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ये दो
राम कुमार जी को 'महाशय' कहना पात्र का स्ढ प्रयोग नहीं है | श्राशय वह अपना भरसक महान् रमते है । लेकिन उन्होंने निर पाया, बाल खीचे, पर कुछ समझ मे न श्राया ।
सवेरे का समय था, और वह अकेले थे । कुछ काम-धान हो नहीं सका था। रात को नीद नही ग्राई थी । और वह चुपचाप उठकर सपेरे मुह-प्रवेरे ही इस ग्रपने अध्ययन के कमरे मे आ गये थे कि कुछ करेंगे। पर किया कुछ नही जा सका । आकर पहले तो वह इस कमरे में पर से उधर घूमते रहे । फिर मेज़ पर घंठे भी, तो कुछ देर बाद कुहूनिया मेज पर टिक गई, और हथेलियों मे ठोडो तथा मनपटियों के सहारे चहरा टिक गया । श्रोर वह सोन में बैठे रह गये । वैठे-बैठे फिर उटना पहा । श्रीर फिर टहलने लगे । ऐसे हो नमय बीतता गया । पक्षी पहूचहाने लगे | और सवेरा निकलता चला पाया । मालूम हुआ कि समय प्रवस्य चला है, और शायद कदम भी बराबर चलते रहे है, पर बात यही की वही रही है, तनिक भी चल-बिनल नहीं हुई है।
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बात मनमुच ही प्रगम थी । श्रजव जिच को स्था थी । इस पर यकीन करने को जी नहीं होता था । पर यह भी, और पोरता से सामने थी । अन्त में उन्हें और कुछ नहीं सूभा, नो हार पर मेज पर बैठे, और हाथ चढाकर मेज पर लगी घटी को जोर से दवा दिया |
श्रावाज सुनकर याने नोकर ने बदगी बजाकर नहाराम कुमार जी ने ऐसे देगा, कि जैसे हा से यह कोन सा गया है। पर मन पर पहा - "बीपी रही है उन्हें भेजना ।"
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