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________________ ११८ बनेन्द्र की कहानियां दयवा भार मान्यवर । पत्र मिला! क्या ठीक हो जाएगा? मैं नहीं मानती कि मेरे साप कुछ भी वेठीक है। आप अपनी मेहरवानी को अपने पास रखिए। अपना ज्ञान, अपना उपदेश भी पास रखिए । भापको जानना है, मुझे जीना है । आप जानने को ऊपर रख सकते हैं। मैं जीने से अपने लिए फुसंत नहीं निकालना चाहती हूं। श्राप भव मेरे बारे में कुछ फप्ट न कीजिए ! कहीं पतिदेव हो आपको इघर नही मिलते रहे हैं ? ऐसा ही लगता है । अब मिलें तो फहिए कि करनी भोगनी भी होती है। पापको, दिमवा दिमल! प्रिय नही लिखता हू | शायद तुम चाहोगी नहीं। परित पी पिणे है, कई वार मिले हैं ! पर प्रगसा के अतिरिक्त तुम्हारे सम्बन्ध में एक भी अन्यया शब्द उनके मुह से नहीं निकलता। वह अवगर भी तब पाता है, जब दूसरे हात् उसे बना ही टालते हैं । यह प्रायश्चित पूर्वक नहीं बल्कि उदारतापूर्वक तुम्हें लेते हैं, यह मै तुम्हें कैरो वताक ? सुनो ! मालूम हुआ है कि मकान तुम्हारे अपने पैसे का है। यानी तुम समझ सकती हो कि वह तुम्हारे पति को फमाईमा नहीं है । मुझे दुख होगा अगर तुम्हारे व्यवहार में यह मान भी कारण बना होगा। मुझे गलत मत मममना ! जीने वालों में समयता से जीने का प्रयास फरने वालो में मैंने तुम्हें देखना चाहा है। गीतिए नुम्हारे लिए गदा मन में संघ्रममा गाय रमा है। किसी नीनि-निगम के नाते वह नाव वहां से हटने वाला नहीं है। लेकिन यह अब भी माना है कि तुम
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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