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उलट फेर
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और जीती हो गाई । पढाई के वाद अभी जीवन गुरू ही हुआ था। सहपाठी मित्र के यहा जाते थे और कभी वहा हठात् इधर से उधर जाती हुई रमणी की पगध्वनि उन्हे सुन जाती थी। कभी अचानक उसके पगतल भी दीख जाते थे। अचानक, क्योकि वह फौरन उधर से आख हटा लेते थे। एक ही वार शायद ऐसा हुआ था कि उसके दोनो हाथ भी दीस गए थे । चेहरा दीख सकता था यद्यपि साडी की कोर को काफी आगे तक ले आ गया था और उसको पर्दे का निमित्त समझा गया था। देरा सकते थे और देखना भी चाहते थे । लेकिन देखना सभव हो नहीं सका था । और मन ही तो है । फिर वय की बात है । तब जाने क्या चिन क्षण मे बन जाएगा और शाश्वत होकर रह जाएगा । कुछ ऐमा ही उनके साथ हुआ था। वोले, "क्या बकता है ? वह यहा कहा पाएगी?"
गेसर ने कहा, "लाऊ उन्हे यहा बुला के ?" "हा, ले के प्रा।"
शेखर ने जाकर कहा कि भाई साहव बुला रहे है । मुनकर प्रमीला धक से रह गई । इत्ती क्षण को वह डर रही थी। हुआ कि कह दे वह नही जा सकेगी। पर माथुर माथुर ही न थे, स्कून कमेटी के उपाध्यक्ष भी थे। मनमारी वह साथ-साथ हो ली जैसे वन्दिनी हो ।
पार्टी का गवसर था और आस-पास भीड थी। प्रमीला शेखर से एकान डग पीछे रह गई थी । पास पहुचने पर माथुर साहब ने शेखर से वाहा, "अरे कहा है तेरी भाभी?"
अनायाम उत्साह से यह वोल पडा, "क्यो, यही तो है !"
बोलने के साथ उमने अगल-बगल देखा और पीछे एक पदम हटकर प्रमीला को बाह से पकडाभार माथुर साहब की ओर आगे वटा दिया।
माथुर ने देखा । जैसे उन पर गाज गिरी । सामने प्रमीला मुरझाई सी जा रही थी। वह पास उठाकर देर नहीं सकती थी।
माथुर को सब भूल गया । अपनी वायु भूल गई, पद भूल गया।