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जीना मरना
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पत्नी की सहेली दया का आग्रह हुआ कि नही, शरीर की विधि - वत् अन्त्येष्टि होनी चाहिए। सब झभट और खर्च दया भुगतने को तैयार हुई | तैयार हुई कि शरीर को अभी साथ ले चला जायगा । मालूम हुआ कि पत्नी भी इससे सहमत है और उद्यत साथ ले चलो र खर्च सब अपनी तरफ से होगा ।
है
कि शरीर को
लीलाधर ने कहा, "अडतालीस घटे लाश को सडाने से क्या फायदा ?"
डी० एस० एम० ने बताया कि एतिहात की जाती है लाश की । बर्फ वगैरह का पूरा इन्तजाम रहता है ।"
मानना होगा कि माकूल इन्तजाम है मुर्दों के लिए | जीनेवालो के लिये अगर नही है तो सिर्फ इसलिये कि जीते फिर वे श्राखिर किस - लिये हैं ? लीलाधर ने कहा, "अभी क्यो नही लाश को कालेजो के इस्तेमाल के लिए भेजा जा सकता है ?"
"आप लिखकर दें कि वारिस कोई नही है और हमको इजाजत दें तो फौरन इन्तजाम हो सकता है ।"
लीलाधर के मन मे वही पहली रात वाला गुस्सा उठ आया था । उनके मन मे हुआ कि जीतो की या मुर्दों की जिस कदर चीड़-फाड हो श्रीर उसमे से ज्ञान-विज्ञान की जितनी व्यर्थता को निकाला जाय, उतना अच्छा है । लीलाधर ने उसी वक्त कागज लेकर उस पर लिख दिया कि अस्पताल वाले लाश का मुनासिव इन्तजाम कर सकते है । उसे सभालने वाला कोई नही है ।
उसके बाद तीनो गुर्दाघर गये । श्रादमी ने ताला खोला और जिस कमरे मे दासिल हुए, वहा थैले मे बन्द दो लाशें तख्तो पर विछी थी । एक पर बर्फ की दो जगह आधी-आधी सिल्लिया रसी थी । वरावर मे गठरी सी थी जिसमे मालूम हुआ कि एक बच्चे को लाश है । तीसरी लाग सुखिया वाली थी । आदमी ने गाठ सोलकर कपडे से उसका चेहरा बाहर किया था । वह चेहरा राख सा सफेद और शान्त या ।