________________
११२
जैनेन्द्र की कहानिया दनवा माग
घन्टे, तीन घन्ट । फिर तो तुम्हे जाना ही पडा होगा। प्रान्विर तुम्हारा घर है और वहा दो प्यारे-प्यारे बच्चे है । पति हैं, लेकिन एक बार उन्हे छोड भी दो, क्योकि वह अपने लिए और तरह की व्यस्तता ठूठ सकते हैं । दिन में कारोवार है, शाम को क्लव है और 'लेकिन वह छोटो । पर बच्चे तो तुम पर है ! तुम नही पहुचोगी तो नौवर से लेकर खाना-पीना तो वे अपना तव भी कर लेंगे, देर हो जाएगी तो शायद विस्तर पर पहुच कर लेट भी जाएगे। लेकिन क्या उन पालो मे नीद आयगी ? क्या वे अपनी मम्मी की राह ही देखते नहीं रहेंगे? इसलिए आखिर तुम घर गई ही होगी। शायद हो कि साने के वक्त से पहले पहुच गई हो और बच्चो के प्यार मे एकाध चीज़ अपने हाथ से भी बनाई हो । फिर उनके साथ होकर तुमने भी कुछ साया-पीया हो और उन्हें वहानी लोरी सुनाई हो। जरूर तुमने यह किया होगा। पयोकि तुम्हारा मन प्यार से भरा है और बच्चो की उस मन मे बडी ममता है। लेकिन में सोचता हूँ और मन भारी हो पाता है । समझ ही नहीं पाता कि इन दोनो खुशियो को तुम एक में समाकर कैसे मनाल पाती होगी। क्या दोनो मिलकर तुम्हारे भीतर दुस्मह व्यथा का निर्माण न कर देती होगी।
विमला, में विवाह का प्रहरी नहीं है । उस कर्तव्य में प्रेम फा निन्दक भी नहीं बन सकता है। लेकिन सच बताना, बच्चो के पिता रात को क्या जल्दी श्रा गए थे ? मैं जानता हूं कि वह जल्दी नही पाते । जानबूझ कर जल्दी नही पाते । सव मो जाते है, तभी यह घर मे पाते हैं। ऐसे कि जमे मेहमान हो, जैसे चोर हो । वह पनि हैं, पिता हैं. उन्हें अधिकार है, मव न्वत्व उनका है। लेकिन गती पाते हैं घर पर और दूर-दूर दुनिया में रहते है और यही दूर में घर में सामान और सुविधा जुटाने रहते है। इसलिए कि यह निी एमा भी उपयोग न कर सकें और तुम्हे पिनी तरह का पट न हो। तुम डापोर से तनिा भी विघ्न न अनुभव करो । मैं उन्हें जानता, नम