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झमेला
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हुमा। आखिर पता चला तो यही मेरी समझ मे नही पाया कि न कहने की और चोरी की इसमे क्या बात थी । मै जबरदस्ती तो साथ बधने वाली थी नहीं । कहते तो कुछ उनके लिए सुभीता ही कर देती। लेकिन, राजेश, वतायो यह यया होता है ? जो एक दिन सव कुछ थी वही भार और बोझ कैसे बन जाती है ? मैं औरत हू और किसी तरह इस बात को नहीं समझ पाती ।" ___"तुम नहीं समझ पामोगी । कोई नहीं समझ पाएगा। छोडते हैं, उसको समझने की जरूरत नहीं रह जाती है । पाना चाहते हैं, वही पाखों मे वसा रहता है। सुपी, कई होगे जो राह मे तुमसे भी छूट गये होंगे । उनके बारे मे तुम समझ सकती हो, सोच सक्ती हो! . "यही उस विचारे के साथ हुश्रा । उसके मन में कभी तुम वत्ती थी, अब जो और सूरत और मूरत वहा बस गई होगी वह उसी के पीछे चला गया । तुम्हे अगर छोड गया तो तुम्हे समझने की उने जरुरत ही कहा रही? छोडो । 'बन्द करो। पात्रो, उठो । हल्की बनो और रज को पी जायो । “पिक्चर चलोगी ?" ___ "नहीं, आगे सुनो 'यह प्राज उसका सत्त पाया है । इसी के लिए तुम्हें बुलाया था कि पूछू, रया करूं ?"
उस घुधली रोदानी मे गजेग ने सत पना । बचकाना-सा था लेकिन पल में बहुत दर्द था । वह सच्चा खत था । पटकार राजेग चुप हो गया।
"बोलो, बतायो । छ बाहो न?" "तुम पया सोचती हो?" "मैं कभी कभी नही जाऊगी!"
"वह पागल हो सकता है। तुम्हारे बिना जीना उसे मुश्किल है। ऐसे में जो पार गुजरे चोदा है" यह सब तुम जानती हो।"
नही जानती। कने जान सपती ह । मुह छिपापर मेरी तौहीन मारपो जो चला गया है, गया वह यह सब बनाफर नही लिस तक्ता ? "नही, नव घोगा है।"