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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग अब वह विमूढ वनी बैठी रह गई। ___माथुर निर्लज्ज नियाज कोई दो मिनट तक टप-टप प्रासू गिगते रहे । निगाह उन्होने नहीं हटाई और बोले भी नहीं । अन्त मे उन्होने स्माल निकाला, आखें पोछी, नाक माफ किया और भर पाते कठ-से वोले, "प्रमीला ! .. यह तुमने क्या किया ?"
प्रमीला चुप रह गई। "वताया क्यो नही मुझे ? मेरे हाथो यह पाप क्यो करवाया ?" प्रमीला अब भी कुछ बोल नहीं सकी।
माथुर ही कहते गए "और अब छ हो भी नही सकता है। ' छोटो, देवा जाएगा । पर प्रमीला, यह हुआ क्या ?"
पूछ कर माथुर उसे कोरे से कुछ देर देखते ही रह गए तो प्रमीला ने अपने को समाहित किया ।
बोली, "होता क्या, भाग्य का उलटफेर । और क्या ?" "वह कहा है-सरप ?" "शायद नौकरी में हैं।" "गायद ?.. और तुम ?" "मैं यहा हू-आपके स्कूल में।"
मायुर मुनते और देखते रह गए । आखिर पछताए-से स्वर में वही वोल पटे, "मुझे बताया क्यो नही तुमने पहले ?"
"क्या बताती ?" "मझे पहचान तो सकी नी न ?" "नहीं।" "पहचाना नहीं ? 'जानती तो होगी?"
"जानती थी इनीलिए तो स्कन में नौकरी के लिए दरखास्त दी थी। लेकिन मैने पूरी तन्ह पापको देवा कद या कि पहलानती ?"
माथुर गार देर र के, फिर बोले, "मैंने देखा था। चेहरा नही देखा था, पाव देवा या । और एक बार हाथ भी देना था। और हरा''