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निश्शेप
"भाभी ?" "जाग्रो-"
मुरारी ने जाना नही चाहा । जाने कब की साध थी और आशा मे वह टूटना नहीं चाहता था। भाभी की मुस्कुराहट ने एकाएक उसे सीचकर हरिया दिया था और मुरारी चिटका रह गया। उसकी आखो मे जाने क्या भर आया था। चाह तो थी लेकिन उसके मद के साथ जाने कैसी एक विनम्रता और कातरता मिल पाई थी। मानो एक साथ वह टूट पडना चाहता हो । भीतर अपने मे और बाहर उस नारी पर।
शारदा ने इस मुरारी को देखा । वह फिर भी हसी । हसी मे वेद तीखी धार थी। वह आदमी की आशाओ को एक साथ भीतर तक काटती चली गई । उसने कहा, "मुरारी | तुम चले जाओ।"
अनन्तर मुरारी एक शब्द नहीं बोला । चुपचाप वहा से चला गया।
शारदा पीढे पर बैठी थी । घुटने पर हाथ देकर वह उठी। उसने भीतर बेहद क्लान्ति अनुभव की। जैसे बहुत थक गई हो और जीना वस भार हो । उठकर उसने बाहर जीने का दरवाजा वन्द करने की भी चिन्ता नही की और वरावर विछे पलग पर एकदम लेट गई । वदन के जोडो मे दर्द मालूम होने लगा था और वह ऊपर सूनी छत मे जाने किस विन्दु को टक बाधे देखती रह गई थी।
कुछ इसी अचेतावस्था मे उसने जीने से चढते हुए डगो की आहट सुनी । उसे कुछ भय-सा मालूम हुआ । लेकिन वह उठ नही सकी। वैसी की वैसी लेटी ही रह गई।
थोडी ही देर मे मुरारी और रामशरण दोनो चलते हुए कमरे मे आए।
जैसे क्षण भर उसने किसी ओर देखा नही, उस छत में ही देखती रह गई। उसने उठने की चिन्ता न की । वह बाहट से ही समझ गई थी कि आनेवाले कौन हैं। एक अलस विरक्ति में मानो समझने के बाद भी उसे कुछ करने या मोचने की सुध न हुई। उसमे एक दहरात व्याप