________________
जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग
"मरी नहीं " "नही ! अभी नहीं मरी।" "मैं क्यो पाऊ ?"
'मारने भी नही पा सकते ? उसी के लिए आ जायो। दया करो।"
इन बात का मैं महसा उत्तर नहीं कोई बना सका और फोन कान पर लिए चुप रह गया।
"राजेश"
वाणी मानो भीतर पानी से भरी काप रही थी और मुझमे मान चढता जाता था।
"राजेरा ? . राजेश ! सुनते नही हो? मैं मर रही है ।" पाके देखोगे नहीं कि मैं मर रही हू ?"
मैने जोर से टेलीफोन वही दे मारा और इग पाच बजे तक इतजार करता रहा।
गायद उसे प्राशा नहीं थी। शायद उसे श्राशा थी । मन कहता था कि वह जानती है कि कुछ और मेरे लिए सम्भव नहीं है। जाए विना मुझ से रहा नही जा सकेगा । और सचमुन ही ग विम्मित नहीं हुना जब देखा कि मेरे पाते ही उसके साथ के गज्जन विदा ले गए हैं। सुपमा को मैं जानता ह । हीरे वी मनी-मी वह कठार हो गाती है और काट कर सकती है।
"म्बई से कर पाई ?" "मान रोज हुए !" "सात रोज?" "श्रीर मेरा गुग्ना फिर मुभगे घने लगा। "प्राण भी मजबूर होरर तुम्हें याद किया है।" "न करती आज नो क्या चुरा था?"
"अन्धा ही था। लेनिन हो नहीं ना । “राजेग, ये क्या हो जाता है ? जिन्दगी क्या है ? दुनिया क्या है ? प्यार क्या पाजून है ?"