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जैनेन्द्र की कहानिया दमया भाग ली। बडी कम्पनी थी, वेतन जचा था। पर शन. गर्न पुन. सिद्ध होने लगा कि आत्मा के साथ, नहीं-नहीं, अपने गर्व और गोरव के साथ, समझौता नहीं किया जा सकता। व्यवस्था यह मनमानी है, समाज कृत्रिम है और अधीनता किसी स्वाभिमानी को सह्य नही होनी चाहिए। यह नौबत आने के आसार प्रकट हो ही रहे थे कि पत्नी अपने पिता के पास लौट गई थी और अपने डेढ वर्ष के पुत्र की ओर देखते हुए, पिता की सहायता से, उसने रेडियो मे नौकरी कर ली थी। इस सुयोग के साथ शेइलेन का जीवन कुछ समय के लिए सूब उत्कट हो कर नमका था । मानो अदर की शक्तिया खुल खेलने पर तुल पाई हो और वह अकेला सबका सामना ले सकता हो । कम्पनी के चेयरमैन से वह उलझ पडा और उन्हे खरी-खरी सुनाने से नहीं चूका । वहा से छुट्टी पा कर मानो सत्य का ही एक अवलम्ब उस ने अपने लिए रस छोडा । लिहाजमुलाहिजे नाम की चीज को उसने सर्वथा खत्म कर दिया । उसने तय किया कि समझौते के विना उमे रहना हे । प्रण वाधा कि यह ऐसे रह कर दिखा देगा। यहा सब अकेले ही तो है । यो जिसके साथ एक कप चाय पी, वही अपना नाथी है । दो पैग माथ हो गए, तव तो वह साथी अभिन्न ही हो जाता है। इस तरह नौकरी छोड़ने के बाद दोबारा उस ने मिखानत प्रयोगमुक्त जीवन प्रारम्भ किया।
मानना ही पड़ता है उनकी कलम के जोर को । अग्रेजी तो मानो उसके लिए मातृभाषा है । सब उमका मिक्का मानते हैं । पीछे चाहे जो कहे, सामने तो रास्ता ही देते चले जाते हैं । यह प्रयोगशील जीवन उसे इन बार फला नहीं, यह नहीं कहा जा सकता । उसकी मिप्रताप, उसका परिचय, सभी वर्गों में फैला है। सदा यह अच्छे लिबान में देखा जाता है । वर्च में भी हाय बुला दीपता है। अभिगात रेस्त्राग्री में अभिजात वर्ग के साथ आप अक्सर उसे पा सकते है। इन दूसरे प्रयोगकाल की ही बात है कि दूनग विवाह हुमा । रयम अच्छी माई, पर विवाह टिका नही । उनगी अपनी बात माने तो पत्नी पमाद न