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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग
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इसीलिए कि इधर सव वीरान है और उसकी प्यास प्यासी ही रह जाती है । इस अपने सिर को लेकर में कहा जा मरू कि जो तन मन के साथ दिमाग का भी साथ चाहता है । पतिव्रता ठीक है । लेकिन जिन विषयो पर मुझे रस है, क्या उन पर भी मुझे कोई साथ और सहारा नही चाहिए ? और मै जितना सोचता हू, एकान्तता बढती जाती है और मेरी आवश्यकता भी उतनी ही निविड होती जाती है ।" द्रोपदी मिली थी 'भाप उसके पिता हैं । आप जानते हैं, मैं सिगरेट पीता था । शराव पीता था । रुपया उडाता था । उडते रुपये को ऐसे देसता था जैसे फूटते सूरज की किरणों को कोई देखता है । वडा श्रच्छा लगता था और उस रम्य दृश्य के और अपने वीच मे सिगरेट के उठते हुए झिलमिले धुएं को वीच मे डालकर उस सब को आाख-मिचौली के खेल मे स्वर्गीय स्वप्निल बना लेता था । तब वह दृश्य मुझे बडा गुदगुदाता था। अब वह सब खतम हो गया है। शराब छूता नही, सिगरेट एक दम छूट गई । और उन रगोले- सजीले सपनीले मुग्ध दृश्यों से भी नाता मैने तोड़ लिया | क्यो ? क्योकि आपकी कन्या द्रौपदी देवी थी । उसने मुझे उत्कर्ष का मार्ग दिखाया । उसके कारण मैने इन्सान बनना शुरू किया है | उससे मैंने कल्पना सजाई है कि मैं सचमुच कुछ वन सकता हू और कर जा सकता हू । 'विमला खुश है तो खुश रहे । खुशी जहा से ले सकती है, वह स्थल प्रावाद और खुशहाल बना रहे । इस भावना को लेकर मैं घर से बाहर भटक गया हू और मैंने सबके लिए सुस को कामना की है । उसी मे जोर पड़ने पर सिगरेट और शराव श्रा गए तो आ गए, अन्यथा मैं उधर जाना नहीं चाहता था। जो गया एकवार उसे लोटना सभव नही हुआ करता । दुप्पी ने सब सभव कर दिया है । उसने जानवर को प्रादमी बना दिया है । आप चाहिए तो मुभमे उसे छोन लीजिए । श्रापको कन्या " है, आपका सव है । लेकिन में भपनी
कहा जाऊगा
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तरफ से उसे छोड़ दूंगा तो रह ही है । दूसरा कही पोई ठौर-ठिकाना मुझे नही है ।
मेरे लिए एक वही श्रब आप क्या करते