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मुक्त प्रयोग
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लिवरेटेड माइड ऐसा चलाया था कि लेखक महाशय सकपकाए से रह गए ये । तब यह गन्द उसे स्वय गर्विष्ठ प्रतीत हुआ था। पर उस शाम के बाद आगे के लिए कुल जमा साढे सात रुपए उसके पास वचे रह गए हैं । बस यह पूजी है, वह है, और आगे की सारी जिन्दगी है । सवेरे से उस ने एक भी पैसा खर्च नहीं किया है। दिन मे खाना नहीं खाया है, पाव-प्यादे घमा किया है, और रेस्तरा मे पाकर भी पानी से आगे नहीं बढा है । वह कुछ हैरान है कि लिवरेटेड माइड 'लिमिटेड पर्स' के साथ ही क्यो हुआ करता है ? यही आज की समाज-व्यवस्था के खोखलेपन का प्रमाण है। या माइड ही तो कही 'लिमिटेड' नही रह गया है ? सम्भव है कि नीति-प्रनीति, पाप-पुण्य जैसी चीजे भीतर में कहीं दुबकी रह गई हो । नहीं तो चतुराई से पैसा बरावर आते रहना चाहिए । लिबरेटेड माइड के पास बटुमा अवश्य 'अन-लिमिटेड' चाहिए'' सोच कर वह मन ही मन फीकी हसी हसा । लेकिन उसने सतोषपूर्वक याद किया कि कन लेखक महाशय किस प्रकार एकाएक पिटे-से रह गए थे।
सात वर्ष पहले शेइलेन कालेज मे प्राध्यापक बना था । उसकी योग्यता की धूम थी। हाल में ऊची शादी हुई थी। लोग सराहने से अधिक उसके भाग्य पर ईर्ष्या करते थे। लेकिन जल्दी ही उसे मालूम हो गया कि यह सव सार नहीं है। दो साल के अंदर पत्नी से विलगाव हो गया । अव्यापकी छोड दी गई और कलम की नोक से सयको सुधारने और इस-उसको फटकारने का काम उसने शुरू कर दिया । उसे निश्चय हो गया था कि दुनिया चावुक के ही लायक है । दुनिया ने सत्रमुच इसमे मजा भी लिया, लेकिन एवज मे काफी पैसा नहीं दिया । परिणाम, शेइलेन को मालूम होता चला गया कि दुनिया फरेब है, मक्कारी पर तुली है । पैसे वाले बडे लोग ठग और बेईमान है । और उस श्रेणी की स्त्रिया रूप-जीवी है । कोई डेनु-दो वर्ष तक उस का यह प्रयोगात्मक जीवन चला । याद मे शेइलेन के वसुर ने एक स्थान के लिए सिफारिश की, तो विरोधपूर्वक शेइलेन ने वह जगह स्वीकार कर