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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग एकदम खुल पाए और तब मानो विजय गर्व मे वह आगे वटा । ___ सभा शुरु हुए समय हो चुका था। अब चौकसी की आवश्यकता न थी। इसलिए हाल के दरवाजे पर कोई न था । लोग सव मच पर होती हुई कार्रवाई देखने और सुनने, सुनने से अधिक देसने और देखने मे अधिक सुनने, मे तल्लीन थे। ___ महाशय वह द्वार पर ठिठके । एक निगाह मे सब कुछ को उसने समेटा । दूर, नीचे किन्तु ऊपर, मच था, जहा पाच-मात कुसियो पर पाच-सात लोग बैठे हुए थे । वरावर में एक पुरुष खडे हुए बोल रहे थे। बाकी नीचे कुसियो मे बैठे थे । उनकी पीठ महाशय की तरफ थी और मुह मच की तरफ था। उसने ऐसे देखा, जैसे दिक्कालजयी हो । रास्ता सामने निर्वाध था। बल्कि बनात-विद्या था। वहाँ परे कुछ कहा जा रहा था और सुना जा रहा था । लेकिन उसके कानो मे कुछ नही पडा । उसे लगा कि बम प्रतीक्षा है । वेशक उसी की प्रतीक्षा है। उसने अपने हाथ की साफी को झाडा। दूसरे सामान को भी इस हाथ से उस हाथ किया । सामान मे कागज के गत्ते का बना हुया एक डिव्या सा था जिससे भोपू का काम लिया जा सकता था। फटी पुरानी जीनुमा एकाध किताब थी। पास मे सरकडे की मानो एक पेन्सिल थी। यह सब कुछ पहले वायें मे उसने दाहिने हाय किया, और दाहिने मे फिर बायें हाथ । शायद उमै सन्देश देना था और इस प्रकार वह उसी की तैयारी कर रहा था । उसने फिर एक बार चारो ओर ग्राख घुमाकर देसा। जैसे अपने को और अवसर को तोला। मानो उमने उम थोडे ममय में भरपूर भर लिया। भर लिया कृपा से जो उसके अन्दर यहा इस प्रकार नितान्त ग्रहणीगील भाव में बैठे हुए लोगो के लिए उसमे उदय हो आई थी। एक गहन अगाघ अनुकम्पा कि विचारे मूर्ख हैं कि यहा बैठे हैं । वाहर पाकाग है और वर्षा है और अनन्त है और शून्य है। यहा दवे-लिपटे बैठे हैं। बाहर आते तो देनते कि भीगा में जाता है । और देसते कि भीगने से बच कोन मरता है। कोई नहीं बच सकता । उस परमात्मा की वर्षा