SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीना-गरना १२३ विचार करता रह गया था। बाहर आधी फाग दूर सडी टेपत्ती के चलते हुए नीटर का टिक टिक उने सुनाई दे रहा था । माबिर माडे चार ले घटी पी सुई पार कर गई तो उसने बाहा, "जरा पूधिएगा, शायद है कि बापटर मेहरा मा ही गये हो।" "पी, यह तो कह दिया गया है कि पाते ही यहा सबर दें । फोन पा जायेगा, पाप फिकर नीजिये।" ____ महकार डिप्टी पागज परमुक गये । उसको नमझ मे न भाया कि फिर न की जाय तो संगेन की जाय ? श्रीमती जी को बहादुरी के साथ मह भाया कि अभी अस्पताल का इन्तजाम हुआ जा रहा है। यहां दिन इन रहा है। पाच बजे दपतर बन्द हो जाते है। फिर माज बत्न है, पौर रात को तारने या नसीव ही बन जाता है। मजबूरन उठार उसने पी० ए० गो पागादा किया कि यह जग फोन करके मालूम तो करे। मालूम किया गया कि पटर गहरा साप घण्टे के गमरे मे माये हिटी मारव में गयर पर डाटर मंहगरो पात की फि. भाप सोलापर जो सोमानते ही होंगे। पाताल में एक नगीन नेस वासिन लिया हो । सामी तरफ पा रहे हैं, जो मुमकिन हो पर सादर मेहगाए मादूम हुए। बट नपान में मिने और बाकि पतात जाम, या गगा पिदमत र साहै। बनाया गया।
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy