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विच्छेद
पर सविता चुप की चुप बैठी रह गई । मानो धर्म का निर्णय हो चुका था और अब ग्रागे कुछ शेष नही वचता था ।
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उपाध्याय जी ने बहुतेरा वल अन्दर से खीचा | धर्म का, नीति का सहारा लिया । चाहा कि कुछ कहे, बोले, समझाए । लेकिन सामने मानो अत्यन्त मौलिक ग्रनुलघनीय कुछ था जिसका स्वीकार ही हो सकता था । वह क्या था कि जिसमे मैल न था, मान न था, पर सत्ता थी, सत्यता थी ।
तो भी जोर लगाकर, सोचते हुए-से उपाध्याय जी बोले, "केशव मे कुछ दोष है ?"
सविना नीचे देखती चुप ही रही, बोली नही ।
" लज्जा न करना, बेटा । सव उपाय हो सकता है ।"
सविता ने व ऊपर देखा । स्थिर वाणी मे कहा, "आप परिवार के हितैषी हैं, पूज्य है पर पत्नी के धर्म मे पति का विचार नही है, धर्म का ही विचार है । धर्म परिवार से ऊपर होता है । माफ करें, साथ रहना न होगा । मैं जा सकती अक्तूबर '६४
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