________________
जैनेन्द्र की कहानिया दरावा गाग रही थी जो मानो इस विरक्ति से मिल कर जम पाई और उसको जड बनाती जा रही थी।
मुरारी के साथ रामशरण थोडी देर आए सडे रहे । फिर जोर मे बोले, "यह क्या फैले मचा रखा है ?"
नही, सम्भव नहीं हुआ । काया स्थिरीभूत, निश्चल, निश्चेतन नहीं रह सकी । वह एक झटके से पलग पर उठकर बैठ पाई और धोती को माथे के जरा मागे लिया। कहा, "वैठिए।"
रामशरण नही बैठे । और मुरारी भी उनके पास सठे रहे । पलग से उनकी दूरी दो वालिश्त की न होगी। वह सिरहाने की तरफ सडे थे । शारदा उठकर बैठी तो तनिक पायते की तरफ हो पाई थी। यह भर दिया था, 'वैठिये'-लेकिन निगाह को मोडकर उधर देखने का कष्ट उसने अपने को नहीं दिया था। अब धोती की किनार को जग माये के आगे लाकर उमने अकम्प स्वर से कहा, "बैठो मुरारीवैठिए।"
"कोई यहा वैठने को नहीं पाया है ।" रामशरण ने तेज होकर कहा, "मुरारी | तुम जानो, टैक्सी लायो । 'और सुनती हो तुम ! दो मिनट मे तैयार हो जानो तुम्हे साथ चलना है । वहुत हो लिया यह हरजायीपन । अव वदमागी नही चलेगी।"
मुरारीलाल चला गया था । शारदा ने जरा प्राव ऊपर करके रामशरण को देसा । रामगरण की आखों में अग्नि थी। वह कुछ देर देखती रही। अब उसमे दहशत नहीं रही । मस्ट तब तक ही था कि जर दूर था । अव बिल्कुल पाम पाने पर मानो वही एक निश्चय पीर स्फति के उदय का कारण बन गया था। उसने स्वर को भरनक थाम फर कहा, "खडे प्यो हो । बैठ जानी।" ।
"कोई जरूरत नहीं है बैठने को, और जठार तुम दो मिनट तयार नईतो......"
"कुछ लाए हो-नमंचा वगैरह "