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विक्षेप
दिल्ली विश्वविद्यालय के नये कान्वोकेशन हाल मे जल्सा जारी था । एक व्यक्ति सीघा चलता हुआ पाया । देह पर सिर्फ कोपीन और हाथो मे कुछ अटर-सटर । मच थी तक पाकर वह आराम से बैठ गया
और हाथ की चीजो को एक पर एक चिनकर सामने अपने एक स्तूप का निर्माण कर लिया । सकेत हुआ कि उसे उठा दिया जाय । पर प्रगट हुआ कि चलती हुई सभा का ध्यान ऐसे और भी अधिक उसकी ओर
आकृष्ट होगा और उससे विघ्न अधिक ही वढेगा। किन्तु वक्ता बोलना समाप्त करके, से हटकर गये तो यह महाशय वढकर वहा अपना वक्तव्य देने या पहुचे । पहुचते थे कि इधर-उधर से दो-चार प्राध्यापक लपके और एक ने तो उन महाशय की गर्दन ही जा धरी । इस भाति हाल से उनको बाहर किया गया । सवने माना, वह विक्षिप्त थे । क्या कहानी के लिए भी यह मानना आवश्यक है ?
अहा-हा । क्या माया है | उस्ताद, मानता हू तुझे । हम परमात्मा है, लेकिन मान लिया कि तू भी है । क्या आसमान से पानी बरसता हैधार की धार, धार की धार । लेकिन तू समझता होगा कि सब किसी को भिगो देगा? पर हम भी हैं कि देख तो भिगो के ! ले साली, यही तो भीगेगी। और एक झपाटे मे उसने कोपीन खोलकर बरसते पानी मे मानमान में फहराई और फिर उसको मुट्ठी मे वाघ लिया।] अव वता, तू हमे कैसे भिगोयेगा? वह तो मुट्ठी मे है, जो भीग सक्ती थी! हम हैं तेरे सामने, कर ले जो तेरे बस मे हो । एक बूद पानी नहीं छू सकता। दरम ले जितना चाहे और वरसा ले तू जितना चाहे । हमारे बदन पर