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जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग
गिर के प्रासू की तरह आप ही ढरता जाएगा सब । अपने को क्या, अपन सूखे के सूखे ।
बारिश होते-होते कम हुई और फिर थम गई । महाशय उस वक्त सडक पर ये । सड़क सूनसान थी । बारिश रुकी तो महाशय ठट्ठा मार कर हसे।
..'अव वोल | देखा कि नहीं ? यह है इस हम परमेश्वर का करतव । ले खोलता है । यह रही जो भीग सकती थी। पर तुझ से तो इसका भी कुछ न विगड़ा । श्रा, वेटी आ जा । अपनी जगह आराम से हो जा। ___महाशय ने कोपीन को यथास्थान वाघ लिया । चलते-चलते देखा कि बाई तरफ दरवाजा है और सडक साफ है । सामने भी सडक है, सडक बाई तरफ भी है । पीठ की तरफ मुडकर देखा कि सडक पीछे भी है। ऊपर आसमान की तरफ देखा कि मडक उधर भी हो सकती है। भई, वाह | उन्होने सिरके बढे हुए वालो मे हाय फेरा । ठोढी पर बढती हुई दाढी पर भी हाप सहलाया और सोचा, सोचने की प्रावश्यकता थी। देखो न, जिधर देखो, सडक ही सडक । ऐमे समय विचार ही काम दे सकता है । इधर से तो हम चलकर पा रहे है । अब रही तीन तरफ । सामने, दाये, बायें] ऊपर की बात छोड दो। हम सीधे ग्रासमान की तरफ सडक बनाते हुए जा सकते है, पर उधर ऊपर माला परमात्मा रहता है। दो परमात्मा कैसे रह सकते है ? इसलिए हम ऊपर नहीं जाएगे । ऊपर वाला टगा रहे चाहे तो ऊपर ही । क्या करेगा? पानी बरसा देगा । धूप फेंक देगा। बिजली गिरा देगा! पर इसमे हमारा वह क्या कर सकता है ? देखो, हम हैं कि सामने जाए, चाहे दाए जाए, चाहे वाए जाए । वह तो वैठा है अघर मे जहा का तहा। हम हैं कि चल रहे है । मरजी है कि नहीं भी चलें । या चाहे इधर चलें, चाहे उधर चलें, चाहे किधर भी चलें।
पर नही, दायें नही, वायें | दायें तो दक्षिण होता है । दक्षिण में