसलिये उसड सकती है। और फिर उगको अटिगता को गवर समझा और समझाया जा सकता है। अवश्य यही बात हुई है। - लिये यदि एक अोर से वचन पाने का आग्रह रहा है तो दूसरी ओर में वचन न देने का आग्रह वन पाया है। इसी पर बस दोनो और गे या कसती गई है और टूटने का विन्दु पापहुना है।
लेकिन उस बात के बाद भी कुछ है, ऐसा उनको अनुमान न पा । इसलिए पहले तो वह कुछ अचरण मे रह गए, फिर जब उस दिगा में भागे करने की वही कोई राह न मिली तो उनमें आवेश हो पाया। उन्होने पहा, "जिद तो अच्छी चीज नहीं होती है, सविता बेटा ।