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मुक्ति
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होना चाहिए, वियुक्त इस जगत से और सब हम-तुम से । नहीं तो पूछ देखिये अपने भाई माहब से।" __नारायण ने कहा-"सुना, भाई साहब ?" ___ भाई साहब ने सुना । मानो कही से टूटकर वह वर्तमान में उपस्थित हुए और बोले-"तुम्हारी भाभी जी को नारायण तुम पा नहीं सकोगे । बात तक में यह अगम हो जाती है।" ___ नारायण को कुछ अच्छा मालूम हुआ । जैसे बात मे अव स्पदन पड रहा हो । अब तक जैसे वह दूर और वायव्य थी। अब वह घनिष्ठ और वास्तव हो । उसमे जिये जाते हुए जीवन का सन्दर्भ हो और वस्तु-स्थिति से दूर कटी निरी सैद्धान्तिक ही न हो। वल्कि दर्द की तरह कसकती और रक्त की तरह धमनी मे धडकती भी हो ।
"मैं निगम " मनोरमा ने कहा, "अगम है तुम्हारा मोक्ष ! नहीं तो बतानो वह क्या है ? छूटना चाहते हो, तो किससे ? मुक्ति क्या
और कहा और क्यो ? तुम लोग जीवन भर ससार रचते हो । कमाने के लिए लडते हो, लड़ने के लिए कमाते हो-और कितावो में लिखते हो कि जीवन का आदर्श मुक्ति है। मतलब कि सृष्टि के सब पदार्थों से
और हम सब जीवो से खेल खाल कर गर जायो तो कहो यह सव माया है, सब प्रपत्र था, और असल मे जीवन की यात्रा सच मे जिस तीर्य के हेतु मे थी, वह तो मोक्ष है। राह के पडावो पर कुछ हम टिके रह भी गये तो यह तो विधाम था केवल अगली यात्रा के लिए सक्षम होने के अर्थ । नहीं तो मसार वाधा है और विघ्न है।" __ पाडिल्य ने सुनते सुनते भवो मे बल डाला और पूछा-"तुम क्या चाहती हो?"
मनोरमा सचेत हुई। बोली-"क्या मतलब ?" "मैंने तुम्हे पया कह नही दिया है कि तुम स्वतन्त्र हो !"
"कह दिया है, लेपिन रया में भी नहीं रह चुकी हू ? एक बार नहीं, दम दार कि मैं स्वतन्य हो नहीं सकती हू, गोच नहीं सकती हू । उस