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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग
"आखिर क्यो ?"
"नही मैं कृपा नहीं ले सकती। उनके नाते भाई कृपा तो और भी किमी तरह नहीं ले सकती।"
तो वता, मैं क्या करू ? तेरी हालत मे पचास रुपये का फर्क कम नहीं है और तू कहने देगी तो मैं समझती हू आगे तरक्की का रास्ता भी खुल जाएगा। और तू सच जान, माथुर अपना वचाव कर रहे हैं। वचाव की जरुरत नही रह जाएगी तो वह बहुत उदार है और आगे तेरे सामने कोई कठिनाई नही आयगी।"
"फिर वही, सुशीला । कह चुकी हू, वह नही हो सकता । देखना किती तरह का जिक्र उनसे न करना । और चलो, यह सवा सी ही सही। कोशिश करू गी कि इतने मेसवके पेटो के लिए प्रा.ा दाल तो जुड जाए।"
नियुक्ति हो गई । और प्रमीला काम करने लगी। नौ बजे जाती और छ बजे घर आ पाती । सव काम अपने हाथो ने करना पड़ता। सिर्फ वर्तन साफ करने के लिए महरी रसना जस्री हो गया था लेकिन उसको दिया जाने वाला वेतन अखरे विना नहीं रहता था । राघव की फीस माफ नही होती थी, माधव ने एक छोटी सी तीन रुपये की ट्यूगन कर ली थी । जैसे तैसे गाडी खिंच रही थी। न्हने को तीनो के लिए एक बरसाती हाथ आ गई थी। किगया उनका पच्चीस रुपया । प्रमीला का वडा लडका दूर निकल गया था । वह कभी छठे छमाहे कुछ पया भेज दिया करता था। पर इधर उमे भी कठिनाई की। उमर पा गई थी, और उसे विदेगी कन्या मे प्रेम हो गया था। ऐग में छठे छमाहे भी कुछ पा जाए, यही क्या कम था।
यो डेड एक साल निच गया । काम के बोझ के कारण प्रमोल का शरीर दई देने लगा पा । बरसाती तीसरे मजिल पर थी। चटते मरते अब वह हाफ जाती थी और जोड पिराने लगे ये । उसके मन में या था कि जैसे भी हो, बच्चो को कावित करना है। उनके मन को मरने