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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग
कुछ काम ही कर लो । मै कहू उन लोगो से ?" "नही मा, भगवान कुछ अवश्य करेंगे ।" जग्गी बेटे ने उत्तर दिया और वह मा की उपस्थिति से भटपट अलग हो गया ।
मनोरमा भगवान को मानती है । पर क्या वह सचमुच कुछ करते है ? अभी तक तो कुछ करते उसने उन्हे देखा नही है । जगरूप का, भगवान का भरोसा उसे अन्दर तक काट गया । उसे ऐसा लगा कि जैसे यह उसका भगवान का भरोसा सिर्फ इसकी घोषणा है कि मा का भरोसा तो अब किया नही जा सकता ! मनोरमा इस पर गहरी पीडा से भर आई और उसकी आखो मे आसू आ गए ।
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अकेली थी । श्रासू कब तक बहाती किसके लिए बहाती ? अत हठात् और मानो व्यस्तता के साथ इधर की चीज उधर और उधर की इघर उठाने-धरने लगी । इसी मे उसने यह देखा, वह देखा, और अपने सव ट्रक-वक्स खोल-खोलकर बन्द करने लगी । अन्त मे एक ट्रक के आगे, उसकी चीजो-कपडो को उठाते - पटकते के बीच, वह वैसी की वैसी बैठी रह गई ।
दो-चार छ-आठ मिनट वह ट्रक का एक हाथ से पल्ला पकडे, सामने अवर शून्य मे टक बाधे वस देखती रह गई । उसकी सुध जाने कहा गई थी और वह समाधि मे हो आई थी । अन्त मे उसने ट्रक की तलहटी मे से एक कागज में लिपटा और रेशमी विन से वधा पैकिट बाहर निकालकर अपनी गोद मे रखा । और फिर बेहद श्राहिस्ता और सभाल के ट्रक का सामान ट्रक मे चिन दिया । अव उसमे एक समाहित भाव था । मानो अवर मे पाव कही टिक आए हो ।
नगरप के आने पर मनोरमा ने कहा, "बेटा, दाखिला कव होता है ?"
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जगरूप ने मा को देखा और प्रसन्नता से कहा, "क्यो, मा "कुछ नही, भागलपुर चलना होगा ।"