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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग
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के पोर्च मे दौडकर दाखिल हो जाते है |
ले भाई, ठीक है । अव वरस ले, जितना जी चाहे ! वाह उस्ताद परमात्मा, तू भी पानी का बडा भण्डार जमा करके रखता है । हम पढते थे, मानसून है और पानी का भाप बनता है, उसमे से बादल बनता है और समन्दर के किनारे से उड़ते-उडते जहा तहा पहुचकर वापिस पानी बरसाने लग जाता है । यह विग्गान है । हम विज्ञान पढे थे और विद्यालय मे विज्ञान पढाया जाता है । ऊचा विज्ञान, तरह-तरह का विज्ञान | पर हम हसता है और परमात्मा हसता है । और वह पानी वरसाता है । हमारे पास पानी करने का वडा सामान नही है । नही तो हम भी हसी को पानी बना के बरसा देना । तो हम श्रव हसी को हो मीधा बरसाता है । काहे कि लोग विज्ञान की बात करता है। पानी को पानी नही बोलता है, कुछ और बोलता है । हाइड्रोजन श्रावसीजन बोलता है । काम की बात को वेकाम बना के विज्ञान बोलता है । पानी का प्यास लगता है, और हम पानी पी लेता है। तुम भी पी लेता है । सब लोग पी लेता है, पर विज्ञानी पीता नही है । विश्लेषण करता है । विश्लेषण से पानी को उठा के कुछ प्रोर वना देता है । कहता है यह नही है, वह है । और वह वह नही है, यह है । श्रादमी श्रादमी नही है, तत्व है । और तत्व श्रात्मा है और श्रात्मा हम तुम नही हैं, पार है ठीक है, पार है । हम श्रात्मा है, हम परमात्मा है, हम विज्ञान है ।
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महाशय ने पो के बाहर देखा । पानी पड़ रहा था । सामने देखा पानी पड रहा था । मुडकर पीछे देखा, पानी पड रहा था। लेकिन वार्ड तरफ पानी नही था, सीढिया थी । सीढियो के बाद वरामदा था । वरामदे के बाद फिर सीढिया थी और तब दरवाजा प्राता था ।
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महाशय ने उस सव स्थान को गौर से देखा जो ढका था और जहा पानी नही पड रहा था । मालूम हुआ कि यह श्रनोसा घटना है । पानी तीन तरफ है, एक तरफ नहीं है । श्रोर जिधर नही है, उधर श्रासमान भी नही है । वहा दीवारें हैं और उपर छत है । दिशाए उससे