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उलट फेर
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या दबने नहीं देना है। खुद अपने पर कितना भी वोझ क्यो न पड़े। चाहे काम का, चाहे चिन्ता का या निन्दा का । उसे लगने लगा था कि जीवन सचमुच बलिदान है । एक का बलिदान ही है जो दूसरे को यहा खिलाता है । और यदि उसका जीवन खुद पिस रहा था तो माधव पौर राघव तो थे जो उस पर पल-बढ रहे थे । यही मानो उसकी अपनी सार्थकता यो और इसी मे वह हर दिन के सवेरे को उसकी शाम से मिला देती थी । अवेरे तडके उठती और काम मे प्रवृत्त हो जाती । माधव और राघव दोनो को खिला-पिला कर नौ वजे ड्यूटी पर पहुच जाती। शाम को हारी थकी छ बजे आती और फिर रोटी-चूल्हे के झझट में जुड जाती । माधव ने जो शाम की ट्यूशन ली थी, सो रात नौ बजे घर या पाता था । रायन भी इन कठिनाई के दिनो मे से अपने लिए शिक्षा ग्रहण कर रहा था । वह मा के लिए जितना वनता सहाई और उपयोगी होने की कोशिग किया करता था।
इसमे फुर्मत ही न मिलती किसी बात की । दूसरे तीसरे महीने बच्चो के पिता की चिट्ठी मिलती तो उसका मन उखड आता था । अधिका चिट्ठी उनको नहीं आती थी, बच्चो को पाती थी। वही उनके दुख के उभार के लिए काफी हो पाती थी। लेकिन अच्छा था कि काम का ताता ऐसा था कि दुख को सहलाने को समय न छोडता था । और जिन्दगी की गाडी रुक न पाती थी, आगे सरकती बढती ही जाती थी।
सुशीला कभी-कभी घर आ जाती या प्रमीला ही सुशीला के पास चली जाती । या तो नाते-रिश्तेदारी से कभी किसी टेले का बुलावा आ पहुचता और बचना नभव न होता। लेकिन नातेदारियो का निवाह भारी बहुत पडता और उसके मन का बोझ वढ जाता । कारण, अवेले होकर जिन्दगी से जूझती हुई नारी के लिए सराहना के भाव होने वा कायदा समाज मे नही पाला जाता है | उसमे भी यदि वह निन्दा दबीडकी हो, मुह पर मुल कर न आती हो, वन एक ऊपरी शिष्टाचार के व्यग्य ने ही प्रकट हो पाती हो, तब तो वह असहनीय ही हो जाती है।