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छः पत्र, दो राह
प्रिय विम्मी ।
तुम्हारे पास से पाने मे मुझे शाम हो गई थी। बहुत अच्छा लगा था और मन लौटकर किसी दुनिया के काम-धाम के लिए वाकी नही बच गया था। मैंने कहा था कि मीटिंग है, लेकिन मीटिंग मे में नहीं गया । सव तुच्छ लगता था और तुम लोगो की खुशी को देखकर जो खुशी मैं अपने मन में भरकर लाया था, उसे बखेरना नहीं चाहता था इसलिए शाम का सव कार्यक्रम टालकर में चुपचाप पाव-पाव पास गाधी समाधि पर चला गया । वहा एक तरफ घास पर तब तक बैठा रहा जब तक उठना जरूरी नही हो गया । समाधि शान्त थी और धीमे-धीमे नीरव भाव से उतरती हुई सन्च्या बडी मुहावनी लग रही थी । जैसे छू कर और छन कर मेरे भीतर ही उतरी जा रही हो। मुझमे बड़ा सुसद उजाला था। लेकिन विम्मी में नहीं जानता कि कैसे धीरे-धीरे मुझमें एक मधियारा छाता चला गया । जैसे कोई भार चित्त को दवा रहा हो। मैने याद किया, तुम दोनो को उन किलकारियो को, उधम को, दंगे को, मस्ती को, जो मेरी उपस्थिति तुमगे और उमगा देती थी, रोक तो क्या पाती । तुम पीछे से आकर कुर्सी पर बैठे नीरज के कपों पर झूल गई थी । तुमने उसके बालो को महेजा, फिर धीरे-धीरे तुम्हारे हाथ उसके कानों की लोरी को सहलाने लगे । फिर ये उगलिया उसके गातों पर घूमी और मानो फिर ओंठो को पुचकारने लगी। तभी तुमने एकाएक शुफकर उसके बाएं कान की मोर को दातो के बीच देकर काट जाना। नीरज 'मी' । करके जो उठा तो उसने तुम्हारी हाय को उगली