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________________ छ पत्र, दो राह ११३ जानती हो । घर में बेबस सोचता हू कि क्या ये सब तुम्हे बहुत भारी न हो जाता होगा ? नचमुच गुमने इस समय सहा नही जा रहा और तुम्हारे प्रति सहानुभूति में मन उमटा या रहा है । तुम प्रत्यन्त स्वाभिमानी हो । ऐसे पति का श्राश्रय तुम अगर छोट नही पाती हो तो मैं जानता है इसके लिए तुम्हारे मन मे कितनी गहरी वृतज्ञता का भाप होगा 1 तुम धायद पलित्व नहीं दे पाती हो, फिर भी पतित्व उनका अपने ऊपर धारण किए हुए हो । सोनना है और न अपने में गना नही चाहता, रोना चाहने लगता है । माना हो विमला तुम रकची को ममता है । लेनिन ही भर जाता तुम उस घर में अगर पनुभव करती हो कि जिसमे तुम अपना जीवन बिताती हो, जहाँ से अपने सब श्राश्रय लिए सब सुविधा प्राप्त गरती हो, तो दिग्मी, गोपि यह काफी है ? ये उपा उनित प्रतिदान है ? और यदि प्रतिदान की घपेक्षा दूसरी ओर से नहीं है तो उनी वारण ये और भी अनुचित नहीं हो जाता है 2 और गया ? दया नही जाता है । १ भाग्यपर (२) तुम्हारा, ग० दे० के लिए भागे ! लेकिन नाम कहिए पापा वर्ष भो देवाने है। में यह गरमी । मैंने पापको भाता है। 1 कही होगा ! मेए नहीं। दिन का है और का हो जाएगी। बाकी ये पान यह पर पाना । रागगैर है, नदिया होगा? परर
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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