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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः न्यायांनोनिधि-श्रीमद्-आत्मारामजी
आनंदविजयजी महाराज विरचितः। A (अनुष्टुप् उत्तम्) पक्षपातं परित्यज्य, तटस्थीनूय सत्वरंगबुदि। मनिर्विलोक्योयं, चतुर्थस्तुतिनिर्णयः॥१॥
यह ग्रंथ राधणपुरके संघतरफसे शेठ मोहन टोकरसीकी पहेडीवालेके आझासें
मंबई में
निर्णयसागर मुंद्रायत्रम शा० नीमसी माणेकने उपवाकर
प्रकाशित किया. सं. १९४४
इस्वी१८८८
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प्रस्तावना. विदित होके अनादि कालसें प्रचलित दुआ नया ऐसा परमपवित्र जो जैनमत है, परंतु इस ढुंमा अ वसर्पिणी कालमें नस्मग्रहादि अनिष्ट निमित्तोंके मिलनेसें अशुन मिथ्यात्व मोहादि निबिड कर्मों के नदयवाले बहोत जीव होते नये, वो बदुलकर्मी जीवोमेंसे कितनेकने तो अपने कुविकल्पकेही प्र जावसें, और कितनेक तो परनवका जय न रखनेसें मात्र अपने मुखसें जो कोइ वचन निकाला होवे तिसकों कोइ असत्य प्रपंचसेंनी सत्य करके लो कोंके हृदयमें स्थापन करना चाहीयें ऐसें हठ कदाग्रहसें, और कितनेकने तो कोई दूसरेसें U होनेसें उसको जुठा बना कर अपना नाम बडा करनेके लीये, और कितनेकने तो अपने अरु थ पने पदवालेके तरफ धर्म माननेवाले बहोत मनु ष्योंका समुदाय मिले तो पेट नराइ अब्बी तहेसें चले इसी वास्तें मतनेद करके कोइ नवीन पंथ प्रच लित करना ऐसी बुदिसें, इत्यादि औरजी विचित्र प्रकारके हेतुयोंसें यह शुभ आत्मधर्म प्रकाशक जैन
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(२) मतके नामसेंनी प्रस्तुत अनेक प्रकारके पुरुषोने अनेक तहेके मत उत्पन्न करेथे तिनमेंसें कितनेक तो नष्ट हो गये, अरु कितनेक वर्तमान कालमें विद्यमान है, इतनेपरजी संतोष न नयाके अबतो बस करे ? __ आगेही बहुत जनोने जैनमतके नामसें जैन मतकों चालनी समान निन्न निन्न मार्गका प्रचार कर ररका है. इतनाही बहोत हूया तो फेर अब हम काहेकों नवीन मत निकाले ? ऐसी बुद्धि जि नोमें नही है वे अबनी नवीन पंथ निकालनेंमें उ द्यम करते हैं. संप्रतिकालमें तपगबके यति रत्नवि जयजी अरु धन विजयजीने तीन थुश्का पंथ निकाल ररका है यह दोनो यतिने तीन थुई आदिक कितनीक वातों उत्सूत्र प्ररूपणा करके मालवे और जालोरके जिल्नमें कितनेक नोले श्रावकोंके मनमे स्वकपोलक विपतमतरूप नूतका प्रवेश कराय दीया है. ये यती संवत् १ ए४० की सालमें गुजरात देशका सहेर अ मदाबादमें चोमासा करणेकों आये,जब मुनि श्रीया त्मारामजीका चोमासाजी अहमदावादमें हुआथा.
तिस वखत रत्न विजयजीने एक पत्रमें कितनेक प्रश्न लिखके श्रीमन्नगरशेवजी प्रेमाला योग्य नेजे
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(३ ) वो पत्र नगर शेठजीने मुनि श्रीवात्मारामजीके पास नेजा उनोने बांचा परंतु वो पत्र अजीतरे शु६ लखा दूया नहीथा, इसवास्ते महाराजने पीबा शेठजीकों दे दीया और शेठजीकों कहाके आप रत्नविजय जीकों कहना के तीन थुक्के निर्णयवास्ते हमारे साथ सना करो.तब श्रीमन्नगरशेत प्रेमानाजीने रत्न विजयजीकों सना करनेके वास्ते कहला नेजा, जब रत्नविजय, धनविजयजी यह दोनो नगरशेतके वंमेमें याकर शेठजीकों कह गये के हम सना नही करेंगे.
कितनेक दिनो पीडे मेवाडदेशमें सादडी, राणक पुर और शिवगंजादि स्थानोसें पत्र आये तिसमें ऐसा लेख आया के अहमदाबादमें सना दुइ तिसमें रत्नविजयजी जीत्या और आत्मारामजी दास्या, ऐसी अफवा सुनके नगरशेठजीने सर्व संघ एकता करके ति नको सम्मतसें एक पत्र उपवाय कर बहोत गामो के श्रावकोंको नेज दीया तिसकी नकल यहां लिखते है. - "एतान् श्री अमदाबादथी ली० शेत प्रेमाना हेमाना तथा शेठ हतीसंघ केसरीसंघ तथा शेठ जय सिंघनाइ हतीसंघ तथा शेव करमचंद प्रेमचंद तथा शेठ नगुनाइ प्रेमचंद वगैरे संघसमस्तना प्रणाम वांचवा.
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(४) विशेष लखवा कारण ए जे जे अत्रे चोमासु मुनिश्री
आत्मारामजी महाराज रहेला ने तथा मुनि राजें इसरि पण रहेला डे, ते तमो वगैरे घणा देशावर वाला जाणो बो. मुनि आत्मारामजी महाराज चार थोयो प्रतिक्रमणामां कहे , ते कांश नवीन नथी परापूर्व चालती आवेली . हालमा मु राजेंसरि, प्रतिक्रमणमा त्रण थोयो कहेवार्नु परुप्युं बे; परंतु अहींयां अमदावादमा आठ दश हजार श्रावकनो संघ कहेवाय , तेमां कोयें त्रण थोयो प्रतिक्रम एमां कहेवी एम अंगीकार कयुं नथी, अने को त्रण थोयो कहेतुं पण नथी, आटली वात लखवानुं हेतु ए ले जे गाम सादरी तथा शीवगंज तथा रत लाम विगरे देशावरथी श्रावकोना तथा साधुना कागल आवे जे; तेमां एम लरव्यु जे जे अमदावाद शहेरमा घणा श्रावकोए तथा साधुजीयोए त्रण थो योनुं मत अंगीकार कह्यु ए विगेरे असंनवित जुग लखाण आव्या करे , ए बधुं खोटुं , तेथी त मोने आ शहेरना संघनी तरफथी साचे साचुं लख वामां आवे जे के, अहीयां त्रण थोयोनुं मत कोश्ये कबुल कयुं नथी वली मुनि राजेंसूरिने पुढतां तेमनुं
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(५) कहेवू एवं ने के,अमे कोइदेशावरे लख्यु नथी,तथा ल खाव्युं पण नथी, एरीतें तेमनुं कहेवू जे. बीजं सजा थश्ने तेमांमुनि श्री आत्मारामजी महाराज हास्या एवं देशावरथी लखाण अहिंयां आवे जे; पण ना
जी ए वात बधी खोटी ने, केमके ? अत्रे सना था नथी तो दारवा जीतवानी वात बिलकुल खोटी बे, ते जाणजो. संवत १ए४१ ना कार्तिक शुद ६ वार सनेठ तारिख २५ मी माहे अक्टोंबर सने १७४ ली प्रेमालाइ हेमानाश्ना प्रणाम वांचजो.
इत्यादि बडे बडे तेवीश चौवीश शेठोंकी सही स हित पत्र उपवाके नेजे, चोमासा वीतत दया पीले मुनि श्री आत्मारामजी श्री सिगिरिकी यात्रा क रके सूरत शहेरमें चतुर्मास रहे, तहांसें पीछे श्रीपा लीताणे चोमासा करा जब वहांसे विहार करके गाम श्रीमामलमें फाल्गुन चतुर्मास करा, तहां मुनि आत्मारामजी महाराजके पास राधनपुरनगरका मुख्य जानकार श्रावक गोडीदास मोतीचंदजी आयके क हेने लगा के राधणपुर नगरमें रत्नविजयजी आये है, वो ऐसी प्ररूपणा करते है के प्रतिक्रमणके आ दिमें तीन थुइ कहनी परंतु चोथी शुश नही कहनी.
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(६) इसी वास्ते में आपके पास विनंति करनेके वास्ते यहां आयाहूं के आप राजधनपुर नगरमें पधारो, क्योंके ? रत्न विजयजी आपसें तीन थुइबाबत चरचा करणेकों कहते है, यह बात सुनकर मुनि श्री या त्मारामजी महाराजनें मांमल गामसें राधनपुर नग रकों विहार करा सो जब श्रीसंखेश्वर पार्श्वनाथजीके तीर्थमें आये, तहां राधनपुर नगरसें बहुत श्रावक जन आकर महाराज साहेबकों कहने लगे के रत्न विजयजी तो राधनपुर नगरसें थराद गामकी तरफ विहार कर गए हैं. यह बात सुनके श्रावक गोडीदास जीने राधनपुरके नगरशेत सिरचंदजीके योग्य पत्र लिखके नेजा के तुमने रतनविजयजीकों मुनि आ त्मारामजी महाराजके बावणे तक राखणा,क्योंके ? रत्नविजयजीके मास कल्पसें उपरांत रहनेका नि यम नही है कितनेक गामोमें रत्नविजयजी मास कल्पसें अधिकनी रहे हैं यह बात प्रसिद्ध है ऐसा पत्र वांचके शेठ सिरचंदजीने राजधनपुर नगरसें दश कोश दूर तेरवाडा गाममें जहां रत्नविजयजी विहार करके रहेथें, वहां कासीदके मारफत एक पत्र लिखके नेजा; तहांसे रत्नविजयजीने उसपत्रका
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उत्तर प्रत्युत्तर असमंजस रीतीसें राधनपुरनगरमें नही आवनेकी सूचना करनेवाला लिखके नेज दीया.
इस लिखनेका प्रयोजन यह है के जब रत्नविज यजीने श्रीअहमदाबाद में सजा नही करी तब विद्या शालाके बैठने वाले मगनलालजी तथा बोटालालजी आदिक अन्यनी कितनेक श्रावकोने प्रार्थना करीथी अरु अब श्रीराधनपुर नगरके शेठ शिरचंदजी अरु गोडीदासादि सर्व संघ मिलके मुनि श्री आत्मारा मजी महाराजकों प्रार्थना करी के, रत्न विजयजी तीन थुइ प्ररूपते हैं, अरु प्रतिक्रमणकी आदिकी चैत्यवंदनमें चार शुइ कहनेकी रीत प्राचीन कालसें सर्व श्रीसंघमें चली आती है. तो आप सर्व देशोंके चतुर्विध श्रीसंघके पर कृपा करके पडिक्कमणेकी आ दिमें चार शुश्यों चैत्यबंदनमें जो कहते हैं सो पूर्वा चार्योंके बनाये ढूए कौन कौनसे शास्त्रके अनुसारकहते हैं, ऐसे बहोत शास्त्रोंकी सादि पूर्वक चार थुश योंका निर्णय करने वाला एक ग्रंथ बनवायदो, जि सके वाचने पढनसे सङनोके अंतःकरणमें अर्दच न बापन करणे वालेने चम माल दीया है सो मिट . जावेगा. इत्यादि बहोत नपकार होवेगा ऐसी श्रीसं
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घकी आग्रह पूर्वक विनंति सुनकर और लानका कारण जानकर महाराज श्रीवात्मारामजीने यह विषयपर ग्रंथ बनानेकी मंजुरीयात दीनी. फेर महा राज साहेब यह रत्न विजयजीको प्रथमकी मंत्रसाध नेकी हकीकतसें तथा पीसें श्रीविजयधरणींइसरिसें खटपट चली इत्यादि,औरजी तिसके पीछे स्वयमेव श्री पूज बन बैठे, तथा उदेपुरके राणेकी फरमाससें पा लखी चमरादि बीन लीनी,तदपीने स्वयमेव साधुजी बन बैठे इत्यादि कितनीक हकीकत प्रथमसे सुनीथी
और कितनीक अबनी श्रावकोंके मुख- सुनके करु णाके समुश्, परोपकार बुद्धिकेही परमाणुसें जिनोके शरीरकी रचना दूर है ऐसे महाराज साहेबने प्रथ मतो रत्नविजययजी बहुल संसारी न हो जावे इसी वास्ते इनोका नधार करना चाहीयें. ऐसा उपकार बुझिसे हम सब श्रावकोंकों कहने लगे के प्रथमतो यह रत्नविजयजीकों जैनमतके शास्त्रानुसार साधु मानना यह बात सि नही होती है. क्योंके ? रतन विजयजी प्रथम परिग्रहधारी महाव्रतरहित यति थे, यह कथा तो सर्व संघमे प्रसिद है, अरु पीले नि ग्रंथ पणा अंगीकार करके पंचमहाव्रत रूप संयम
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ग्रहण करा; परंतु किसी संयमी गुरुके पास चारित्रो पसंपत् यर्थात् फेरके दीक्षा लीनी नहीं, यरु पहेले तो इनका गुरु प्रमोदविजयजी यती थे, सोतो कुछ संयमी नहीं थे यह बात मारवाडके बहोत श्रावक श्री तरेसें जानते है. तो फेर असंयती के पास दीक्षा लेके क्रिया उधार करणा यह जैनमतके शास्त्रोंसें विरुद्ध है.
इसी वास्ते तो श्रीवत्रस्वामी शाखायां चांड्कुले कौटिक बृहद् तपगवालंकार नहारक श्रीजग सूरिजी महाराजे अपकों शिथिलाचारी जानके चैत्रवाल गीय श्री देवनड्गणि संयमी के समीप चा रित्रोपसंपद् अर्थात् फेरके दीक्षा लीनी. इस हेतुसेंतो श्री जगच्चं सूरिजी महाराजके परम संवेगी श्रीदेवेंइस् रिजी शिष्यें श्रीधर्मरत्नग्रंथकी टीकाकी प्रशस्तिमें य पने बृहद् का नाम बोडके अपने गुरु श्रीजगन्चं सूरिजी कों चैत्रवाल गछीय लिखा. सो यह पाठ है. क्रमशचैत्रा वालक, गछे कविराजराजिननसीव ॥ श्री भुवन चंड्सूरिगुरुरुदियाय प्रवरतेजाः ॥ ४ ॥ तस्य विनेयः प्रशमै, कमंदिरं देवनगलिपूज्यः ॥ शुचिस मयकनक निकषो, बनूव नूविदितभूरिगुणः ॥ ५ ॥
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( १० ) तत्पादपद्मनुंगा, निस्संगाचंगतुंगसंवेगाः ॥ संजनित शुद्धबोधाः, जगति जगचं सूरिवराः ॥ ६ ॥ तेषा मुनौ विनेयो, श्रीमान् देवेंड्स रिरित्याद्यः ॥ श्रीविज यचंसू रिर्द्वितीयकोऽद्वैतकीर्त्तिनरः ॥ ७ ॥ स्वान्ययो रुपकाराय, श्रीमद्देवेंड्सूरिणा ॥ धर्मरत्नस्य टीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे ॥ ८ ॥ इत्यादि. इस वास्ते जव नीरु पुरुषांकों अभिमान नहीं होता है, तिनकूं तो श्रीवीतरागकी प्रज्ञा याराधनेकी अभिलाषा होती है, तब रत्नविजयजी अरु धनविजयजी यह दोनुं जेकर जवजीरु है, तो इनकोंजी किसी संयमी मुनिके पास फेरके चारित्रोपसंपत् अर्थात् दोहा लेनी चाहि यें, क्योंके फेरके दीक्षा लेनेसें एकतो अभिमान दूर होजावेगा, और दूसरा याप साधु नहीं है तोनी लो
हम साधु है ऐसा केहना पडता है यह मिथ्या जाषण रूप दूषणसेंजी बच जायगे, अरु तीसरा जो कोइ नोर्जे श्रावक इनकों साधु करके मानता है, उन श्रावकों के मिथ्यात्वनी दूर हो जावेगा . इत्यादि बहुत गुण उत्पन्न होवेंगे जेकर रत्नविजयजी धनवि जयजी यात्मार्थी है तो यह हमारा कहना परमो पकाररूप जानके अवश्यही स्वीकार करेंगें.
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( ११ )
यह फेरके दीक्षा उपसंपत् करनेका जिस माफ क जैनशास्त्र में जगे जगे लिखे है, तिसि माफक हम इनोके हितके वास्ते कुछ प्राप श्रावकोंकों कहते है. तथाच जीवानुशासनवृत्तौ श्रीदेवसूरिभिः प्रोक्तं ॥ यदि पुनर्गगुरु सर्वथा निजगुणविकलो नवति तत आगमोक्तविधिना त्यजनीयः परं कालापेढया योऽन्यो विशिष्टतरस्तस्योपसंपाह्या न पुनः स्वतंत्रैः स्थातव्यमिति हृदयं । इति जीवानुशासनवृत्तौ । इसकी षा लिखते हैं जेकर गन और गुरु यह दोनो स र्वथा निजगुण करके विकल होवे तो, यागमोक्त विधि करके त्यागने योग्य है, परं कालकी अपेक्षायें अन्य कोइ विशिष्टतर गुणवान संयमी होवे, तिस समीपें चा रित्र उपसंपत् यथात् पुनर्दीक्षा ग्रहण करनी परंतु उपसंपदा के लीया विना स्वतंत्र अर्थात् गुरुके विना रहणा नही इस कहनेका तात्पर्यार्थ यह है के जो कोइ शिथिलाचारी संयमी क्रिया उधार करे सो अवश्यमेव संयमी गुरुके पास फेरके दीक्षा लेवें. इस हेतुसें रत्नविजयजी अरु धनविजयजीकों उचित है के प्रथम किसी संयमी गुरुके पास दीक्षा लेकर पीछे क्रिया उधार करें तो यागमकी याज्ञानंग रूप
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(१५) दूषणसे बच जावे और इनकों साधु माननेवाले श्रावकोंका मिथ्यात्वनी दूर हो जावे, क्योंके असा धुकों साधु मानना यह मिथ्यात्व है और विना चा रित्र उपसंपदा अर्थात् दीदाके लीये कदापि जैनम तके शास्त्रमें साधुपणा नही माना है.
तथा महानिशीथके तीसरे अध्ययनमें ऐसा पाठ है॥ सत्त गुरुपरंपरा कुसीले, एग 5 ति परंपरा कु सीले ॥ इस पाठका हमारे पूर्वाचार्योने ऐसा अर्थ करा है,वहां दो विकल्प कथन करनेसें ऐसा मालुम होता है के एक दो तीन गुरु परंपरा तक कुशील शिथिलाचारीके हूएनी साधु समाचारी सर्वथा उनि न नही होती है,तिस वास्ते जेकर को किया नकार करे तदा अन्य संजोगी साधुके पाससें चारित्र उपसं पदा विना दीदाके लीयांनी क्रिया नधार हो शक्ता है, और चोथी पेढीसें लेकर उपरांत जो शिथिलाचा री क्रिया नदार करे तो अवश्यमेव चारित्र उपसंपदा अर्थात् दीदा लेकेही क्रिया नधार करे अन्यथा नही. ___ अथ जेकर प्रमोद विजयजीके गुरुनी संयमी होते तब तो रत्नविजयजी विना दीदाके लीयांनी क्रिया नझार करते तोनी यथार्थ होता, परंतु रत्न
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( १३ )
विजयजी की गुरुपरंपरा तो बहु पेढीयोंसें संयम र हित थी इस वास्ते जेकर रत्नविजयजी यात्महितार्थी होवे तो, इनकों पक्षपात बोडके अवश्यमेव किसी संयमी गुरु समीपे दीक्षा लेके क्रिया उद्धार करणा चाहिये, क्योंके धनविजयजीनें अपनी बनाइ पूजा में जो गुर्वावली लिखी है सो ऐसी है १ देवसूरि, प्रसूरि, ३ रत्नसूर, ४ मासूरि, ५ देवेंइरि, ६ कल्याणसूरि, ७ प्रमोद, अरु विजयराजेंइसूरि इनकी तीसरी चौथी पेढीवाले तो संयमी नहीं थे इस वास्ते रत्नविजयजी कों नवीन गुरुके पाससे सं यम लेके क्रिया उधार करना चाहियें जेकर पूर्वोक्त रीतीसें क्रिया उधार न करेगें तो जैनमतके शास्त्रोंकी श्रावाले इनकों जैनमतके साधु क्योंकर मानेगे ?
इत्यादि रत्नविजयजी रु धनविजयजीकों मिथ्या वरूप area सें निकालके सम्यक्त्वरूप शुद्ध मार्ग पर चढाने में हितकारक, ऐसा करुणाजनक उपदेश श्रीमन्महाराज श्रीयात्मारामजी के मुखसें सुनके हम सब श्रावकमंगल बहोत यानंदित नये, उसी बख त हम निश्चय कर ररका के जब महाराज साहेब चार स्तुतिके निर्णयका ग्रंथ बनाकर हमकों देवेगें,
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तब हम सब देखोंके श्रावकोंकों अरु विहार करणे वाजें साधुयोंकों जानने वास्ते ये ग्रंथकों बपवाय कर प्रसिद्ध करेगें तब पूर्वोक्त रत्नविजयजी के हिता र्थक सूचनानी येही ग्रंथके प्रस्तावनामें लिख दे वेंगें, जिस्सें रत्नविजयजीनी यह बातकूं जानकर अपक्षपाति होके यापही अपनी मूलका पश्चात्ताप करके शुद्ध गुरुके पास चारित्र उपसंपत् जेके अपना जो अवश्यकार्य करनेका है. सो कर लेवेंगे, तिस्सें इनके पर महाराज साहेबकाजी बडा उपकार होवेगा, क्योंके पूर्वाचार्योंकी चली हूइ समाचारीका निषेध क रके नवीन पंथ निकालनेंसें कितनेक अल्प समज वाले जीवोंका चित्त व्युदग्राहित हो जोता है यरु नवीन नवीन प्रवर्त्ति देखनेसें कितनेक जीवोंकी श्र शनी नष्ट हो जाती है तिस्सें वो जीव धर्मकरणी कर एका उद्यमही बोड देता है, इसीतरें श्री वीतरागके मार्ग में बडा उपव करनेका उद्यम बोड देवेगें जिस्सें इनोकों बहोत लान होवेगा. यरु जैनमार्गका शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति चलनेसें शासनकानी वा प्रजाव दिखेंगा, ऐसा हमारा अभिप्राय था सो प्रस्ताव नामें लिखके पूरण करा.
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(१५) अब सकल देश निवासी श्रावकादि चतुर्विध श्रीसंघकों हमारी यह प्रार्थना है के पडिक्कमणेमें चार थोयों कहेनेकी रूढी यद्यपि परंपरासें चली बाती है, सो कोई मतलबी पुरुष अपना किसी प्रकारका मतलब साधनेके लीये चार थोयोंके बदले में तीन अ थवा दो किंवा एकज थोय कहेनेकी प्ररूपणा जो करते है उनका कहेना जो विवेकी जाणकार पुरुष है उनके हृदय में तो प्रवेश नही कर शक्ता, परंतु कितनेक अझ अरु अल्पसमजवाले नोले लोक है न नके हृदयमें कदापि प्रवेशनी कर शक्ता है, तो नन नोले लोकोंकों ये ग्रंथका नपदेश हो जावेगा. जिस्से उनको पूर्वोक्त मतवादीयोंका उपदेश परानव न कर शकेगा. ऐसा उपकार बुझिसे यह महाराज श्रीमद् यात्मारामजी आनंदविजयजीने जो इस विषय पर ग्रंथ बनाया, सो हम उपवाय कर प्रसिह कीया है. इस्सें श्रीजिनशासनकी यथार्थ प्रवृत्ति जो परंपरासें च लीआती है सो अंखमित रहो अरु बदुल संसारी हो नेकीबीक न रखने वाले मतिनेदक जनोकी जो जैन मतसें विपरीत प्रवृत्ति है सो खंमित हो जा. यह ह मारा आशीर्वाद है. किंबहुना.
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इस ग्रंथ में जे जे शास्त्रोंकी साख दिनी है तिसका नाम.
यहां कहीं कहीं एक ग्रंथका जो दोवार तीन वार नाम लिखा है, सो न्यारे न्यारे प्रयोजन वास्ते है. कहीं चौथी थुइ वास्तें, कहीं श्रुतदेवता देवदेवता वा स्ते, कहीं सप्तवार चैत्यवंदनाकी गिनती वास्ते, इत्यादि अन्य अन्य प्रयोजनके वास्ते कहीं कहीं किसी किसी ग्रंथके दो तीन वार नाम लिखे है. इस वास्ते पुनरुक्त है ऐसा समजना नही ॥ १ धर्मरत्न देवेंइरिकत. २ जीवानुशासन श्रीदेवसूरिकृत. ३ श्रीमहानिशीथ गणधरकृत. ४ पंचाशक हरिजसूरिकृत.
५ महानाष्य शांत्याचार्यकृत.
६ विचारामृत संग्रह श्री कुलमंमनसूरिकृत. ७ प्रवचनसारोशरसूत्रवृत्ति श्रीनेमिचं रिकृत मू ल और श्री सि-६ सेनसूरिकृतवृत्ति.
८ पुनः पंचाशकवृत्ति श्री अजयदेवसूरिकृत.
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(१७) ए उपदेशपदवृत्ति श्रीमुनिचंइसरिकत. १० ललितविस्तरापंजिका श्रीमुनि ११ पुनः महानाष्य शांत्याचार्यकत. १२ कल्पनाष्य संघदासगणिकत. १३ पुनः महानाष्य शांतिसूरिकत. १४ पुनः महानाष्य शांतिसूरिकत. १५ व्यवहारजाष्य संघदासगणिकत. १६ संघाचारनाष्यवृत्ति धर्मघोषसरिकत. १७ कल्पसामान्यचूर्मि पूर्वधरकत. १७ कल्पविशेषचूमि पूर्वधराचार्यकृत. १ए कल्पवृहनाष्य पूर्वधराचार्यकृत. २० आवश्यकत्ति हरिजश्व रिकत. २१ वंदनकपश्ना
प्रवचनसारोबारसूत्रवृत्ति ५३ यतिदिनचर्या श्रीदेवसूरिकत. २४ ललितविस्तरा श्रीहरिजश्सरिकत. २५ पुनः प्रवचनसारोबारसूत्रम्. २६ पुनः प्रवचनसारोबारवृत्ति २७ पुनर्महानाष्यं शांतिसूरिकृत. २७ पुनः यतिदिनचर्या श्रीदेवसूरिकत.
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(१७) २ए पुनः यतिदिनचर्या ३० पुनः यतिदिनचर्या ३१ समाचारी प्राचीनाचार्यकृत. ३५ यतिदिनचर्या नावदेवसूरिकत. ३३ पुनः यतिदिनचर्या नावदेवसूरिकत. ३४ पुनः यतिदिनचर्या जावदेवसूरिकत. ३५ पंचवस्तु श्रीहरिजइसरिकत. ३६ खंदारुवृत्तिः ३७ योग्यशास्त्र हेमचंसूरिकत. ३७ श्राइविधि रत्नशेखरसरिकत. ३ए प्रतिक्रमणगर्नहेतुश्रीजयचंसूरि विरचित. ४० संघाचारवृत्ति धर्मघोषसूरिकत. ४१ पादिकसूत्रगणधरादिरचित. ४३ पाक्षिकसूत्रचूर्तीि पूर्वधरकत. ४३ वसुदेव हिंमि पूर्वधरकृत. ४४ आवश्यकार्थदीपिका श्रीरत्नशेखरसूरिकत. १५ अावश्यकचर्पि प्रर्वधरकत. ४६ आवश्यककायोत्सर्गनियुक्ति श्रीनबादु ४७ बृहनाष्य शांतिसूरिकत.
विधिप्रपा जिनप्रनसरिकत.
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(१७) ४ए धर्मसंग्रह मानविजयजी उपाध्यायकत. . ५७ लघुनाष्य श्रीदेवेंश्वरिकत. ५१ वंदनकचूर्णि पूर्वधरकत. ५५ धर्मसंग्रहेके अंतरगत गाथा पूर्वार्चार्यकृत ५३ बृहत्वरतरमाचारी जिनपत्यादिसूरिकत. ५० प्रतिक्रमणसूत्रकी लघुवृत्ति तिलकाचार्यकत. ५५ समाचारी अनयदेवसू रिकत. ५६ सोमसुंदरसूरि कृत समाचारी. ५७ समाचारी देवसुंदरसूरिकत. ५७ समाचारी नरेश्वरसूरिकत. पए तिलकाचार्यक्रत विधिप्रपा. ६० समाचारी तिलकाचार्यकता. ६१ प्रतिक्रमणहेतुगर्नितस्वाध्याय श्रीमउपाध्याय य ___ शोविजयगणिकत. ६५ षडावश्यकविधि पूर्वाचार्यकृत. ६३ पंचाशकसूत्र श्रीहरिनइसरिकत मूलसूत्र, अरु
वृत्ति श्रीअनयदेवसरिकत. ६४ जीवानुशासनवृत्ति श्रीदेवसूरिकत. ६५ आवश्यकनियुक्ति श्रीनवादस्वामि चौदहपूर्व
धरकत.
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(२०) ६६ आवश्यकसूत्र सुधर्मस्वामिकत. ६७ आवश्यकत्ति श्रीहरिनश्सरिकत. ६७ स्थनांगसूत्र श्रीसुधर्मस्वामिकत. ६ए स्थानांगवृत्ति श्रीअनयदेवसूरिकत. ७० आवश्यकचूर्णि पूर्वधराचार्यकृत. ७१ आवश्यकसूत्र गणधरकत. ७२ आवश्यकचूर्णि विजयसिंहकृत. ७३ पादिकसूत्र गणधरकत. ७४ पादिकसूत्रावचूरि. ७५ आराधनापताका. ७६ उत्तराध्ययनवृत्ति शांतिसूरिकत. ७७ अनुयोगदारवृत्ति हेमचंइस रिकत. ७. निशीथनाष्य संघदासगणिकृत.
ए निशीथचूर्सि जिनदासगणिकत. G० बनवे शुश् बप्पनहसू रिकत. ७१ बांनवे शु शोजनमुनिकत. ७२ श्रुतदेवताकी थुइ श्रीहरिजश्व रिविरचित.
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॥ श्रीजैनधर्मो जयतितराम् ॥
अथ
न्यायांनो निधि-मुनिश्रीमद् " श्रात्मारामजी श्रानंद विजयजी " विरचित
चतुर्थ स्तुति निर्णयाख्य ग्रंथ प्रारंभः ॥
तत्रादौ मंगलप्रक्रमः । (अनुष्टुप्वृत्तम् )
नमः श्रीज्ञातपुत्राय, महावीराय श्रेयसे ॥ रत्नत्रय निधानाय, जिनेंशय जगद्दिदे ॥ १ ॥
( इंश्वज्जावृत्तम् ) प्रन्यानपि स्तौमि जिनेऽचंशन, ध्यायामि साहाहुतदेवतां च ॥ रत्नत्रय श्री समलंकृतांगान्, प्रार ब्धसियै सुगुरून् श्रयामि ॥ २ ॥ शिष्टाः खलु कचिदजीष्टवस्तुनि प्रवर्तमाना इष्टदेव मनमस्कारपूर्वकमेव प्रायः प्रवर्तते । इष्टदेवतानम
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
स्कारपूर्वकं प्रवर्तमानानां च देवताविषयशुननावस मूह विघ्नव्यपोहत्वेन प्रारब्धशास्त्रे प्रवृत्तिरपि प्रतिह तप्रसरा स्यात् । यतः प्रथमं मंगलोपन्यासः ।
अनिधेयं चात्र मुख्यवृत्त्या चतुर्थस्तुति निर्ण य एव, निरनिधेये ( मंमूकजटाकेशगणनसं ख्यायामिव ) न प्रेावतां प्रवृत्तिः । संबंधश्वा त्र वाच्यवाचकजावो नाम व्यक्त एव, प्र योजनं तु चतुर्थस्तुतिसंशयगत पतितानां जनानामुद्धरणम् - इति ।
॥ यह वर्त्तमान कालमें रत्नविजयजी थरु धनवि जयजीने प्रतिक्रमणेकी व्यादिकी चैत्यवंदनमें तीन थुइ कनेका पंथ चलाया है, सो जैनमतके शास्त्रा नुसार नही है, तिसका निर्णय लिखते हैं.
प्रथम जो रत्न विजयजी तीन थुकी थापना क रते हैं सो हमने श्रावकोंके मुखसे इसी माफक सु नो हैं. एक बृहत्कल्पकी गाथा, दूसरी व्यवहार सू त्रकी गाथा, तीसरी यावश्यक सूत्रका पारिठावणि या समितिका पाठ, चोथी पंचाशकवृत्ति यह चार ग्रंथोंके पाठानुसार करते हैं. तिनमेंजी पंचाशकट त्तिका पाठ अपनी श्रद्धाकों बहुत पुष्टिकारक मानते
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ३ हैं, इसवास्ते हमनी इहां प्रथम पंचाशकवृत्तिकाही पाठ लिखके चार थुश्का निर्णय करते है ॥ . सो पाठ इस प्रमाणे है । उक्तंच पंचाशकेः-गव कारेण जहन्ना, दंमग थुइ जुअल मधिमा ऐया ॥ संपुसमा उक्कोसा, विहिणा खल्लु वंदणा तिविदा ॥१॥ व्याख्या ॥ नमस्कारेण 'सिह मरुय मणिंदिय, मक्कि य मणवध मच्चुयं वीरं ॥ पणमामि सयलतिदु यण,मजयचूडामणिं सिरसा'इत्यादिपाठपूर्वकनमस्कि यालदणेन करणनूतेन क्रियमाणा जघन्या स्वल्पा पातक्रिययोरल्पत्वाइंदना नवतीति गम्यं । नत्कष्टादि त्रिनेदमित्युक्त्वापि जघन्यायाः प्रथममनिधानं तदा दिशब्दस्य प्रकारार्थत्वान्न उष्टं, तथा दमकश्चारिहंतचे श्याणमित्यादिस्तुतिश्च प्रतीता तयोर्युगलं युग्ममेते एव वा युगलं दमकस्तुतियुगल मिह च प्राकतत्वेन प्रथमैकवचनस्य तृतीयैकवचनस्य वा लोपो इष्टव्यः, मध्यमाजघन्योत्कृष्टा पातक्रिययोस्तथाविधत्वादेतच्च व्याख्यानमिमां कल्पनाष्यगाथामुपजीव्य कुर्वति । तद्यथा ॥ निस्सकडमनिस्सकडे, वावि चे ए सबहिं थुइ तिमि ॥ वेलं व चेश्याणि, विणा एक्ककिया वा वि ॥ यतो दमकावसाने एका स्तुतिभ्यत इति दम
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
कस्तुतिरूपं युगलं जवति । अन्येत्वाहुः, दंमकैः शक्र स्तवादिनिः स्तुतियुगलेन च समयभाषया स्तुतिचतु ष्टयेन च रूढेन मध्यमा ज्ञेया बोदव्या, तथा संपूर्ण परिपूम सा च प्रसिधदंमकैः पंचनिः स्तुतित्रये प्रणिधानपातेन च जवति चतुर्थस्तुतिः किलार्वाची नेति किमित्याह उत्कृष्यत इत्युत्कर्षायुत्कृष्टा इदं च व्याख्यानमेके 'तिमि वा कट्टई जाव, छुइन तिसिलो गि या ॥ तावत मायं, कारणेण परेण वी' त्येतां कल्पनाष्यगाथां ' पणिहाणं मुत्तसुत्तीए ' इति वच नमाश्रित्य कुर्वेति अपरेत्वादुः पंचशक्रस्तवपाठोपेता संपूर्णेति विधिना पंचविधा निगमप्रददिणात्रयपूजा दिलकोन विधानेन ॥ खलुर्वाक्यालंकारे अवधारणे वा तत्प्रयोगं च दर्शयिष्यामः वंदना चैत्यवंदना त्रि विधा त्रिनिः प्रकारैः त्रिप्रकारैरेव जवतीति ॥
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यस्य जाषा | नमस्कार करके " सिद्ध मरुय मणिदिय, मक्किय मणवऊमच्चयं वीरं ॥ पणमामि स यल तिहुयण, मय चूडामणिं सिरसे" त्यादि पाठ पू र्वक नमस्कार लक्षण करणनूत करके क्रियमाण न मस्कार जघन्य वंदना होती है. पाठ क्रियाके अल्प होनेसें उत्कृष्टादि तीन भेद ऐसें कहकरकेनी प्रथम
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। जघन्यका कथन करा तिस आदि शब्दकों प्रकारार्थ होनेसें उष्ट नहीं है. यह जघन्य चैत्यवंदना ॥१॥
तथा दंझक अरिहंतचेश्याणं इत्यादि. स्तुति जो है सो प्रसिह है तिन दोनोका युगल जोडा अथवा दमकस्तुतिही युगल दमकस्तुतियुगल इहां प्राकृत नाषा होने करके प्रथम विनक्तिका एक वचन वा तृतीय विनक्तिके एक वचनका लोप जानना. यह मध्यमपातक्रियाके होनेसें मध्यमा चैत्यवंदना. _ यह व्याख्यान इस कल्पनाष्यकी गाथाकों लेके क रते हैं. तद्यथा निस्सकडमनिस्सकडे,वाविचेएसबहिं घुई तिमि ॥ वेलंव चेश्याणि, विणा एक क्विया वा वि ॥ १ ॥ जिस हेतुसे दमकके अवसानमें एक स्तुति देते हैं, ऐसे दमक स्तुतिरूप युगल होता है, अन्य ऐसें कहते है शकस्तवादि पांच दंझक करके, और स्तु ति युगल करके, सिद्धांत जाषा करके, स्तुति चार रू ढ करके, अर्थात् दंमक पांच और स्तुति चार करके जो चैत्यवंदना करे सो मध्यम चैत्यवंदना जाननी ॥२॥
तथा संपूर्ण परिपूर्णा सो प्रसिह दंझक पांच क रके,और स्तुति तीन करके,और प्रणिधान पाठ कर के, होती है चोथी थू अर्वाचीन है,इसी वास्ते य
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। हण करी नही तब क्या हुआ, यह उत्कृष्टी चैत्यवं दना दुश्॥३॥ __ यह व्याख्यान कोइएक तो 'तिमिवा कट्टई जाव, थुश्व तिसिलोगिया ॥ ताव तब अणुस्मायं, कारण परेणवि ॥ १ ॥ इस कल्पनाष्य गाथाकों “ पणिहाणं मुत्त सुत्तिए” इस वचनकों आश्रित्य होकर करते है।
अन्य ऐसे कहते हैं के पंचशक्रस्तवपातसहित सं पूर्ण चैत्यवंदना होती है. विधि करके पंचविध अ निगम, तीन प्रदक्षिणा, पूजादि लक्षण विधान कर के, खलु शब्द वाक्यालंकारमें है, वा अवधारणमें है, तिसका प्रयोग आगे दिखलाउंगा जैसें चैत्यवं दना तीन प्रकारें है. ___ उपर लिखेका सारार्थ यह हैके कल्पनाष्य गाथाके अनुसारसे कोई एक तो मध्यम चैत्यवंदनाका स्वरूप पंचदंमक और चार थुईके पढनेसें मानता है ॥१॥
और कोश्क तो पंच दंमक अरु तीन थुई अरु प्रणि धान पाठ सहित पढेसें नत्कृष्ट चैत्यवंदन मानता है, और चोथी थुईकों अर्वाचीन मानके तिसका ग्रहण नही करता है ॥ २॥ और कोश्क तो पांच शकस्त व, बाग्थुईकी चैत्यवदंना अरु पंच अनिगम, तीन
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । प्रदक्षिणा, पूजादि संयुक्त इसकों उत्कृष्ट चैत्यवंदना मानता है ॥ ३ ॥
यह तीन मत अजयदेव सूरिजीने दिखलाए प रंतु इन तीनो मतो सें अनयदेवसूरिजीने सम्मत वा असम्मत कोश्नी मतकों नही कहा. तो फेर रत्न विजयजी अरु धनविजयजीकों कहेते₹के अनयदेव सूरिजीने पंचाशकमें चोथी थुई अर्वाचीन कही है. जला, कदापि ऐसा कहना सादर सुबोध पुरुषोंका हो शक्ता है. क्योंके अनयदेव सूरिजीने तो किसीके मतकी अपेक्षासें चोथी थुई अर्वाचीन कही है, परंतु स्वमतसम्मत न कही है.
अब बुद्धिमानोकों बिचारना चाहियेंके कल्पनाष्य गाथाके अनुसारे मध्यम चैत्यवंदनामें चारथुई कही, अने पंचशकस्तव रूप उत्कृष्ट चैत्यवंदनामें आठ थुई कहनी कही. इन दोनों पंचाशकके लेखोंकों बोडके एक मध्यके तीसरे पदकोंही मानना यह क्या स म्यग् दृष्टियोंका लक्षण है? ___ कदापि रत्नविजयजी अरु धनविजयजी असें मा न लेवेके शास्त्रमें तीन थुनी किसीके मतसें कही है. और चार थुनी कही है ये दोनो मत कहे है; श्न
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। मेंसें हम एककानी निषेध नही करते है, परंतु हमारे तपगबके पूर्वाचार्य तथा अन्य गबोके आचार्य सब चार थुई मानते आएहै इस वास्ते हमनी चार थुइ मानते है तो इनकी क्या हानी है ? - हमारा अनुनव मुजब अन्य तो कोश्नी हानी दिखने में नही आती है; परंतु जिन श्रावकोंके आगे प्रथम अपने मुरवसें तीन थुश्की श्रक्षा प्ररूप चूके है फेर तिनके आगें चार शुश्की प्ररूपणा करनेसें लज्जा आती है. उनकुं हम कहते है के हे नव्य लज्जा रखनेसे उत्सूत्र प्ररूपणा करनी पड़ती है. इस्से संसारका तरणा कदापि नही होवेगा, परंतु पंचाशककी कथन करी जो चार वा आठ थुइ तिन का निषेध करनेसें उलटी संसारकी वृद्धि होनेका संजव होता है, तो इस्स हमारे लेखकों बांचकर जो जव्यजीव मतपदपातसे रहित होवेगा सो कदा पिचार शुश्का निषेध अरु तीन शुश्के माननेका आग्रह न करेगा ॥ इति पंचाशक पातनिर्णय ॥ १ ॥
प्रश्नः-पंचाशकजीमें चोथी थुकू किसीके मत प्रमाणसें श्रीअनयदेव सूरिजीयें अर्वाचीन कही है ? अरु वो अर्वाचीन पदका क्या अर्थ है ?
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ... उत्तरः-हे नव्य जो वस्तु आचरणासें करी जावे तिसकों अर्वाचीन कहते हैं.
प्रश्नः-आचरणा किसकू कहते हैं ? ___ उत्तरः-नत्तराध्ययनकी बृहवृत्तिका करणहार महाप्रनाविक स्थिरापायगबकममन आचाय श्री वादिवेताल शांतिसरिजीने संघाचार नामक चैत्यवं दन महानाष्य करा है, तिसमें आचरणाका स्वरूप ऐसा लिखा है ॥ जाण्यपातः ॥ तीसेकरण विहाणं, नया सुत्ताणुसार किंपि ॥ संविग्गायरणा, किंची नयंपि ते जणिमो ॥ १५ ॥ पुबइ सीसो जयवं, सुत्तो श्यमेव साहि जुत्तं ॥ किं वंदणादिगारे, प्राय रणा कीर सहाया ॥ १६ ॥ दीस सामन्नेणं, वुत्तं सुत्तमि वंदणविहाणं ॥ नघः आयरणान, विसेस करणकमो तस्स ॥ १७ ॥ सुयणमेत्तं सुत्तं, आयरणा जय गम्म तयसो ॥ सीसायरियकमेण हि, नयंते सिप्पसबाई ॥ १७ ॥ अन्नंच ॥ अंगो वंग पश्नय, नेया सुअसागरो खलु अपारो ॥ को तस्स मुण मनं, पुरिसो पंमिच्चमाणी वि ॥ १५ ॥ किंतु सुहका ण जण गं, जं कम्मखयावहं अणुशाणं ॥ अंगसमुद्दे रुंदे, जणियं चियतं जन जणियं ॥ २० ॥ सब पवा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । यमूलं, ज्वालसंग जन समरकायं ॥ रयणायरतुझं ख खु, ता सवं सुंदरं तमि ॥ २१ ॥ वोबिन्ने मूलसुए, बिंउपमामि संपइ धरते ॥ आयरणा नवर, परम बो सबकयेसु ॥ २२ ॥ जणियंच ॥ बहुसुय कमाणुप त्ता, आयरणा धर सुत्त विरदेवि ॥ विनाए विपई वे, नब दिई सुदिहीहि ॥ २३ ॥ जीवियपुवं जीव इ, जीविस्स जेण धम्मिय जमि ॥ जीयंति ते ण जन्नर, आयरणा समय कुसलेहिं ।। २४ ॥ तह्मा अनाय मूला, हिंसारहिया सुजाण जणणीय ॥ सूरि परं परपत्ता, सुत्तवपमाण मायरणा ॥ २५ ॥
व्याख्याः-तिस चैत्यवंदना करनेके जिन्नप्रकारका विधिनेद कितनेक तो सूत्रानुसार जाने जाते है,
और कितनेक संविन गीतार्थोकी आचरणासें जाने जाते है, अरु कितनेक पूर्वोक्त दोनोसें जाने जाते है, यह तीन प्रकारसें मैं चैत्यबंदनाका स्वरूप कहताहूं ।। १५॥
शिष्य पूछता है के, हे नगवन् सूत्रकी वार्ताही कहनी युक्त है, क्यों तुम वंदनाके अधिकारमें था चरणाकी सहायता लेतेहो ॥१६॥
गुरू कहते हैं हे शिष्य सूत्र में चैत्यवंदनाका वि
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चतुर्थस्तुप्तिनिर्णयः। ११ धिके नेद सामान्यमात्र संदेपमात्र करके कहे हैं. तिस चैत्यवंदनाके करनेका जो कम है सो विशेष करके याचरणासें जाना जाता है ॥ १७ ॥ क्योंके सूत्र जो है सो सूचना मात्र है. च पुनः आचरणा सें तिस सूत्रका अर्थ जाना जाता है, जैसे शिल्प शास्त्रनी शिष्य अरु प्राचार्य के क्रम करके जाना जा ता है; परंतु स्वयमेव नही जाना जाता है ॥ १७ ॥
तथा अन्य एक बात है ॥ अंगोपांग प्रकीर्णक नेद करके श्रुत सागर जो है सो निश्चय करके अ पार है कौन तीस श्रुतसागरके मध्यकू अर्थात् श्रुत सागरके तात्पर्य• जान सकता है. अपणे ताई चा हो कितनाही पंमितपणा क्यो न मानता होवे ? ॥ १ए ॥ किंतु जो अनुष्ठान गुन ध्यानका जनक होवे और कर्मोंके क्य करने वाला होवे, सो अनु ष्ठान आवश्यमेव शास्त्रअंग शास्त्ररूप समुश्के विस्ता रमें कह्या दूआही जानना. जिस वास्ते शास्त्रमै ऐ से कहा है ॥ २० ॥ सर्व गुनानुष्ठानके कहने वाले छादशांग है क्योंके हादशांग जे है वे रत्नाकर समु ६ अथवा रत्नाकी खानितुल्य है, तिस वास्ते जो शु नानुष्ठान है सो सर्व वीतरागकी बाझा होनेसें सुं
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
दर है तिस श्रुतरत्नाकर में ॥ २१ ॥ मूल सूत्रोंके व्य वेद हुए, और बिंदु मात्र संप्रतिकालमें धारण क रते हुए अर्थात् बिंदु मात्र मूल सूत्रके रहें, तिस सूत्र सर्वानुष्ठानकी विधि क्योंकर जानी जावे, इस वास्ते श्राचरणासेंही सर्व कर्त्तव्यमें परमार्थ जाना जाता है ॥ २२ ॥ कहा है बहुत कम करके जो प्राप्त हूइ है यचरणा सो खाचरणा सूत्रके विरहमें सर्वा नुष्ठानकी विधिक धारण करती है, जैसें दीपकके प्रकाशसें नली दृष्टीवाले पुरुषोंने कोइक घटादिक वस्तु देखी है सो वस्तु दीपकके बृजगयें पीजी स्व रूपसें नूलती नहीं है, यैसेंही यागम रूप दीपकके बूजगएनी यागमोक्त वस्तु याचरणासें सम्यकदृष्टी पुरुष याचार्योंकी परंपरासें जानते हैं इसका नाम याचरणा कहते हैं ॥ २३॥
तथा धर्मीजनो मे पूर्वकालमें जीताथा और वर्त्त मानमें जीवे है रु अनागत कालमें जीवेगा जैन शास्त्रमें कुशल तिसकों जित कहते है तिस जीतका नामही याचरणा कहते है ॥ २४ ॥
तिस वास्ते जो यज्ञातमूल होवे, जिसकी खबर
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १३ न होवे के यह आचरणा किस आचार्यनें किस का लमें चला है, तिसकू अझातमूल कहते है जैसी अज्ञात मूल आचरणा हिंसारहित और गुनध्यान की जननी होवे, अरु आचार्योंकी परंपराय करके प्राप्त होवे, तिस आचरणाकों सूत्रकी तरे प्रमाणनू त माननी चाहिये ॥ २५॥ इति नाष्यवचनात् याचरणाका स्वरूप.
तथा श्रीप्रवचनसारोबार वृत्तिमेंजी ऐसा लेख है. श्यं स्तुतिश्चतुर्थी गीतार्थाचरणेनैव क्रियते गीतार्थाचरणं तु मूलगणधरनणितमिव सर्व विधेयमेव सर्वैरपि मुमुकुनिरिति ॥ अस्य नाषा ॥ यह चोथी थुइ गीतार्थोकी आचरणासें करीये है और गीतार्थों की जो पाचरणा है, सो मूल गणधरोंके कथन क रे समान सर्व मोक्षार्थी साधुयोंकों सर्व करणे योग्य है. इस वास्ते चोथी थुइ जो कोई निषेध करे सो मिथ्यात्वका हेतु है. __तथा जो कोश् चोथी शुश्के अर्वाचीन शब्दका अर्वाक कालकी अंगीकार करी असा अर्थ समजते है तिनकी समजकी बहु नूल है, क्योंके विचाराम त संग्रह ग्रंथमें श्रीकुलममन सूरिजीयें जैसा लि
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
खा है के " श्रीवीरनिर्वाणात् वर्षसहस्त्रे पूर्वश्रुतं व्य वन्निं ॥ श्रीहरिन सूरयस्तदनु पंचपंचाशता वर्षेः दिवं प्राप्ताः तद्यंयकर कालाच्चाचरणायाः पूर्वमेव संजवात् श्रुतदेवता दिकायोत्सर्गः पूर्वधरकालेपि संज वति स्मेति ॥
यस्याषा || जगवंत श्रीमहावीरजीके निर्वाण सें हजार वर्ष व्यतीत हुए पूर्वश्रुतका व्यववेद हूया, तदपीछे पचपन (५५) वर्ष वीते श्रीहरिन सूरिजी स्वर्ग प्राप्त हुए, वो श्रीहरिन सूरिजी के ग्रंथ करण कालसें पहिलाही याचरणा चलती थी इस वास्ते श्रुतदेवतादिकका कायोत्सर्ग पूर्वधरोंके काल मेंजी संभवथा ॥
ब विचारणा चाहिये के पूर्वधरोंकी अंगीकार करी हूइ श्राचरणाका निषेध करणेवाला दीर्घ संसा री विना अन्य कौन हो सक्ता है ? वैसे चौथी चु इजी हरिजसूरिजी के ग्रंथ करणेसें प्रथमही पूर्वधरों की याचरणासें चलती थी क्योंके हरिजसूरिकृत ललितविस्तरामें चौथी थुइका पाठ है, सो पाठ श्रागें लिखेंगे इसवास्ते अर्वाचीन कहो, चाहे याचरणा कहो, चाहे जीत कहो.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १५ जेकर अर्वाचीन शब्दका अर्थ अन्यथा करीयें तो श्रीसिवसेनाचार्यकृत प्रवचनसारोवारकी टीका के साथ विरोध होता है, क्योंके श्रीसिक्ष्सेनाचार्य चौथी थुश् आचरणासें करणी कही है. _तथा कोइ थैसे कहेके ललितविस्तरा १४४४ ग्रं थोंके करनेवाले श्रीहरिनश्सरिजीकी करी दूर न ही है. किंतु अन्य किसी नवीन हरिजसरिकी रचि त है, यह कहनाजी महामिथ्या है, क्योंके पंचाश ककी टीकामें श्रीअनयदेवसूरिजी लिखते हैं के, जो ग्रंथ श्रीहरिजइसरिजीका करा दूधा है, तिसके अंतमें प्रायें विरह शब्द है,। पंचाशक पातः ॥ इह च विरह इति । सितांबर श्रीहरिनशचार्यस्य रुतेरंक शत ॥ यह विरह अंक ललितविस्तराके अंतमें है. और घाकनी महत्तराके पुत्र श्रीहरिनइसरिने यह ललि तविस्तरा वृत्ति रची है, जैसानी पाठ है तो फेर ललितविस्तरा प्राचीन दरिनश्व रिकत नही, जैसा वचन उन्मत्त विना अन्य कोई कह सक्ता नही है. - तथा श्रीनपदेशपदकी टीकामें श्रीमुनिचंइसुरिजी पैसा लिखते है ॥ तत्र मार्गो ललितविस्तराया मनेनैव शास्त्रकतेबंलक्षणो न्यरूपि मग्गदयारामि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। त्यादि ॥ अस्यनाषा ॥ तिहां जो मार्ग है सो ललितविस्तरामें इसही उपदेशपद शास्त्रके कर्ता श्री हरिजश्सरिजीने इस प्रकारके लदणवाला कहा है. इस कथनसे जौनसे श्रीहरिनइसुरिजीने उपदेशपद ग्रंथ करा है, तिसही श्रीहरिजसूरिजीने ललितवि स्तरावृत्ति करी है, यह सिम होता है ॥
प्रश्नः-नपमितनवप्रपंचकी आदिमें जो सिक्षक पिजीने लिखा है, के यह ललितविस्तरावृत्ति मेरे श्रीगुरु हरिनसूरिजीने मेरे प्रतिबोध करने वास्ते रची है इस लेखसे तो ललितविस्तरावृत्तिका कर्ता प्राचीन श्रीहरिनसरि सिम नही होते है ? _ उत्तरः-हे जव्य उपमितनवप्रपंचकी आदिमें सि ६षीजीने 'अनागतं च परिझाय' इत्यादि श्लोकमें पैसे लिखा है के श्रीहरिनइसरिजीने मुजकों अना गत कालमें होनेवाला जानके मार्नु मेरेही प्रतिबो ध करने वास्ते यह ललितविस्तरावृत्ति रची है. यो र जो सिरुषिजीने श्रीहरिनइस रिकू गुरु माना है, सो आरोप करके माना है. जैसा कथन ललि तविस्तरावृत्तिकी पंजिकामें करा है, इस वास्ते ल लितविस्तरावृत्तिके रचने वाले १४४४ ग्रंथ कर्ता
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १७ श्रीहरिनइसरिजी दुए है; इति आचरणास्वरूप ॥ - पूर्वपद ॥ श्रीबृहत्कल्पका नाष्यकी गाथामें तीन युश्की चैत्यवंदना करनी कही है, असेही पंचाश कवृत्ति तथा श्राइविधि तथा प्रतिमाशतक, संघा चारवृत्ति, धर्मसंग्रह और तुमारा रचा दुआ जैनत त्त्वादर्शादि अनेक ग्रंथोमें यही कल्पनाष्यकी गाथा लिखके तीन शुश्की चैत्यवंदना कही है, तो फेर तुम क्यों नही मानतेहो ?
उत्तरः-हे सौम्य हमतो जो शास्त्रमें लिखा है त था जो पूर्वाचार्योंकी आचरणा है इन दोनोंकों सत्य मानते हैं; परंतु तेरेको बृहत्कल्पका नाष्यकी गाथाका तात्पर्य नही मालुम होताहै, इस वास्ते तुं तीन थुइ तीन शुश् पुकारता है ! क्योंके महानाष्यमें नवनेदें चै त्यवंदना कही है, तिनमेंसें तेरी तीन थुश्की बंदनाका बहा नेद है; तथाच महानाष्यपाठः ॥ ___एगनमोकारणं, हो कणि जहन्नथा एसा ॥ज हसति नमोकारा, जहनिया नन्न विजेता ॥ ५४॥ सच्चिय सक्थयंता, नेया जेहा जहानिया सन्ना॥स चिय इरियाव हिया, सहिया सक्कथय दंमेहिं ॥ ५५॥ मनिमकणि6ि गेसा, मनिम मनिमन होश सा चेव॥
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१८
चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
चेश्य दंमय थुइए, गसंगया सह ममिया ॥ ५६ ॥ मम हा सच्चिय, तिन्नि थुई व सिलोय तियजुत्ता ॥ नक्कोस कहिा पुष्ण, सच्चिय सक्कबाइ जुया ॥ ५७ ॥ थुइ जुयल जुयल एणं, डुगुणिय चेश्य थयाइ दंमा जा ॥ सा चक्कोस विजेठा, निद्दिा पुन्वसूरीहिं ॥ ५८ ॥ थोत पशिवाय दंग, पणिहाण तिगेल संजुप्राएसा ॥ संपुन्ना विनेया, जेठा नक्कोसिया नाम ॥ ५ ॥
इनकी जाषा । एक नमस्कार करनेसें जघन्यजघ न्य प्रथम नेद ॥ १ ॥ यथाशक्ति बहुत नमस्कार कर नेसें जघन्यमध्यम दूसरा नेद ॥ २ ॥ नमस्कार पीछे शक्रस्तव कहना, यह जघन्योत्कृष्ट तीसरा नेद ॥ ३॥ इरियावही, नमस्कार, शक्रस्तव, चैत्यदंमक एक, ए कस्तुति यह कहने से मध्यमजघन्य चोथा नेद ॥ ४ ॥ इरियावदी, नमस्कार, शक्रस्तव, चैत्यदंमक, एक थुई, लोगस्स कहने से मध्यममध्यम पांचमा नेद ॥ ५ ॥ इरियावदी, नमस्कार, शक्रस्तव, अरिहंत चेश्याएं थुई, लोगस्स सबलोए थुई, पुरकरवर सुयस्स थुई, सि
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बुदाणं गाया तीन इतना कहनेसें मध्यमोत्कृष्ट बाजेद ॥ ६ ॥ इरिया वही, नमस्कार, शक्रस्तवादिदमक पांच, स्तुति चार, नमोबुएं, जावंति एक, जावंत एक,
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
१९
स्तवन एक, जयवीयराय, यह कहनेसें उत्कृष्ट जघन्य सातमा नेद ॥ ७ ॥ आठ थुई, दो वार चैत्यस्तवादि दमक, यह कहनेसें उत्कृष्ट मध्यम आठमा नेद ॥ ८॥ स्तोत्र, प्रणिपात दमक, प्रणिधान तीन, इनो करके सहित थुई, दो बार चैत्यस्तवादि दंमक, यह क नेसें उत्कृष्टोत्कृष्ट नवमा जेद ॥ ए ॥ नाष्यं ॥ ए सा नवप्पयारा, यश्न्ना वंदणा जिएमयंमि ॥ का लोचियकारीणं, अणग्गहाणं सुहा सव्वा ॥ ६० ॥ अ स्यार्थः- यह पूर्वोक्त नव प्रकारें, नवनेदें, चैत्यवंदना श्री जनमत में याची है, श्राग्रहरहित पुरुष उचित कालमें जिसकालमें जैसी चैत्यवंदना करणी उचित जाणे, तिस कालमें तैसी चैत्यवंदना करे, तो सर्व न वद शुभ है, मोफलके दाता है ॥ ६० ॥ जाष्यं ॥ नक्कोसा तिविहाविदु, कायद्या सत्तिन उजय कालं ॥ सङ्केहिन सविसेसं, जम्हा तेसिं इमं सुतं ॥ ६१ ॥ र्थ :- उत्कृष्ट तीन जेदकी चैत्यवंदना, शक्तिके हूए उ जय कालमें करनी योग्य है. पुनः श्रावकोंनें तो स विसेस अर्थात्, विशेष सहित करनी चाहियें, क्योंके ? श्रावकों के वास्ते जैसा सूत्र कहा है ॥ ६१ ॥ नाष्यं ॥ वंद जयन कालं, पि चेश्याई ययथुई परमो ॥ जि
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२५ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। णवर पडिमागरधू, व पुप्फगंधचणुयुतो ॥ ६ ॥ अर्थः- श्रावकजन उनयकालमें स्तोत्र स्तुति करके उत्कृष्ट चैत्यवंदना करे, कैसा श्रावक जिनप्रतिमाकी अगर, धूप, पुष्प, गंध करके पूजा करने में अति उद्य म संयुक्त होवे ॥ ६॥ नाष्यं ॥ सेसा पुणबप्नेया, कायवा देस काल मासद्य ॥ समणेहिं सावएहिं, चे श्य परिवाडि मासु ॥ ६३ ॥ अर्थः- शेष जघन्यके तीन अरु मध्यमके तीन मिलकेननेद चैत्यवंदनाके जो रहे है, सो देश काल देखके साधु श्रावकनें चैत्य परिवाडी आदिमें करणे आदि शब्दसें मृतक साधुके पर ठव्या पी. जो चैत्यवंदना करीयें है तिसमें करणे॥३॥
इस वास्ते हे सौम्य बहा नेद तीन शुश्सें जो चैत्यवंदना करनेका है, सो चैत्यपरिवाडिमें करणेका है, ए परमार्थ है, अरु तुम जो कल्पनाष्यकी इस गाथाकू बालंबन करके चौथी थुश्का तथा प्रतिक्रम
की आद्यंत चैत्यवंदनाकी चोथी थुइका निषेध क रते हो, सो तो दहिंके बदले कर्पास नदण करते हो ! इस्से यहनी जानने में थाता है के जैनमतके शा स्त्रोंकानी तुमको यथार्थ बोध नही है,तो फेर चौथी शुश्का निषेध करनाजी तुमकों उचित नही है ॥ जणि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। २१ यंच श्रीकल्पनाष्ये गाथा॥ निस्सकड मनिस्सकडे,चे ए सबहिं थुई तिन्नि ॥ वेलंच चेश्याणिय, नाउ इक्किक्कि या वावि ॥१॥ व्याख्याः-एक निश्राकत उसकों कहते हैं के जो गलके प्रतिबंधसे बना है,जैसा के ? यह हमारे गलका मंदिर है, दूसरा अनिश्राकृत सो जिस उपर किसी गलका प्रतिबंध नही है, इन सर्व जिनमंदिरोमें तीन थुइ पढनी जेकर सर्व मंदिरोमें तीन तीन थुइ पढतां बहुत काल लगता जाने अरु जिनमंदिरजी बहोत होवे तदा एक एक जिनमंदिर में एकेक थुइ पढे, इस मुजब यह कल्पनाष्यगाथामें निःकेवल चैत्यपरिपाटीमें तीन धुश्की चैत्यवंदना पूर्वोक्त नव नेदोमेंसें बहे नेदकी करनी कही है. परंतु प्रतिक्रमणके आयंतकी चैत्यवंदना तीन थुइ की करनी किसीनी जैनशास्त्रमें नही कही है. ___ यही कल्पनाष्यकी गाथाका लेख हमारे रचे दुए जैनतत्त्वादर्श पुस्तकमें है, तिस लेखका यही नपर लिखादा अभिप्राय है, तो फेर रत्नविजयजी अरु धनविजयजी जैनशास्त्रका और हमारा अनि प्राय जाने विना लोकोंके आगे कहते फिरते हैं के, वात्मारामजिनेनी जैनतत्त्वादर्शमें तीनही पुश्क
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२२ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ही है, असा कथन करके नोले लोकोंसें प्रतिक्रम णके आयंतकी चैत्यवंदनामें चोथी थुइ बोडावते फिरते है. तो हमारा अभिप्रायेके जाने विनाहि लो कोंके आगें जूना हमारा अभिप्राय जाहेर करना यह काम क्या सत्पुरुषोंको करणा योग्य है ? जे कर आप दोनोकों परनव बिगडनेका जय होवेगा, तब इस कल्पनाष्यकी गाथाकों आलंबके प्रतिक्रमण की आद्यंत चैत्यवंदनामें चौथी थुश्का कदापि निषे ध न करेंगे, अन्यथा इनकी श्वा. हमतो जैसा शा स्त्रोमें लिखा है, तैसा पूर्वाचार्योंके वचन सत्यार्थ जानके यथार्थ सुना देते है, जो नवनीरु होवेगा, तो अवश्य मान्य लेवेगा ॥ इति कल्पनाष्य गाथा निर्णयः ॥ __जेकर कोई कहेगें श्रीहरिनासूरिजीने पंचाशक जीमें तीनही प्रकारकी चैत्यवंदना कही है, परंतु न वप्रकारकी नही कही है, इस वास्ते हम नव नेद नही मानेंगे. तिनकी अज्ञता दूर करणेकू कहते है।
नाष्यं ॥ ए एसिंनेयाणं, उवलरकणमेव वनि या तिविदा ॥ हरिनद सूरिणा विदु, वंदण पंचास ए एवं ॥६५॥ एवकारेण जहन्ना, दमय थुइ जुथ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ५३ ल मनिमा नेया ॥ संपुन्ना नक्कोसा, विहिणा खलु वंदणा तिविदा ॥६६॥ एवकारेण जहन्ना, जह नयजहानिया इमाखाया ॥ दमय एगथुश्ए, विनेया मनमनमिया ॥६७ ॥ संपुन्ना नक्कोसा, नकोसु कोसिया इमा सि॥ उवलरकणंखु एयं, दोसह दोपह सजाईए ॥ ६७ ॥ इनका अर्थ कहते हैं।
अर्थः-श्न पूर्वोक्त नव नेदोंके उपलक्षण रूप तीन नेद चैत्यवंदनाके, वंदना पंचाशकमें श्रीहरिन सूरिजीनेनी कथन करे है॥६५॥ तिसमें एकतो नमस्कार मात्र करणे करके जघन्य चैत्यवंदना॥१॥ दूसरी एक दंझक अरु एक स्तुति इन दोनोके युग लसे मध्यम चैत्यवंदना जाननी॥ ॥ तीसरी सं पूर्ण नत्कष्टी चैत्यवंदना जाननी॥ ३॥ विधि करके वंदना तीन प्रकारे है ॥ ६६ ॥ नमस्कार मात्र कर के जो जघन्य वंदना कही है। सो जघन्यवंदनाका प्रथम जघन्य जघन्य नेद कहा है॥ १ ॥ और दू सरी जो एक दंझक अरु एक स्तुतिसें मध्यम चैत्य वंदना कही है सो मध्यम मध्यम नामा मध्यम चै त्यवंदनाका दूसरा नेद कहा है ॥२॥ ६७ ॥ सं पुन्ना नक्कोसा यह पानसे संपूर्ण उत्कृष्ट उत्कृष्ट वं
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२४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । दनाका तीसरा उत्कृष्टोत्कृष्ट नेद कहा है। इन तीनो नपलकृष्ण रूप नेद कहनेसें शेष एकेक वंद नाके स्वजातीय दो दो नेदनी ग्रहण करना. एवं स व नव नेद चैत्यवंदनाके पंचाशकजीकी गाथायोसें सिक दुए हैं ॥ ६७ ॥ यह श्रीहरिनसूरिजी जैन मतमें सूर्यसमान थे और उत्तराध्ययनजीकी वृहद्व त्तिका कर्ता श्रीशांतिसूरिजी महाप्रजावक,इनके रचे प्रकरण और नाष्यकों जो कोइ जैनमतिनाम धरा के प्रामाणिक न माने तिसके मिथ्यादृष्टि होनेमें जै नमति कोइ नव्य शंका नही करसक्ता है, इन दो नों आचार्योंने चौथी थुइ प्रमाणिक मानी है, सो आगे लिखेंगे. इति नवनेदसें चैत्यवंदनाका स्वरूप ॥
प्रश्नः-श्रीव्यवहारसूत्रकी नाष्यमें तीन थुझसें चै त्यवंदना करनी कही है. सो गाथा यह है ॥ ति निवा कट्टई जाव, शुश्न तिसिलोश्या॥ताव तब अ पुनायं, कारणेण परेणवि ॥ १ ॥ अस्यार्थः ॥ श्रु तस्तवानंतरं तिस्रः स्तुतीस्त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्र माणा यावत् कुर्वते तावत्तत्र चैत्यायतने स्थानम नुज्ञातं कारणवशात् परेणाप्युपस्थानमनुज्ञातमि ति वृत्तिः ॥ अस्य नाषा ॥ श्रुतस्तवानंतर तीन युइ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः।
२५ तीन श्लोक प्रमाण जहांतक कहियें तहांतक देहरे में रहनेकी आशा है, कारण होवेतो उपरांतनी रहे ॥ जैसा पाठ शास्त्रमें है तो फेर आप तीनथुइ की चैत्यवंदना क्यों नही मानतेहो ? ॥ - नत्तरः-हे सौम्य तेरेकों इस गाथाका यथार्थ ता त्पर्य मालुम नही है. इस वास्ते तुं तोतेकी तर ती न थुइ तीन थुइ कहता है. इस गाथाका यह ता त्पर्य है, सो तुं सुणके विचार ॥ नाष्यं ॥ सुत्ते एगवि हच्चिय, नणियातो नेय साहण मज्जुत्तं ॥ श्य) लमईकोई, जं पर सुत्तं इमं सरिन ॥ २२ ॥ तिनिवा कट्टई जाव, शुश्न तिसिलोश्या ॥ ताव तब अ गुन्नायं, कारणेण परेणवि॥ २३ ॥ जण गुरुतं सु तं, चियवंदणविहि परूवगं न नवे ॥ निकारणजिण मंदिर, परिनोग निवारगत्तेण ॥ २४ ॥ जं वा सदो पयडो, परकंतर सूयगो तहिं अति ॥ संपुन्नं वा वंद , कह वा तिन्निनथुई ॥ २५॥ एसोवि दु जावडो, संजवद्यश् श्मस्त सुत्तस्स ॥ ता अन्न सुत्तं, अन्नब न जोश्नं जुत्तं ॥ २६ ॥ ज एत्तिमेत्तं विय, जिण वंदण मणुमयं सुएढुंतं ॥ श्योत्ताइ पवित्ती, निर लिया होय समावि ॥ २७ ॥ संविग्गा विहि रसिया,
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। गीयन तमाय सूरिणो पुरिसा ॥ कहते सुत्त विरुई, समायारी परूवेंति ॥ २७ ॥ इनका अर्थ कहते है. सूत्र में एक प्रकारेही चैत्यवंदना कही है, इस वास्ते नव नेद कहने अयुक्त है. असा अर्थ कोइ स्थलबु दि वाला इस सूत्रका स्मरण करके कहता है ॥ २२ ॥ तीनथुइ तीनश्लोक परिमाण जहांतक क हियें तहांतक जिन चैत्यमें साधुकों रहनेकी आज्ञा है, कारण होवे तो उपरांतजी रहे ॥ २३ ॥ ___ अब गुरु उत्तर देते हैं । तिन्निवा इत्यादि जो सूत्र है सो चैत्यवंदनाके विधिका प्ररूपक नही है, किंतु विना कारण जिनमंदिरके परिजोग करनेका निषेध करने वाला है इस हेतु करके चैत्यवंदनाके विधिका प्ररूपक नही है ॥ २४ ॥ तथा जो इस गा थामें वा शब्द है सो प्रगट पक्षांतरका सूचक तिहां है, इस वास्ते संपूर्ण चैत्यवंदना करे, अथवा तीन थुइ कहे ॥ २५ ॥ यहनी नावार्थ इस सूत्रका संन वे है. तिस वास्ते अन्यार्थका प्ररूपक सूत्र अन्यत्रा र्थमे जोडना युक्त नही है॥ २६ ॥ जेकर तीनशु मात्रही चैत्यवंदना करनेकी सूत्रमें आज्ञा होवे, तब तो घुइ स्तोत्रादिककी प्रवृत्ति सर्व निरर्थक होवेगी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। २७ ॥ २७ ॥ संविग्न गीतार्थ विधिके रसिये अतिशय करके गीतार्थसूरि पुरुष जे पूर्व होगए है, ते सूत्र वि रुच नवनेद चैत्यवंदनाकी समाचारी कैसे प्ररूपणा करते ॥ २७ ॥ इस वास्ते हे सौम्य इस तेरी कही गाथासें चौथी शुश्का निषेध और तीन धुश्की चैत्य वंदना सिम नही होती है. तो फेर तुं क्युं हा रू पीये जालमे फसता है।
तथा पक्षांतरें इस तिन्निवा इत्यादि गाथाका अ र्थ श्रीसंघाचार नाष्यवृत्तिमें श्रीधर्मघोषाचार्ये पैसा करा है । तथाच संघाचार वृत्तिः ॥ उनिगंधमलस्सा वि, तणु रप्पे सहाणिया॥ नननवा नवहोचेव, तेण तिनचेए ॥ १ ॥ तिन्निवा कट्टई जाव, शुश्न तिसि लोया ॥ ताव तब अणुन्नायं, कारणेण परेणवि ॥ २ ॥ एतयो वार्थः साधवश्चैत्यगृहे न तिष्ठति अ थवा चैत्यवंदनांते शक्रस्तवाद्यनंतरं तिस्त्रः स्तुतीः श्लोकत्रयप्रमाणाः प्रणिधानार्थ यावत्कुर्वते. प्रति क्रमणानंतरं मंगलार्थ स्तुतित्रयपाठवत् तावञ्चैत्य हे साधूनामनुज्ञातं निष्कारणं न परतः ॥
जापाः-इन दोनो गाथांका लावार्थ यह है।साधुका शरीर छुर्गधरूप उधवाला होनेसें चैत्यगृहमें मर्यादा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। उपरांत न रहे. सो मर्यादा यह है के, चैत्यवंदनाके अं तमें शकस्तवादिके अनंतर जो तीन थुई तीन श्लोक परिमाण प्रणिधानके वास्ते प्रतिक्रमणाके अनंतर मं गलार्थ स्तुति तीनके पावत् कही है,तहां ताई चैत्य जिनमंदिरमे रहनेकी आज्ञा है, कारणविना उपरांत न रहे. तात्पर्य यह हैके, संपूर्ण चैत्यवंदनाके करें पी जे विना कारण साधु जिनमंदिरमें न रहै इस व्याख्या न रूप वन्हिने हे सौम्य तेरे चोथी थुईके निषेध कर णे रूप धनकों नस्मसात् करमाला है,इस वास्ते ते रा तीन थुईका मत पूर्वाचार्योंके मतसे विरु६ है, तो अब तुंनी इसमतकों जलांजली दे. इति व्यवहार जाष्य गाथा निर्णयः ॥
पूर्वपदः-आवश्यकादि शास्त्रोंमें मृतक साधुके प रख्या पी. तीनथुकी चैत्यवंदना कही है तिन शा स्त्रोंका पाठ यह है॥ चे घरु उवस्सए, वाहाई ती तन शुईतिनि ॥ सारवण व सहीए, करेए सवं व सहि पालो ॥१॥ अविहि परिवणा ए, कानस्सगो न गुरु समीवंमि ॥ मंगल संति निमित्तं, थन त अ जिय संतीणं ॥ ॥ ते सादुगो चेश्य घरे ता परिहा यं तीहिं थुहिं चेश्याणि वंदिन आयरिय सगासे ३
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
१ ए
रियावहिनं पडिक्कमिनं व्यविहि परिधावलिया ए का उग्गो कीरता हे मंगल पष्ठ तव अन्ने विदो व ए हायंते कहंति नवस्सए वि एवं चेश्य वंदण वयति ॥ कल्पचतुर्थोद्देशकसामान्यचूर्णौ ॥ कल्प विशेष चूर्णि कल्पवृहद्भाष्यावश्यक वृत्तिरुद्भिरन्यथा व्याख्यातं । यत चैत्यवंदनानंतरमजितशांतिस्तवो जणनीयो नो चेत्तदा तस्य स्थानेऽन्यदपि हीयमानं स्तुतित्रयं नानीयमिति । तथाहि चेश्य घर गाहा | चेश्य घर गति चेश्याइं वंदित्ता संति ॥ निमित्तं श्र कियसंतिबन परियहिवर तिन्नि वायुती न परिहा यंती व कट्टियंति तव श्रागंतु प्रायरिय सगासे वि हि परिछावणीयाए काउस्सगो कीरइ. कल्प विशेष चू० उ०४ तथा चेश्य घरुवस्स एवा, यागम्मुस्सग्ग गुरुसमीवंम ॥ विहि विगिंचणी याए, संति निमि तं यतो तब ॥ १ ॥ परिहायमालियान, तिन्नि शु ईन हवंति नियमेण ॥ यजियसंतिष्ठगमा, श्यानक मसो तहिं नेन ॥ २ ॥ कल्पवृहद्भाष्ये तथा उहाला ई दोसान, हवंति तवेव कावसग्गंमि श्रागम्मुवस्स यं गुरु सगासे विहि ए उस्सग्गो कोइ जोधा त वेव किमिति का सग्गो न कीरइ नन्नइ उहालाई दो
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
साहवंति तव श्रागम्म चेश्य घरं गवंति चेश्यालि वंदित्ता संतिनिमित्तं यजिय संतियं पढंति तिन्नि वा युतीन परिहायमासीन कट्टियंति त गंतु या यरियसगासे विहि विगिंच लियाए काउस्सग्गो की 5. इत्यावश्यकवृत्तौ ॥
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अस्य जाषा ॥ ते मृतक साधुके परिहवनेवाले साधु चैत्यघरमे प्रथम परिहायमान तीन थुइसें चे त्यवंदना करके याचार्य के समीपें “ इरियावहियं पक्किमिके विधि पारिछावणीयांका कायोत्सर्ग क रे ॥ मंगलपन - ६० ॥ तद पीठें अन्यत् अपि दो हाय मा न कहे, उपाश्रयी जैसेही करना परं चैत्यवंदना न करण यह कथन बृहत्कल्पके चतुर्थ नद्देशेक चूर्णीमें है, और बृहत्कल्पकी विशेष चूर्मिमें तथा कल्पवृहद्भाष्यमें तथा आवश्यकवृत्तिकारें अन्यथा व्याख्यान करा है, सो यह है ॥ चैत्यवंदनाके अनं तर अजितशांतिस्तवन कहना जेकर यजितशांतिस्त वन न कहे तो तिस अजितशांतिके स्थान में अन्यत् हायमान तीनथुइ कहनी, सोइ दिखाते है, ॥ चेश यघरगाहा ॥ चैत्यघरमें जावे तहां चैत्यवंदना कर के शांतिके निमित्त अजितशांतिस्तवन कहना, अथ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ३१ वा तीन थुइ परिहायमान कहे तदपी अाचार्य स मीपें आकर अविधिपरितगवणियाका कायोत्सर्ग कर ना, यह कल्पविशेषचूर्णिके चतुर्थ नदेसेमें कहा है।
तथा चैत्यघर वा उपाश्रयमें आकर के गुरु समीपे अविधि परिणावणियांका कायोत्सर्ग करना और शां तिनिमित्त स्तोत्र कहना ॥१॥ परिहायमान तीन धुइ नियम करके होती है, अजितशांतिस्तवादिक क्रमसें तहां जानना ॥॥ यह कथन कल्पवृहत् नाष्यमें है। ___ तथा कोई कहे तिहांदी कायोत्सर्ग क्यों नही करतें ? गुरु कहते हैं यहां नन्नानादि दोष होते है, तिसके लीये तहांसे था कर चैत्यघरमें जावे, तहां चैत्यवंदना करके, शांतिनिमित्त अजितशांतिस्तवन पढे अथवा हायमान तीन थुइ कहे, तदपीनें आप ने स्थानपर आ करके आचार्य समीपे अविधि परिका वणियांका कायोत्सर्ग करे जैसा कथन आवश्यक वृत्तिमें करा है. इहां सामान्य चूर्णीमें तीन थुझसें चैत्यवंदना मृतकसाधुके परतवनेवाले साधुयोंकों करनी कही है, सो मध्यम चैत्यवंदनाका मध्यमो कृष्ट तीसरा नेद है, अरु पूर्वोक्त नव नेद्रोंमें यह बहन नेद है. सो तो एक आचार्यके मतें मृतक परि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। हव्यां पीछे करनी, हम मानतेही है. शेष लेख क ल्पविशेष चूर्णि, कल्पहनाष्य, अरु आवश्यक त्तिमें जो है, तिसमें तो तीन घुइसें चैत्यवंदना करनी कहीही नही है. इस वास्ते जो कोइ श्न पूर्वोक्त सू त्रोंका पाठ दिखलाय कर जोलें जीवोंकी प्रतिक्रमणके आयंतके चैत्यवंदनाकी चोथी थुइ बुडावे तो तिस कों निःसंदेह नत्सूत्र प्ररूपक कहना चाहियें; क्यों के? जो कोई हाथी के दांत देखे चाहे तिसकों को इ गर्दनका शृंग दिखावे तो क्या बुंह बुद्धिमान गिना जाता है ! इति कल्पसामान्यचूर्णि, कल्पविशेषचूर्णि कल्पवृहनाष्य अरु आवश्यकवृत्तिनिर्णयः॥
पूर्वपद-श्रीवंदनापश्न्नेमें तीन थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है, सो तुम क्यों नही मानते हो?
उत्तरः-हे सौम्य १ नावनगर, घोघा,३ जामन गर ४ नींबडी, ५ पाटण,६ राजधनपुर, ७ वडोदरा, ७ खंनात, ए अहमदावाद, १० सूरत,११ वीकानेर इत्यादि स्थानोमें हमने अनुमानसे वीश झाननांमा रोंका पुस्तक देखे, परंतु वंदनापश्ना किसी नंमार में हमकों देखनेमें नही आया, इस्से विचार उत्पन्न हू आके जैसे बडे बडे पुरातन नंमारोंमेसें कोनी नं
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। मारमें यह पुस्तक हमारे हस्तगत न जया ? तो क्या यह वंदनापश्ना श्रीनवादु स्वामीने रचा है ? किं वा नबाबु स्वामीजीके नामसे किस तीन युश मानने वाले मतपतीने रच दीया है? जेकर श्रीन बाहु स्वामीका रचा सिम होवे तोनी इस पश्नमें चौथी शुश्का निषेध नही है, और जो इस पश्नमें तीन घुसें चैत्यवंदना करनी कही है, सो पूर्व कहे ला नव नेदोमेंसें बहा मध्यमोत्कृष्टनेदकी तीन धुसें चैत्यवंदना करनी कही है, यह चैत्यवंदना श्रीजिनमें दिरमें करनी कही है परंतु प्रतिक्रमणकी आद्यंतमें चैत्य वंदना करनी नही कही है. इस वास्ते इसपश्नेसें जो तेरेको त्रांति होती है सो बोड दे॥इति पश्ना निर्णयः॥
पूर्वपदः-देवसिप्रतिक्रमणकी आदिमें और राइ अतिक्रमणके अंतमें चैत्यवंदना करनी किसी शास्त्रमें नी नही कही है, तो फेर तुम क्यों करते हो? ॥१॥ और चौथी थुइ चैत्यवंदनामें करते हो, सो किस किस शास्त्रमें है॥॥ अरु श्रुत देवताका कायोत्सर्ग किस किस शास्त्रमें करना कहा है? ॥३॥ , उत्तरपदः-हम इन तीनो प्रश्नोका एक साथही उत्तर देते है। श्रीप्रवचनसारोबारे ॥ पडिक्कमणे चे
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः
ः।
३४
इहरे, जोयण समयंमि तहय संवरणे ॥ पडिक्कम हा सुया पडिबोह, कालियं सत्तहा जश्णो ॥ ए १ ॥ पडिक्कमन गिहिणो विदु, सत्तविह पंचहान इयरस्स ॥ होइ कहने पुणो, ती सुवि संजासु इय तिविहं ॥ ९३ ॥ अत्रवृत्तिः ॥ साधूनां सप्तवारान अहोरात्रमध्ये नव ति चैत्यवंदनं गृहिणः श्रावकस्य पुनश्चैत्यवंदनं प्राकृ तत्वानुप्रप्रथमैकवचनान्तमेतत् । तिस्रः पंच सप्तवा रा इति । तत्र साधूनामहोरात्रमध्ये कथं तत्सप्तवा रा नवतीत्याह पडिक्कमणेत्यादि । प्राजातिक प्रतिक मापर्यंते तचैत्यगृहे तदनु नोजनसमये तथाचेति समुच्चये जोजनानंतरंच संवरणे संवरणनिमित्तं प्र त्याख्यानंहि पूर्वमेव चैत्यवंदने कृते विधीयते तथा संध्यायां प्रतिक्रमण प्रारंजे तथा स्वापसमये तथा निश मोचनरूप प्रतिबोध कालिकंच सप्तधा चैत्यवंद नं नवति यतेर्जातिनिर्देशादेकवचनं यतीनामित्यर्थः । गृहिणः कथं सप्तपंच तिस्रो वारांचैत्यवंदन मित्याह पक्किम इत्यादि । द्विसंध्यं प्रतिकामतो गृहस्थस्या पि यतेरिव सप्तवेलं चैत्यवंदनं नवति । यः पुनः प्रतिक्रमणं न विधत्ते तस्य पंचवेलं जघन्येन तिसृष्व पि संध्यासु ॥
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चतुर्थस्तु तिनिर्णयः ।
.३५
अस्य जाषा ॥ साधुयोंकों एक अहोरात्रमें सा तवार चैत्यवंदा करनी और श्रावकोंकों तीनवार, पांचवार यरु सातवार करनी, तिसमें प्रथम सा धुयोंकों एक अहोरात्रमें सातवार चैत्यवंदना कि सतरेंसे होवे सो कहते है || पडि० ॥ एक प्रजातके प्रतिक्रमणेके पर्यंतमें, दूसरी तदपीछे श्रीजिनमंदिर में जाकर करनी, तदपीछे तीसरी जोजन समयमें, तदपीछे चौथी जोजन करके पीछे चैत्यवंदना करके प्रत्याख्यान करे, पांचमी संध्याके प्रतिक्रमणेकी या दिमें प्रारंभ में, बही रात्रिमें सोनेके समयमें, सात मी सूतां नया पीछे करनी यह साधुयोंके चैत्यवं दन करनेका वखत कह्या और श्रावकतो जो उन यकालमें प्रतिक्रमणा करता होवे सो तो साधुकी त रें सात वार चैत्यवंदना करे, अरु जो पडिक्कमला न करे सो पांचवार चैत्यवंदना करे, और जघन्यसें ज धन्य तीनवार करे. इस पाठ में पडिक्कमकी साद्यं तमें चार थुकी चैत्यवंदना करनी कही है ॥ १ ॥ इसी तरे श्री अजितदेवसूरि अर्थात् वादीदेवसूरिजिन का करा चौरासी सहस्र (८४०००) श्लोक प्रमाण स्यााद रत्नाकर ग्रंथ है, तिनोकी करी यतिदिनच
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३.६
चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
यमेंजी यह चोशठमी गाथाका पाठ है | पडिक्कम से चेहरे, जोय समयंमि तहय संवरणे ॥ पडिक्कम ण सूयण पडिवो ह, कालियंसत्तहा जश्णो ॥ ६४ ॥ यह चौशमी गाथाका अर्थ उपर वत् जानना ॥ २ ॥ इसीतरेका पाठ प्रतिक्रमणेकी यादि में चारखुइसें चैत्य वंदन करणेका ३ धर्म संग्रह, ४ वृंदारुवृत्ति, ५ श्रा5 विधि, ६ अर्थ दीपिका, ७ विधिप्रपा, खरतर बृ हत्समाचारी, ए पूर्वाचार्यकृत समाचारी, १० तपग श्री सोमसुंदरसूरिकृत समाचारी, ११ तपगले श्री देवसुंदरसूरिकृत समाचारी, तथा औरजी श्रीकालिका चार्य सूरि संतानीय श्री जावदेवसूरिविरचित यतिदि नचर्यादि ने शास्त्रोंमें पडिक्कमकी याद्यंतमें चा र घुसें चैत्यवंदना करनी कही है. यह ग्रंथोकों न लंघन करके रत्न विजयजी अरु घनविजयजी जो प डिक्कमकी आद्यंतमें चार थुइकी चैत्यवंदना निषेध करते है, और तीन थुकी चैत्यवंदना करनेका उप देश देतें है. यह इनका मत जैनमतके शास्त्रोंसे श्र र पूर्वाचार्यो की समाचारीयोंसे विरुद्ध है. इसके वा स्ते जैनधर्मी पुरुषोंकों इनकी श्रद्धा न माननी चाहि यें. कदाचित् पूर्वकालमें अजाण परोसें माननेमें या
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ई होवे तो, वो तीन करण अरु तीन योगसें वोसरा वणी चाहीयें, क्योंके ? एकतो जैनशास्त्र विरोधी, दूस रा पूर्वाचार्योंकी समाचारियोंका विरोधी, तीसरा च तुर्विध श्रीसंघका विरोधी यह विरोध करणेवाला क दापि संसार समुश्सें न तरेंगा ॥
पूर्वाचार्योंका विरोधी इसी तरें होता है, के एक श्री हरिनइसरि १४ ४ ४ ग्रंथोके कर्ता, दूसरा श्रीनेमिचं सूरि प्रवचनसारोदार ग्रंथका कत्तों, तीसरा श्रीसिह सेनसूरि प्रवचनसारोवारको टीकाका कर्ता, चौथा श्री बप्पजट सरियामराजाको प्रतिबोध करणे वाला.ति नोने चौवीश तीर्थकरोंकी एकेक शुश्के साथ तीनती नथु दूसरी करी है. तिसमें एक सर्व जिनोकी, एक श्रुतझानकी अरु एक शासनदेवताकी इसीतरें दानवे ए६ थुइ करी है, जिनका जन्म विक्रम संवत् ७०२ की सालमें हुआ है. तथा दूसरा श्रीजिनेश्वर सूरिका शिष्य और नवांगी वृत्तिकार श्रीअजयदेव सूरिका गु रुनाइ तिसने शोनन स्तुतिमें चोवीश जिनके संबंधसें चौवीश चोकडे बानवे युद्ध करी है इस्से श्रीयनयदेव सूरिजी नवांगी वृत्तिकारक और तिनके गुरु श्रीजिने श्वर सूरि प्रमुख गुरुपरंपरायसें सर्व चार थुइ मानतेथे.
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३० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। जेकर चौथी थुइ पूर्वोक्त पुरुषो नही मानतेथे असा कहेगे तो तिनके शिष्य और गुरु नाई किस वास्ते चौथीथुश्की रचना करते ? तथा उत्तराध्ययनसूत्रकी वृत्तिकारक श्रीशांतिसूरिजीने संघाचारचैत्यवंदन म हानाष्यमें चार थुइ कही है, तथा श्रीजगचंसरि क्रियानधारका कर्ता, तपस्वी, महाप्रनाविक, राणा की सलामें तेतीस ३३ रुपणकाचार्योकों वादमें जी त्या, तपाबिरुद धारक तिनका शिष्य परमसंवेगी, झा ननास्कर, श्रीदेवेंसू रिजीने लघुनाष्यमें चारथुइकही है. तथा श्रीबृहद्गबैकममन श्रीमुनिचंइसरिजी औ र तिनका शिष्य श्रीवादी देवसरिजीने ललितविस्त राकी पंजिका और यतिदिनचर्या में चार थुइ कथन करी है, तथा नवांगी वृत्तिकार श्रीअजयदेवसूरिजी के शिष्य श्रीजिनवननसूरिजीने समाचारीमें चार थु 5 कथन करी है, तथा कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद सूरिजीने योगशास्त्र में चार थुइ कथन करी है, तथा श्रीधर्मघोषसूरिजीने संघाचारवृत्तिमें चार थुइ कथन करी है, तथा श्रीकुलममनसूरिजी तथा श्रीसोमसुंद रसूरि तथा देवसुंदरसूरि तथा नरेश्वरसूरि तथा श्रीना वदेवसूरि तथा तिलकाचार्य तथा श्रीजिनप्रनसूरिजी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ३५ फुरोज बादशाहका प्रतिबोधनेवाला तथा श्रीजयचं सूरिजी श्नोने क्रमसें विचारामृतसंग्रहमें अपनी अप नीरची तीन समाचारीयोंमें, यतिदिनचर्या में, समाचा रीस्वकीयमें, विधिप्रपामें, प्रतिक्रमणा गर्नित हेतु ग्रंथ में, चैत्यवंदनामें चार चार थुई कहनी कथन करी है. तथा श्रीमान विजय उपाध्यायजीने तथा श्रीमत्यशो विजय नपाध्यायजीने तथा श्रीनमि नामा साधुने त था तरुणप्रनसूरिजीने क्रममें धर्मसंग्रहमें, प्रति क्रमणाहेतुगनितमें, षडावश्यकमें, षडावश्यक बाला वबोधमें, चार थुई कहनी कही है, इत्यादि दूसरेनी अनेक आचार्योने चार शुई कहनी कही है, इन स व आचार्योंकी गुरुपरंपरा और शिष्यपरंपरासें हजारो श्राचार्योने चारथुई मान्य करी है. इस वास्ते हमकों बडा शोक नत्पन्न होताहै के श्रीजिनशास्त्रोंके और ह जारो श्राचार्योंके और श्रीसंघके विरु६ पंथ चलाने वाले रत्नविजयजी और धन विजयजी इनका क्योंकर कल्याण होवेगा! और श्नोंका कहना मानने वाले जोले श्रवकोंकीनी क्या दशा होवेगी ?
अथाये कितनेक पूर्वोक्त ग्रंथोंका पाठ लिखते है. जिसके वांचनेसें जव्यजीवोंकों मालुम हो जावे के, र
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। नविजयजी अरु धन विजयजी जो चौथी थुश्का नि षेध करते है, सो बडा अन्याय करते है ! - प्रथम ललितविस्तरा ग्रंथका पात लिखते है। वेयावञ्चगराणं संतिगराणं सम्मदिहि समाहिगराएं करेमि कानस्सग्ग मित्यादि यावछोसिरामि व्याख्या पूर्ववत् नवरं वैयावृत्त्य कराणां प्रवचनार्थ व्याप्टतना वानां यदाम्रकूष्मांमादीनां शांतिकराणां दुशेपश्वेषु सम्यग्दृष्टीनां सामान्येनान्येषां समाधिकराणां स्वपर योस्तेषामेव स्वरूपमेतदेवैषामिति वृक्षसंप्रदायः। ए तेषां संबंधिनं । सप्तम्यर्थे षष्ठी। एतषियं एतानाश्रि त्य करोमि कायोत्सर्ग । कायोत्सर्गविस्तरः पूर्ववत् । स्तुतिश्च नवरमेषां वैयावृत्त्यकराणां तथा तनाववरि त्युक्तप्रायं तदपरिझानेप्यस्मात्तबुनसिक्षाविदमेव व चनं ज्ञापकं नचासिक्षमेतदामिवारुकादौ तथेदणात् सदौचित्य प्रवृत्त्या सर्वत्र प्रवर्तितव्यमित्यैदं पर्यमस्य तदेतत्सकल योगबीजं वंदनादिप्रत्ययमित्यादि न प व्यते अपित्वन्यत्रोवसितेनेत्यादि तेषामविरतत्वात् सामान्यप्रवृत्तेरिखमेवोपकारदर्शनात् वचनप्रामाण्या दिति व्याख्यातं सिदेच्य इत्यादिसूत्रम् ॥ ..
अस्य नावार्थः-जिनशासनकी उन्नति करनेमें व्या
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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पारवाजे है, और कुशेपश्वमें सम्यकदृष्टियोंकों शां तिके करनेवाले और समाधिके करनेवाले वैसा जो कूष्मांम, यात्रादि यह इनकों व्याश्रित्य होके कायो त्सर्ग करता हूं, कायोत्सर्ग करके तिन शासनके र क देवतांयोंक थुई कहनी इत्यादिक कहनेसें श्री हरिसूरिजी ने चौथी थुईका कहना यावश्यकमें क हा है. इसका जो निषेध करे सो जैनशासनमें नही है पैसा जाननां ॥
तथा श्रीप्रवचनसारोदारमें श्रीनेमिचंद सूरिजीनें सा पाठ कहा है | पढमं नमोबु १, जेई या सि - २, अरिहंत चेश्याएं ३, ति लोगस्स ४, सबलोए ५, पुरकर ६, तमतिमिर 9, सिद्धाणं ॥ ८८ ॥ जो दे वाणवि ए, नऊत सेल १०, चत्तारिषदसदोय ११, वेयावञ्चगराएणय १२, अहिगारुल्लिंगण पयाई ॥ ८ ॥ इस पाठके बारमें अधिकार में शासन देवताका कायोत्सर्ग और चौथी थुई कहनी कही है ॥ २ ॥ ३
की टोकामें सिसेनाचार्ये चार थुइसें चैत्यवंदना क रनी कही है. तथाचतत्पाठः ॥ समयभाषया स्तुति चतुष्टयं ॥ तिनसें जो चैत्यवंदना सो मध्यम चैत्यवं दना जाननी ॥ ३ ॥
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४२ . चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ___ तथा श्रीउत्तराध्ययनकी वृहदवृत्तिकार श्रीशांति सूरिजीने संघाचार चैत्यवंदना महानाष्यमें चोथी शु का पूर्वपद उत्तरपद करके अन्जी तरेसें स्थापन क रा है.सोनाष्यका पाठ यहां लिखते है॥ वेयावज्ञगरा एं संतिगराणं सम्मदिहि स॥अन्नबका ॥ वेयाव चंजिणगिह, ररकण परिवणाजिकिच्च॥ संतीपड पीयकन, उवसग्गविनिवारणं नवणे ॥७६॥ सम्मदि ही संघो. तस्स समाहमणो उहाजावो ॥ एएसिकर एसीला, सुरवरसाहम्मिया जे न ॥ ॥ ७ ॥ तेसिं समाजवं, कानस्सग्गं करेमि एताहे ॥ अन्नवससि याई, पुवत्तागार करणेणं ॥ ७॥ एबन जणेय कोई, अविरगंधाणताणमुस्सग्गो ॥ नदु संगबर अम्हं,सा वयसमणेहिं कीरत्तो ॥ ७ए ॥ गुणहीणवंदणं खलु, न दु ज्जुत्तं सव्वदेस विरयाणं ॥ जण गुरु सच्चमिणं, एत्तो चियएउ नहि नणियं ॥ ७० ॥ वंदण पूयण सक्का, रणाइ हेनं करेमिकास्सग्गं ॥ वबलं पुणजुत्तं, जिणमयजुत्ते तणुगुणेवि ॥ १ ॥ ते दुपमत्ता पायं, काउस्सग्गेण बोहिया धणियं ॥ पडिउद्यमंति फुड, पाडिहेर करणे दबाह ॥ ७ ॥ सुच्च सिरिकंताए, मणोरमाए तहा सुनदाए ॥ अनयाइणं पि कयं, स
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ४३ नेद्यं सासणसुरेहिं ॥ ७३ ॥ संघस्सगा पायं, वडा सामबमिह सुराणंपि ॥ जहसीमंधरमूले, गमणे मा हिनवि वायंमि ॥४॥जरका एवा सम.सीमंधर सामिपायमूलंमि ॥ नयणं देवी एकयं, कास्सग्गे ण सेसाणं ॥ ५ ॥ एमाहिं कारणेहिं, साहम्मिय सुरवराण वचनं ॥ पुत्वपुरिसेहिं कीरइ, न वंदणादेन मुस्सुग्गो ॥७६ ॥ पुत्वपुरिसाणमग्गो, वचंतो नेय चु कर सुमग्गा ॥ पानण नावसुधि, सुच्च मिला विगप्पेहिं ॥ ७ ॥
इनकी नाषा लिखते है ॥ वैयावृत्त्य कहियें जि नमंदिरकी रक्षा करनी, परिस्थापनादि जिनमतका कार्य करना, शांति सो जिननवनमें प्रत्यनीकके करे दए नपसर्गोका निवारण करना ॥ ७६ ॥ सम्यक्ह ष्टि श्रीसंघ तिसकों दो प्रकारकी समाधिके करनेवा से ऐसा शील कहते स्वनाव है जिन साधर्मी देवता योंका ॥ ७७ ॥ तिनकू सन्मान देनेके वास्ते अन्न बनससियाए आदि धागार करनेसें अबमें कायोत्सर्ग करता हूं॥७॥ इहांको कहे के अविर ति देवतायोंका कायोत्सर्ग करना यह हम श्रावक और साधुयोंकों की क संगत नही है ॥ ७ ॥ क्यों के गुणहीनकू वंद
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४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । ना करनी यह सर्व विरति अरु देशविरतिकू युक्त न ही है. अब इसका नत्तर गुरु कहते है. हे.जव्य तेरा कहना सत्य है इसवास्तेही इहां नही कहा ॥७॥ वंदण पूयण सकार हेतु वास्तेमें कायोत्सर्ग करता हूं. ऐसा नही कहा; परंतु साधर्मी वत्सल तो जैन म तमें अल्पगुणवाले के साथनी करना इसवास्ते यह जो शासन देवतायोंका कायोत्सर्ग करना है सो बदमा न देणे रूप साधर्मी वत्सल है॥७१ ॥क्यों के यह शासन देवता प्रायें प्रमादी है, इसवास्ते कायोत्स ग्गवारा जाग्रत करेदए शासनकी उन्नति करने में न त्साह धारण करते है ॥ ७२ ॥ शास्त्रोमें सुनते है के सिरिकंता, मनोरमा, सुनश अरु अनयकुमारादि कोंको शासनदेवतायोंने साह्य करा ॥७३॥ श्रीसं घके कायोत्सर्ग करनेसें गोष्ठामा हिनके विवादमें शा सनदेवता सीमंधरस्वामिके पास गये, वहां जाकर सत्यका निर्णय करा ॥ ४ ॥ शेष संघके कायोत्स गर्ग करनेसें यहा साध्वीकों शासन देवी सीमंधरस्वा मीके पास लेग ॥ ७५ ॥ इत्यादिक कारणो करके चैत्यवंदनामें देवतायोंके साथ साधर्मी वलरूप कायोत्सर्ग पूर्वाचार्योने करा है परंतु देवतायोंकों
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चतुर्थस्तु तिनिर्णयः ।
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वंदा वास्ते नही करा है ॥ ८६ ॥ इसवास्ते पूर्वाचा योंके मार्गमें चलनेसें जलें मार्गसें कदापि पुरुष चष्ट नही होता है, परंतु पूर्वाचार्योंके चलेदूए मार्गमें चलने से अनेक मिथ्या विकल्पोंसे लूटके पुरुष जाव शुद्धिकों प्राप्त होता है इस वास्ते पूर्वाचार्योंका च लाया शासनदेवतायोंका कायोत्सर्ग नित्य चैत्यवंद नामें करना ॥ ८७ ॥ पारिय काजरसग्गो, परमेठीणं च' कयनमोक्कारो ॥ वेयावच्चगराणं, देवथुइ जरकपमु हाणं ॥ ८८ ॥ व्याख्याः - कायोत्सर्ग पारकें, परमे ठों नमस्कार करके, वैयावृत्तके करनेवाले शासन देवतायोंकी थुइ कहे ॥ ८८ ॥
सा प्रगट नाष्यका पाठ देखके जो कोई चोथी थुइका निषेध करे तिस्कों जैनमतकी श्रद्धा रहित के सिवाय अन्य कौनसे शब्द करके बुलाना ?
जैसे जैसे बडे बडे महान शास्त्रोंके प्रगट पाठ है तोजी रत्नविजयजी अरु धनविजयजीकों देखने में नही आते है सो कर्मी विषमगतिही हेतु है ब दूसरा क्या कहनां ? ॥
तथा चौरासी हजार श्लोक प्रमाण स्याद्वाद रत्ना कर ग्रंथका कर्त्ता सुविहित देवसूरिजी की करी यति
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४६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। दिनचर्याका पाठ यहां लिखते हैं। नवकारेण जहन्ना, दंगथुजुअलमधिमा नेआ ॥ नक्कोसा विहिपुबग्ग, सकबय पंचनिम्माया ॥६५॥ व्याख्याः-नमस्कारेणां जतिबंधेन शिरोनमनादिरूपप्रणाममात्रेण या न मो अरिहंताणमित्यादिना वा एकेन श्लोकादिरूपेण नमस्कारेणेति जातिनिर्देशाबदुनिरपि नमस्कारेण प्रणिपातापरनामतया प्रणिपातदंझकेनैकेन मध्या म ध्यमा दमकश्च अरिहंत चेश्याणमित्यायेकस्तुतिश्चैका प्रतीता तदंते एव या दीयते ते एव युगलं यस्याः सा दमकस्तुति युगला चैत्यवंदना नमस्कार कथना नंतरं शकस्तवोप्यादौ जस्यते वादंम्योः शक्रस्तवचैत्य स्तवरूपयोयुगं स्तुत्योश्च युगं यत्र सा दंमस्तुतियु गला हवैका स्तुतिश्चैत्यवंदन गंमककायोत्सर्गानंतर श्लोकादिरूपतयाऽन्यान्य जिनचैत्यविषय तयाऽध्रुवा त्मिका तदनंतरं चान्या ध्रुवा लोगस्सु जोधगरे इत्यादि नामस्तुतिसमुच्चाररूपा वा दंमकाः पंच शकस्तवादयः स्तुति युगलं च समय नाषया स्तुतिचतुष्कमुच्यते यत आद्यास्तिस्त्रोऽपि स्तुतयो वंदनादि रूपत्वादेका गएयते चतुर्थीस्तुतिरनुशास्तिरूपत्वाहितीयोच्यते त था पंचनिदैमकैः स्तुतिचतुष्केण शकस्तवपंचकेन
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ४७ प्रणिधानेन चोत्कृष्टा चैत्यवंदनेति गाथार्थः ॥ इस पातमें चार थुश्सें चैत्यवंदना करनी कही है तथा फेर इसी यतिदिनचर्या में प्रतिक्रमण करनेका विधीमें गाथा जिणवंदणमुणिनमणं, सामाश्य पुवकाउस ग्गोय ॥ देवसिथं अश्वारं, अणुकम्मसो स्वचिंतेजा ॥ २९ ॥ जिनवंदनं करोति चैत्यवंदनं कृत्वा देववंदनं करोति देववंदनं कृत्वा गुरुवंदनं करोति यथा जगव नहमित्यादि ॥ इस पातमें प्रतिक्रमणके प्रारनमें चार घुसें चैत्यवंदना करनी कही है ॥ तथा फेर इसी दिनचर्या में ॥ चरणे १ दंसणं २ नाणे ३ नजोया उनि १ इक ३ इक्कोथ ३॥ सुत्र वित्त देवयाए, थुइ अंते पंचमंगलयं ॥३७॥ व्याख्या तदनु चारित्रविधि शुक्ष्यर्थ कायोत्सर्गः कार्यः तत्रोद्योतकरध्यं चिंतनीयं १ दंसणनाणेत्यादि ॥ ततो दर्शनशुद्धिनिमित्तमुत्सर्गस्त त्रैकोद्योतकरचिंतनं ॥ २ ॥ तदनु ज्ञानशुदिनिमित्तमु त्सर्गस्तत्राप्येकोद्योतकर चिंतनं ॥३॥ सुअदेवय खित्त देवया एत्ति ॥ तदनु श्रुत समृद्धि निमित्तं श्रुतदेव तायाः कायोत्सर्गमेकनमस्कारचिंतनं च कृत्वा त दीयां स्तुलिं ददाति अन्येन दीयमानां शृणोति वा ततः सर्वविघ्ननिर्दलननिमित्तं देव देवतायाः कायो
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
सर्गः कार्यः एक नमस्कार चिंतनं कृत्वा तदीयां स्तु तिं ददाति परेण दीयमानां वा शृणोति स्तुत्यंते पंच मंगलं नमस्कारमनिधायोपविशतीति गाथार्थः ॥ ३७ ॥
इस पाठ में श्रुतदेवताका और क्षेत्र देवताका कायो त्सर्ग करनां कहा है, और इन दोनोंकी चुइ कहनी कही है श्रीदेवसूरिजी जिनोनें सिद्धराज जयसिंहकी सनामें कुमुदचंद दिगंबरकूं जीत्या जिनके खागें सा ढें तीनको ग्रंथका कर्त्ता श्रीहेमचंद सूरि बाजक पु त्रकी तरें बैठे थे. और जिन श्रीदेवसूरिजीने चौरासी हजार श्लोकप्रमाण स्याद्वादरत्नाकर ग्रंथ रचा था ति नके शिष्य श्रीरत्नप्रसूरिजीने रत्नाकरावतारिका लघु वृत्ति रची, जिनके वचनोकों जैनमतमें कोनी विधा न् प्रमाणिक नही कही शक्ता है, और यह श्रीदे वसूरिजी के गुरु श्रीमुनिचं सूरि थे तिने जावजीव यांचाम्ल तप करा है, जिनकी रची योगबिंदु, धर्म बिंड, उपदेशपद प्रमुख अनेक ग्रंथोकी टीका है, ति नोने ललित विस्तराकी पंजिकामें चार थुइसें चैत्यवंद ना करनी कही है, जैसे महान्पुरुषोके कथन करेकी जेकर रत्नविजयजी और धनविजयजीकूं प्रतीति न ही तो इन स्तोक मात्र या तहा पठन करे हूए रत्न
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। विजयजी धनविजयजीके कहनेंकू कौन बुद्धिमान स त्य मानेगा. क्योंके रत्नविजय अरु धनविजयजीकू स मजावने वास्ते जेकर महाविदेह देवसें केवलीनग वान यावे असा तो संभव नही है परंतु पूर्वाचार्यों के वचन कपर प्रतीति रखनी चाहियें सो तो इन दोनोकों नही है तब इनका मत सम्यकदृष्टी पुरुषतो कोश्नी नही मानेगा.
तथा श्रीश्रणदिल्लपुर पाटण नगरें फोफलवाडा नांमागारे प्राचीनाचार्यकृत सामाचार्याका पुस्तक . है, तिनका पाठ यहां लिखते है ॥ ___जिणमुणिवंदण अश्या, रुस्सग्गो पुत्तिवंदणालोए ॥सुत्तेवंदण खामण, वंदण चरणा उस्सग्गो ॥४॥ उलोअशक्तिका, सुअखिनस्सग्ग पुत्ति वंदपए ॥ शुद्ध तिथ नमुबत्तं, पति तुस्सग्गु सनान ॥५॥ पुनरपि अ पहिल्लपुरपट्टननगरे फोफलवाडा नांमागारे कालि काचार्य संतानीय जावदेवसूरि विरचित यतिदि नचर्यायां अथ देवसिक प्रतिक्रमणस्य स्वरूपं निरूप यति ॥चेश्य वंदणजयवं, सूरि उवनाय मुणि खमासम णा ॥ सबसवि सामाश्य, देवलिय अश्यार नस्सग्गो ॥ ३३ ॥ व्याख्या-तत्रादौ चैत्यवंदनं अरिहंत चे
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५० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। याणमित्यादि पश्चाञ्चत्वारि माश्रमणानि 'नगवान सूरि उपाध्याय मुनि' इत्यादिरूपाणि । पुनरपि तत्रैव चैत्यवंदनाः कियंत्य इत्याशंक्याह ॥ पमिकमणे चेश्ह रे, जोयणसमयंमि तहय संवरणे ॥ पमिकमण सुय ए पमिबो, हकालियं सत्तह जश्णो॥ ६३ ॥ व्याख्या ॥ साधोः प्रथमा चैत्यवंदना प्रतिक्रमणे रात्रिप्रतिक मणे ॥१॥हितीया चैत्यगृहे जिननवने ॥॥ तती
या जोजनसमये आहारवेलायां ॥३॥ चतुर्थी संवर . णे कृतनोजनः साधुः सततं चैत्यवंदनां करोति ॥३॥
तथा पंचमी प्रतिक्रमणे दैवसिकप्रतिक्रमणे ॥ ५ ॥ षष्ठी शयने संस्तारककरणसमये ॥ ६॥ सप्तमीप्रति बोधकाले निशपरित्यागे ॥ ७॥ एताः सप्त चैत्यवंद नाः यतिनो ज्ञातव्याः, यदादुः साहूण सत्तवारा, हो
अहोरतमनयारंमि ॥ गिहिणो पुणचियवंदण, ति यपंचसत्तवावारा ॥ १ ॥ पमिकम गिहिणो वि दु, सत्तविहं पंचहा उ इयरस्स॥हो जहन्नेण पुणो, तो सु विसंजासु श्य तिविहं ॥॥६३॥अथ तस्याश्चैत्य वंदनाया जघन्यादयः कियंतो नेदा इत्याशंक्याह ॥ नवकारेण जहन्ना, दंग थुइ जुयल मनिमा नेया॥ उक्कोस विहिपुवग, सकबय पंचनिम्माया ॥६॥ व्या
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ५१ रख्या ॥ नमस्कारः प्रणामस्तेन जघन्या चैत्यवंदना स नमस्कारः पंचधा एकांगः शिरसो नमने, धंगः करयो हयोः, व्यंगः त्रयाणां नमने करयोः शिरसस्तथा ॥१॥ च पुनः करयोर्जान्वोः नमने चतुरंगकः,शिरसः करयो र्जान्वोः पंचांगः पंचमो मतः ॥२॥ यहा श्लोकादिरू पनमस्कारादिनिर्जघन्या ॥ १ ॥ अतो मध्यमा ६ तीया सा तु स्थापनार्हत्सूत्रदंगकैस्तुतिरूपेण युगले न नवति अन्ये तु दमकानां शकस्तवादीनां पंचकं त था स्तुतियुगलं समया जाषया स्तुतिचतुष्टयं तान्यां या वंदना तामाङः। या दंडकः शक्रस्तवः स्तुत्योर्युगलं अरिहंतचेश्याएं स्तुतिश्चेति ॥ यत आवश्यकचूर्णी स्थापनाईतस्तवचतुर्विशतिस्तवश्रुतस्तवाः स्तुतयः प्रो ताः एते मध्यम चैत्यवंदनाया नेदा उत्कृष्टा वि धिपूर्वकशकस्तवपंचनिर्मिताः। तथा उत्कृष्टा तु श कस्तवादिपंचदंडकनिर्मिताः जयवीरायेत्यादिप्रणिधा नान्ता चेत्यवंदना स्यात, अन्ये तु शकस्तवपंचकयु तामादुः। तत्र वारध्यं चैत्यवंदनाप्रवेशत्रयं निष्क्रमण ध्यं चेति पंचशकस्तवी ॥ ६४॥ - इसी रीतीसे पाटणनगरके फोफलियावाडाके नं मारमें पूर्वाचार्यकृत समाचारी और यतिदिनचर्या
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
में प्रतिक्रमणकी यादिमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है और श्रुतदेवता, देवदेवताका कायोत्सर्ग करणा कहा है और श्रीनवदेवसूरिजीने यति दिनचर्या में प्रतिक्रमणमें चार खुश्की चैत्यवंदना करनी कही है और श्रुतदेवता अरु क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग और थुइ कहनी कही है तथा चैत्यवंद नाके मध्यमोत्कृष्ट जेदमेंजी चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है ॥
तथा पंचवस्तु ग्रंथ में इस मुजब पाठ है सो लि खते है | थुइ मंगलंमि गुरुणा, नच्चरिए सेसे १ स गा थुई बिंति ॥ चि ंति तर्जथेवं, कालं गुरु पाय मूल् म्मि || || व्याख्या ॥ स्तुतिमंगले गुरुणा श्राचार्येए उच्चारिते सति ततः शेषाः साधवः स्तुतीर्बुवते ददर्त त्यर्थः । तिष्ठति ततः प्रतिक्रांतानंतरं स्तोकं कालं केत्या ह गुरुपादमूले याचार्यातिके इति गाथार्थः । प्रयोजन माह । पम्हे हमे रसायण उफेडिन हवइ एवं ॥ यावरणासु देवय, माइणं होइ उस्सग्गो ॥ ५१ ॥ त त्र विस्मृतं स्मरणं नवति विनयश्व फटितो नामतीतो नवत्येव उपकार्यासेवनेन एतावत्प्रतिक्रमणं श्राचर पात् श्रुतदेवतादीनां नवति कायोत्सर्गः । यत्र आदि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ५३ शब्दात् क्षेत्रनवनदेवतापरिग्रहः । इति गाथार्थः ॥
इस प्रकारे श्रीहरिनइस रिजीने पंचवस्तु शास्त्र में आचरणासें श्रुतदेवता और देव देवताका कायोत्स गे करना कहा है, तो यह श्रुतदेवता अरु देत्रदेव ताका कायोत्सग्गंकरण रूप याचरणा पूर्वधारियों के समयमेंनी चलती थी तिस्का स्वरूप विचारामृत संग्रह ग्रंथकी सादीसें नपर लिख आये है. तो पूर्व धारियोंकी आचरणाका निषेध करना यह महा अ नर्थका मूल है, निषेध करनेवाले रत्नविजयादि ऐसे नही सोचते होवेगे के, हम तुबबुधिवाले होकर पू बंधारियोंकी आचरणाका निषेध करके कौनसी प्रतिमें जावेगे!!
तथा श्रीवृंदारुवृत्तिका पाठ लिखते है. एवमेतत्प त्विोपचितपुण्यसंनार नचितेष्वौचित्यप्रवृत्त्यर्थमिद माह वेयावञ्चगराणमित्यादि । वैयावृत्त्यकराणां प्रव घनाथै व्याप्टतनावानां गोमुखयदादीनां शांतिकरा पणां सर्वलोकस्य सम्यग्दृष्टिविषये समाधिकराणां एषां संबंधिना षष्ठया सप्तम्यर्थत्वादेतहिषयं वा आश्रित्य करोमि ॥ कायोत्सर्ग अत्र वंदरावत्तियाए इत्यादि न प्रयते तेषामविरतत्वात् अन्यत्रोसितेनेत्यादि पूर्वव
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
त् । ततः एषां स्तुतिं जपित्वा प्रागुक्तवस्तवं च ॥ प्रतिक्रमणविधिश्व योगशास्त्रवृत्त्यंतर्गतान्यः चिरंतना चार्यप्रणीताच्या गाथान्योऽवसेयः । पंच विहायार विसु, निमिह साहु सावगो वावि ॥ पडिक्कमणं स ह गुरुणा, गुरुविरहे कुइ इक्को वि ॥ १ ॥ वंदितु चेश्याई, दानं चनराइए खमासमणे || नूमिनिदिश्र सिरो सलाइयार मिठोक्कडं देई || २ || सामाश्य पुव मिला, म गइनं कानसग्गमिचाइ || सुत्तं नलि अ परंवित्र्य, नूयकुप्पर धरि पहिरन ॥ ३ ॥ घोडगमाई दोसेहिं विरहियंतो करेइ उस्सगं ॥ नाहि हो जाएगूढं, चनरंगुलवश्य कडिपट्टो ॥ ४ ॥ naraरे दिए, जक्कमं दिलकए श्रईयारे ॥ पारे तु मोक्कारे, एा पड चनवोसथयं दमं ॥ ५ ॥ संमास गे पमति, नवविसि लगा वित्र्यबाहुजु ॥ मुहणं तगं च कायं च पेहए पंचवीस हा ॥ ६ ॥ नविय सिवियं, विहिया गुरुणो करेइ किश्कम्मं ॥ बत्तीस दोसर दियं, पणवी सावस्सग विसुधं ॥ ७ ॥ श्रह संमम वायंगो, करजु विधिरि पुत्तिरयहरणो ॥ परिचिंतईयार, जदक्कम्मं गुरुपुरोविडे ॥ ८ ॥ हनव विसित्तु सुतं, सामाइय माझ्यं पदिय पय ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ५५ अतिम्हि श्चाई, पढई उहनविन विहिणा ॥ ५ ॥ दाकण वंदणं तो,पणगाई सुज सुखा मए तिमि॥ किश कम्म करिब था, यरिबमाईगाहातिगं पढए ॥१०॥ श्य सामाश्य उस्स,ग्ग सुत्तमुच्चरित्र काउस्सग्गहिन॥ चिंतनलोयगं. चरित्त अध्यारे मक्षिकए ॥११॥ विहिणा पारिथ संमत्त सुदिहेतुं च पढ उजोध॥ तह सबलोग अरहं, त चेश्याराहणुस्सग्गं ॥ १ ॥ का उलोअगरं, चिंतिअपारेसु सम्मत्तो ॥ पुरकर वरदीवडूं, कट्टर सुहण निमित्तं ॥ १३ ॥ पुणपणवी स्सुस्सासं, उस्सग्गं कुण पारण विहिणा ॥ तो स यल कुशल किरिया, फलाणसिक्षाण पढथयं ॥१४॥ अहसुथ समिति हे, सुधदेवीए करेइ नस्सग्गं ॥ चिंते नमुक्कार,सुण व दे व ती थु॥१५॥एवं खेत्त सुरीए, उसग्गं कुण सुण देश थुइ ॥ पडिकण पंच मंगल, मुवविसई पमङसमासे ॥ १६ ॥ पुत्वविहिणे वपेदिथ, पुत्तिं दाऊण वंदणं गुरुणो ॥ बामो अ पुसलिं, तिलणियजास्यूहिं तो ताई ॥ १७ ॥ गुरुथुइ गहणे शुइतिमि वक्ष्माण रकरस्सरा पढई ॥ सक्कल वथवं पढि,अ कुणा पवित्त स्सगं ॥१॥ हो जाषा यह वृंदारुवृत्ति श्रावकके आवश्यककी टी
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
का है तिसके अंतरगत चैत्यवंदना विधि है. तिसमें चा र इसे चैत्यवंदना करनी लिखी है. तिसमें चोथी चुके वास्ते पैसा पूर्वोक्त पाठ लिखा है. तिसका श्र र्थ कहते है. जैसे कहके पुण्य के समूह करके उपचि त होया या उचितों विषे उचित प्रवृत्तिके अर्थे सें कहे " वेयावच्च " वैयावच्चके करणहार, जिनशास नकों साहाय्यकारी गोमुख यक्तादिक सर्वलोककों शां ति करनेवाले, सम्यकदृष्टियोंकों समाधि करणहारे, इन संबंधि इनकों प्राश्रित्य होके कायोत्सर्ग करता हूं. हां वंदराव तिखाए इत्यादि पाठ न कहना, तिन के अविरत होनेसें अन्यत्रोव सितेनेत्यादि पूर्ववत् कहना ॥
तथा कलिकाल सर्वज्ञ बिरुद धारक साढेतीन को टी ग्रंथका कर्त्ता से श्री हेमचंद सूरिजीने योगशास्त्र में चिरंतन पूर्वाचार्योकी रचित गाथा करके प्रतिक्रम एका विधि लिखा है. तिसमें दैवसिकप्रतिक्रमणेकी यादिमें चैत्यवंदना चार थुइसें करनी कही है, तथा श्रुतदेवता देवदेवताका कायोत्सर्ग करना और ति नकी कहनी कही है इसीतरें श्राद्ध विधिमें पाठ लिखा है ||
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चतुर्षस्तुतिनिर्णयः। ५७ तथा तदारुवृत्ति पातः ॥ तत्र देवसिकादिप्रतिक्रम गविधिरमून्यो गाथान्योवसेयः, तत्रेदं देवसिकं । जि ए मुणिवंदण अश्या, रुस्सगो पुत्ति वंदणियालोए ॥ सुत्तं वंदण खामण, वंदण तिनेव उस्सग्गो ॥ १ ॥ चरणे सपनाणे, नळोबाउन्निश्काकोअ॥ सुअदेव या पुस्सग्गा, पुत्ती वंदण थुई थुत्तं ॥ २॥ इत्यादि.
शहां वृंदारूवृत्तिमें प्रतिक्रमेणेकी आदिमें चैत्यवंद ना और श्रुतदेवताका देवदेवताका कायोत्सर्ग क रणा कहा है अरु थुश्नी कहनी.
तथा चैत्यवंदन लघु नाष्ये ॥सुदिहिसुर समरणा चरिमे ॥ ४५ ॥ अर्थः-चैत्यवंदनाके बारमें अधिका रमें सम्यकदृष्टी देवताका कायोत्सर्ग करना और थुश् कहनी.
तथा प्रतिक्रमणागर्मित हेतु ग्रंथमें कह्या है सो पाठ लिखतें हैं ॥ अथ चावश्यकारंजे साधुः श्राव कश्रादौ श्रीदेवगुरुवंदनं विधत्ते, सर्वमप्यनुष्ठानं श्रीदे वगुरुवंदनबहुमानादिनक्तिपूर्वकं सफल नवतीति आह च ॥ विणयाहीयाविळा, दिति फलं इह परे थलोगंमि ॥ न फलंति विणयहीणा,सस्साणिवतो व हीणाणि ॥ ए ॥ नत्ती जिणवराणं, खिङति पुवसं.
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
चिया कम्मा ॥ थायरिय नमुक्कारेण, विका मंताय सिति ॥ १० ॥ इति हेतोर्द्वादश निरधिकारैश्चैत्यवं दनानाष्ये || पढमहिगारे वंदे, नाव जिणे वी एनदव जिसे || २ || इगचेश्य ग्वणजिणे, तश्य चमि नाम जिले ४ ॥ १ तिदुखणठवण जिणे पुल, पंचम ए विहरमा जिउठे ६ | सत्तमए सुनाएं, 9 अहम सवसिद्ध थुइ || २ || तिवादिव वीर थुई, नवमे ९ दशमे अ नजयंत थुइ १० अहावया गदसि ११ सुविधि सुरसमरणाचरिमे १२ ॥ ३ ॥ नमु १ जे २ अरिहं, ३ लोग ४ सङ्घ ५ पुरक ६ तम 9 सिद्ध जोदेवा ॥ उऊिं १० चत्ता ११ वेया, वञ्चग १२ अहिगार पढमपया ॥ ४ ॥ इति गाथोक्तैर्दै ववंदनं वि धाय चतुरादिदमाश्रमणैः श्रीगुरुन् वंदते ॥
यह सुसमिद, सुखदेवीए करेइ उस्सगं ॥ चिंते नमुक्कारं, सुई व देश्व तीइ खुई ॥ ५२ ॥ ए वं खितसुरीए, उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुई ॥ ॥ पढिनं च पंचमंगल, मुव विसर पमकसंमासं ॥ ५३ ॥ अर्थः-यावश्यकके यारंजमें बारां अधिकार पर्य त चैत्यवंदना करनी अर्थात् चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है, तथा यही ग्रंथमें श्रुतदेवता और
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
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देवदेवताका कायोत्सर्ग और तिनकी दो थुइ कहनी ऐसा कथन उपर के पाठमैं है .
तथा संवत् १९४३ के फाल्गुन चातुर्मासमें रत्न विजयजी, राजधनपुर नगर में थे तिस समयमें एक श्रावकके घरमें ताडपत्रोंपर लिखी हुई संघाचार ना मा लघुनायकी वृत्तिथी तिसकूं रत्नविजयजीनें वां ची और कहने लगेके देखो इस वृत्तिमेंजी तीन चुइ है इस्में हमारा मत सिद्ध है. तब तिनके पास जा नेवाले श्रावकोंने एक चिट्ठी लिखके तिस पुस्तकके पत्रेपर चेपदीनी तिस चिट्ठीकी नकल हम यहां लिखतें हैं |
संघाचार जायना पाना २९५ मां त्रण थो यो कही बे ते टीकाकारें कही वे सिद्धाबुदाणंनी कही वे ॥ तारे नरंव नारिवा ॥ वेयावञ्चगराणं क हेतुं ते कुोपड्व उडाववाने वास्ते पानुं ( ३०४ )
इस चिट्ठी के लेखसें रत्नविजयजीका कहना सब मिथ्या है ऐसा सिद्ध होता है. क्योंके सुननेवाला बिन बिचार वाले होते वो कुछ संस्कृत प्राकृत भाषा तो पढे नही है. तिनकों जो कोई जिसतरें बहका देवे तिसतरें वो बहक जाते हैं. अब देखोके जिस
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६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। पाठके वास्ते चिही चेपी है. तिस पाठसेंही रत्नवि जयजीका मत स्वकपोलकल्पित मिथ्या सिम हो जाता है. सो पाठ नव्य जीवोंके जानने वास्ते हम यहां लिखते हैं । उक्तंच संघाचार नाष्ये चरमे घा दशे अधिकारे। यावच्चगराणमित्यादि कायोत्सर्गक रणं तदीयस्तुतिदानपर्यते क्रियते इति शेषः। बौचित्य प्रवृत्तिरूपत्वाधर्मस्य अवस्थानुरूपव्यापारानावे गुणा नावापत्तेः । यतः औचित्यमेकमेकत्र गुणानां कोटिरे कतः ॥ विषायते गुणग्राम औचित्ये परिवर्जितः ॥ अपिच अनौचित्यप्रवृत्तो महानपि मथुरादपकवत् कुबेरदत्ताया नवत्यल्पानामपि प्रत्युच्चारणादिनाज नम् ॥ आह च ॥ आरंकापतिं यावदौचित्यं न वि दंति ये ॥ स्टहयंतः प्रजुत्वाय खेलनं ते सुमेधसाम् ॥ ॥ १ ॥ इदमत्र तात्पर्य । सर्वदापि स्वपरावस्थानुरू पया चेष्टया सर्वत्र प्रवर्तितव्यमिति ॥ उक्त च ॥ सदौचित्यप्रवृत्त्या सर्वत्र प्रवर्तितव्यमित्यैदंपर्यमस्ये ति ॥ मथुरादपककुबेरदत्तादेव्योः संविधानकं विदं ॥ इह कुसुमपुरे नयरे, दढधम्मो दढरहो निवो आसी। उचियपडिवत्तिवल्ली, पल्लवणे सजलजलवाहो ॥१॥ सर एक यावि अन,मंमलं गयणमंझले जाव ॥ परिस
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ६१ प्पेरं समंता, पासायतलहियो निय३ ॥ २ ॥ तास हसा तंप पव,णपडिहयं द चिंत विरत्तो ॥ खण दिनहरूवा, अहह कहं सचनावहिई ॥३॥ तथा हि-संपचंपकपुष्परागति रतिर्मत्तांगनापांगति, स्वाम्यं पद्मदलाग्रवारिकणति प्रेमा तडिदंडति ॥ लावल्यं करिकर्णतालति वपुः कल्पान्तवातनम, दीपहायति यौवनं गिरिणदीवेगत्यहो देहिनाम् ॥ ४ ॥ श्य चिं तिनं सविणयं, विणयंधर सुगुरुपास गहियवक ॥ गीयबो विहरतो, पत्तो सकयावि मदुरपुरि ॥ ५ ॥ तब हिक चळमासं,कुबेरदत्ताइ देवयाइ गिहे ॥ उत्तच तवचरणरज, निरन यावणविहाणे ॥ ६ ॥ विग हा निदाश्पमा, य वजि उयु सुहानाणो ॥ वासी चंदणकप्पो, समोयमाणा वमाणोय ॥ ७ ॥ तं दह हन्तुहा, कुंबेरदत्ताह जो मुणिवरित॥ पसियमहकहसु किंते, करेमि मणबियं कथं ॥॥ जण मुणीनचिय ब. नावन्नू दववित्तकालनू ॥ मंवंदाव सुजहे, सुमेरुसि हरिहिए देवे ॥ ए॥ देवी नणे एवं, करेमि करसंपुडेग हिकण ॥ ने सुमेरु सिहरे, लदुबंधावे सितं देवे ॥ ॥ १० ॥ आद मुणिक दुधिद, थीसंघट्टो वया यारकरो ॥ तामस्त वम्मसीले, अलं मब मणो
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६५ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । रहेण मिणा ॥ ११ ॥ तो सविसेसंतुघा, कु बेरदत्ता तहिं विणिम्मे ॥ गयण यलमषु लि हंतं, सुकिंकिणी जाल कयसोहं ॥१॥ जिणवर सुपा सबप्पडिम, पडिम समलंकियं अई विसालं ॥ उत्ता ए नयण प्पण,पिन्जणिव तिय मेहला कलियं ॥१३॥ वरसबरयण मश्य, सुमेरु नाम कियं महाथूनं ॥ तं द हुँ विहिय मणो, समुणि वंदर तहिं देवो ॥१४॥ थूनरयण मनुय, नूयं दळूण मिज दिीवि ॥ तश्याह रि सुकरिसा, जायाजिण सासणे जत्ता ॥१५॥ श्यंत मिथूनरयणे, सुपास जिण काल संनवंमि सया ॥ सुर किद्यमाण पिरकण,खणंमि सुबहू गन कालो॥१६॥ इतरंमि खवगो, सुदंसयो नाम नग्गतवचरणो ॥ विहरश्वसुहावलए, मदुराखव गुत्ति सुपसिको ॥१७॥ जवणे कुबेरदत्ता, संलिन सोकयाइ चनमासे॥आया वणाइ निरठ, उक्करतवचरण किसियंगो ॥ १७॥ त . तिव्वतवाकंपियहियया सा देवया नण सुमुणे ॥ मह कह सुकिंपि कचं,जेणं तं लदु पसाहेमि॥ १५ ॥ मुनिराह अनूचियन्न, किं मह कचं असंजई शतप ॥ साहमए तुह कवं, असंजई विधुवंहोही ॥ २० ॥ इय जणि अणुचियवय, सवण उप्पन्नमन्त्रुविवसमणा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ६३ ॥ देवीगया सहाणं, मुणिवि अन्नब विहरिना ॥१॥ अह तब निवसहाए,थूनकएसेय निस्कु निस्कूणं ॥जा न महंविवाउ, बम्मासेजाव नयबिन्नो ॥ २२ ॥ संघे ण त जणियं, कोजितु मलं विवाय मेयंतु ॥ हुँ मदुरा खमगो, तब मोजत्ति आहून ॥२३॥ तेण त वेणा कंपिय, हियया पत्ता कुबेरदत्ताह ॥ किंते करे मि कचं, स जण तं कध मादश्मा ॥२४॥ किंतुह असंज इए, विज्ञपिंहमएनए पनयण जायं ॥ तो अ लुतावा साद, से मिला कुक्कडं दे ॥ २५॥ साना इखवग पुंगव, सेय पमागाइ दसणा थूने ॥ गोसे त हा जश्स्सं,जह जिण श्मे नियय संघो ॥ २६ ॥ यदेवयाइ वयणं, सो खवगो कहे। संघस्स ॥ संघो वि गंतु साहर, एवं रन्नो जह नरिंद ॥ २७ ॥ जश्व म एस थूनो, तोश्ह होही पनाए सियपडागा ॥ यह निस्कूणं तत्तो, रत्ताश्य सुणिय नरनाहो ॥२॥ तथूनंरस्कावर, समंतन नियनरेंहिं अहदेवी ॥ पवय पनत्तापयडर, धूने गोसेसियपडागं ॥ तं पि सविसबरिय, अणन हरिसोनिको पुरी लो ॥ नरिक '5 कलयररवं, कुएमाणो नण वयणमिणं ॥३०॥ जयन जए महकालं, एसो जिणनाहदेसि धम्मो ॥
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चतुर्थस्तुतिमिषः
जयन इमो जिएसंघो, जयंतु जिणसासणे जत्ता ॥ ॥ ३१ ॥ दहु सुदिठिसुरसुम, रोलन उप्पणं पवय एम्स || चिरयरनखवगोपा लिनणचरणगर्न सुगई ॥ ३२ ॥ मथुरापकचरित्रं, श्रुत्वेत्वौचित्यवचो न व्याः ॥ प्रवचनसमुन्नतिकरी, सुदृष्टिसुरसं स्मृतिं कुरु तं ॥ ३३ ॥ इति मथुरापककथा ॥
te as धकारा यत्प्रमाणेन जयंते ॥ तदसंमां हनार्थ प्रकटयन्नाह ॥ नव हिगारा इह ललिय विवरा वित्तिमा सारा ॥ तिन्निस्य परंपरया वीउदसमोइ गारसमो ॥ ३५ ॥ इह द्वादशस्वधिकारेषु मध्ये नव अधिकाराः प्रथमतृतीयचतुर्थपंचमषष्ठसप्तमाष्टनवम द्वादशस्वरूपा या ललित विस्तराख्या चैत्यवंदना मूल वृत्तिस्तस्या अनुसारेण तत्र व्याख्यातास्तत्र प्रामाण्ये न जयंते इति शेषः । तथाच तत्रोक्तं एतास्तिस्रः स्तु तयो नियमेनोच्यते केचित्त्वन्या यपि पठंति नच त त्र नियम इति न तहयाख्यानक्रिया एवमेतत् पति त्वा उपचित पुण्यसंनारा उचितेषूपयोगफलमेतदिति ज्ञापनार्थ पठंति वेयावच्च गराणमित्यादि ॥ अत्र च एता इति सिद्धाणं बु० १ जो देवावि २ एक्कोवीति ॥ ३ ॥ अन्या अपीति उति सेल १ चत्तारियह
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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तथा जेयायेत्यादि ३ श्रतएवात्र बहुवचनं संजा व्यते ॥ अन्यथा दिवचनं दद्यात् पठतीति सेसाज दि बाए इत्यावश्यकचूर्णिवचनादित्यर्थः नच तत्र नियम इति न तहयाख्यानं क्रियते इति तु नतः श्रीहरिन सूरिपादा एवं ज्ञापयंति यदत्र यदृच्छया नस्यते त न व्याख्यायते यत्पुनर्नियमतो जणनीयं तद्वयाख्या यते तयाख्याने व्याख्यातं च वेयावच्चगराणमित्यादि सूत्रं ॥ तथा चोक्तं ॥ एवमेतत्पठित्वेत्यादि यावत् प वंति ॥ वेयावञ्चगराणमित्यादि । ततश्च स्थितमेतत् यत वेयावञ्चगराणमित्यप्यधिकारोवश्यं जानीय एव अन्यथा व्याख्यानासंभवात् ॥ यदि पुनरेषोपि वैयावृत्त्यकराधिकार जयंताद्यधिकारवत् कैश्चित् न
नीयतया याविकः स्यात् तदा उति सेलेत्यादि गाथावदयमपि न व्याख्यायेत व्याख्यातश्च नियमन एनीय सिद्धादिगाथा निः सहायमनुविध संबंधेनेत्य तोऽत्रुटितसंबंधायातत्वात्सिदाधिकारवदनुस्यूंत एव जपनीयः श्रथाप्रमाणं तत्र व्याख्यातं सूत्रमिति चेत् एवं तर्हि हंत सकलचैत्यवंदना क्रमाभावप्रसंगः सूत्रे चास्या एवं क्रम स्यादर्शितत्वात् तदन्यत्र तथा व्याख्या नाजावात् व्याख्यानेष्येतदनुसारित्वात्तस्य पश्चात्काल
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६६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। प्रनवत्वान्नव्यकरणस्य न सुंदरस्यापि नवनिबंधनत्वात्त त्रोक्तस्योपदेशायाततया स्वबंदकल्पितानावादिति प रिनावनीयम् बह्वत्र माध्यस्थ्यमनसा विमर्शनीयं सू झया धिया विचिंतनीयं सिद्धांतरहस्यं पर्युपासनीयं श्रुतवृक्षानां प्रवर्तितव्यं असदायहविरहेण यतितव्यं निजशक्त्यनुकूव्यमिति एवं च वितीयदशमैकादशव र्जिताः शेषाः प्रथमाद्या छादशपर्यंता नव अधिकारा उपदेशायातललितविस्तराव्याख्यातस्तत्र सिमा इति सिहं । आदिशब्दात् पादिकसूत्रचूादिग्रहः। तत्र सू त्रं देवसस्कियत्ति अत्र चूणिः । विरपडिवत्तिकाले चि वंदपापो वयारेण ॥ अवस्सं अदा संनिया दे वया संनिहाणं सिनवर अनदेव सिस्किनणयंति ॥ ___ अयमत्र नावार्थः तावजणधेरैर्दाढोर्थ पंचसादि कं धर्मानुष्ठानं प्रतिपादितं लोकेपि व्यवहारदाढर्यस्य तथा दर्शनात् तत्र देवा अपि साक्षिण उक्तास्ते च चै त्यवंदनाद्युपचारेणासनीनूताः साहितां प्रतिपद्यते चैत्यवंदनामध्ये च तेषाम्पचारः कायोत्सर्गस्तुतिदा नादिना क्रियते अन्यस्य तत्रासंनवात अश्रतत्वात तश्चैवमायातं तथा चैत्यवंदनामध्ये देवकायोत्सर्गादि करणीयमेव अन्यथा तत्रान्यत्तउपचारानावे देवसा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ६७ विकत्वात्सिःचूर्णिकारेण तथैव व्याख्यातत्वान्निश्ची यते तच्च देवसस्कियंतिसूत्रप्रामाण्यात् ॥
इस उपर लिखे हुए पाठकी नाषा लिखते है ॥ चरम कहेते बारमे अधिकारमें वेयावञ्चगराणमित्यादि कायोत्सर्गका करनां तिसकी स्तुति पर्यंतमें देनीक्योंके यह सम्यकदृष्टि देवताके साथ उचित प्रवृत्तिरूप हो नेसें धर्मकों अवस्थानुरूप व्यापारके अनावसे गुण अनावकी आपत्ति होनेसें एक पासें औचित्य स्थापी यें और एक पासें गुणांकी कोटी स्थापीयें औचित्यके विना सर्व गुण विषकी तरें आचरण करेंगे ॥१॥ __ अनौचित्यप्रवृत्त होनेसें यद्यपि महान्पुरुष मथुरा दपक था तोनि कुबेरदत्ता सम्यक्दृष्टिणी देवीके सा थ अनौचित्यप्रवृत्ति करनेसें मिजामिक्कड देना पड़ा ॥ आह च ॥ रकसे ले कर राजा पर्यंत जे पुरुष औचि त्यप्रवृत्ति करनी नही जानते है, अरु वे पुरुष प्रनु ता ठकुराइके तां चाहते है, परं ते पुरुष बुद्धिमानो के खिलोने है ॥ १ ॥ इहां यह तात्पर्य है के सदाका ल अपनी परकी अवस्था अनुरूप नचित प्रवृत्ति करकें प्रवृत्त होना चाहियें सदा औचित्य प्रवृत्ति करके सर्वत्र प्रवर्त्तना चाहियें यह तात्पर्यार्थ है । इस क
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६५ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । थन उपर मथुरा दपक और कुबेरदत्ता देवीका ह ष्टांत कहा है ॥ तिस दृष्टांतका नावार्थ यह हैके प्रथम मुनिके कहनेसें संतुष्ट होकें कुबेरदत्ता देवीने श्रीसुपार्श्वनाथ स्वामीके वखतमें मथुरा नगरी में श्री सुपार्श्वनाथ अरिहंतका मेरु पर्वत सदृश स्तुन प्रति मा सहित रचा. कितनेक काल पी. अन्यदर्शनी और जैनीयोंका यह स्तुन बाबत विवाद द्या, उहां अन्यदर्शनी अपने मतका स्तुन कहने लगे,
और जैनीनी अपने मतका स्तुन है जैसा कहने लगे. जब राजासेंनी यह विवाद न मिटा तब श्रीसं घने तिस कालमें मथुरा दपक नामा साधूकू अति शयवान जानके बलाया. तिस मथुरापक नपर पति लां कुबेरदत्ता देवीने संतुष्ट होके कहा था के हे मुनि में क्या तेरे मन इलित कार्यकू संपादन करूं? तब मथुरादपक मुनिने कहाके मैं तपके प्रनावसे सर्व कर सक्ता हूं तो तेरे असंयताके साहाय्य वांडनेसें मुजे क्या प्रयोजन है? तब कुबेरदत्ता रोष करके जती रही सो मथुरादपक फिरके आया तिसने तपसें देवीकों बाराध्या. तब देवी प्रगट होके कहने लगी. में तेरा क्या कार्य करूं? तब मथुरादपक कहने लगा. श्री
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ए संघकी जीत कर. तब कुबेरदत्तानी कहने लगी के तेरा मेरे असंयतिसें क्या प्रयोजन अब उत्पन्न दुवा के जिस्सें तें मुजकों याद करा ? तदपी साधुने प चात्ताप करा. और कुबेरदत्ता देवीसें मिहामि उक्कडं दीना. तब देवी ने कहा में कलकू स्तुनके उपर श्वेत पताका करूंगी, और संघ तथा राजाकों कहे जेकरी श्वदिने प्रजातकों श्वेत वर्णकी पताका होवे, तो ह मारा थुन जानना अरु जो अन्य वर्णकी पताका होवे, तो हमारा नही जानना. यह बात सुन कर राजाने अपने नौकरोंसें पहरा दिलवाया परंतु प्रव चन नक्त देवीने प्रनातमें श्वेतपताका कर दीनी ति सकूँ देखकें राजा अरु प्रजाने नत्कृष्ट कल कल शब्द क रकें कहा के बहुत कालतक यह जैनशासन जयवंत रहीयो, अरु संघ जयवंत रहो, जिनशासनके नक्त जयवंत रहो, इसीतरे सम्यक्दृष्टि देवताका स्मरण करनेसें प्रवचनकी प्रनावना देखकें बहुत लोकों जै नधर्मी हो गये, मुनिनी सुगतिमें गया ॥ इति मथुरा
पकवृत्तांतः ॥ इस वास्ते सम्यक्दृष्टि देवताका अ वश्यमेव कायोत्सर्ग करकें घुइ कहनी चाहियें. .. अथ जे अधिकार जिस प्रमाणसें कहे हैं. ति
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
नके संमोहार्थे लघुभाष्यकार प्रगट करते हैं ॥ गाथा || नव हिगारा इह ललि, यविवरा वित्तिमाइ असारा ॥ तिन्नि सुयपरंपरया, बीउ दसमो इगार समो ॥ ३५ ॥
इहां बारा अधिकारमेंसें पहिला, तीसरा, चौथा, पांचमा, बघा, सातवा, यावहवा, नवमा अरु बा रहवा, यह नव अधिकार ललितविस्तरा नामा चैत्यवं दनाकी जो मूलवृत्ति है तिसके अनुसारसें कथन करे हैं ॥ तथाच तत्रोक्तं । यह तीन थुइयां सिद्धाणं इत्यादि जो है सो निश्चयसें कहनी चाहियें, और कितनेक आचार्य अन्य थुश्यांनी इनके पीछें कहते है. परं तहां नियम नहीं है के अवश्य कहनी इस वास्ते मैने तिनका व्याख्यान नही करा है. सें यह "सिद्धाणं बुद्धा” पाठ पढके उपचित पुष्य समू हसें जरा दूया उचितो विषे उपयोग करनां यह फल है. इसके जनावने वास्ते यह पाठ पढे.
፡፡
वेयावच्चगराणं इत्यादि ॥ इहां वली 'एता' से शब्दसें १ सिद्धाबुदाणं, २ जो देवाण विदेवो, ३ इक्कोवि नमुक्कारो, अन्यायपि इस शब्दसें १ उयंत से ल०" ॥ २ चत्तारी ४० ॥ तथा ३ जेय अईया
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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सिद्धा इत्यादि इसी वास्ते इहां बहुवचन दीया है., नही तो दिवचन देते पतंति ऐसी बहुवचन रूप कि या है. " सेसाजदिष्ठा ” शेष थुइयां जैसी इवा हो वे तैसें कहे, यह श्रावश्यक चूर्णिके वचनका प्रमा ए है. नच तत्र नियम इति ॥ नतछ्याख्यानं क्रियते इति ॥ ऐसा कहन कहते हुए. श्रीहरिजसू रिपूज्य ऐसें ज्ञापन करते है के जो पाठ यहां चैत्यवंदनामें अपनी यथेासें कहते है, तिसका व्याख्यान हम नही करते है, जो पाठ चैत्यवंदनामें निश्चयसें कहने योग्य है, तिसका व्याख्यान करते है. तिसके व्या ख्यान करनेसें वेयावच्चगराणं इत्यादि सूत्रकानी
व्याख्यान करा ॥
तथा चोक्तं ॥ ऐसें यह पढके यावत् वैयावच्च गराणं इत्यादि पढे । इस कहनेसें वेयावञ्चगराणं ३ त्यादि अवश्य पढने योग्यही है, यह सिद्ध हुआ: जेकर वेयावञ्चगराणं यह पाठ अवश्य पढने योग्य न होता तो श्रीहरिजसूरिजी अपनी प्रतिज्ञाप्रमा ऐ इस पाठका व्याख्यान न करते. जेकर यह " वें यावञ्चगराणं " पाठाधिकारकों नविंतादि अधिकारकी तरें के आचार्य पढते, केइ न पढते, तब तो याह
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१. श्
चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
चिक होता. तब तो उचिंतादि गाथाकी तरें इसका जी व्याख्यान श्रीहरिनसूरिजी न करते, परंतु न नोने व्याख्यान करा है, इस वास्ते सिद्धादि गाथा योंके साथ वेयावच्चगराणं इत्यादि यह पाठ अनुवि ६ अर्थात् प्रोता या है. बिचमें टूटा दूया नही है. इस वास्ते सिद्धाणं इत्यादि गाथायोंके साथ प्रोता यानी पढने योग्य है.
जेकर तुं कहेगा के ललितविस्तरा में श्रीहरि नसूरिजीका करा हुआ व्याख्यान हमकूं प्रमाण नही है तब तो सकल चैत्यवंदनाके क्रमका अनाव होवेगा. क्योंके सूत्रमें चैत्यवंदनाका ऐसा क्रम क हा नही है. और ललित बिस्तरा बिना चैत्यवंदनाके क्रमका अन्यग्रंथ में व्याख्यानके अनावसें कदाचित् किसी ग्रंथ में व्याख्यान करानी होगा. सोनी ललित विस्तराके अनुसार होनेसें पीछेंदी करा है, और न वीन व्याख्यान, जेकर कोई वानी करे तोनी सो व्याख्यान, संसारकी वृद्धि करनेवाला है, और जो ललित विस्तरामें व्याख्यान है, सो गुरुपरंपराके उप देशसें खाया है इसवास्ते स्वछंद कल्पनासें नही है. यहां मध्यस्थ होके विचार करणा योग्य है, सूक्ष्ा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ७३ बुदि करके सूत्रका रहस्य चिंतन करणा, और श्रुत घोंकी सेवा करणी योग्य है, कदाग्रहरहित प्रवर्तना चा हियें. और अपनी शक्त्यनुकूल यत्न करना चाहियें ॥ __ ऐसें दूसरा, दसवा अरु अग्यारहवा यह तीन व
के शेष प्रथमादिसें लेकर बारमे अधिकार पर्यंत न व अधिकार गुरु परंपराके उपदेशमें आये हुए ललि तविस्तरामें व्याख्यान कर गए है. -तहां सिमा इति सिहं आदि शब्दसें पाक्षिक सू त्रकी चूादि ग्रहण करनी, तहां पादिकसूत्रमें ऐ सा सूत्र है “ देवसस्कियत्ति” ॥ अत्र चूर्णिः ॥ विर तिके अंगीकार करणके कालमें चैत्यवंदनादि उपचा रकें अर्थात् चैत्यवंदनामें सम्यक्दृष्टि देवताका का योत्सर्ग करणे और शुश्के पतनरूप उपचारके कर ऐसें अवश्यमेव यथा संनिहित देवता निकट होता है, इस वास्ते देवसस्कियं ऐसा पाठ पढते हैं, यह इहां नावार्थ है. । गणधरोंने प्रथम दृढताके वास्ते पांचकी सादिसे धर्मानुष्ठान प्रतिपादन करा है. लोकमेंनी दृढ व्यव हार, पंचोंकी सादिसें करा देखने में तैसेही आता है. तहां पाक्षिकसूत्र में देवताजी सादी कहे हैं, ते दे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। वता जे चैत्यवंदनादिकके उपचारमें निकट हुए हैं, वे देवता सादिपणा अंगीकार करते है. क्योंके चैत्य वंदनामें तिन देवतायोंका कायोत्सर्ग करणा और तिनकी थुइ कहनी यह उपचार करिये हैं, अन्य को उपचार तहां संनवे नही है, और हमने अन्य को श्रवणनी नही करा है. तब तो यह सिम दूया के चैत्यवंदनामें सम्यकदृष्टि देवताका कायोत्सर्ग क रणा, और तिनकी शुश् साधु, साध्वी, श्रावक, श्रा विकाकों अवश्यमेव कहनी चाहिये; अन्यथा अ पर उपचार तो तिनका कोई है नही. तिस वास्ते तिनका सादी होनाजी सिम नही होवेगा, चूर्णिका र तैसेही व्याख्यान करणेसें निश्चय करते है, सो पाठ यह है. “ देवसस्कियं” इति सूत्र प्रामास्यात् ॥
तथा ३०४ के पत्रेका पाठ ॥ तथा प्रवचनसुराः सम्यग्दृष्टयो देवास्तेषां स्मरणार्थ वैयावत्यकरेत्यादि विशेषणहारेणोपबृंहणार्थ दुशेपश्व विशवणादिकते तत्तगुणप्रशंसया प्रोत्साहनार्थमित्यर्थः । यह तत्कर्त व्यानां वैयावृत्त्यादीनां प्रमादादिना श्लथीनतानां प्रवृत्त्यर्थमश्लथीनूता नतु स्थैर्याय च स्मरणात् ज्ञा पनात् तदर्थ सारणार्थ वा प्रवचनप्रनावनादौ हित
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ५ कार्ये प्रेरणार्थक उत्सर्गः कायोत्सर्गः चरम इति शेषः इत्येतानि निमित्तानि प्रयोजनानि फलानीति यावद ष्टौ चैत्यवंदना या नवंतीति शेषः । इद च यद्यपि वैया वृत्त्यकरादयः स्वस्मरणार्थ क्रियमाणं कायोत्सर्ग न जानते, तथापि तहिषयकायोत्सर्गात् वसुदेव हिंमधु तस्य तत्कर्तुः श्रीगुप्तश्रेष्ठिन इव विघ्नोपशमादिषु गुन सिदिर्नवत्येव बाप्तोपदिष्टत्वेनाव्यनिचारत्वात् यथा स्तंननीयानिः परिझाने आप्तोपदेशेन स्तंननादिकर्म कर्तुःस्तंननायनीष्ठफलसिदिः। नक्तं च चूर्णौ तेसिमवि नाणे विदु, तवि सरस्सग्ग फलं हो॥ विघ्घज्ज य पुन्नवं धाश् कारणं संतताए णत्ति ज्ञापयति चैतदि दमेव कायोत्सर्गप्रवर्तकं वेयावञ्चगराणमित्यादि सूत्रम् अन्यथानीष्टफलसिध्यादौ प्रवर्तकत्वायोगात् नक्तं च ललितविस्तरायां तदपरिझानेऽप्यस्मात्तबुलसिंघाविद मेव वचनं झापकमिति श्रीगुप्तश्रेष्ठिकथां त्वियम् ॥ - नाषा ॥ तथा प्रवचनदेवता सम्यकदृष्टि देवता तिनके स्मरणार्थ वैयावृत्त्यकर इत्यादि विशेषणो छारा तिनकी उपहणा करणेके अर्थे दुशेपश्वके दूर करणे वास्ते तिसके ते ते गुणोंकी प्रशंसा करके तिस्के उत्साह उत्पन्न करणे वास्ते अथवा तिनके
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। करणे योग्य वैयावृत्त्यादि कृत्योंके प्रमादादिसें तिनके करणेमें सिथिल दूकों प्रवृत्त्य करणेवास्ते, और उद्यमवंतोंकी स्थिरताके वास्ते, तिनके जनावने वास्ते, अथवा प्रवचनकी प्रनावनादि हितकार्यमें प्रेरणार्थे कायोत्सर्ग चरम होता है. यह पूर्वोक्त नि मित्त प्रयोजन फल है, यह चैत्यवंदनका तात्पर्यार्थ है. ___ यहां यद्यपि वैयावृत्त्यकरादि देवता तिनके स्म रणाद्यर्थे क्रियमाण कायोत्सर्ग वे नही जानते है, तोनी तिन विषयिक कायोत्सर्ग करणेसें वसुदेव हिं मयुक्त कायोत्सर्ग करनेवाले श्रीगुप्तश्रेष्ठीकी तरें विघ्नोपशमादिकोमें गुनसिदि होतीही है. आप्तका जो कहना है सो व्यनिचारी नही है. इस वास्ते जैसे थंननी विद्याकों बाप्तोपदेशसें थंननादि कर्ममें प्रयुं ज्या श्ष्टफलकी सिदि तिन विद्याकी अधिष्ठाताके विना जानेनी होती है. __चूसमें कहा है. तिन वैयावृत्त्यकरादिकोंके वि ना जाण्यानी कायोत्सर्गका फल विघ्नजय पुण्यवं धादिक होते है.संतताएपत्तिः ॥जनाता खबर देता है. यही कायोत्सर्गप्रवर्तक वेयावच्चगराणं इत्यादि सूत्र अन्यथा मनोवांनित सिक्ष्यादिमें प्रवर्तक न हो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ७ वेगा. ललितविस्तरामें कहा है के, यद्यपि जिनका कायोत्सर्ग करीयें है, वे कायोत्सर्ग करतेकों नही जानते है, तोनी तिसके करणेसें गुजसिदि होती है. इस कथनमें वैयावृत्त्यकराणं यही सूत्र झापक प्रमाणनूत है. ___ अब बुद्धिमानोकों विचारणा चाहिये के संघाचा रवृत्तिके इन पूर्वोक्त दोनो लेखोसें सम्यकदृष्टि देव ताका कायोत्सर्ग करणा, और इनकी थुइ कहनी इन दोनो बातोमें किसीनी जैनधर्मीको शंका रह स कती है. के सम्यक्दृष्टि देवताका कायोत्सर्ग जैनम तके शास्त्रमें करणा कह्या है के नही कह्या है ? श्न पूर्वोक्त पाठोसें निश्चे सिम होता है के साधु,साध्वी, श्रावक, श्राविकाने सम्यदृष्टि देवताका कायोत्सर्ग अवश्यमेव करणा. , अब रत्नविजयजी जो नोले लोकोंको कहते फि रते है के, इन पागेसें हमारा मत सिम होता है, ऐसा कपट बल करके नोले जीवांकू कुपथमें गेरना यह क्या सम्यग्दृष्टि, संयमी, सत्यवादी, नवनीरु, धूर्ततासे रहितोंके लक्षण है ? बनिये, बिचारे कुन पढे तो नहीं है, इसवास्ते इनकू क्या खबर है
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
के यह हमारे साथ धूर्तता करता है वा नहीं क रता है ? यह बात कुछ बनिये समजते नही.
परंतु रत्नविजयजीकूं साधु नाम धरायकें ऐसे ऐसे बल पटके काम करणे उचित नहीं है. हमा री तो यह परम मित्रतासें शिक्षा है, मानना न मा नना तो रत्नविजयजी के अधीन है.
तथा रत्नविजयजीकूं इस संघाचारवृत्तिका तात्प र्यार्थिनी मालुम नही हूया होगा नही तो अपने म तकी हानिकारक चिट्ठी इस पुस्तकमें काहेकों ल गवाता ?
तथा आवश्यककी अर्थ दीपिकाका पाठ लिखते है ॥ तथा सम्यग्दृष्टोऽर्हत्पादिका देवा देव्यश्वेत्येक शेषादेवा धरणीं बिकायादयो ददतु प्रयवंतु समा धिं चित्तस्वास्थ्यं समाधिर्हि मूलं सर्वधर्माणां स्कंध 5 व शाखानां शाखा वा पुष्पं वा फलस्य, बीजं वांकुर स्य चित्तस्वास्थ्यं विना विशिष्टानुष्ठानस्यापि कष्टानुप्रा यत्वात् समाधिव्याधिनिर्विधुर्यता तन्निरोधश्च तदेतुको पसर्गनिवारणेन स्यादिति तत्प्रार्थनाबोधिं परलोके जि नधर्मप्राप्तिः यतः सावयघरंमिवरहुआ चेडने नाण दंसणसमे ॥ मित्तमोदि अमई, माराया चक्कवट्ट ।
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ए वि ॥ १॥ कश्चिद्भुते ते देवाः समाधिबोधिदाने किं स मर्या न वा यद्यसमर्थास्तर्हि तत्प्रार्थनस्य वैयर्थ्य यदि समस्तर्हि दूरजव्यानव्येन्यः किं न यचंति अथैवं म न्यते योग्यानामेवं समर्थानां. योग्यानां तर्हि योग्यतै व प्रमाणं किं तैरजागलस्तनकल्पैः। अत्रोत्तरं सर्वत्र यो ग्यतैव प्रमाणं परं न वयं विचारामं नियतिवाद्यादि वदेकांतवादिनः किंतु सर्वनयसमूहात्मकस्याहादवा दिनः सामग्री वै जनिति वचनात् तथाहि घटनिष्प तौ मृदो योग्यतायामपि कुलालचक्रचीवरदवरकदमा दयोऽपि सहकारिकारणमेव मिहापि जीवस्य योग्यता यां सत्यामपि तथातथाप्रत्यूहव्यूहनिराकरणेन दे वा अपिसमाधिबोधि दाने समर्थाः स्युमतार्यस्य प्रा म्नवमित्रसुर श्वेति बलवती तत्प्रार्थना । ननु देवादि पुप्रार्थनाबहुमानादिकरणे कथं न सम्यक्त्वमालिन्यं ? उच्यते नहि ते मोदं दास्यंतीति प्रार्थ्यते बहु मन्यते वा किंतु धर्मध्यानकरणे अंतरायं निराकुर्वतीति नैवं कश्चिहोषः पूर्वश्रुतधरैरप्याचीर्णत्वादागमोक्तत्वाञ्च उ तं चावश्यकचूर्णो श्रीववस्वामिचरिते तबय अनासे भनोगिरीतं गया तब देवया ए काउस्सग्गो कन सावि अनुरिया अणुग्गहत्ति आपुन्नायमिति आवश्यकका
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
योत्सर्ग निर्मुक्तावपि ॥ चाजम्मा सिश्रवरिसे, उस्सग्गो खित्त देवचाए ॥ परिकय सिद्धसुराए, करेंति चनमा सिए वेगे ॥ १ ॥ बृहद्भाष्येपि । पारि कावस्सग्गो, परि मिठीणं च कयनमुक्कारो ॥ वेयावच्चगराएं, दिऊ थुई जरकपमुहाणं ॥ १४४४ प्रकरण कृत श्रीहरिन सूर योऽप्याहुः ललित विस्तरायां चतुर्थी स्तुतिर्वैयावञ्चग रामिति । तदेवं प्रार्थनाकरणेऽपि न काचिदयुक्तिरिति सप्तचत्वारिंशगाथार्थः ॥ ४७ ॥
Go
जाषा ॥ तथा सम्यकदृष्टि श्री अरिहंतके पछी दे वता और देवी जो है, देवता धरणीं अंबिका दि यह देव चित्त समाधि चित्तका स्वस्थ पणा द्यो, क्योंकि समाधिही सर्व धर्मीका मूल है. जैसे शाखा योंका ? फूल, फलका, बीज अंकुरका मूल, स्कंध है तैसें यहनी जान लेना चित्तके स्वास्थ्य विना सर्वा नुष्ठान कष्टतुल्य है. वैधूर्यता का निरोध करणा, उस को समाधि कहना सो वैधूर्यताका हेतु जो उपसर्ग है तिसके निवारण करणेसें होती है इस वास्ते तिस की प्रार्थना है.
तथा बोधि जो है सो परलोकमें जिनधर्मकी प्रा प्तिका नाम है. कहा जी है कि मैं परजव में श्रावकके घ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ७१ रमें ज्ञान दर्शन संयुक्त जो दासनी दो जाऊं तो अन्ना है. परंतु मिथ्या मोहमति वाला चक्रवर्तीराजा नी न हो. वहां कोई प्रश्न करता है. ते देव जो है वो समाधि अरु बोधि देनेकों समर्थ है वा नही है ? जे कर कहोगेकि असमर्थ है तबतो तिनसें जो प्रार्थ ना करनी है सो व्यर्थ है, जे कर कहोगे कि समर्थ है तो दूरनव्य और अनव्योंकों क्यों नहीं देते है ? जे कर हे आश्चर्य तूं ऐसे मानेगाके योग्य पुरुषोंकों देते हैं तबतो योग्यताही प्रमाणनत दुश्. तब बकरीके गलेके थणासमान निरुपयोगी तिन देवतायोंकी कल्पना करणेसें क्या फल है ? __ अत्रोत्तरं ॥ सर्वत्र योग्यताही प्रमाण है, परंतु त
सहने असमर्थ होणहार वादीके मत मानने वा लोकी तरें हम एकांतवादी नही है, किंतु सर्व न्या यात्मक स्याहादवादी है. सामग्रीही जनक है, इस वचनके प्रमाणसें जानना. सोई दिखाते है.
जैसे घट निष्पत्तिमें माटीकों योग्यतानी है तोजी कुंभार, चक्र, चीवर, मोरा, दमादिकनी सहकारी का रण होवे तबही घट बनता है. तैसे यहांनी जे कर जीवमें योग्यताके हूएनी तथा तथा विघ्न समूहोंके
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
दूर करणेसें मेतार्यमुनिके पूर्व जीवके मित्र देवताकी तरें देवतानी समाधि रु बोधि देनेमें समर्थ है. इ स वास्ते तिनोंकी प्रार्थना बलवती है.
फेर वादी तर्क करता है कि देवादिकोंके विषे प्रा र्थना बहुमानादि करनेसें तुमारी सम्यक्त्व मलीन क्यों नही होवेगी ? अपि तु होवेगी ही.
उत्तरः- वो देवता हमकों मोक्ष देवेंगे इस वास्ते हम तिनकी प्रार्थना बहुमान नही करते है, किंतु ध मध्यानके करणे में जो कदापि विघ्न या कर पडे तो ति नको विघ्न दूर करते हैं, इस वास्ते प्रार्थना करते है. पूर्व श्रुतधारीयोंने इसकों याचरणेसें, और श्रागममें कहने सें, जैसें करणेमें कोइनी दोष नही है.
यावश्यक चूर्मिमें श्रीवज्रस्वामिकें चरित्रमें पैसें कहा है. वहां निकट अन्य पर्वतथा वाहां गए तहां देवताका कायोत्सर्ग करा, सो देवी जागृत न, अरु कहने लगी की तुमने मेरे पर बडा अनुग्रह करा सें कहके आज्ञा दीनी.
तथायावश्यक कायोत्सर्ग नियुक्तिमेंजी कहा है कि चातुर्मास संवत्सरिके प्रतिक्रमणेमें क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करणा. और पक्षिप्रतिक्रमणेमें जवनदेव
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
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ताका कायोत्सर्ग करणा, केश्क चातुर्मासीमेंनी नव नदेवताका कायोत्सर्ग करते है.
बृहनाष्यमेंजी कहा की कायोत्सर्ग पारके, औौ र पंचपरमेष्ठिकों नमस्कार करके, “वेयावञ्चनराणं ० " वैयावृत्त्यादि करणेवाले यह देवताकी थुई कहे.
तथा चौदह चुंवालीस १४४४ प्रकरणके कर्त्ता श्री हरिजसूरिजीनेंजी ललितविस्तरा ग्रंथमें कहा है कि चौथी चुइ वैयावृत्य करनेवाले देवतायोंकी कहनी इस वास्ते प्रार्थना करणेमें कोइनी युक्ति नहीं है. इति सेंताजीशमी ४७ गाथाका अर्थ है, यह श्रावककें यावश्यकके पाठकी टीका है-ब जो कोई इसकों न माने तिसकों दीर्घ संसारिके शिवाय और क्या कहियें ?
तथा विधिप्रपाथका पाठ लिखते है. पुवोलिंगि या पडिक्कमण सामायारी पुरा एसा || साव गुरुहि समं इक्को वा जावंति चेश्याइं तिगहा डुग थुत्त पणि दाraj चेश्याई वंदित्तु चनराइ खमासमणेहिं था यरियाई वंदिय जूनि दिय सिरो सबस्स वि देवसिय चा इदंमगेण लयलाइयार मिनुक्कडं दार्ज उहिय सा माझ्य सुतं नणितुं इष्वामि वाइनं काउस्सग्गमिच्चाइ
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चतुर्थस्तु तिनिर्णयः ।
सुत्तं जलिय पलंबिय नुय कुप्पर धरिय नानि हो कापुढं चनरंगुल वविय कडिपट्टो || सजइ कविताइ दोसर दियं काउस्सगं कार्यं कदक्कमं दिलकए य श्यारे दिए धरिय नमोक्कारेण पारिय चन्वीसबयं प दिय संमासगे पमधिय नवविसिय अलग्गवियय वा दु जुन मुहांतर पंचवीसं पडिलेहणा कार्यं काए वितत्तियान चेव कुणइ साविया पुण पुछि सिर हिययं वयं पन्नरसकुrs || उठियबत्तीस दोसर दियं पणवीसा वस्सय सुद्धं कि कम्मं कार्यं प्रवणयग्गो करज्जुय विहिधरियपुत्ती देव सियाझ्याराणं गुरुपुर वियडवं श्रा लोयणदंमगं पढइ ॥ त पुती एकठासणं पाउ बणं वा पडिजेहिय वा मतापुहिहादाहिणं च उट्ठे कानं करज्जुय गहिय पुत्तीसम्मं पडिकमण सुत्तं न त दवनावुनि मिचाइ दं म पढित्तावदादा पाइसकइ सुतिन्नि खामित्ता ॥ सामन्नसाहूसुपुराहवणायरिएण समं खामणं कार्य त तिन्निसादूखा मित्ता पुणोकी कम्मंकार्ड न-६ हिसि रकयंजनीयरिय वनाए इच्चा इंगाहातिगं पढित्ता ॥ सामाश्य सुत्तं नस्लग्ग दंमयं च जलिय काउस्सग्गे चरित्ताश्यारसुद्धिनिमित्तं उद्योगं चिंतेत गु
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
Ա
रुला पारिए पारिता सम्मत्त सुद्धिहे नवोयं पढिय सवतोय यरदंत चेश्यारायणुस्सग्गं काउं उद्योयं चिंतिय सुयसोहि निमित्तं पुरकरवरदीवटं कट्टिय पुणो पणवीसुस्तासं काउस्सग्गं कार्यं पारिय सिव पढित्ता सुयदेवयाए कानस्सग्गे नमोक्कारं चिं तिय तीसेथु देइ सुइ व एवं खित्तदेवयाएवि कान रसग्गे नमोक्कारं चिंतिक पारिय तत्रुई दानं सोनं वा पंचमंगलं पद्विय संमासए पमजिय नवविसिय पुत्रं च पुत्तिं पेहिय वंदणं दानं वामो श्रसहिंतिन पियक्कार हितानव ६ मायरकरस्सरा तिन्नि थुईन पढि यसकवयथुतंच जणिय छायरियाई वंदिय पायनि का स्सग्गं काळं नवोयचनकं चिंतिइति
विसोह ॥ देव सियप डिक्कम विही ॥
भाषा ॥ विधिप्रपाग्रंथ में प्रतिक्रमणे कि विधि ऐसा लिखा है. पूर्वे जो सामान्य प्रकारें प्रतिक्रमणेकी स माचारी कही थी. सो यह है के श्रावक अपने गुरुके साथ, अथवा एकला जावंति चेश्याई यह दो गाथा, स्तोत्र, प्रणिधान ये वर्द्धके, शेष शक्रस्तव पर्यंत चार थुइसें चैत्यवंदना करकें, चार क्षमाश्रमणसें, या चार्यादिकोंकों वांदके भूमि उपर मस्तक लगाके, सब
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८ ६
चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
स्तव देवसिय इत्यादि दंमकसें सकल प्रतिचारोंका मिथ्या दुष्कृत देवे पीछे कठके, सामायिक सूत्र क के, इलाम वं काउस्सग्गं इत्यादि सूत्र पढके, लांबी जुजा करके, नाजीसें चार अंगुल हेग, अरु जानुसें चार अंगुल उंचा, ऐसा चोलपट्टाकों कूहणी योंसें धारण करी, संयंती, कपिचादि दोषरहित, का योत्सर्ग करे. तिसमें यथाक्रमसें दिन करे हुए अ तिचारोंकों अपने हृदयमें धारके, नमस्कारसें पारके, लोगस्स पढके, संमासे पडिलेहके बैठे. बैठके शरी रके विना लागे बाहु युगल करके मुहपत्तिकी पंच वीस अरु शरीरकी पंचवीस पडिलेहणा करे. अरु श्राविका पीठ, हृदय, शिर वर्जके पंदरा पडिलेहणा करे. पीछे कठके, बत्तीस दोष रहित पंचवीस याव श्यक शुद्ध द्वादशावर्त्त वंदला करे. अंग नमावी, दोनो हाथो में विधिसें मुखवस्त्रिका धरी, दिवसके अतिचारोंकों प्रगट करके अर्थे आलोयणा दंमक पढे. तद पीछे मुखवस्त्रिका, कट्यासन, पूणा, वा पडिलेहके, वामा जानुं हेग और दाहिना जानु कं चा करके दोनो हाथों में मुखवस्त्रिका ररकके, सम्यग् प्रतिक्रमणा सूत्र पढे. तद पीछें इव्य नावें कठके
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
हिम" इत्यादि दमक पढे. पीछे पांचादि साधु होवें तो तीनकों खामणा करे, और सामान्य साधु होवें तो प्रथम स्थापनाचार्यकों खामणा करके, पीछे तीन साधुकों खमावे, फेर कृति कर्म करे पीछे खडा होके, मस्तके अंजलि करी के व्यायरिय उवद्याय इत्यादि गाथा तीन पढके, सामायिक सूत्र कायोत्सर्ग ine पढे कायोत्सर्ग में चारित्राचारकी शुद्धि के पर्थे दो लोग्गस्स चिंते, तद पीछे गुरुके पास्यां पीछें पारके, सम्यक्त्व शुद्धिके वास्ते लोगस्स पढे पीछे सवलोए अरिहंत श्यारहण कायोत्सर्ग करे | एक लोग रस चिंति पारके श्रुतकी शुद्धिके वास्ते "पुरकरवरदी” कहे, पीछें फेर एक लोगस्सका कायोत्सर्ग करी, सिद्धस्तव पढके, श्रुतदेवताका कायोत्सर्ग करे, एक नमस्कार चिंते उसकों पारके, श्रुतदेवीकी थुइ पढे, वा सुणे. ऐसेही खेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करे, ति समें एक नमस्कार चिंते, वो पारके, खेत्र देवताकी थुइ कहे वा सुणे, पीछे पंच मंगल पढी, संमासा प डिजेदी, बैठके मुखवस्त्रिका पडिलेहे, पीछे वांदणा देके, " इवामित्र सहिं” ऐसें कहे के, ऐसें कहे के, दो जानु होके, वर्धमानावर स्वरसें तीन थुइ पढे पीछे शक
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
स्तव पढे, पीछे स्तोत्र पढे, पीछे याचार्यादि वांदी, प्रायश्चित्ती शुद्धि वास्ते चार लोगस्सका कायोत्स गर्ग करे, तद पीठें लोगस्स कहे. इति देवसि पडिक्क मोकी विधि संपूर्ण ||
इस विधि में पक्किम की खादिमें चार थुइसे चै त्यवंदन करनी कही है. और श्रुतदेवता अरु क्षेत्र देवताका कायोत्सर्ग अरु इन दोनोकी थुइ कहनी कही है. इस लेखकों सम्यक्त्व धारी मानतें है. और मानतेथे, फेर मानेंगेनी परंतु मिथ्यादृष्टितो कनी नही मानेगा इस वास्ते सम्यकदृष्टि जीवकों तीन थुइका कदाग्रह अवश्य बोड देना योग्य है.
तथा धर्मसंग्रह ग्रंथ में चैत्यवंदनाके नेद कहे है सो पाठ यहां लिखते है ॥ सा च जघन्यादि नेदा त्रिधा यद्भाष्यं नमुक्कारेण जहन्ना चिश्वंदण मवदंम थुइ जुना ॥ पदं थुई चक्कग, यय पणिहाणे हिं नक्कोसा ॥ १ ॥ व्याख्या || नमस्कारेगांज निबंध शि रोनमनादिलक्षणप्रणाममात्रेण या नमो अरि हंताणमित्यादिना अथवैकयश्लोकादिरूपे नम स्कार पाठपूर्वकनम स्क्रियाजणेन कारणनूतेन जा तिनिर्देशाद्ददुनिरपि नमस्कारैः क्रियमाणा जघन्या
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। नए स्वःया पातक्रिययोरल्पत्वाइंदना नवतीति गम्यं ॥ १ ॥णामश्च पंचधा ॥ एकांगः शिरसो नामे स्या क्ष्यंगः करयोध्योः॥त्रयाणां नामने व्यंगः करयोः शि रसः तथा ॥ १ ॥ चतुर्णा करयोन्विोर्नमने चतुरं गकः ॥ शिरसः करयोर्जान्वोः पंचांगः पंचनामने ॥ ॥ ५॥ तथा दमकश्चारिहंतचेश्याणमित्यादिश्चैत्य स्तवरूपः स्तुतिः प्रतीता या तदंते दीयते तयोर्युगलं युग्ममेते एव वा युगलं मध्यमा एतच्च व्याख्यानमि ति कल्पगाथामुपजीव्य कुवैति तद्यथा निस्सकडमनि स्सकडे, विचेए सवेहिं थुई तिन्नि ॥ वेलं वचेश्याण विनाकं एकिकिया वावि ॥ १ ॥ यतो दमकाव साने एका स्तुतिर्दीयते इति दमकस्तुतियुगलं न वति ॥ २ ॥ तथा पंचदंमकैः शकस्तव १, चैत्यस्तव २, नामस्तव ३. श्रुतस्तव ४,सिवस्तवाख्यैः ५,स्तुति चतुष्टयेन स्तवनेन जयवीधरायेत्यादिप्रणिधानेन च तत्कष्टा इदं च व्याख्यानमेके “तिन्निवा कट्टई जाव थुन तिसिलोश्या ॥ताव तब अणुस्मायं कारणेण प रेण वा” इत्येनां कल्पगाथां पणिहाणं मुत्त सुत्तीए इति वचनमाश्रित्य कुवैति वंदनकचूर्णावप्युक्तं तं च चेश्य वंदणं जहन्न मधिमुक्कोस नेयतो तिविहं
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
जत्तो नयिं || नवकारेण जहन्ना, दंग थुइ जुन मधिमा नेया ॥ संपुन्ना नक्कोसा, विहिणा खलु बं दा तिविहा ॥ १ ॥ तब नवकारेण एक सिलोगोच्चार रतो पणामकरण जहणा तहा अरिहंतचेश्याल मिच्चाइ दंमगं नणित्ता काउस्सग्गं पारिता थुइ दिन इति दंगस्स थुइए य लेणं डुगेणं मविमा न लिये च कप्पे निस्सकडम निस्सकडेवा वि चेईए स वहिं थुइ तिन्नवेलं व चेश्याणि च नाऊं एक्के क्किया वा वि ॥ १ ॥ तहा सक्कबयाई दंग पंचग थुइ चटक्क पणिहाणं करण तो संपुन्ना एसाक्कोसेति संघा चार वृत्तौ चेताया व्याख्याने बृहनाष्य संमत्या नवधा चैत्यवंदना व्याख्याता तथा च तत्पावलेशः एतावता तिहाई वंदणयेत्याद्यद्वारगाथागतनुशब्द सू चितं नवविधत्वमप्युक्तं इष्टव्यं नक्तंच बृहद्भाष्ये चे वंदला तिनेया, जहन्नेया मविमाय नक्कोसा ॥ इक्किक्का वितिनेया, जहन्नम विमित्र नक्कोसा ॥ १ ॥ नवकारे एए जहन्ना, इच्चाई जंच व मिया तिविहा ॥ नवनेश्रणा इमे सिं, नेयं नवलरकणं तंतु ॥ २ ॥ एसा नवप्पयारा, आइसा वंदा जिमयंमि ॥ कालो चित्रकारी, अ ग्गहरं सुहं सवा ॥ ३ ॥ इति गाथा बृहद्भाष्ये ए
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १ ग नमुक्कारेणं चिश्वंदणया जहन्नयजहन्ना बहुहिं न मुक्कारेंहिं अनेआजहन्नमधिमिा १ सचित्र सक्क अयंता जहन्न नक्कोसियामुणेथवा ३ नमुक्कारा चिई दंमएगथुइ मनिम जहन्ना १२ मंगलसक्कलयचि ३ मगथुइहिं मनमन्निमिया ॥ ५॥ दंगपंचगथुश्जुथ लपाटठ मनिमुक्कोसा ॥ ६३ ॥ उक्कोसजहन्ना पुण सचित्र सक्कबयाई पचंता॥ ७॥ जा थुइ जुबल उजे एं गुणियचिश्वंदणा पुणो ४ नकोसमधिमासा ७ नक्कोसुक्कोसिवाय पुणमेया पणिवाय पणग पणि दाणतिथग थुत्ता संपुरमा ५ सकतन्य इरिया 3 गुणियचिश्वंदणाई तह तिनि ॥ श्रुत्तपणिहाणसक्क बअश्य पंचसक्कथया ॥ ६ ॥ नक्कोसा तिविहा विदु कायवा सत्ति उनयकालं ॥ सेसा पुण बनया चेश्य परिवाडिमाईसु ॥ इति ॥
॥ नवधा चैत्यवंदनायंत्रकमिदम् ॥ जघन्य जप्रणाममात्रेण यथा नमो अरिहंताणं इति पा धन्या १ तेन यहा एकेनश्लोकेन नमस्काररूपेण ॥१॥ जघन्य म.
माबदुनिनमस्कारमंगलवृत्तापरानिधानैः॥ ॥
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
जघन्यो
नमस्कार १ शक्रस्तव २ प्रणिधानैः ॥ ३ ॥
स्कृष्टा. ३
मध्यम नमस्काराः चैत्यस्तवदंमक। एकः स्तुतिरेका जघन्या ४ श्लोकादिरूपा इति ॥ ४ ॥
ए
नमस्काराचैत्यस्तव एकः स्तुति घयं एकाधि
मध्यम म कृत जिन विषया एक श्लोकरूपा द्वितीया ना ध्यमा ५ मस्तवरूपा यद्दानमस्काराः शक्रस्तव चैत्यस्त वौ स्तुतिधयं तदेव ॥ ५ ॥
मध्यमो
त्कृष्टा. ६
ईयनमस्काराः शक्रस्तवः चैत्यादिदमक | स्तुति ४ शक्रस्तवः द्वितीयशक्रस्तवताः स्तव प्रणिधानादिरहिता एकवार वंदनोच्यते ॥ ६ ॥ उत्कृष्ट ज ईर्यानमरकाराः दंमक ५ स्तुतिः । ४ नमोबुणं धन्या. ७ | जावंति जावंत २ स्तवन १ जयवी० ॥ १॥ ७ ॥ ईयनमस्काराः शक्रस्तव चैत्यस्तव एवं स्तु उत्कृष्टा ति शक्रस्तव जावंति १ स्तव ३ जयवीय
मध्यम. G
उत्कृष्टो त्कृष्टा. ए
॥ ४ ॥ ८ ॥
शक्रस्तव ईयस्तुति ४ शक्रस्तव स्तुतिः ४ शक्रस्तव १ जावंति १ जावंत, स्तव जयवी०
शक्रस्तव ॥ ए ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ए३ नाषा ॥ चैत्यवंदनाके जघन्यादि तीन नेद है. य भाष्यं ॥ नमुक्कारेण इत्यादि गाथा ॥ इसकी व्याख्या ॥ नमस्कार सोअंजलि बांधि शिर नमावणे रूप ल क्षण प्रणाममात्र करके अथवा नमो अरिहंताणं इत्यादि पाठसे अथवा एक दो श्लोकादि रूप नम स्कार पाठ पूर्वक नमस्क्रिया लक्षण रूप करणनूत करकें जातिके निर्देशसें बहुत नमस्कार करके करते दुए जघन्याजघन्य चैत्यवंदन पाठ क्रियाके अल्प हो नेसें होती है ॥१॥ अरु दूसरा प्रणाम है सो पंच प्रकारें है शिर नमावे तो एकांग प्रणाम दोनो हाथ नमाए यंग प्रणाम, मस्तक अरु दो हाथके नमाव ऐसें व्यंग प्रणाम, दो हाथ अरु दो जानु के नमा वणेसें चतुरंग प्रणाम, शिर, दो हाथ अरु दो जानु यह पांचों अंगके नमावणसें पंचांग प्रणाम होता है ॥ तथा दमक अरिहंत येश्याएं इत्यादि चैत्यस्त वरूप स्तुति प्रसिद है जो तिसके अंतमें देते हैं. ति न दोनुका युगल, ये दोनोही वा युगल यह मध्या चैत्यवंदना है. यह व्याख्यान इस कल्पनाष्यकों था श्रित होके करते है ॥ तद्यथा निस्सकड, इत्यादि गा था जिस वास्ते दमकके अवसानमें एक थुइ जो
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ए४
चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
देते है || इति दमक स्तुति युगल होते है ॥ १ ॥ तथा पंच दमक, शक्रस्तव, चैत्यस्तव, नामस्तव, श्रु तस्तव, सिद्धस्तव, इन पांचों दंमकों करकें. और थु इचार करके स्तवन कहना जयवीयराय इत्यादि प्र विधान करके यह उत्कृष्ट चैत्यवंदना, यह व्याख्यान जी कोइ करते हे तिन्निवा इत्यादि गाथा इस कल्प की गाथा के वचनकों और पणिहाणं मुत्तसुतीए ३ स वचनों याश्रित होके करते है ॥ ३ ॥
वंदनक चूर्णिमें भी कहा है सो कहते है सो चैत्यवंद ना जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट जेदसें तीन प्रकारें है जि स वास्ते कहा है नवकारेण जहन्ना इत्यादि गाथा तिहां नवकार एक श्लोक उच्चारणसें प्रणाम करणे करके जघन्या चैत्यवंदना होती है ॥ १ ॥ तथा य रिहंत चेश्याएं इत्यादि दंमक कहकें कायोत्सर्ग पा रके खुश देते है सो दमक और थुइके युगल दोनु करके मध्यम चैत्यवंदना होती है कल्पमें निस्सकड इत्यादि गाथासें कहा है ॥ २ ॥ तथा शक्रस्तवादि ins पांच, और थुइ चार, और प्रणिधान पाठसें संपूर्ण उत्कृष्ट चैत्यवंदना होती है ॥ ३ ॥
तथा संघाचार वृत्ति में इस गाथाके व्याख्यानमें बृह
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। भाष्यकी सम्मतिसें नवप्रकारकी चैत्यवंदना कही है. तथा च तत्पागोलेशः॥ एतावता तिहाउ वंदणये त्याद्य हार गाथा गत तु शब्दसें सूचित नव प्रकारसें चैत्य वंदना जानने योग्य, दिखलाने योग्यहै। उक्तंच वृह भाष्ये ॥ इसके आगे जो महानायकी गाथा है ति सका अर्थ उपर कहा है तहांसें जान लेना ॥ जब इसतरे जैनमतके शास्त्रोमें प्रगट पाठ है तो क्या र नविजयधन विजयजीने यह शास्त्र नही देखे होवेगेव थवा देखे होवेगे तो क्या समजणमें नही आए होंगे समजे होंगेतोक्या नाष्यकार,चूर्णिकारादिकोंकी बुद्धि से अपनीबुधिकों अधिक मानके तिनके लेखका अना दर करा होगा बादर करा होगा तो क्या सत्य नही माना होगा सत्य नही माना तो क्या अन्यमतकी श्रा वाले है जेकर अन्यमतकी श्रदा नही है तो क्या नास्तिक मतकी श्रधा रखते है. जे कर नास्ति कमतकी श्रध्धा नही रखते है तो क्या मारवाड मा जवादि देशोंके श्रावकोंसें कोइ पूर्व जन्मका वैर ना व है? जिस्से नाष्यकार, चूर्णिकारादि हजारोपूर्वचा योका मतसें विरु६ जो तीन थुश्का कुपंथ चलाके
'
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६
चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
तिनकी श्रद्धाकुं फिरायके उनोका मनुष्यनव बिगाड नेकी इच्छा रखते है. ?
अहो नव्यजीवो हम तुमसें सत्य कहते हैं कि जे कर तुम नाष्यकार, चूर्ध्निकारादि हजारों पूर्वाचार्यैके माने हुए चार थुश्के मतकों तथापोगे तो निश्वयसें दीर्घ संसारी और नगति गामी होवेंगे. जेकर र नविजयजीके चलाए तीन थुइके पंथकों न मानोगे और पूर्वाचार्योंके मतकों श्रोगे, तिनके कहे मुजब चलोगे तो निवेंही तुमारा कल्याण होवेगा इसमें कु बनी क्वचित् मात्र संशय जानना नहीं. किंबहुना
तथा धर्मसंग्रह ग्रंथ में देवसि पडिक्कमकी विधि का पैसा पाठ लिखा है सो यहां लिखते हैं | पूर्वा चार्य प्रणीताः गायाः ॥ पंचविहायार विसुद्धि, देव मिह साहु सावगो वावि ॥ पडिक्कमणं सह गुरुणा, गु रुविरहे कुrs को वि ॥ १ ॥ वंदित्तु चेश्याई, दानं च तराइ ए खमासमणे || नूनि दिय सिरोसयला, इखारे मिठा डुक्कडं देइ ॥ २ ॥ सामाइ पुत्र मिठामि, गवं कासग्गमिच्चाइ || सुत्तं नणिय पलंबिय, उय कु प्पर धरि पहिरा ॥ ३ ॥ घोडगमाई दोसे हिं, वि रहि तो करइ उस्सगं ॥ नाहिहोता हूं, चनरंगुल
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। वित्र कडिपट्टो ॥४॥ तबय धरे हिथए, ऊहक्कम दिएकए अध्यारे॥पारिन एणमोकारेण. पढतच नवीस थयदं ॥५॥ संमासगे पमधिय, नवविसिध अलग्ग विषय बाहुकुन ॥ मुहणं तगंच कायं, पेहेए पंचवीस ह ॥ ६ ॥ नयिहिन सविणयं, विहिणा गुरुणो करे किश कम्मं ॥ बत्तीसदोसरहिवं, पणवीसावस्सगविसुदं ॥७॥ अह सम्म मवणयंगो, करजुग विहि धरिष पुत्ति रयहरणो ॥ परिचिंतिथ अ स्यारे, जनकम्मं गुरु पुरोविथडे ॥ ॥अह नववि सित्तु सुत्तं, सामाश्य माश्य पढिय पयः ॥ अनुति उम्हि श्वाइ, पढ उहनि विहिणा ॥ए॥ दाकण बंदणं तो, पणगाइ सुज सुखामए तिन्नि ॥ कि क म्म किरियायरिब, माइ गाहातिगं पढ ॥१०॥ इत्र सामाश्य उस्सग्ग, सुत्त मुच्चरित्र काउस्सग्ग नि॥ चिंतश् उडोअगं, चरित्त अश्यार सुदिकए ॥११॥ विहिणा पारिश्र सम्मत्त, सुदि हेच पढश नजोकं ॥ तह सबलोथ अरिहंत चेश्याराहणुस्सग्गं ॥ १२॥ कानं उजोअगरं, चिंतिथ पारे सुसंमत्तो ॥ पुरकर वरदीवढे, कढ सुअ सोहण निमित्तं ॥१३॥ पुण प ण वीसुस्सासं, तस्सगं कुण पारए विहिणा ॥ तो
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एन
ए७ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। सयल कुसल किरिया, फलाण सिवाण पढइ थयं ॥१४॥ अह सुथ समिति देवं, सुत्र देवीए करे उ स्सग्गं॥ चिंतेश् नमोक्कार,सुण व देव ती थुयं ॥१५॥ एवं खित्तसुरीए, उस्सग्गं कुण सुणइ देश थुई॥ पढि कण पंच मंगल, मुव विसइ पमद्य संमासे ॥ १६॥ पु व विहिणेव पेसिथ, पुत्तिं दाकण वंदणे गुरुणो॥ बामो अणुसहित्ति, नणि जाणुहिं तो गई ॥१७॥ गुरु थुई गहणे थुइतिमि, वक्ष्माणरकरस्सरो पढई ॥ सकबयबवं पढिय, कुण पडित उस्सग्गं ॥ १७ ॥ एवंता देवसियं ।।
नाषाः-इस उपरले विधिमें देवसि पडिक्कमणेमें प्रथम चैत्यवंदना चार थुझसें करणी पी. अंतमें श्रु त देवता और देव देवताका कायोत्सर्ग करणा यो र तिनकी थुइ कहनी ऐसे कहा है। ___ यह धर्मसंग्रह प्रकरण श्रीहीर विजयसूरिजोके शिष्यके शिष्य श्रीमान विजय उपाध्यायजीका रचा दु वा है और सरस्वतीने जिनकों प्रत्यक्ष होके न्याय शास्त्र विद्या और काव्य रचनेका वर दीना. अरु जिनकों काशीमें सर्व पंमितीने मिलके न्यायविशार द न्यायाचार्यकी पदवी दीनी, और जिनोने अत्य
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। एए झुत ज्ञानगर्नित एसे नवीन एक सौ ग्रंथ रचे है, और जिनोने अनेक कुमतियोंका पराजय कीया, और कुकर क्रिया करी, षट्शास्त्र तर्कालंकारका वे ता, असे श्रीमपाध्याय श्रीयशोविजयगणीजीने जि स धर्मसंग्रह ग्रंथकू शोध्या है.
अबजानना चाहीयें कि ऐसे ऐसे महान पुरुषोके व चन जो कोई तुन्नबुदि पुरुष न माने तो फेर ऐसे तुबबुझिवालेका वचन मानने वालेसें फेर अधिक मूर्ख शिरोमणि किसकू कहना चाहियें ? ।
हमकू यह बड़ा आश्चर्य मालुम होता है के रत्न विजयजी अरु धनविजयजी अपनी पट्टावलीमें श्री जगचंसरिजी तपा बिरुदवालोंकू अपना आचार्य लि खते है, तद पी. देवसूरि, अनसूरि, अर्थात् विजयदे वसूरि, विजयप्रनसूरि प्रमुख लिखते है, अरु लोकोंके
आगें तपगबका नाम तो नही लेतें है. कोइ पूरे तिनकू अपने गढका नाम सुधर्मगह बतलाते हैं. ऐसा कहनेसें तो इनोकी बड़ी धूर्तता सिद्ध होती है. क्योंके यह काम सत्यवादियोंका नही है. जेक र एक लिखना और दूसरा मुखसें बोलना? और तपगडकी समाचारी जो श्रीजगचंश्वरि, देवेंइसरि
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१०० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । धर्मघोषसूरि तथा तिनकी अवजिन्न परंपरासें च लती है, तिसकों बोडकें स्वकपोलकल्पित समाचा रीकों सुधर्मगन्डकी समाचारी कहनी यहनी उत्तम जनोके लक्षण नही है ॥
नला.और जिनकों अपने पट्टावलीमें नाम लिखक र अपना बडे गुरु करके मानना, फेर तिनोकीही स माचारीको जब जूठी माननी तबतो गुरुनी जूते सिद हुवे ? जब रत्नविजयजी धनावजयजीका गुरु जूते थे तबतो इन दोनोकी क्या गति होवेगी ?
तथा नवांगी वृत्तिकार जो श्रीअजयदेवसरिजी तिनके शिष्य श्रीजिनवल्लनसूरिजीने रची दुइ समा चारीका पाठ लिखते है ॥ पुण पणवीसस्सासं, न स्सग्गं करे पारए विहिणा ॥ तो सयल कुसल कि रिया, फलाणसिक्षाणं पढ थयं ॥१४॥ अह सुय स मिदि हेनं, सुयदेवीए कर उस्सग्गं ॥ चिंते नमुक्का रं, सुगाइ देश तिए थुइ ॥ १५ ॥ एवं खित्तसुरीए, न स्सग्गं करे सुण दे थुई। पढिकण पंचमंगल, मुव विसइ पमऊ संमासे ॥ १६ ॥ इत्यादि ॥
जाषा ॥ श्रीजिनवल्लन सूरि विरचित समाचारि में प्रथम पडिक्कमणेमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १०१ पीले प्रतिक्रमणे अवसानमें श्रुतदेवता अरु क्षेत्र देवताका कायोत्सर्ग करणा, और श्नोंकी थुइयां कहनी. यह कथन पंदरावी अरु सोलावी गाथामें करा है. जब श्री अजयदेवसूरि नवांगी वृत्तिकारक के शिष्य श्रीजिनवल्लनसूरिजीकी बनवाइ समाचा रीमें पूर्वोक्त लेख है तब तो श्रीअनयदेवसूरिजीसें तथा बागु तिनकी गुरु परंपरासें चार घुश्की चैत्य बंदना और श्रुतदेवता अरु देवदेवताका कायोत्स गर्ग करणा और तिनकी धुश् कहनी निश्चयही सिम होती है, तो फेर इसमें कुबनी वाद विवादका ज गडा रह्या नही, इस वास्ते रत्न विजयजी अरु धन विजयजी तीन थुश्का कदाग्रह बोड देवे, तो हम इनेकों अल्पकर्मी मानेंगे ॥
तथा बृहत्खरतर गन्डकी समाचारीका पाठ लि खते हैं ॥ पुवोग्निंगीया पडिकमण समायारी पुणए सा ॥ साव गुरुहिसमं, इक्कोवा जावंति चेश्याइं ति गाहा ॥ उगथुत्तिपणिहाण वचं चेश्या वंदितु चउरा इखमासमणेहिं आयरियाई वंदिय नूनिहियसिरो सबस्स देवसिय श्वाश दंगेण सयलाश्यार मिनुक्क डं दानं नयि सामायिय सुत्तं जणि नामि ता
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१०२
चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
इनं कानस्सग्गमिच्चाइ सुत्तं जलिय पलंबिय नुय कु प्पर धरियना निहो जाए ं चनरंगुल तविय क डिय पट्टो संजइ कविधाइ दोसर हियं काउस्सग्गं जंका नं जक्कमं दिकए श्यारे हियए धरिय नमोक्कारे एल पारिय चनवीसं पडिलेहणान कार्यं काए वितत्ति या चैव कुण । साविया पुण पिहि सिरहिययव पन्नारसकुएइ । उहिय बत्ती सदोसर दियं पणवीसा वस्तय मुहं कि कम्म कार्यं श्रवणयंगो करजुय विह्नि धरिय पुत्तीदेव सियाइयाराणं गुरुपुरन वियड एवं आलोयण दंमगं पढ । तनुं पुत्तीए कहीस पाउंड वा डिजेहिय वामं जाए हिठा दाहि णं चन्द्वं कालं करजुय गहिय पुत्तिसम्मं पडिक्कमण सुत्तं नगइ || तब दव जावुन हिम इच्चाइ दंमगं पढित्ता बंदणं दानं पण गाइ सुजइ सुत्तिन्नि खामित्ता सामन्न साहू सुपुल उवणायरिएण समं खामणं कार्यं त तिन्नि साहू खामित्ता पुणो की क म्मं काउं उद्ध डिन सिर कयंजली आयरियनवनाए इच्चाइ गाहा तिगं पढित्ता सामाश्यसुत्तं वस्सग्गदंमगंच नणिय काउस्सग्गे चारित्ताश्यारसुद्धिनिमित्तं नवो यगं चिंते । त गुरुणा पारिए पारिता संमत्तसु
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १७३ बिहेन नद्योयं पढिय सबलोय अरहंतचेश्याराहणु स्सग्गं काउं उद्योयं चिंतिय सुय सोहि निमित्तं पुरक रवरदीवढं कट्टिय पुणो पणवीसुस्सासं कानस्सग्गं कानं पारिय सिमलवं पढित्ता सुयदेवयाए कानस्स ग्गे नमोकारं चिंतिय तीसे शुइ दे सुश्वा ॥ एवं खित्तदेवयाए वि कानस्सग्गे नमोकारं चिंतिकण पा रिय तबुई दालं सोवा पंचमंगलं पढिय संमासए प मक्जिय उवविसिय पुत्वं व पुत्तिं पहिय वंदणं दा बामि अणुसहिति नणिय जागृहि वा वट्ठमाण स्करस्सरा तिनिथुईन पडिय सक्कलयं सुत्तंच नणिय पायरियाई वंदिय पायबित्तविसोहण कानस्सग्गं का न्योय चनक्क चिंति इत्ति ॥ देवसिय पडि कमणविही॥
इस पातकी नाषाः-जैसें विधिप्रपाके पाठकी ह म यही ग्रंथमें ऊपर कर आए है तैसें जान लेनी. ईस पाउमेंनी प्रतिक्रमणेमें चार थुईसें चैत्यबंदना क रनी और श्रुतदेवता तथा देवदेवताका कायोत्सर्ग अरु तिनकी शुश्यों कहनी कही है.
तथा प्रतिक्रमणा सूत्रकी लघुवृत्तिमें श्रीतिलका चार्यै चार थुईसें चैत्यवंदना करनी लिखी है तथा
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१०४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। च तत्पातः ॥ एष नवमोऽधिकारः एतास्तिस्त्रः स्तुत यो गणधरकतत्वानियमेनोज्यंते आचरणयान्यायपि ॥ तद्यथा नद्यते इत्यादि पासिका नवरं निसिही यत्ति संसारकारणानि निषेधान्नैषेधिकी मोदः । दश मोऽधिकारः ॥ तथा चत्तारीत्यादि एषापि सुगमा न वरं परमहनिध्यिहा परमार्थेन न कल्पनामात्रेण नि ष्ठिता अर्था येषां ते तथा एकादशोऽधिकारः अथै वमादितः प्रारन्य वंदितनावादिजिनः सुधीरुचितमि ति वैयावृत्त्यकराणामपि कायोत्सर्गार्थमिदं पतति वेयावच्चगराणमित्यादि वैयावृत्त्यकराणां गोमुखच केश्वर्यादीनां शांतिकराणां सम्यग्दृष्टिसमाधिकराणां निमित्तं कायोत्सर्ग करोमि अत्र च वंदणवत्तियाए । त्यादि न पश्यते अपितु अन्नबनससीएणमित्यादि ते षामविरतित्वेन देशविरतिन्योप्यधस्तनगुणस्थानव तित्वात तयश्च वैयावृत्त्यकराणामिव । एष हा दशोधिकारः॥ . नाषा ॥ यह नवमा अधिकार पूरा दूधा, यह पूर्वोक्ता सिक्षाणं ॥ १ जो देवाण ॥ २ कोवि० ॥ ३ ये तीन थुईयां गणधरकी करी हुई है इस वा स्ते निश्चें कहनी चाहीयें, और आचरणासें अन्य
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
१०५
((
जी कहीयें है, सो यह है. नविंत इत्यादि पाठ सि 5 है. नवरं निसिहीयत्ति० संसारकारण निषेधात् नैषेधिकी मोह. यह दशमोधिकारः ॥ तथा चत्तारि इत्यादि यहनी सुगम है. नवरं परमह० परमार्थ करके परंतु कल्पना मात्रसें नही निष्ठितार्था दूया है इनको यह एकादशमोधिकारः ॥ अथ या दिसें रंजके वादे है जावजिनादिक अथ उचित प्रवृत्तिके लीये यह पाठ पढे ॥ arraaree मि त्यादि " वैयावृत्य करनेवाले जो गोमुख यक्ष, चक्रेश्वर्यादीकों जो शांतिके करनेवाले, सम्यग्रदृष्टि समाधिके करनेवाले है इन हेतुयोंसे तिनका कायो त्सर्ग करता हूं ॥ इहां वंदराव त्तियाए इत्यादि पाठ न कहना अपितु अन्न ब्रूससीएल मित्यादि पाठ कहना. तिनको अविरति होनेसें देश विरतिसेंजी नीचले गु एस्थानमें वर्त्तनसें वैयावृत्य करनेवालोंकों सुना है. यह बारमा अधिकार हैं. इस पाठ मेंनी चार थुईसें चैत्यवंदना करनी कही है.
तथा अहिलपुर पाटणके फोफलीये वाडेका नांमागार में श्री अजयदेवसूरिकृत समाचारी है तिस का पाठ लिखते है | प्रव्रजितेन चोनयकालं प्रतिक्र
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१०६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। मणं विधेयमतस्तविधिः। सच साधुश्रावकयोरेक एवे ति श्रावकसमाचार्या पृथक् नोक्तः, तत्र रात्रिकस्य यथाऽरिया कुसुमिण सग्गो, जिणमुणिवंदण तहेव सबा॥ सबस्सवि सक्कथन, तिनिय उस्सग काय वा ॥ १ ॥ चरणे दंसणनाणे, सुलोद्योतय तई अश्यारा ॥ पोत्तीवंदण बालोय, सुत्तं वंदणय खाम
यं ॥ ३ ॥ वंदणमुस्सग्गो श्न, चिंतएकिं अहं तवं काहं॥ नम्मासादेगदिणा, हाणिजा पोरिसि नमो वा ॥ ३ ॥ मुहपोत्ती वंदण प,चरकाण अणुसहि तह युई तिन्नि ॥ जिणवंदण बदुवेला, पडिलेहण रापडि कमणं ॥४॥ अथ दैवसिकस्य ॥ जिणमुणिवंदण अ श्या, रुस्सग्गो पोत्तिवंदणा लोए॥सुत्तं वंदण खामण, वंदन तिन्नेव नस्सग्गा॥१॥चरणे दंसणनाणे, नद्योया दोणि एक एक्का य॥ सुयखेत्तदेवनस्स, ग्गो पोतिय वंदणथुई थुत्तं ॥॥ पुणरवि खमासमण पुवंश्चकारि तुम्हेम्हं संमत्त सामाश्य संयसामाश्यस्स रोवपत्थं नंदिकरावणियं देवे वंदावेद ॥ गुरु वंदेहत्ति नणित्ता तं वामपासे वित्ता तेण समं वढेति बाहिं ॥ थुईहिं देवे वंदावेश सिबय पचंतेय सिरिसंति ? संति २ पवयए ३ जवण ४ खित्ताय देवयाण ५ तहा वेया
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
१०७
वञ्चगराएणय ६ उस्सग्गा हुंति कायद्या केवलं शांति नाथाराधनार्थं कायोत्सर्गः सागरवरगंजीरेत्यंतं लोग स्तुवोयगरा चिंतनतः सप्तविंशत्युङ्खासमानः कार्यः । शेषेषु तु नमस्कार चिंतनं क्रमेण स्तुतयः श्रीमते शां तिनाथायेत्यादि ॥ १ ॥ उन्मृष्टरिष्टेत्यादि ॥ २ ॥ यस्याः प्रसादेत्यादि ॥ ३ ॥ ज्ञानादिगुणेत्यादि ॥ ४ ॥ यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्येत्यादि ॥ ५ ॥ सर्वे यहां बिकेत्यादि ॥ ६ ॥ तनुं रामोक्कारं कट्टिय जाणु सुनवित्र सक्क रिहालाई बोत्तं च नलिऊ जयवीयरायेत्या दिगाथे च इतीयं प्रक्रिया सर्वनंदीषु तुल्यत्वे तत्समो चारणत्वं चेश्य वंदणातरं खमासमणपुत्रं नोइ ॥
इन पाठोंका जावार्थ:- राईपडिक्कम के अंत में चार थुईसें चैत्यवंदना करनी कही है. हम ऊपर जितने शास्त्रोंकी सादी में देवसि पडिक्कमका वि धि लिख खाए है. तिन सर्व ग्रंथों में राइ पडिक्कम के अंत में चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है. से संजय कालमिति महानाष्यवचनप्रामाण्यात् ॥
तथा श्री जयदेवसूरिने तथा तिनके शिष्यने दें वसि पक्किमकी खादिमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है और श्रुतदेवता अरु क्षेत्र देवताका का
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१०७ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः।। योत्सर्ग करना तथा तिनकी थुइ कहनी कही है।
तथा सम्यक्त्व देशविरत्यादिके आरोपणेकी चैत्य वंदनामें प्रवचन देवी, नुवन देवता, खेत्र देवता, वे यावच्चगराणं इनके कायोत्सर्ग और इन सर्वोकी ? थम् पृथग थुइ कहनी कही है. इस समाचारीके अंत श्लोकमें ऐसें लिखा हैके श्रीअनयदेवसूरिके राज्यमें यह समाचारी रची गई है. और इसी पुस्तककी स माप्तिमें ऐसें लिखा है इति श्रीखरतरगडे श्रीअजयदेव सूरिकता समाचारी संपूर्णा ॥ यह पुस्तकनी हमारे पास है, किसीकों शंका होवे तो देख लेवे ॥
जैसे इस समाचारीमें विधि लिखि है, तैसेंही श्रीसोमसुंदरसूरिकत, श्रीदेवसुंदरसूरिकत, श्रीयशोदे वसूरिके शिष्यके शिष्य श्रीनरेश्वर सूरिकत समाचा रीयोंमें तथा श्रीतिलकाचार्यकृत विधिप्रपा समाचा रीमें ऐसालेख है सो यहां लिख दिखाते हैं।
श्रीतिलकाचार्यकृत सैतीस हारकी विधिप्रपा स माचारीका पाठ ॥ पुनः गृही दमा० श्वाकारेणतुप्ने अम्दं सम्यक्त्व० श्रुतम् देशवि० सामायिक आरोप गुरुण्यारोपणा गृहीवादमा नाकारेण तुम्ने अम्द सम्य श्रुत देश सामायिका रोपणनु निंदिकरत
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
१० ए
गुरु करेमो गृही ॥ दमा० इछाकारेण तुप्ने अम्ह सम्य०श्रु० देश ० सामायिकारोपण नंदिकरणं चेश्याई वंदावेद ततः समुबाय गुरुः समवसरणाये स्थित्वा गृहिणं वामपार्श्वे निवेश्य ईर्यापथिकीं प्रति क्रमय्य प्रार्थितं चैत्यवंदनादेशं दत्वा गुरुः ससंघस्तेन सह चैत्यवंदनां करोति ॥ तद्यथा ॥ समवसरणम ध्ये रत्न सिंहासनस्थान, जगति विजयमानान् चामरे वीज्यमानान् ॥ मनुजदनुजदेवैः संततं सेव्य मानान्, शिवपथकथकांस्तानर्हतः संस्तुवेऽहं ॥ १ ॥ शिवयुवति किरीटान् शुष्कदुष्कर्मकंदान, विमलतम समुद्यत्केवलज्ञानदीपान् ॥ प्रणुमनुजसुदेहाकारतेजः स्वरूपान् श्रधिगतपरमार्थान् नौमि सिद्धान् कृता थन ॥ ॥ अतुलतुलितसत्त्वान् ज्ञातसिद्धांतत स्वान्, चतुरतर गिरस्तान् पंचधाचारशस्तान् ॥ प्रथित गुण समाजान् नित्यमाचार्यराजान् प्रणमत युगमु ख्यान सक्रियाब सख्यान् ॥ ३ ॥ प्रणयिषु पठनाया न्युद्यतेषु प्रकामं वितरत इह सौत्रीं वाचनामाग मस्य ॥ गणित निजकष्टान् कामितानीष्ट सिधान् सरससुगमवाचो वाचकान् संस्तवीमि ॥ ४ ॥ दश विधयतिधर्माधारनूतान् प्रभूतान् श्रमणशतसहस्रान
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
श्रमान् स्वक्रियायां ॥ सविनयम तिनक्त्यान्युल्लस च्चित्त रंगः सततमपि नमामि कामदेहांस्तपोनिः ॥ ५ ॥ चतुर्गात्रं चतुर्वकं, चतुर्धा धर्मदेशकं ॥ चतुर्गतिविनि मुक्तं, नमामि जिनपुंगवं ॥ ६ ॥ इत्यादि नमस्का रान् शक्रस्तवं च नणित्वा अरिहंत चेश्याएं ० लोग स्स उघोगरे ० ॥ पुरकरवरदीवद्वे० सिद्धाणं बुझाएं ० कायोत्सर्गान कृत्वा ततः शांतिनाथ आराहावं करें मि काउस्सग्गं वंदणवत्तीयाए० अथ सुयदेवयाए सासण देवयाए सवेसिं वेयावच्चगराणं अणुबाणाव एवं करेमि का स्सगं अन्न नसलिएणं कायोत्स गंवि ४ दत्वा तत्र शांतिनाथाराधनार्थं कायोत्सर्गे सागरवरगंजीरांतचतुर्विंशतिस्तवं शेषकायोत्सर्ग सप्त के श्वासोवासं पंचपरमेष्ठिनमस्कारं विचिंत्य नमोईल्सि वाचार्योपाध्याय सर्वसाधुज्यः इति जपनरहितं चतु विंशतिस्तव श्रुतस्तव कायोत्सर्गाते स्तुतिद्वयं तङ्गणन पूर्वकं चापरकायोत्सर्गाते स्तुतिपङ्कं गुरुः स्वमेव ना ति तामाः स्तुतयः । सत्केवलदंष्ट्र धर्मदितिधारं श्री वीरवराहं प्रातर्नुतवंद्यं ॥ १ ॥ नवकांतार निस्तार सार्थवाहास्तु देहिनाम् ॥ जिनादित्या जयंत्युचैः प्रजातीकृत दिङ्मुखाः ॥ २ ॥ तोयायते मौर्य मला
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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पनीतौ पद्मायते श्रीगणनृत्सरःसु ॥ राहूयते यत्कुम तबिंबे तर्फेनवाक्यं जयति प्रजाते ॥ ३ ॥ किमिय ममलपद्मं प्रोहंती करेण प्रकटविकचपद्मे संश्रिता श्रीः सितांगी ॥ नहि नहि जिनवीरदीरनीरेश्वरस्य श्रुत सितमणिमालातानिनाते श्रुतांगी ॥ ४ ॥ यदि चाप राएहे नंदिः क्रियते तदा एतासां स्तुतीनां स्थाने इमाः स्तुतयो जानीयाः ॥ तद्यथा ॥ नमोस्तु वर्ध मानाय स्पर्धमानाय कर्मणा ॥ तयावाप्तमोदाय परोक्षाय कुतीर्थिनाम् ॥ १ ॥ येषां विकचारविंद राज्या ज्यायः क्रमकमलावलिं दधत्या ॥ सदृशै रिति संगतं प्रशस्यं कथितं संतु शिवाय ते जिनेंशः ॥ २ ॥ कषायतापार्दितजंतु निर्वृतिं करोति यो जैनमुखांबु दोतः ॥ स शुक्रमासोनववृष्टिसंनिनो दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ॥ ३ ॥ स्वसितसुरनिगंधालग्ननृ गीकुरंगं मुखशशिनमजस्त्रं बिनती या बिजर्ति ॥ विकचकमलमुचैः सा त्वचिंत्यप्रनावा सकलसुखवि धात्री प्राणिनां सा श्रुतांगी ॥ ४ ॥ शांतिनाथादि स्तुतिचतुष्टयं च पूर्वाएहापरा सहयोरप्येकमेव || शांति नाथः स वः पातु यस्य सम्यक सनाजनं ॥ कृतं क रोति निःशेषं त्रैलोक्यं शांतिनाजनम् ॥ १ ॥ यत्प्रसादा
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
दवाप्यते पदार्थाः कल्पनां विना ॥ सा देवी संविदे नः स्तादस्तकल्पलतोपमा ॥ २ ॥ या पाति शासनं जैनं सद्यः प्रत्यूहनाशिनी ॥ सानिप्रेतसमृदधर्थ नूया च्छासनदेवता ॥ ३ ॥ ये ते जिनवचनरता वैयावृ त्योद्यताश्च ये नित्यं ॥ ते सर्वे शांतिकरा नवंतु सर्वा णि याद्याः॥ ४ ॥
इस उपर ले पाठमें श्रुतदेवता, शासनदेवता, arraaari इन तीनोका कायोत्सर्ग और ती नोकी तीन घुइयां कहनी कही है. इसीतरें सर्वग छोंकी समाचारीयोंमें यही रीती है. और प्रतिष्ठा कल्पोमेंजी पूर्वोक्त देवतायोंका कायोत्सर्ग अरु थु यां कहनीयां कही है.
यहा कोई रत्नविजयजी अरु धनविजयजी प्रश्न करते है के प्रव्रज्याविधिमें और प्रतिष्ठाविधिमें तो हम पूर्वोक्त देवतायोंका कायोत्सर्ग अरू थुइ कहनी मानते है. परंतु प्रतिक्रमणोमें नही मानते.
उत्तरः- प्रतिक्रमणे में वेयावञ्चगराणं, श्रुतदेवता, दे देवता इन तीनोके कायोत्सर्ग, अरु शुश्यों कहनी यह सब बात शंकासमाधानपूर्वक अनेक शास्त्रों की साक्षी सें हम ऊपर लिख खाए है. जेकर रत्नविजय रु
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ११३ धन विजयजीकों पूर्वोक्त सुविहित आचार्योंका लेख प्र माण नही होवे तो फेर धर्मकी प्रवृत्ति जो कुल चला नी वो सब पूर्वोक्त आचार्योकी परंपरासेही चलती है तिसकोंनी बोडके जिसमाफक अपनी मरजीमें आवे तिसमाफक बिचारे नोले जीवोंके बागें चलानेकों कु बनी मेनत तो नही पडती; परंतु नुकशान मात्र ३ तनाही होता है कि जैसें करनेसें सम्यक्त्वका नाश हो जाता है. यह बात कोनी जैनधर्मी होवेगा सो अ वश्य मंजूर ररकेगा फेर जादा क्या कहना.
फेरजी एक बात यह है कि जब पडिक्कमणेमें पू वोक्त देवतायोंका कायोत्सर्ग करणेसें इनकों पाप ले गता है ? तो क्या प्रव्रज्या विधिमें और प्रतिष्ठावि धिमें इन पूर्वोक्त देवतायोंका कायोत्सर्ग करनेसें । नकों पाप नही लगता होवेगा? यह कहना सत्य हैकि “आंधे चूहे थोथे धान,जैसे गुरु तैसे यजमान" इसि माफक है. यह अपदपाति सम्यक्दृष्टि निश्चय करेगा. मारवाड अरु मालवेके रहेने वाले कितनेक नोले श्रावक तो असे है कि जिनोने किसि बहुश्रुतसें यथार्थ श्रीजिनमार्गनी नही सुना है तिनोकों कुयु क्तिसें श्रीहरिनइसरियादिक हजारो आचार्यों जो
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११४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। जैनमतमें महाज्ञानी थे तिनके सम्मत जो चार थुइ श्रुतदेवता, देवदेवताका कायोत्सर्ग करणेरूप मत है तिसकों उबापके स्वकपोलकल्पित मतके जालमें फसातें है. यह काम सम्यग्दृष्टि अरु नवजी रुयोंका नहीं है. • तथा रत्नविजयजी, धनविजयजीने श्रीजगचंसरि जीको अपना पाचार्यपट्ट परंपरायमेंमाना है.और ति नके शिष्य श्रीदेवेंइसरिजीने चैत्यवंदननाष्यमें और ति नके शिष्य श्रीधर्मघोष सूरिजीने तिसनाष्यकी संघाचार वृत्तिमें चार थुइसें चैत्यवंदनाकी सिदि पूर्वपद उत्तर पद करके अन्जी तरेसे निश्चित करी है, जिसका स्व रूप हम उपर लिख आए है.तिसकों नही मानते इस्से अपनेही आचार्योंकों असत्यनाषी मानते है, तो फेर रत्नविजयजी,धन विजयजी यहनी सत्यनाषी क्यों कर सिम होवेगें?
जे कर रत्नविजयजी अरु धनविजयजी अंचलग के मतका सरणा लेते होवेगे तो सोनी अयुक्त है. क्योकि अंचलगबके मतवाले तो चारोंही शुइन ही मानते है, वे तो लोगस्स, पुरकरवर, सिक्षाएं बु दाणं, यह तीन थुश्कों मानते है. अन्य नही. यह
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चतुर्थस्तुतिानर्णयः। ११५ बात अंचलकत शतपदी ग्रंथके १४-१५-१६-प्र श्रोत्तरमें देख लेनी.. ____ तथा तिलकाचार्यकत विधिप्रपाका पाठ ॥ अथ साधुदिनचर्याविधिः॥ इह साधवः पाश्चात्यरात्रिघटि काचतुष्टयसमये पंचपरमेष्ठिनमस्कारं पठंतः समुं त्याय 'किं मे कडं किं च मे किचमे संकंसक्कणिधं समा य समि किंमे परोपास किंच अथवा किंचाहं खलि यं न विवद्ययामि ॥१॥' इत्यादि विचिंत्य र्यापथिकी प्रतिक्रम्य चैत्यवंदनां कृत्वा समुदायेन कुस्वप्नजस्वप्न कायोत्सर्ग गुरून वंदित्वा यथायेष्ठं साधुवंदनं । श्राव काणां तु मिथो वांदनं नणनं ततः कर्ण आदेशादाने न स्वाध्यायं विधाय ततः दमाण्श्व पडिक्कमणवानं नं कमा सवस्स विराईय उचिंतिय नासियं उच्चि यह मणि वचणि काई मिबामि कुक्कडं शक्रस्तवन नं ततश्चारित्रशुध्यर्थ करेमि नंते कानस्सग्गं न योयचिंतणं न पुनरादावेव अतिचारचिंतनं निज्ञप्र मादेन स्मृतिवैकल्यसंनवात् ततो दर्शनशुक्ष्यर्थ लो गस्स उद्योयगरे उद्योयचिंतणं झानशुक्ष्यर्थ पुरकरवर नस्सग्गो अचरकुविसइ जोगुवो सिरियन इत्याद्यति चारचिंतनं श्रावकाणां तु नामि दंसम्मीति गाथा
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११६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । ष्टकचिंतनं ततो मंगलार्थ सिक्षाएं बुदाणमिति स्तु तीनां लणनं मुहपत्तीपेहणं वंदणयं उपविश्य प्रति क्रमणसूत्रनयनं अनुजिमि आराहणाए पनणित्ता वंदणयं खामणयं यदि पंचाद्याः साधवो नवंति तदा त्रयाणां तक्रियतां तत्र रात्रिके दैवसिके पादिकादिस कसंबुसमाप्तिदामणेषु मयितारः सकलं दाम एकसूत्रं नरांति दमणीयास्तु परपत्तियं पदात् अवि हिणा सारिया वारिया चोश्या पमिचोश्या मणेण वा याए काएण वा मिलामि उक्कडं इति नणंति।अथ वं दणपुवं बमासिया चिंतण आयरिय उवद्याए उस्स ग्गा बम्मासिय चिंतणं करिज पच्चरकाणं जाव उद्योयं जणित्ता मुहपत्ती पमिलेहणं वंदणयं पञ्चरकाणं लामो अणुसहिं विशाललोचनदलं० इति स्तुतित्रयनणनं शक्रस्तवः। पूर्णा चैत्यवंदना ॥ तिलकाचार्यकत विधि प्रपामें ॥ संपूर्णा चैत्यवंदना अस्तोत्रा ततो गुरून् वं दित्वा यथाज्येष्ठं साधुवंदनं दमा० बाप डिक्कम ठा यहं श्वं दमा सवस्सवि देव सियं करेमि नंते का नुस्सग्गो समयं दिनातिचारं चिंतार्थ ॥ श्रावकाणां तु नामि दंसमीति गाथाष्टकचिंतार्थ अथ उद्योयं जणित्वा मुहपत्तीपेहणं वंदणयं आलोयणं उपविश्य
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ११७ पमिकमणासूत्रनणनं ततः अनुनिमि आराहणाए जणित्ता वंदणयं खामणयं वंदणयपुत्वं चरितहिनि मित्तं आयरिय उवद्याये कानस्सग्गो उद्योयगचिंत णं ततो दंसणशुदिहे उद्योयं जणित्ता नस्सग्गो उ बोयचिंतणं त नाणशुक्किए पुरकरवर कारस्सग्गो उद्येयचिंतणं अथ शुरुचारित्रदर्शनश्रुता तिचारा मंग लार्थ सिकाएं बुदाणं पंच गाथा नणित्वा सुयदेवया ए उस्सग्गतीए थुईखित्तदेवयाए नस्सग्गतीएथुई नमु कारं जणित्ता मुहपोतीपेहणं ततो यथा राज्ञा कार्या यादिष्टाः पुरुषाः प्रणम्य गचंति कृतकार्याः प्रणम्य निवेदयंति एवं साधवोऽपि गुर्वादिष्टा वंदनकपूर्व चा रित्रादिशुद्धिं कृत्वा पुनर्निवेदनाय वंदनं दत्वा नणं ति लामो अणुसहि नमोस्तुवर्धमानाय इति स्तुति त्रयनणनं शक्रस्तवस्तोत्रनणनं उरकखन कम्मखना आचार्योपाध्यायसर्वसाधुदमाश्रमणाणि ॥ दमा० बा० सप्नानं संदिसावन मा० बा० सप्नात क रवं ॥ ततः स्वाध्यायं कवा गुरून वंदित्वा यथाज्येष्ठं साधुवंदनम् इति देवसिकप्रतिक्रमणविधिः ॥
इस उपरले पाठमें राश्पडिक्कमणेके अंतमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है. और दैवसिक प्र
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११७ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। तिक्रमणे प्रारंनमें चार धुसें चैत्यवंदना करनी कही है. श्रुतदेवता अरु देवदेवताका कायोत्सर्ग कर ना और इन दोनोकी थुश्योंनी कहनी कही है.
तथा श्रीमपाध्याय श्रीयशोविजयगणिजीयें पां च प्रतिक्रमणेका हेतुगनित विधि लिखी है, तिस का पाठ लिखते हैं ॥ पढम अहिगारें वंड नाव जि ऐसरू रे॥बीजे दवजिणंद त्रीजे रे,त्रीजे रे, ग चेश्य ग्वणा जियो रे ॥१॥ चोथे नामजिन तिदुयण उव णा जिना नमुं रे ॥ पंचमें बतिम वंडरे, वंडरे वि हरमान जिन केवली रे ॥ २ ॥ सत्तम अधिकारें सु य नाणं वंदियें रें, अध्मी धुइ सिधाण नवमे रे, न वमे रे, थुइ तिबाहिव वीरनीरे॥३॥ दशमे उऊयंत शुश् वलिय ग्यारमें रे, चार आठ दश दोय वंदो रे, वंदोरे, श्रीअष्टापदजिन कह्या रे ॥ ४ ॥ बारमे स म्यादृष्टी सुरनी समरणा रे,ए बार अधिकार नावो रे,नावोरे, देव वांदतां नविजना रे॥५॥ वां बु श्व कारि समस श्रावको रे, खमासमण चनदे श्रावक रे, श्रावक रे, जावक सुजस इस्युं नवं रे ॥ ६ ॥ तिबाधिप वीर वंदन रैवत मंझन, श्रीनेमि नति तिब सार ॥ चतुरनर ॥ अष्टापद नति करी सुय दें
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ११ए वया, कास्सग्ग नवकार चतुरनर ॥ ७ ॥ परी०॥ देत्र देवता कानस्सग्ग श्म करो, अवग्रह याचन हेत ॥ चतुरनर ॥ पंच मंगल कही पूंजी संमासग, मुहपत्ति वंदन देत ॥ चतुरनर ॥ ए॥ परी० ॥
इस उपरके पाठमें देवसि पडिक्कमणा करतां प्र थम बारा अधिकारसहित चैत्यवंदना करनी कही है. तिसमें चोथा कायोत्सर्ग वेयावञ्चगराणंका कर णा तिसकी घुइ कहनी कही है ॥ तथा दूसरे पाठ में, श्रुतदेवता और देवदेवताका कायोत्सर्ग करणा कहा है.इसी तरें राप्रतिक्रमणेके अंतमें चार थुश्की चैत्यवंदना करनी कही है। ___ यह श्रीयशोविजयजी उपाध्यायका पंमितत्त्व जो था सो आज तक सब जैनमति साधु श्रावकों में प्रसिद है मात्र जिनके रचे दवे ग्रंथोंकों बाचने सेंही तो शंका करने वाले वादी प्रतिवादीयोंका म द दूर होजाता है, यह पंमितने सेंकडो ग्रंथोंकी रचना करी है तिसमें कोश्नी ग्रंथके बिच कोश्नी शंकित बात दिखने में नही आई है, सब शंकायों का समाधान करके रचना करी है. यह बात को जी समजवान जैनीसें नामंजूर नही होती है.
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१२० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः।
ऐसे ऐसे महापंमितोने जब चार शुश्की चैत्यवंदना और श्रुतदेवता देवदेवताका कायोस्सर्ग प्रतिक्रम ऐमें करना लिखा है, तो फेर रत्नविजयजी अरु धन विजयजीकों पूर्वाचार्योंके मतसें विरुक्ष तीन थुश्के पं थ चलानेमें कुबनो लक्जा नही आती होवेगी? वे अपने मनमें ऐसे विचार नही करते होवेगेकि ? ह मतो पूर्वाचार्योंकी अपेक्षासें बहुत तुल बुधिवाले हैं. तो फेर पूर्वाचार्योंके परंपरासें चले आए मार्ग की उबापना करके कौनसी गतिमें जावेंगे. थोडी सी जिंदगीवास्ते वृथा अनिमान पूर्ण होके निःप्रयो जन तीन थुका कदाग्रह पकडके श्रीसंघमें बेद ने द करके काहेकों महामोहनीय कर्मका उत्कृष्ट बंध बांधना चाहीयें ? हमारा अभिप्राय मुजब इनोके हृदयमें यह बिचार निश्चेसेंही नही आता होवेगा. जेकर आता होवे, तो फेर पूर्वाचार्योंके रचे हूए से कडों ग्रंथोंरूप दीपोकी माला हाथमें लेकर काहेकों तीन शुरूप कदायहके खाडे में पडनेकी ना रख ते है? यह देखनेसें जैसा सिक होता हैके श्नोकों यह बिचार नही आता है. __ यह विचारतो अपनपाति सम्यग् दृष्टी, नवजी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ११ रू जीवोंकों होता है, परंतु स्वयंनष्ट अपरनाशकाकों तो स्वप्नेमेंनी जैसी नावना नही आती है. इस वास्ते हे नोले श्रावको तुम जो आपना आत्मका क व्याण श्वक हो, अरु परनवमें उत्तमगति, उत्तम कुल, पाकर बोधबीजकी सामग्री प्राप्त करणेके अनि लाषी होवो तो तरन तारन श्रीजिनमतसम्मत असे जैनमतके हजारो पूर्वाचार्योंका मत जो चार थुश्यों का है तिनको बोडके दृष्टी रागसें किसी जैनानासके वचनपर श्रदा ररकके श्रीजिनमतसें विरुप जो तीन युश्योंका मत है. तिनकों कदापि काले अंगीकार क रण तो दूर रहो; परंतु इनकों अंगीकार करणेका त र्कनी अपने दिलमें मत करो, क्योंके जो धर्म साध न करना होता है सो सब नगवान्के वचनपर शुद्ध श्रया ररकनेसें होता है, इसी वास्ते जो श्रमामें विक ल्प हो जावे तो फेर जैसे महासमुश्में सुलटा जहाज चलते चलते उलटा हो जावे तो उन जहाजमें बैठ नेवालेका कहा हाल होवे ! तिसी तरें यहांनी जानना चाहीयें. इस वास्ते आप कोकी देखा देखीसें किंवा किसी हेतु मित्रके पर सरागदृष्टी होनेसें मृगपाशके न्यायें तीन शुरूप पाशमें मत पडना.इस्से बहोत सा
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१२२ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। वधान रहना चाहीये. श्रीजिनवचन उहापनसें ज माली जैसे बड़े बड़े महान्पुरुषोंकोंनी कितना दीर्घ संसार हो गया है. यह बातों अलबता आप श्राव कोंमेसें बहोतसें जनोंने सुनी दोवेगी तो फेर वो पु रुषोंके आगें आपनतो कुबनी गणतीमें नही है, तो फेर हमजादा कहा कहै. यह हमारी परम मित्रता सें हितशिदा है. सो अवश्य मान्य करोगे जिस्सें आ प सम्यक्त्वका आराधक होके संसारचमणसें बच जावेगें, श्रीवीतराग वचनानुसार चलेगें तो शीघ्रही आपना पदकों पावेगें इस बातमें कुबनी संशय ररक ना नही. समजुकों बहोत क्या कहना. हमतो शंका दूर करणे वास्ते पूर्वाचार्योंके रचे हूए बहोतसे ग्रंथों का पाठ नपर लिखके समाधान कर दिखाया. फेरनी कितनेक ग्रंथोका पाठ लिख दिखलाते हैं ।
तथा श्रीराजधनपुर अर्थात् श्रीराधणपुरके जांमा गारमें पूर्वाचार्यकृत षडावश्यक विधि नामा ग्रंथ है, तिसका पाठ यहां लिखते है. षडावश्यकानि यथा॥ पंचविहायारविसु, बिहेन मिह साहु सावगो वावि ॥ पडिकमणं सहगुरुणा, गुरुविरहे कुण कोवि ॥१॥ वंदित्तु चेश्याई, दा चनराश ए खमासमणे ॥ नूनि
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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हिय सिरोसयला, इयार मिठोकडं देइ ॥ २ ॥ सामा इय पुत्र मिला, मी वाइनं कानस्सग्गमिच्चाई || सुत्तं न यि पलंबिय, जु कुप्परधरियप हिरण जं ॥ ३ ॥ घोडगमाई दोसेहिं, विरहीयंतो करेइ उस्सग्गं ॥ ना हिग्रहो जाएढं, चनरंगुल वरिय कडिपट्टो ॥ ४ ॥ तयधरे हियए, जहकमं दिए ईयारे ॥ पा रेतु नमुकारेण, ( इति प्रथममावश्यकम् ॥ १ ॥ पढइ चवियदमं ॥ ५॥ इति द्वितीय मावश्यकम् ॥ २ ॥ संमासगे पमयि, नवविसिय अलग्ग विय य बाहुजु ॥ मुहणं तगं च कार्य, च पेहए यंच विस हा ॥ १ ॥ उहियति सविषयं, विहिया गु रुणो करे कि कम्मं ॥ बत्तीसदोसर दियं, पणवीसा वसग्गविसु ॥ २ ॥ ग्रह सम्ममवणयंगो, कर जुप्रविधि रिपुत्तिरयहरणो ॥ परिचिंता अश्यारे, जहकमं गुरुपुरो वियडे ॥ ३ ॥ यह नवविसीतुं (इ ति तृतीयमावश्यकम् ॥ ३॥ ) सुत्तं, सामायिय मायिय पढिय पय ॥ हियम्मि इच्चा, ६ पढइ डहर हि विहिया ॥ ४ ॥ दाऊण वंदांतो, पणगाइ सुजइ सु खामए तिनी ॥ कि कम्मं करियायरि, यमाइ गाहा तिगं पढाई ॥ ५ ॥ इति तुर्यमावश्यकम् ॥ ४ ॥ इय
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१३४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। सामायिय उस्स, ग्गसुत्त मुच्चरिय कास्सग्गनि ॥ चिंत उडोअचरि, त्तयश्यार सुक्षिकए ॥ ६ ॥ विहिणा पारीअ (अयं लोगस्स झ्यात्मकश्चारित्रशुस्यु त्सर्गः॥ १ ॥) समत्तस्स ६ सुदिहेतं च पढश्नको अं॥ तह सबलोथ अरिहंत चे बाराहणुस्सग्गं ॥७॥ का उक्लोअगरं, चिंतिय पारे सुझसम्मत्तो॥ (अयं दर्शनस्य लो० ॥ १॥२) ॥ पुरकरवरदीवढं, कढ सुत्र सोहणनिमित्तं ॥ ७॥ पुण पणविसोस्सासं, उस्स ग्गं कुणपारए विहिणा॥ (अयं ज्ञानस्यलो ०१॥३॥) तो सयल कुसल किरिया, फलाण सिधाण पढश्थय ॥ए॥ अहसुअसमिबिहे, सुअदेवीए करे उस्सग्गं॥ चिंतेइ नमुक्कारं, सुण वदेव तीर थुई ॥ १० ॥ एवं खित्तसुरीए, उस्सग्गं कुण सुण देइ थुई ॥ पढिकण पंचमंगल, मुवविसई पमऊ संमासे ॥ ११ ॥ इति पंचममावश्यकम् ॥ ५॥ पुत्वविहिणेव पेहिय, पुत्तिं दाकण वंदणं गुरुणो ॥ इति पष्ठमावश्यकम् ॥ ६॥ लामो अणुसहिति, नणियं जाणुहितो नगइ ॥१५॥ गुरुथुइ गहणे थुइ ति,नि वक्ष्माणरकरस्सरा पढई ॥ सक्कडवं श्रपढिय, कुण पबित्त नस्सग्गं ॥१३॥ एवं ता देवसिय ॥ इति दैवसिक प्रतिक्रमण विधिः॥१॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १२५ राश्मवि एवमेव नवरितहिं पढमं दान मिजामि उक्कडं पढ सक्कलयं ॥ १॥ उघ्यि करेइ विहिणा, उस्सग्गं चिंतए अनजोकं ॥ अयं ज्ञानस्य कायोत्सर्गः लोग ॥१॥ बियं दसणसुदिशाअयं द्वितीयो दर्शनस्य लो॥ १॥चिंतएतबश्ममेव ॥ २ ॥ तश्ए निसाश्यारं, जहक्कम चिंतिकण पारे ॥ इति तृतीयश्चारित्रस्य लो ॥ १३ ॥ इति प्रथममावश्यकम् ॥१॥ सिक्वयं पडित्ता, पमहसंमास मवविस (अतिहितीयमावश्य कम् ॥॥) पुत्वं च पुत्ति पेहण वंदण मालोय (इति तृतीयमावश्यकम् ॥३॥) सुत्तपढणं च ॥ वंदण खा मण वंदण गाहतिगपढण (इति चतुर्थमावश्यकम् ॥ ॥४॥) नस्सग्गो॥४॥ तनयचिंता संजम, जोगा ए न हो जणमेहाणी ॥ तं पडिवजामि तवं,जम्मासं तान कान मलं ॥ ५॥ एमाश् श्गुणतीसुण, यं पीन सहो न पंच मासमवि ॥ एवं चन तिन मासं, न समबो एगमासंपि॥ ६ ॥ जातंपि तेर सुण चन, ती सइ माश्न उहाणीए ॥ जा चउबंनो आयं बिलाई जापोरिसी नमोवा ॥ ७ ॥ जं सकतं हियए, धरेत्तु (इति पंचममावश्यकम् ॥५॥ पेहणपोत्तिं दानं वंदण मसढो तं चिय पञ्चरकए विहिणा ॥ ॥ इति षष्ठमा
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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वश्यकम् ॥ ६ ॥ इवामो अणुसहिंति नणीय नववि सी पढइ तिन्नि थुइ ॥ मीनस देणं सकलया तो चेश् ए वंदे ॥ ५ ॥ इति रात्रि प्रतिक्रमणे पडावश्यकानि ॥ २ ॥ यह परिकयं चनदसी, दिांमि पुवं व तब देवसियं सुतं तं पडिक्कमि, तो सम्मं इमं कर्मकुएइ ॥ १० ॥ मुहपोती वंदणयं संबुद्धा खामणं तहा लो ए ॥ वंदणपत्य खामणं च वंदणयमह सुत्तं ॥ ११ ॥ सुतं हाणं, उस्सग्गो पुत्तिवंदणं तहयं ॥ पऊंतिय खामणयं, तह चरो बोन बंदाया ॥ १२ ॥ पुचवि हिमेव सर्व, देव सियं वंदा तो कुएई ॥ सिद्ध सूरि उस्सग्गो, जेन संतिथय पढणेय ॥ १३ ॥ एवं चिय च उमासे, वरिसे य जहक्कमं विहीरो ॥ परकचनमास वरिसें, सुनवरिनामंमि नापहं ॥ १ ॥ तह उस्सग्गो जोखा, बारस ( १२ ) वीसा ( २० ) समंगलचत्ता ॥ (४०) संबुद खामत्ति पण सत्त साहूण जहसंखं ॥ १५ ॥ इति श्रीपादिकादिप्रतिक्रमणपडावश्यकं संपूर्णम् ॥
इस उपरले पाठ में दैवसिक प्रतिक्रमणका विधि में चैत्यवंदना चार थुकी करनी, श्रुतदेवता तथा देवताका कायोत्सर्ग करना और तीन घुइयों
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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कहनीयां कहीयां है. और राइ पडिक्कम के अंत में चार इसे चैत्यवंदना करनी कही है. यद्यपि कि सी किसी शास्त्रोक्त विधिमें सामान्य नामसें चैत्य वंदना करनी कही है. तहांनी प्रतिक्रमणेकी श्राद्यं तक चैत्यवंदना में चार खुश्की चैत्यवंदना जान ले नी क्योंकि उपर लिखे हुए बहुत शास्त्रोंमें विस्तार सें चारही पूर्वक चैत्यवंदना करनी कही है. सर्व याचार्येका एकही मत है. किसी जगे सामान्य वि धि कहा है. और किसी जगे विस्तारसें विधिका कथन करा है.
सुज्ञ जन नवनीरूयोंकूं तो शास्त्रकी सूचना मा सेंही बोध होजाता है, तो जब बहु ग्रंथोंका लेख देखे तब तो तिनोंकों किंचित् मात्रची कदाग्रह नही रहता है. इस वास्ते हम बहुत नम्रतापूर्वक रत्नवि जयजी रु धनविजयजीसें कहतें हैं कि प्रथम तो आप किसी त्यागी गुरुके पास फेरके संयम लीजी ए, अर्थात् दीक्षा लीजीए, पीछे साधुसमाचारी, जि नसमाचारी, जगच्चं सूरिप्रमुख पूर्वपुरुषोंकों जिनकों तुमनेही अपने याचार्य माने है तिनकी तथा ति नोके शिष्य परंपरायकी समाचारी मानो यथाशक्ति
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१५७ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। संयमतपमें उद्यम करो और जैनमतसें विरुक्ष जो तीन थुश्की प्ररूपणासें कितनेक जोले नव्य जी वोंकू व्युग्राही करा है. तिनोकों फेर सत्य सत्य जो चार थुश्योंका मत है सो कहकर समजावो, और उत्सूत्र प्ररूपणाका मिथ्या दुष्कत देवो,तो अवश्यही तुमारा मनुष्य जन्म सफल हो जावेगा,नही तो जिन वचनसें विरुद चलनेके लीये कौन जाने कैसी के सी अवस्था यह संसारमें नोगनी पडेगी. सो झा नीकों मालुम है, और आपने क्योपशम मुजब आपननी जानते है.
प्रश्नः-प्रथम तुम हमकों यह बात कहोकि स म्यग्दृष्टी देवतादिकके कोयोस्सर्ग करणेसें क्या ला न होता है ? और किसि किसि शास्त्र में सम्यग्दृष्टी देवतादिकोका मानना कायोस्सर्ग करना लिखा है,
और किस किस श्रावक साधुने यह कार्य करा है, सो सब हमकू समजावो॥ ___ उत्तरः-श्रीपंचाशक सूत्रके एकोनविंशति पंचाश काका पाठमें इसी तरेसें लिखा है, सो आपको लिख बताते है. तथाच तत्पाः ॥ किंच अमो विअनिचि तो, तहा तहा देवयापिएण ॥ मुजणाणदिन ख
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चतुर्घस्तुतिनिर्णयः। १२॥ लु, रोहिणीमाई मुणेयवो ॥२३॥ व्याख्या । अन्यदपि ___ अस्ति विद्यते चित्र विचित्रं तप इति गम्यते तथा ते
न तेन प्रकारेण लोकरूढेन देवतानियोगेन देवतोदे शेन मुग्धजनानामव्युत्पन्नबुरिलोकानां हितं खलु पथ्यमेव विषयान्यासरूपत्वात् रोहिण्यादिदेवतोद्देशेन यत्तशेहिण्यादि मुणेयत्वोत्ति ज्ञातव्यं । पुल्लिंगता च सर्व त्र प्रारूतत्वादिति गाथार्थः॥देवता एव दर्शयन्नाह। रो हिणिचंबा तह मद, नमिया सवसंपया सोरका ॥ सु यसंति सुराकाली, सिमाश्या तहा चेव ॥२४ ॥ व्या ख्या । रोहिणी१ अंबा २ तथा मदपुस्यिका ३ सवसं पया सोरकत्ति ४ सर्वसंपत् ५ सर्वसौख्या चेत्यर्थः॥ सुय संतिसुरति श्रुतदेवता ७ शांतिदेवता चेत्यर्थः॥ सुय देवय संतिसुरा इति च पागन्तरं व्यक्तं । च काली । सिहायिका इत्येता नव देवतास्तथा चैवेति समुच्चयार्थे संवाश्या चैवत्ति पाठान्तरमिति गाथार्थः ॥ ततः किमि त्याह। एमाश् देवया,पञ्च अवस्सग्गाउजीवत्ती॥ गाणादेसए सिक्षा, ते सवे चेव होइ तवो ॥ २५ ॥ व्याख्या। एवमादिदेवताःप्रतीत्यैतदाराधनायेत्यर्थः॥ अवस्सग्गत्ति अपवसनानि अवजोषणानि वा। तुःपू रणे। ये चित्रा नानादेशप्रसिधास्ते सर्वे चैव नवंति
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१३० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । तप इति स्फुटमिति तत्र रोहिणीतपो रोहिणीनक्षत्र दिनोपवासः सप्तमासाधिकसप्तवर्षाणि यावत्तत्र च वासुपूज्यजिनप्रतिमाप्रतिष्ठा पूजा च विधेयेति। त थांबातपः पंचसु पंचमीष्वेकाशनादि विधेयं नेमिना श्रांबिकापूजा चेति ॥ तथा श्रुतदेवतातप एकादश स्वेकादशीषूपवासो मौनव्रतं श्रुतदेवतापूजा चेति । शेषाणि तु रूढितोऽवसेयानीति गाथार्थः ॥ अथ क थं देवतोदेशेन विधीयमानं यथोक्तं तपः स्यादित्या शंक्याह ॥ जब कसायगिरोहो, बंनंजिगपूयणं अण सणं च ॥ सो सबो चेव तवो, विसेस सुकलोयंमि ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ यत्र तपसि कषायनिरोधो ब्रह्म जिनपजनमिति व्यक्तं अनशनं च जोजनत्यागः सो त्ति तत्सर्व नवति तपोविशेषतो मुग्धलोके । मुग्धलो को हि तथा प्रथमतया प्रवृत्तः सन्नन्यासाकर्मयो देशेनापि प्रवर्तते न पुनरादित एव तदर्थ प्रवर्तितुं शक्नोति मुग्धत्वादेवेति । सदुपयस्तु मोदार्थमेव विहि तमिति बुझ्यैव वा तपस्यति ॥ यदाह ॥ मोदायैव तु घटते विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुष इति। मोदार्थघटना चागमविधिनैवालंबनांतरस्यानानोगहेतुत्वादिति गा थार्थः ॥ न चेदं देवतोदेशेन तपः सर्वथा निष्फल
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १३१ मैहिकफलमेव वाचरणहेतुत्वादपीति चरणहेतुत्व मस्य दर्शयन्नाह ॥ एवं पडिवत्तिए ए, तो मग्गाणु सारिजावा ॥ चरणं विहियं बहवे, पत्ता जीवा महाजागा ॥ २७ ॥ व्याख्या ॥ एवमित्युक्तानां साधर्मिकदेवतानां कुशलानुष्ठानेषु निरुपसर्गवादि हेतुना प्रतिपत्त्या तपोरूपोपचारेण, तथा इत उक्त रूपात्कषायादिनिरोधप्रधानात्तपसः पागंतरेण एवमु क्तकरणेन मार्गानुसारिजावात् सिक्षिपयानुकूलाध्य वसायाचरणं चारित्रं विहितमाप्तोपदिष्टं बहवः प्र नूताः प्राप्ता अधिगता जीवाः सत्त्वा महाजागा म हानुनावा इति गाथार्थः ॥ तथा । सवंगसुंदरं तह, णिरुजसिहोपरमनसणो चेव ॥ प्रायजसो ह,ग्गकप्परुरको तह मावि ॥ २७ ॥ पढिन तवो वि सेसो, अमेहि वि तेहिं तेहिं सजेहिं ॥ मग्गपडिव वत्तिहेक, हं दिविणेयाणुगुणेणं ॥ ए ॥ व्याख्या ॥ सर्वांगानि सुंदराणि यतस्तपोविशेषात्स सर्वांगसुंदर स्तथेति समुच्चये ॥ रुजानां रोगाणां अनावो नीरुज तदेव शिव शिखा प्रधानं फलं तया यत्रासौ निरु जशिखा तथा परमाएयुत्तमानि नूषणान्याजरणानि यतोऽसौ परमनूषणं चैवेति समुच्चये । तथा आयति
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१३३ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। मागामिकालेऽनीष्टफलं जनयति करोति योऽसावाय तिजनकस्तथा सौनाग्यस्य सुनगतायाः संपादने क ल्पवक व यः स सौजाग्यकल्पवक्षस्तथेति समुच्चये अन्योऽप्यपरोपि उक्ततपोविशेषात्किमित्याह ॥ पति तोऽधीतस्तपोविशेषस्तपोनेदोऽन्यैरपि ग्रंथकारैस्तेषु ते षु शास्त्रेषु नानाग्रंथेष्वित्यर्थः ॥ नन्वयं परितोपि सा निष्वंगत्वान्न मुक्तिमार्ग इत्याशंक्याह ॥ मार्गप्रतिपत्ति हेतुः शिवपथाश्रयणकारणं यश्च तत्प्रतिहेतुः स मा गै एवोपचारात्कथमिदमिति चेडुच्यते ॥ हंदीत्युपप्रद शंने विनेयानुगुण्येन शिक्षणीयसत्वानुरूप्येण नवंति हि केचित्ते विनेया ये सानिध्वंगानुष्ठानप्रवृत्ताः संतो निरनिष्वंगमनुष्ठानं लनंत इति गाथाझ्यार्थः ॥
इस पाठकी नाषा लिखते है ॥ अन्नोवि इत्यादि गाथा ॥ व्याख्या ॥ अन्य प्रकार पूर्वोक्त तपके स्वरू पसे अन्यतरेकानी विचित्र प्रकारका तप है तिस तिस प्रकार लोक रूढी करके देवताके नद्देश्य करके जोले अव्युत्पन्न बुद्धिवाले लोकोंकों विषयाच्यास रूप होनेसें हित पथ्ये सुखदाइही है. रोहिणी आदि देव तायों के उद्देश करके जो तप करते है. तिसकों रोहि पी आदि तप जानना. इति गाथार्थः॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १३३ अब देवताही दिखाते हुए कहते है ॥ रोहिणी त्यादि गाथाकी व्याख्या ॥ १ रोहिणी, ५ अंबा, तथा ३ मदपुरियका, ४ सर्वसंपत् ५ सौख्या ॥ सुयसंति सुरत्ति ॥ ६ श्रुतदेवता, पु शांतिदेवता, ७ काली, ए सिहायिका, ए नव देवीयों है इति गाथार्थः॥ ___ एमाइ इत्यादि गाथाकी व्याख्या ॥ इत्यादि देवता कों अश्रित तिनकी आराधनाकेवास्ते अपवसन अपजोषण करना ये नानादेशमें प्रसिद है. ये सर्व तपविशेष होते हैं. तिनमेंसें रोहिणीतप रोहि पीनदत्रके दिनमें उपवास करे, इसतरें सात वर्ष सात मासाधिक तप करे और श्रीवासुपूज्य तीर्थकर जगवंतके प्रतिमाकी प्रतिष्ठा अरु पूजा करे. इति रोहिणी तप ॥ १ ॥
तथा अंबातप॥पांच पंचमीमें एकाशनादि करना, और श्रीनेमिनाथजीकी तथा अंबिकाकी पूजा करें ।
तथा श्रतदेवताका तप ॥ ग्यारे एकादशीयोंमें उपवास मौनव्रत करे और श्रुतदेवताकी पूजा करे, शेषतपविधि रूढीसें जान लेनी ॥ इति गाथार्थः ॥ - अथ किसतरें देवताके नद्देश करके विधीयमान यथोक्त तप होवे, ऐसी आशंका लेकर कहते है.
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१३४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। जब कसाय इत्यादि गाथाकी व्याख्या ॥ जिस तपमें कषायका निरोध होवे, ब्रह्म जिन पूजन होवें, और अशननोजनका त्याग होवे,सो सर्व तप नोले लोकोंमें होता हैं, क्योंकि नोले लोक प्रथम ऐसे तपमें प्रत त्त हुए नये अन्यासके बलसे पीछे कर्मयके करने वास्तेनी तप करनेमें प्रवृत्त होते है. परंतु आदिहीसे कर्मक्ष्य करण वास्ते जोले होनेसें प्रवृत्त नहीं होते है.
और जो सद्बुध्विाले है वे तो चाहो पूर्वोक्त कोश्नी तप करे सो सब मोदके वास्तेही करते है, यदाह ॥ उत्तम पुरुषोंकी जो मति है सो मोदार्थ मेंही घटे है, और मोदार्थकी जो घटना है सो आगमके विधि करकेही है. क्योंके बागम सिवाय जो वे आलंबन करते हैं, सो सब अनाजोग हेतुक है ॥ इति गातार्थ ॥
ऐसें न कहना के देवताके उद्देश करके जो तप करणा सो सर्वथा निःफलही है, अथवा इस लोक काही फल है, किंतु चारित्रकानी हेतु है. अब यह तप जैसें चारित्रका हेतु है ? सो दिखाते है ॥ __ एवं पडिवत्ति इत्यादि गाथाकी व्याख्या ॥ ऐसें उक्त साधर्मिक देवतायोंका कुशल अनुष्ठानमें निरुप
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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सर्गतादि हेतु करके, प्रतिपत्ति तप रूप उपचार क रके, तथा इस वक्त रूपसें कषायादि निरोध प्रधान तपसें, पाठांतर करके ऐसे वक्तकरण करके, मार्गानु सारी होनेसें, सिद्ध पंथके अनुकूल अध्यवसायसें, " चरणं चारित्रं " प्राप्तका कथन करा हुआ चारित्र संयम बहुत महानुनाव जीवोंकों पूर्वकालमें प्राप्त हया है. इति गाथार्थः ॥
तथा सवंगसुंदरं इत्यादि दो गाथाकी व्याख्या ॥ सर्वांग सुंदर है जिस तप विशेषसें सो सर्वांग सुं दर तप यहां तथा शब्द जो है सो समुच्चयार्थमें है. तथा जो रुजाणां रोगोंका अभाव होना उनकों नि रुज कहेना सोइ शिखाकी तरें शिखा प्रधान फल करके जिहां है सो निरुजशिखातप जानना तथा परमोत्तम भूषण नरण होवें जिससेती सो परम नूप तप जानना चकार समुच्चयार्थमें है. तथा जो श्रागमिक कालमें मनवंबित फलकी सिद्धि करे सो सौभाग्य कल्पवृक्ष तप जानना.
इस उक्त तपसें अरु अन्य प्रकारके तपसें क्या फल होवे सो बतलाते है. कहे हैं जो तपके नेद
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१३६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। विशेष अन्य ग्रंथकार आचार्योने तिन तिन नाना प्र कारके ग्रंथोमें इत्यर्थः॥ __ हां वादी प्रश्न करता हैकि यह तुमारा तप वां बासहित होनेसें मुक्तिका मार्गमें नही होता है.
इसका उत्तर कहतेहैं. यह पूर्वोक्त वांबा सहित त प जो है सो मोद मार्गकी प्राप्ति होनेमें कारण है, जो मोदमार्गकी प्रतिपत्तिका हेतु है. सो मोद मार्ग ही नपचारसें है. पूर्वपदः-यहपूर्वोक्त तपसें कैसें मोद मार्ग हो शक्ताहै? ' उत्तरः-शिक्षणीय जीवके अनुरूप होने करके दो शक्ता है. क्योंकि कितनेक शिष्य प्रथम वांबासहित अनुष्ठानमें प्रवृत्त हुए होए “ निरनिष्वंग” अ र्थात् वांबारहित अनुष्ठानकों प्राप्त होते है. इति गा थाध्यार्थः ॥ __ अब नव्यजीवोंकों विचारना चाहिये कि जब श्रा वक श्राविकायोंकों रोहिणी अंबिका प्रमुख देवीयोंका तप करणा और तिनकी मूर्तियोंकी पूजा करनी शा स्त्रमें कही है. और तिनके आराधनके वास्ते तप क रणा कहा है, अरु सो तप उपचारसे मोक्का मार्ग कहा है. तो फेर जो कोइ मताग्रही शासनदेवताका का
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १३७ योत्सर्ग अरु घुइ कहनी निषेध करता है तिसकों श्रीजैनधर्मकी पंक्तिमें क्योंकर गिनना चाहीयें, अर्था त् नहीज गिनना चाहीयें. क्योंकि जैनमतमें सूर्यस मान श्रीहरिजश्वरिकत पंचाशक सूत्रका मूल, औ र नवांगी वृत्तिकारक श्रीअनयदेवसूरिकत पंचाशक को टीकामें तप करके सम्यग्दृष्टी देवतायोंके प्रतिमा की पूजा करनी जैसा प्रगटपणे कहा है. तो जैसे श्रीहरिनश्सूरि और अनयदेवसूरि जो यह पंचम कालमें सकल शास्त्रोंके पारंगामी थे, जो संपूर्ण श्रुत झानी कहाते थे तिनो महा पुरुषोंका बचन जो न माने तो क्या तिस अज्ञ जीवकों समजाने वास्ते श्रीमहाविदेह देत्रसे को केवलझानके धरने वाले के वली जगवान आवेगा? हम बहुत दिलगिरीसें लिख ते हैंकि यह जो तुम नवीन मतका अंकूर उत्पन्न क रनेकी चाहना रखते हो की सम्यगदृष्टी देवतादिक का कायोत्सर्ग न करना अरु थुश्यांनी न कहनीयां सो किस शास्त्रमें ऐसा लेख देख कर कहते हो? किस शास्त्रमें ऐसा पाठ लिखा है कि सम्यगदृष्टी देवतायों का कायोत्सर्ग करनेसें अरु नोक। थुश्यां कहनेसें पाप लगता है ? सो हमकों बतादो.
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
जेकर तुम कहोगेकी जोले श्रावकोंकों पूर्वोक्त दे वतायोंका तप करना, और पूजन करना कहा है, परंतु तत्त्ववेत्ता श्रावककों तो नही कहा है.
तिसका उत्तरः- हे नव्य यहां तत्त्ववेत्तायोंकोंनी पूर्वोक्त देवताओंका तपादि करना निषेध नही करा है. किंतु इस लोकके अर्थ न करना, परंतु मोदके वास्ते करे तो निषेध नहीं. ऐसा कथन है. जेकर या वश्यक बंदितुं सूत्र ॥ सम्मद्दिष्ठी देवा, दिंतु समाहिं च बोहिं च ॥ इस पाठकी चर्चा हम उपर लिख या ए है. यह पाठ तो तत्त्ववेत्ता श्रावककोंनी प्रायें नित्य पठने में खाता है. इस वास्ते धर्मकृत्यों में विघ्न दूर क रनेकों, पूर्वोक्त देवतायोंका तप, पूजन, कायोत्सर्ग रु थुइ कहनी जानकार श्रावकों को करनी चाहियें यह सिद्ध दूया.
तथा जोले श्रावकोंकोंनी पूर्वोक्त देवतायोंका तप करना, पूजन करना, यहनी मोह मार्गही कहा है इस वास्ते धर्मानिरुची जनोंकों किसी अज्ञ जनके जूठे बचन सुनकर हाग्रही होना न चाहियें, क्यों कि यह हूं अवसर्पिणी कालमें पूर्वैन। जो खाज यह जैनमतमें बहोत बहोत मत दिखने में खाता है
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १३९ सो सब जैसेही कदाग्रही जिनोसें निकला है जिस्में याज सेकडा मत प्रचलित हो रहा है क्योंकि किस विकारी पुरुषने जो अपने माहापण चतुराई बता नेके वास्ते सौ पचास आदमीकी सजा में बात नि कालीकि यह अमुक बात इसीरीतीसें चलनी चाहि यें जैसा शास्त्रों देखनेसें मालुम होता है इसीतरेकी कोई बात उनके मुख मेंसें निकली गई तो फेर उस बातकों सिम करनेके वास्ते उक्त पुरुषके मनमें ह जारों कुयुक्तियों उत्पन्न होती है पीछे उसकों कुब स त्यासत्य नाषण करनेका जानही रहता नही है. न नकों यहही विकार अपने हृदयमें जरपूर हो रहेता हैकि किसीतरेजी मेरा वचन सत्य करके सिम करना चाही परंतु कुयुक्ति करनेसें मेरा जनम बिगड जा वेगा ऐसा विचार उनकों किंचित् मात्रनी आता नही है, वो अपना कथन सत्य करनेका हरु कनी बोडता नही. ऐसीही उनकी प्रकृति हो जाती है ऐसा होनेसेंही दिगम्बर और ढूढीयें प्रमुख बहुत मनकल्पित मतों प्रचिलत हो गया है. कितनेक लो कनी ऐसेही होताहैकि जिसके बचन पर उनको विसवास बैठ गया तो फेर वो चाहो जूना हो चाहो
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१४० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। सच्चा हो परंतु वो लोकतो उनकेही वचनके अनुजा चलते है तिस्से फेर वो दध्याही, पुरुषकोंनी मज बुत नाद लग जाता है कि अब मैरी बातही सिम करके लोकोंमें चलानी चाहियें जेकर मैरेकों लोक जी कहेंगेंकी यह खरा तत्त्ववेत्ता, अरु शास्त्रशोधक है, देखो, बडे बडे आचार्योंकी नूलनी यह पुरुषने दि खायदीनी! यह कैसा विज्ञान,शास्त्रज्ञ है! ऐसें असें विकल्प उनके हृदयमें हर हमेस हो रहता है तिस्से जिनवचन उबापन करनेका जय तो उसको रहता ही नहीं है. इसी वास्ते हम श्रावक नाश्योंको सत्य सत्य कहते हैं कि अपने जैनमतमें बहोत पंथ प्रच लित हो गया है तो अब कोअपना नाम ररकनेकें लीये नवीन पंथ निकालनेका उपदेश करे तो आप नही सुनोगे अरु कोइ विकारी जनोके कथनसें पूर्वा चार्योंके कहे कथनोको तोड फोड करनेकी कुयुक्ति यों करके जूठ हरू नही करोगे तो, अब अपने जैन मतमें कोइजी नवीन तिखल करे जिस्से ढुंढकोंकी तरे बद्तजनो उर्गतिका अधिकारी हो जावे जैसा उराग्रही फितुर होनेका जय मिट जावेगा.अरु जूठ कथन उपदेशक विकारी जनोकोंजी हमारा यह क
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १४१ हना है की आपनी परनवमें इस्स कदाग्रहसें फुःख प्राप्त होवेगा जैसी नीती ररककर श्रीजिनवचनोंके पर श्रद्दधान ला कर कदायह बोड द्यो, खरा सम जवान हो तो यह एकनवमें अपना मुखसें जो जूग बोल निकल चूका तिसका मिजामिउक्कड सबज नोकें सम्मत देनेसें जो माननंग होनेका कुःख तुमकों लगता है तिसकों सुख रूप समज व्योकि आगे संसा र तरना सुलन हो जावेगा. यह बड़ा फायदा होवे गा. यही बात अपने हैयेमें दृढ करो, अरु यह नव मेंनी मिलामि डुक्कड देनेसें विवेकीजनोकें हृदयमें तो तुम महापुरुषोंकीन्याश् टस जावेगें.क्योंकि जोप्रा यश्चित्त लेकर आपना पापोंकी शुद्धि करता है तिसकों चतुर लोक तो बडे पंमितोसेंनी अधिक गिनते है तो फेर खरा विचार करो तो यह नवमेंनी कुल माननंग नही होता है परंतु महत्त्व पणेकी प्राप्ति होती है. ३ सीतरे सत्य विचार करणे वाले पुरुषोंकों तो सब बात सुलनही होती है. तो फेर बहोत कहा कहना.
तथा सिघराज जयसिंहके राज्य में जिने कुमुदचं इ दिगम्बरकों जीता, तथा जिने तेतीस हजार मिथ्या दृष्टीयोंके घरोको प्रतिबोध किया, तथा जिने चौरा
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१५२ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। सी सहस्र श्लोक प्रमाण स्याहादरत्नाकर ग्रंथकी रचना करी, ऐसे सुविहित चक्र चूडामणी श्रीदेव सूरिजी दूया, तिनोका रचेला जीवानुशासननामा प्रकरण है. तिस प्रकरणको टीका श्रीउत्तराध्ययन सूत्रकी वृत्तिके करनेवाले श्रीनेमिचंइसरिजीने करी है फेर उस टीकाकों श्रीजिनदत्तसूरिजीने शोधि है, यह कथन यही पुस्तकके अंतमें ग्रंथकारोंनेही लि खा है यह ग्रंथ अब अपहिलपुर पाटणके नांमागा रमें मोजद है. तिसका पाठ जव्यजीवोको संशयमें पाडनेवालेका कदाग्रह दर करनेकेवास्ते यहां लिख ते है. यह पाठ जो नही मानेगा तिसकों चतुर्विध श्रीसंघने दीर्घ संसारी जान लेना. तथाच तत्पातः॥ तह बंन संति माइण, केइ वारिंति पूयणाश्यं ॥ तत्त जन सिरिहरिन,दसूरिणोणुमयमुत्तं च ॥१॥ व्याख्या ॥ तथेति वादांतरजणनाओं ब्रह्मशांत्यादीनां मकारः पूर्ववत् आदिशब्दादंबिकादिग्रहः केऽप्येके वार यंति पूजनादिकमादिग्रहणालेषतदौचित्यादिग्रहः त त्पूजादिनिषेधकरणं नेति निषेधे यतो यस्मात् श्रीह रिनसरेः सिद्धांतादिवृत्तिकर्तुरनुमतमनीष्टं तत्पूजादि विधानं उक्तं च नणितं च पंचाशके इति गाथार्थः॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १४३ तदेवाह ॥ साहमिया य एए, महडिया सम्मदिष्णिो जेण ॥ एतोच्चिय उच्चियं खलु, एएइसिंश्व पूयाई॥प्र तीतार्था ॥ न केवलं श्रावका एतेषामिहं कुर्वति यत योऽपि कायोत्सर्गादिकमेतेषां कुर्वतीत्याह। विग्यविधा यणहेनं, जाणो वि कुणंति हंदि नस्सग्गं । खित्ता देवयाए, सुयकेवलिणा जनणियं १७७१ व्याख्या। विघ्नविघातनहेतोरुपश्व विनाशार्थ यतयोपि साधवो पि न केवलं श्रावकादय इत्यपिशब्दार्थः।कुर्वति विदधति हंदीति कोमलामंत्रणे उत्सर्ग कायोत्सर्ग क्षेत्रादिदेव ताया आदिशब्दानवनदेवतादिपरिग्रहः श्रुतकेवलिना चतुर्दशपूर्वधारिणा यतो यस्मानणितं गदितमिति गाथार्थः। तदेवाह चानम्मासियवरिसे,नस्सग्गो वित्त देवयाए य ॥ परिकयसेऊसुराए, करिति चउमासिए वेगे ॥१०॥ गतार्था ॥ ननु यदि चतुर्मासिकादिन णितमिदं किमिति सांप्रतं नित्यं क्रियत इत्याह संप निचं कीर३, संनिजा नाव विसिक्षा ॥ वेयावच गराणं, श्वा वि बहुयकाला ॥१००३॥ व्याख्या । सांप्रतमधुना नित्यं प्रतिदिवसं क्रियते विधीयते कस्मात् सांनिध्यानावस्तस्य कारणाविशिष्टादतिशा यिनो वैयावृत्त्यकराणां प्रतीतानामित्याद्यपि न केवलं
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१४४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः।। कायोत्सर्गादीत्यपेरर्थः। आदिग्रहणात्संतिकराणामि त्यादि दृश्यं प्रनूतकालात् बहोरनेहस इति गाथार्थः। श्वं स्थिते किं कर्तव्यमित्याह । विग्यविधायणहेतं, चेहरररकणाय निचं वि ॥ कुका पूयाश्यं, पयाणं धम्मवं किंचि ॥१०॥ ४॥ व्याख्या ॥ विघ्नविघातनहेतो रुपसर्गनिवारकत्वेन आत्मन इति शेषः ॥ चैत्यगृ हरहणाच देवनवनपालनात् नित्यमपि सर्वदा न केवलमेकदेत्यपिशब्दार्थः। कुर्यादिध्यात् पूजादिकमा दिशब्दात्कायोत्सर्गादिका एतेषां ब्रह्मशांत्यादीनां धर्मवान् धार्मिकः। अयमनिप्रायः। यदि मोदार्थमेतेषां पूजादि क्रियते ततो उष्टं विघ्नादिवारणार्थ त्वउष्टं तदिति किंचेत्यन्युच्चय इति गाथार्थः । अन्युच्चयमेवा ह मित्रगुणजुयाणं, निवाश्याणं करेति पूयाई॥ श्ह लोय कए सम्मत्त, गुण जुयाणं नउण मूढा ॥१००५॥ व्याख्या ॥ मिथ्यात्वगुणयुतानां प्रथमगुण स्थानवर्तिनां नृपादीनां नरेश्वरादीनां कुर्वति पूजा दि अन्यर्चननमस्कारादि इह लोककते मनुष्यजन्मो पकारार्थ सम्यक्त्वसंयुतानां दर्शनसहितानां ब्रह्म शांत्यादीनामिति शेषः । न पुनर्नैव मूढा अज्ञा निन इति गाथार्थः ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १४५ अब इस पातकी नाषा लिखते है ॥ तहबंनसंति इत्यादि गाथाकी व्याख्या ॥ तथा शब्द वादातरके कहनके लीये है. ब्रह्मशांत्यादिका मकार पूर्ववत्, आदिशब्दसें अंबिकादि ग्रहण करणे, कितनेक इन की पूजनादिकका निषेध करते है. आदि शब्द ग्रह
सें शेष तिनके नचितका ग्रहण करना. तिनकी पूजाका निषेध करना योग्य नहीं है, क्योंके सिक्षा तादि महाशास्त्रोंकी वृत्तिके करणेवाले श्रीहरिन सूरिजी महाराजकों ब्रह्मशांति आदिककी पूजा नचि तकृत्य सम्मत है. इनोने श्रीपंचाशकजीमें इनका कथन करा है. इति गाथार्थः ॥ सोइ कहते है.
साहम्मिया इत्यादि गाथाकी व्याख्या ॥ यह शा सन देव जो है. सो सम्यग्दृष्टि है, महा ऋद्धिमान है, साधर्मिक है, इसवास्ते इनकी पूजा कायोत्स गर्गादि नचित कृत्य करना श्रावकोंको योग्य है. केवल श्रावकोनेही इनोकी पूजादिक करणी ऐसें नही सम जनां किंतु साधु संयमीनी इनोका कायोत्सर्ग क रते है. सोइ कहते है ॥
विग्यविधायण इत्यादि गाथा १००१ की व्या ख्या ॥ विघ्नविघात सो नपश्वरूप विघ्नोके विनाश
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१४६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । करणेके लीये यति साधुनी क्षेत्रदेवता आदिकका कायोत्सर्ग करते है. आदिशब्दसें नवनदेवतादिकका ग्रहण करना. इसवास्ते नि केवल श्रावकोनेही इनो का कायोत्सर्ग करणा ऐसा नही समजना. अपितु साधुनो करते है. यह अपिशब्दका अर्थ है.क्योंकी पूर्वोक्त कायोत्सर्ग करणे यह कथन श्रुतकेवली श्रीनबाहु स्वामीने कहे है. इति गाथार्थः ॥ सोय कहते है. ___ चानम्मासि इत्यादि गाथा १००२ की व्याख्या ॥ चातुर्मासीमें, सांवत्सरीमें, देवदेवताका कायोत्सर्ग करणा, और पादी में जवनदेवताका कायोत्सर्ग क रणा, एकैक आचार्य चातुर्मासीमेंनी नवनदेवताका कायोत्सर्ग करते है. इति गाथार्थः॥
पूर्वपदः-ननु इति प्रश्ने. जेकर चातुर्मास्यादिकमें देवदेवादिकका कायोत्सर्ग करना श्रीजवादुस्वामी जीने कहा है तो फेर क्यों कर अब संप्रतिकालमें नित्य कायोत्सर्ग करते हो. इस प्रश्नका उत्तर ग्रंथ कारही देते है.
संप इत्यादि गाथा १००३ व्याख्या ॥ सां प्रत कालमें नित्य दिनप्रति जो देवदेवतादिकका
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १४७ कायोत्सर्ग करते है तिसका कारण यह है की सांप्र तकालमें तिन देवताके सांनिध्यानावसें अर्थात् पूर्व कालमें यदा कदा एकवार कायोत्सर्ग करणेसें वे देव वे शासनकी प्रनावना निमित्त उपवनाशनादि करते थे,और सांप्रतकालमें कालदोषसें यदा कदा का योत्सर्ग करनेसें वे देव वे सांनिध्य नही करते है,इस वास्ते तिनकों नित्य प्रतिदिन कायोत्सर्ग द्वारा जा गृत करे हूए सांनिध्य करते है. इसवास्ते नित्य कायोत्सर्ग करते हैं. तिस नित्य कायोत्सर्गके कर ऐसें विशिष्ट अतिशयवान् वैयावृत्त्यकरादि देव जो है सो जागृत होते है. निःकेवल वैयावृत्त्य करनेवा ले प्रसिह देवताका कायोत्सर्गही नहीं करते है. किंतु शांतिकराणं इत्यादिकोंकाजी ग्रहण करना. तथा प्रनूतकाल अर्थात् बहुत दिनोसें पूर्वधरोके समयसें इन पूर्वोक्त देवतायोंका नित्य प्रतिदिन पूर्वाचार्य का योत्सर्ग करते आए है. इस वास्ते पूर्वोक्त देवतायों का नित्य कायोत्सर्ग करते हैं. इति गाथार्थः॥ ___ असें स्थित सिम हूए तो फेर क्या करना चाहि ये सो कहते हैं. विग्यविधायण इत्यादि १७०४ गाथा की व्याख्या ॥ विघ्नविघातके वास्ते आत्माके उपस
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१ ४८
चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
र्गनिवारक होनेसें, और श्रीजिनमंदिरकी रक्षा क रनेसें, देवजवनकी पालना करनेसें, नित्यप्रति इन देवतायोंकी पूजा करनी चाहियें. यादिशन्दसेंदि न प्रतिदिन तिन देवतायोंका कायोत्सर्ग करना चाहि यें. किनकों करना चाहियें ? धर्मिजनोकों करना चा हियें. यहां निप्राय यह हैकी जेकर मोहके यर्थे इन पूर्वोक्त देवतायों की पूजादि करे जबतो युक्त है. परंतु विघ्न निवारणादिकके निमित्त करे तो कुंबनी प्रयुक्त नहीं है. उचित प्रवृत्तिरूप होनेसें पूजा, का योत्सर्ग करना युक्तही है. किंच शब्द प्रयुचयार्थ में है ॥ इति गाथार्थः ॥
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शेष कहने योग्य जो रहा है सोइ कह ते है | मित्त गुण इत्यादि १००५ गाथाकी व्या ख्या ॥ मिथ्यात्वगुणसहित प्रथम गुणस्थानमें वर्त्त ने वाले एैसे नरेश्वर जो राजादिकों है तिनकों जो पूजा नमस्कारादिक करते है सो तो इस लोक के प्रयोजन वास्ते करते है. परंतु सम्यक्त्वसहित स म्यकदृष्टि ब्रह्मांत्यादि देवतांकी पूजा, नमस्कार कायोत्सर्गादि जो करते है, सो कु मूढ अज्ञानी नही करते है. इति गाथार्थः ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १४ए अब इस जीवानुशासन ग्रंथके लेखकों जो कोश हत ग्राही, अनंतसंसारी, मिथ्यादृष्टि, उर्लनबोधी जीव न माने तो उसकों जैनसंप्रदायवाले क्योंकर जैनी कहेगा? जेकर उन्ने अपने मुखसें आपकों जैनी नाम ठहराय ररका तिस्से क्या वो जैन बन गया. श्री वीतरागके वचनोपर श्रद्दधान होने सिवाय जैन नही हो सकता है.
पूर्वपदीका प्रश्नः-हमने रत्नविजयजी अरु धन विजयजीके मुख असा सुनाहै कि हमतो सिहां तोंकी पंचांगी मानते है. परंतु अन्य प्रकरणादि कु बनी नही मानतें है.
उत्तरः- पैसा मानना नोका बहोत बेसमजी का है क्योंकि श्रीअजयदेवसूरिजीने श्रीस्थानांग सू त्रकी वृत्तिमें श्रुत झानकी प्राप्तिके सात अंग कहे है तद् यथा ॥ १ सूत्र, नियूक्ति, ३ नाष्य, ४ चूर्णि, ५ वृत्ति, ६ परंपराय, ७ अनुनव, यह लेखसें जब पंचागीमें पूर्वाचार्योंकी परंपरा माननी कही है,
और तिसकोंजी रत्नविजयजी अरु धनविजयजी अ पने मनःकल्पित नवीन पंथ निकालनेका इरादा पूर्ण करनेके वास्ते नही मानते हैं, तबतो इनकों पंचांगी
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
मानने वालेनी किसतरेंसें सुइजन कह सकते है ? क्योंकी श्रीस्थानांग सूत्रकी वृत्ति यहनी सूत्रों का पांच अंगमेंसें एक अंग है तो फेर वृत्तिमें करा हुया क थनी इनोकों माननेमें जब अनुकूल नहीं होता है तब तो जिस कथनसें इनोंका मत सिद्ध हो जावे वो कथन जिस ग्रंथ में होवे तिस कथनकोंही मानो परंतु उसी ग्रंथ में इनोका मत त्रोडनेवाला कथन होवे, वो कथन नहीं मानना चाहियें ! इसी तरें जो ढूंढीयोकी माफक जहां अपनेकों अनुकूल होवे सो बचन सत्य और जो अपनेकों प्रतिकूल होवे सो ब चन असत्य कह देनेके तुल्य वाणी बन जाती है.
हमारा कहना यह है की कुतर्क करनेवाला, शास्त्र कारोंका लेखकों जुग ठहराने वास्ते कोट्यावधि कु युक्तियों करो, परंतु महागंजीर खाशयवाजे यरु स मुझ जैसी बुद्धिवाले पूर्वाचार्योंने जो शास्त्रोंकी रच ना करी है तिनका स्खलित वचनका किसी कुतर्की तुमति वाले जोकोसें पराभव नही हो सक्ता है, किंतु पराजव करने वाला यापही यापसें स्खलन हो जाता है. जो शास्त्रों की अपेक्षा बोडके अपनी कु युक्तियों से नवीन मत निकालनेका उद्यम करनेको
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १५१ चाहना रखता है उसका बोल असंमजस मूर्योके टो लेमें तो इबामाफक कनी प्रमाणनी होजावे परंतु विवेकी जनोके आगे तो अत्यंत निस्तेज हो जाता है. जुना कनी सच्चा नही होता है. ___ अब इनोके कहे मुजब पंचांगी माननेसें तो श्रुत देवता, क्षेत्र देवता अरु नवनदेवताका कायोत्स गर्गादिकका करना सिम नही होता है परंतु हम सत्य कह देते है कि इनोने जो यह समज अपने दिलमें निश्चित करके रस्का हैं सोनी नोकी असत्य कल्पनाही जान लेनी परंतु सापेद कल्पना नही है. हम पंचांगोके पाठसेंही पूर्वोक्त देवतायोंका कायोत्सर्ग करना प्रमाण हैं ऐसा सि६ कर देते हैं.
तिसमें प्रथम तो श्रीआवश्यक सूत्रकी नियुक्ति, चूर्णि और टीकाका प्रमाण लिखते हैं ॥ चानम्मा सि य वरिसे, उस्सग्गो खित्तदेवयाए य ॥ परिकय सिज सुराए, करेंति चमासिए वेगे ॥ १॥ अस्य व्याख्या ॥ चान ॥ देवदेवतोत्सर्ग कुर्वति ॥ पादिके शय्यासुर्याः ॥ केचिच्चातुर्मासिके शय्यादेव ताया अप्युत्सर्ग कुर्वति ॥ नाषा ॥ कितनेक आ चार्य चातुर्मासी तथा संवत्सरिके दिनमें देवदेव
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१५३ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ताका कायोत्सर्ग करते है. और पाहीमें जवन देवताका कायोत्सर्ग करते है, अरु कितनेक चातु मासिके दिनमें नवनदेवताका कायोस्सर्ग करते है. इति गाथार्थः ॥ * इस पाठमें जवनदेवता और देवदेवताका का योत्सर्ग करना कहा है. जेकर रत्नविजय, धनवि जयजी कहेगे कि यहतो हम मानते है. परंतु नित्य प्रतिदिन श्रुतदेवता और देवदेवताका कायोत्सर्ग करना नही मानते है. __उत्तरः-पंचवस्तु शास्त्रमें श्रीहरिनसूरिजीने श्रुतदेवता अरु देवदेवताका कायोत्सर्ग करना कहा है तिसका पानी उपर लिख आये है तो फेर तुम क्यों नही मानते हो? जेकर प्रतिदिन देवदे वता और श्रुतदेवताका कायोत्सर्ग करनेसें मिथ्या त्व किंवा पाप लगता है तो फेर पदी, चातुर्मा सी अरु सांवत्सरी रूप महा पर्वो के दिनोमें पूर्वोक्त कायोत्सर्ग करनेसेंनी महामिथ्यात्व और महा पाप तुमकों लगना चाहियें. तो आप विचारोकि अन्य दिनोमें जो पाप न करे सोही पुरुष निरवद्य महापौके दिवसोंमें तो अवश्यमेव पाप कर्म करें
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १५३ तब तिसकों मिथ्यादृष्टि, महा अधम अज्ञानी कह ना चाहियें इतना तो तुमनी जानते होवेंगे, यह बातका जो आप तादृश विचारपूर्वक ख्याल ररको गे तो प्रतिदिन श्रुतदेवता, देवदेवताका कायोत्सर्ग निषेध करणा यह बहोत अयोग्य है असा आपही स मज जावेगें,हमकोंनी समजानेकी जरुर नही पडेगी.
प्रश्नः-श्रुतदेवताके कायोत्सर्ग करणेसें क्या लान होता है?
उत्तरः-इनके कायोत्सर्ग करनेसें महालान होता है यह कथन श्रीयावश्यक सूत्र जो तुम मानते हो तिसमेही करा है सो पाठ यहां लिखते हैं. सुयदेवयाए सायणाए ॥ व्याख्या श्रुतदेवतायाः आशातनयाः। क्रिया तु पूर्ववत् । आशातना तु श्रुतदें वता न विद्यते अकिंचित्करी वा । न ह्यनधिष्ठितो मौनीः खल्वागमः अतोऽसावस्ति नचाकिंचित्करी तामालंब्य प्रशस्तमनसः कर्मक्ष्यदर्शनात् ॥ ___ अब इसकी जाषा लिखते है. श्रुतदेवताकीआशा तना ऐसें होती हैकि जो कहे श्रुतदेवता नही है अथवा जेकर है तो कुबनी नहीं कर शक्ति है ऐसें कहनेवाला आशातना करने वाला है क्योंकि
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
श्री जगवंतके कहे आगम अधिष्ठित नहीं है इस वास्ते श्रुतदेवताकी यस्ति है. श्रुत देवता " किं चित्करी " ऐसा कहना मिथ्या है. क्योंकि जो कोइ श्रुतदेवताका खालंबन करके कायोत्सर्गादि करता
तिस्के कर्मक्षय होते है. इस वास्ते श्रुतदेवताकी आशातना त्यागके चतुवर्णसंघको कर्मक्ष्य करणे वास्ते अवश्यमेव प्रतिदिन श्रुतदेवताका कायोत्सर्ग करना और थुनी अवश्य कहनी चाहियें.
प्रश्नः - सम्यग्दृष्टि वैयावृत्त्यादि करनेवाले देव तायका कायोत्सर्ग करना और चोथी थुइमें तिनकी स्तुति करणी तिस्सें क्या फल होता है.
उत्तरः- पूर्वोक्त कृत्य करनेसें जीव सुजनबोधि हो नेके योग्य महा शुकर्म उपार्जन करता है. और तिनकी निंदा करनेसें जीव दुर्लनबोधि होने योग्य महा पापकर्म उपार्जन करता है, वैसा पाठ श्रीग यांग सूत्र जिसकों रत्नविजयजी, धनविजयजी मान्य करते है तिसमें है सो इहां लिख देते है | पंचहिं गणेहिं जीवा नबोहियत्ताए कम्मं पकरेंति तं जहा अरहंताणमवन्नं वदमाणे अरिहंतपणात्तस्स धम्मस्स यवन्नं वदमाणे यायरियनवद्यायाणं व्यवन्नं वदमाणे
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
चवन्न संघस्स अवन्नं वदमाणे विविक्कतवबंनचेराणं देवाणं वन्नं वदमाणे पंचहिं गणेहिं जीवा सुलन बोहियत्ताए कम्मं पकरेंति अरहंताणं वन्नं वदमाणे जाव विविक्कतवबंनचेराणं देवाणं वन्नं वदमासे ॥ इति मूलसूत्रम् ॥ अस्य व्याख्या ॥ पंचहीत्यादि सुग मम् । नवरं लेना बोधिर्जिनधर्मो यस्य स तथा तना वस्तत्ता तया दुर्लनबोधिकतया तस्यैव वा कर्म मोह नीयादि प्रकुर्वति बनंति तामवमश्लाघ्यं वदन् यथा । नबी अरिहंती, जातो कीस गुंजए जोए ॥ पाहुंडिय नवजीव, समवसरणादिरूपाए ॥ १ ॥ ए माइजियायवसो, नच तेनानूवंस्तत्प्रणीतप्रवचनो पलब्धेर्नापि जोगानुजवनादेर्दोषोऽवश्यवेद्यशातस्य तीर्थकर नामादिकर्मणश्च निर्जरणोपायत्वात्तस्य तथा वीतरागत्वेन समवसरणादिषु प्रतिबंधानावादिति तथा प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रुतचारित्ररूपस्य प्राकृत जापानिब दमेतत् । तथा किं चारित्रेण दानमेव श्रेयः इत्यादिकमव वदन् उत्तरं चात्र । प्राकृतभाषात्वं श्रु तस्य न इष्टं बालादीनां सुखाध्येयत्वेनोपकारित्वात्तथा चारित्रमेव श्रेयो निर्वाणस्यानंतर हेतुत्वादिति याचा र्योपाध्यायानामव वदन् यथा बालोयमित्यादि नच
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१५६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। बालवादिदोषो बुझ्यादिनिर्वदत्वादिति तथा चत्वारो वर्णाः प्रकाराः श्रमणादयो यस्मिन्स तथा स एव स्वार्थिकाएिवधानाचातुर्वर्ण्य तस्य संघस्यावर्म वदन यथा कोयं संघो यः समवायबलेन पशुसंघ श्वामार्ग मपि मार्गीकरोतीति नचैतत्साधुझानादिगुणसमुदाया त्मकत्वात्तस्य तेन च मार्गस्यैव मार्गीकरणादिति तथा विपक्कं सुपरिनिष्ठितं प्रकर्षपर्यंतमुपगतमित्यर्थः । तपश्च ब्रह्मचर्य च नवान्तरे येषां, विपक्कं वा उदया गतं तपो ब्रह्मचर्य ततुकं देवायुष्कादिकं कर्म येषां ते तथा तेषामवर्ण वदन न संत्येव देवाः कदाचना प्यनुपलन्यमानत्वात् किंवा तैर्विटैरिव कामासक्तम नोनिरविरतैस्तथा निनिमेषैरचेष्टेश्च नियमाणैरिव प्रव चनकार्यानुपयोगिनिश्चेत्यादिकं श्होत्तरं संति देवास्त कृतानुग्रहोपघातादिदर्शनात् कामासक्ताश्च मोहशा तकर्मोदयादित्यादि । अनिहितं च । एत्थ पसिद्धीमोह णी, यसायवेयणियकम्मनदया ॥ कामसत्ताविरई, कम्मोदयवियनतेसिं ॥ १ ॥ अणमिसदेवसहावो, निचेमणुत्तराश्कयकिच्च ॥ कालाणुनावतिनु मपि अन्नब कुवंतित्ति ॥ ३ ॥ तथा अर्हतां वर्णवा दो यथा । जियरागदोसमोहा, सचत्रुतियसनादकय
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १५७ पूया ॥ अञ्चंतसञ्चवयणा, सिवगगमणा जयंति जिणा ॥१॥ इति अर्हत्प्रणीतधर्मवों यथा । वन पयासणसूरो, अश्सयरयणाणसायरो जयई ॥ स वजयजीवबंधुर, बंधूद विहोइ जिणधम्मो ॥ २ ॥ आचार्यवर्णवादो यथा। तेसि नमो तेसि नमो, जावेण पुणो ।व तेसि चेव नमो ॥ अणुवकयपरहियरया, जे नाणं देति नवाणं ॥ ३ ॥ चतुर्वर्णश्रमणसंघवर्णो यथा । एयंमि पूश्यंमि, नबि तय जं न पूश्य होई ॥ नवणेवि पूयणिजो, न गुणी संघान जं अन्नो ॥१॥ देववर्णवादो यथा। देवाण अहो सील, विसयविस मोहिया वि जिणनवणे ॥ अबरसाहिपि समं, हासा ई जेण नकरंतित्ति ॥ १ ॥
इस ताणांगके पातमें प्रथम पाठके पांचमे स्थान में लिखा है कि देवतायोंके जो अवर्णवाद बोले सो उर्लनबोधि पणेका कर्म उपार्जन करे. तिसकी टिकाकी नाषा यहां कहते है. तथा (विपक्कं ) अतिशय करके पर्यंतकों प्राप्त दूधा है तप और ब्रह्मचर्य जवां तरमें जिनका अथवा (विपक्कं के०) उदय प्राप्त हूवा है तप और ब्रह्मचर्यरूप हेतुसें देवताका आज कादि कर्म जिनके, तिन देवतायोंका अवर्णवाद
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1. Ե
चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
बोले. यथा कदापि देखने में न यावनेसें देवताही नही है, जेकर होवेंगेजी तो वेजी विट पुरुष अर्थात् अ त्यंत कामी पुरुषकी तरें, कामासक्त होनेसें, किस का मके है ? तथा वो देव अविरति है, तिनसें हमारा क्या प्रयोजन है तथा जिनकी यांखो मिचती नही है इस वास्ते चेष्टा करके रहित होनेसें मृततुल्य पुरुषके समान है, जैनशासनमें किसीजी काममें नही आते है, इत्यादि अनेक प्रकारसें पूर्वोक्त देवतायोंका
वर्णवाद बोले सो जीव ऐसा महामोहनीय कर्म बांधे कि जिसके प्रजावसें जैनधर्म तिस जीवकों प्राप्त होना दुर्लन हो जावे क्योंके यहां टीकाकार श्री जयदेवसूरिजी उत्तर देते है. देवता है तिनके करे नुग्रह उपघातके देखनेसें, और कामासक्त जो दें वता है, सो शाता वेदनीय और मोहनीय कर्मके न दसें है, विरति कर्मके उदयसें वे विरति नही है, और जो यांख नही मीचते है सो देवनवके स्व नावसें है, और जो अनुत्तर विमानवासी देव निवे ष्ट चेष्टारहित है, वे देव कृतकृत्य हुए है अर्थात् उन कुबनी बाकी करना नही है, इस वास्ते निश्चेष्ट और जो तीर्थकी प्रभावना नहीं करते है सो का
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १५ लदोष है अन्यत्र करतेनी है. इस वास्ते देवतायोका अवर्णवाद बोलना युक्त नही है. ___ अब तिन देवतायोंके गुणग्राम करे तो सुलन बोधि होवे जैसेके देवतायोंका कैसा गुन आश्चर्य कारी शील है, विषयके वश विमोहित जिनका मन है, तोनी जिननवनमे अपत्सरा देवाङ्गनायोंके साथ हास्यादिक नही करते है, इत्यादिक गुण बोले तो सुलनबोधिपणेका कर्म नपार्जन करे ।
इस वास्ते जो कोश, जैनसिद्धांतके रहस्यका अजाण होकर जोले श्रावकोंके बागें, सम्यकदृष्टी जो शासनदेवता अरु श्रुतदेवतादिक है, तिनकी निंदा करके तिनोका कायोत्सर्ग करणा और शुश कहनी तिसका निषेध करता है और यह कृत कर
से उनकों दूर रखता है, सो जीव दुलनबोधि होनेका कर्म नपार्जन करता है ॥ __ तथा श्रीयावश्यकचार्सिमें दशपूर्वधारी श्रीवज स्वामीजीने देवदेवताका कायोत्सर्ग करा ऐसा लेख है, वो पाठ नपर लिख आए है तिसमें जेकर को मुग्ध जीव ऐसा कहे के श्रीवजस्वामीजीने तो एकही वार कायोत्सर्ग कराथा, परंतु प्रतिदिन
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१६० चतुर्थस्तुतिनिर्णयः ।। कायोत्सर्ग नही कराया. तिस्का उत्तर लिखते हैंके श्रीवजस्वामीजीतो अतिशय युक्त थे तिस वास्ते उनकू तो एकही वार कायोत्सर्ग करनेसें देवदेवता प्रगट होके आज्ञा दे गश्थी, और अबतो नित्य कर ते है तोनी देवदेवता प्रत्यद नही होती है इस वा स्ते श्रीवजस्वामिजीकी बराबरी करके जो प्रतिदिन कायोत्सर्ग करनेका निषेध करें तिसकों सब मूल्मे शिरोमणि जानना, और प्रतिदिन देवदेवतादिकका जो कायोत्सर्ग करते है, सो बात जीवानुशासन यं थकी सादीसें करते है तिस्का पाठ हम उपर लिख आए है.
तथा दूसरा फेर आवश्यक सूत्रकानी पाठ लिख कर दिखाते है, सो पाठ यह है ॥ यमुक्तं ॥ मममं गलमरिहंता, सिमा साहू सुहं च धम्मो अ॥ सम्म दिही देवा, दितु समाहिं च बोहिं च ॥ १७ ॥ मम इत्यात्मनिर्देशे मंगलं दत्वमंगलं नावमंगलं च दवमंगलं दहियरकयाइयो, नावमंगलं एगंतियमचंतियं सारी राश्पचूहोवसामगत्तेण मांगलयति नावात् मंगं वा लातीत्यादिशब्दार्थत्वप्रवृत्तेश्च इदमेवाईदादिविषयं पं चविधं ॥ तदेवाह ॥ अरिहंता सिधा साहूसुयं च
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १६१ धम्मो य तब ॥ अविहं पि य कम्मं, अरिनूयं हो। सबजीवाणं॥तं कम्ममरिहंता, अरिहंता तेण वुचं ति ॥ तथा पिञ् बंधने सितंबई ध्मातं दग्धं कर्म यैस्ते सिमाः तथा ज्ञानादिनिर्निर्वाणं साधयंतीति साधवः॥ श्रूयतइति श्रुतम् ॥ अंगोपांगादिर्वि विधनेद आगमः॥ मुर्गतिपतऊंतुधारणाधर्मः॥ चशब्दः समुच्चयार्थः। श्व चान्यत्र चत्वार्येव मंगलानि पठ्यते ॥ इह तु अनुष्ठा नरूपधर्मस्य प्रकान्तत्वाधर्मस्यापि पंचमंगलतया विशे षनणनमदोषायेति तथा सम्यगविपरीता दृष्टिस्तत्त्वा र्थदर्शनं येषां ते सम्यग्दृष्टयो देवा यदांबाब्रह्मशांति शासनदेवतादयस्ते । किमित्याह । ददतु यजंतु। कामि त्याह समाहिं वा बोहिं च। तब समादी उविहा दवसमाही नावसमाही य । दवसमाही जेसिं दवाणं परुप्परं अविरोहो जहा दहिगुडाएं कीरसकराणं सिणिबंधवाणं सुहीणं कायस नावोसिरणे वा एमाइ ॥ नावसमाही अरत्तउठस्स असिणेहाश्याग्लस्स असंजोगविगविदुरस्त अह रिसविसयानरस्त सायरसरोवरसरिसस्स सुपसन्नम एस्स समस्त सावगस्त वा समाहाणं श्यं हि मूलं सवधम्माणं उमाणं व खंधोपसाहाणं व सा
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१६५ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । हा फलस्सेव पुप्फ अंकुरस्सेव बीयं बीयस्सेव सु नूमि एईएविणासु बटुपि अणुशाणं कठाणुशाणप्पायं अथा चेव समाही पबिध ॥ सायसमादीमणोवी सबया एतंच मणोसारी रिंगमाणसेहिं खमरवाससा ससोसई साविसाय पियविप्पांगसोगपमुहेहिं विरि वई अनपरमब ऽसमाहिपत्रणाए एएसिपि निरोहो पनि हवत्ति॥ नषु नेसम्मदिछिणो एवं पडिया समा हिबोहिदाणसमजा? समजा जर असमबातो किं तब पत्रणाए निष्फलत्ताए यह समना तो किं पुरन वअनवाणं न दिति ॥ अह मन्नसे जोगाणं चेव दावं समना न अजोगाएं तो खाइंसजोगय चियपमाणं किं तेहिं ययागलथणकप्पेहिं ।। अयरि जण ॥ सच्च मेयं किंतु अम्हे जिणमणो जिमयं सियवायप्प हाणं ॥ सामग्री वै जनिकेति वचनात् तत्र घटनि पत्ती मृदो योग्यतायामपि कुलालचकचीवरदवरदं मादयोपि तत्र कारणं एवमिहापि जीवस्य योग्यता यामपि तथा तथा प्रत्यूहनिराकरणेन समाधिबोधि दाने देवा अपि निमित्तं नवंतीत्यतःप्रार्थनापि फलवती त्यलं प्रसंगेनेति गाथार्थः॥
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
१६३
अब इस चूर्मिकी जाषा लिखते है || मम मंगल इत्यादि गाथाकी व्याख्या ॥ मम वैसा यात्म निर्देश विषे है, अरु मंगल जो है सो दोप्रकारका है तिस्में एक इव्यमंगल और दूसरा जावमंगल तिनमें इव्यमं गल जो है सो दधि यतादिक है, और नावमंगल जो है सो एकांतिक अत्यंतिक है, अर्थात् एकांत सु खदाय और अंतरहित है. शारीरी मानसिक दुःखों के उपशामक होने करके मैरेकों जो संसारसें दूर करे सो मंगल है, इत्यादि शब्दार्थ है. यह मंगल अरिहंता दि विषय जेदसें पांच प्रकारके हैं सोइ दिखाते है.
एक अरिहंत, दूसरा सि६, तीसरा साधु, चन था श्रुत, पांचमा धर्म, तिनमें सर्व जीवोंके शत्रुनू त ऐसे जो अष्टप्रकारके कर्म हैं तिनका जिनाने ना शकरा है, सो अरिहंत जानना, यरु जिनोने कर्म बंधन दग्ध करे है वो सिद्ध जानना तथा जो ज्ञा नादि योगकरके निर्वाणकों साधते है वो साधु जान ना, जो सुणीयें सो श्रुत कहना, वो श्रुत अंगोपांगा दि विविध प्रकारके यागम जानना, तथा जो दुर्गति में पडते हूए जीवोंकू धारण करे सो धर्म है, इहां च शब्द जो है सो समुच्चयार्थमें है, अन्यत्र चार ही
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१६४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । मंगल कहे है, और यहां अनुष्ठानरूप धर्मका प्रा रंज होनेसें तिस धर्मकों पांचमा अनुष्ठान कहनमें दोष नही है. तथा सम्यग् सो अविपरीत दृष्टी त त्त्वार्थश्रज्ञानरूप वो है जिनोकों सो सम्यग्दृष्टी देवता यद, अंबा, ब्रह्मशांति, शासनदेवतादिक जा नना. वो क्या करे सो कहते है. ___ देवो क्या देवे ! समाधि और बोधि तहां समाधि दो प्रकारको है, एक इव्यसमाधि, दूसरी जावस माधि तिसमे इव्यसमाधि यह है कि जिन इव्योंका परस्पर अविरोधिपणा है जैसें दधी और गुड, तथा सक्कर ( मिसरी) और दूध, स्नेहवंत नाइ
और मित्र, मलोत्सर्ग करके मूतना इत्यादिका अ विरोध है, और नावसमाधि जो है सो रागशेषर हितकों, स्नेहादिसें अनाकूलकों, संयोग, वियोग क रके अविधुरकों, हर्षविषाद रहितकों, शरत्कालके सरोवरकी तरें निर्मलमनवाले ऐसे जो साधु वा श्रावक है तिनकों होती है यह समाधिही सर्व धर्मोका मूल है. जैसें वृदका मूल स्कंध है, बोटी साखायोंका मूल बडी शाखायों है, फलोंका मूल फूल है, अंकूरका मूल बीज है, बीजका मूल सुनूमि
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
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है, तैसें सर्व धर्मो का मूल समाधि ह. समाधिविना जो अनुष्ठान है सो सर्व ज्ञान कष्ट रूप है, इस वास्ते पूर्वोक्त देवतायोंसें समाधि मागते है, वो स माधि तो मनके स्वस्थपरोसें होती है, और म नका स्वस्थपणा तब होवें जब शारीरिक तथा मानसिक, दुःख न होवे, और भूख, खांसी, श्वास, रोग, शोष, ईर्ष्या, विषाद, प्रियविप्रयोग, शोक प्रमुख करके विधुर न होवे, तब स्वस्थपणा होवे इस वा स्तं परमार्थ समाधी प्रार्थनाद्वारें इन पूर्वोक्त उपड़वोंका निरोध प्रार्थन करा है.
ननु वितर्के हे प्राचार्य, सम्यग्रदृष्टी देवतायोंकी इसतरें प्रार्थना करनेसें वो देव, वो समाधि बोधि दे नेकों समर्थ है ? वा नही है ? जेकर समर्थ नही ala aadi Sata प्रार्थना करनी निष्फल है, रु जेकर समर्थ है तो पुर्नव्य अनव्यकोंनी क्यों नही देते है. जेकर तुम मानोगेंकी योग्य जीवोंकोंही देने कूं समर्थ है, परंतु योग्य जीवोंकूं देने समर्थ नहीं है, ततो योग्यताह । प्रमाण हुइ, तब बकरी के गले के स्तन समान तिन देवतायोंकी काहेकों प्रार्थना करनी चाहियें ?
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१६६ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। __ अब इनका उत्तर प्राचार्य देते है. हे जव्य तेरा कहना सत्य है. किंतु हमतो जैनमति है, और जै नमत स्याहादप्रधान है, सामग्री वैजनिकेति वचना त् ॥ तहां घटनिष्पत्तिमें मृत्तिकाके योग्यता होनेसें जी कुंजकार, चक्र, चीवर, मोरा, दमादिनी तहां का रण है. जैसे यहांनी जीवके योग्यताके हूएनी ये पूर्वोक्त देवता तिस तिस तरेके विघ्न दूर करनेसें स माधि बोधि देनेमें निमित्तकारण होते है. इस वास्ते तिनकी प्रार्थना फलवती है. इति गाथार्थः॥४७॥ - इस आवश्यककी मून गाथामें तथा इसकी चूर्णि में प्रकट पणे समाधि और बोधिके वास्ते, सम्यगह ष्टी देवतायोंकी प्रार्थना करनी कही है. तो फेर यह ग्रंथों सब पूर्वाचार्योंके रचे हुए हैं सो किसी प्रकारसें जूना नही हो शकता है,परंतु हमने सुना है कि रत्नवि जयजीअरु धनविजयजीने “सम्मदिही देवा” इस पद की जगें कोई अन्यपदका प्रदेप करा है, जेकर यह कहेनेवालेका कथन सत्य होवे तबतो इन दोनोकों उत्सत्र प्ररूपण करणेका और संसारकी वद्धि होने का नय नही रहा है, यह बात सिम होती है तो अ ब सानोकों यह विचार रखना चाहीयेंके सूत्रोंका प
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १६७ दोकों फिरायके तिस जगे दूसरे वाक्य लिखना यह काम करणेसे जो पाप लगे तिस्से जास्ति पाप फेर दूसरे कौनसे काम करनेसे लगता होवेगा? यह काम करणमें कोश्नी नवनीरू पुरुष आपनी सम्मतितो नहीही देवेगा, परंतु खरा अंतःकरणपूर्वक पश्चात्ताप करके इन दोनोकों इस कामसे दूर रहेने वास्ते अव श्य सत्य उपदेश करणेमें क्योंकर तत्पर न रहेगा! अ पितु अवश्य रहेगाही. श्रीजिनेश्वर नगवान्के वचन नडापन करना यह कुन सहेज बात नही है, इस्से वो उबापक जीव अनंत संसारी बन जाता है, तो फेर जिसके हाथमें सब दर्शनोमें शिरोमणीनूत श्री जैनधर्मरूप चिंतामणि रत्न प्राप्त दूवा तिस्कों वोअप ने उराग्रहके अधीन होके दूर फेक देता है, अरु अ पनी मनकल्पितरूप विष्ठाकों उठाके हाथमें धारण करता है तिस्कों देखके कोन नव्यजीवकों तिस पाम र जीवके पर दयाका अंकूरा उत्पन्न नही होवेगा? अर्थात् निकट नव्यसिधियोंकों तो आवश्य करुणा आवेगीही. जब तिसके परकरुणा आवेगी तब वो प्रतिबोधनी अवश्य देवेगा, क्योंकी जेकर कोई उरा ग्रही जो बुज जावे तो उसका काम हो जावे, अरु
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१६७ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। बोध करनेवालेकूनी बडा पूण्योपार्जन रूप लान हो जावे ऐसा नगवानका कथन है.
हमकों बडा आश्चर्य होताहैकि पाटण खंबाता दिक शहेरोमें बडे बडे ज्ञानके जांमागारोंमें ताडप त्रोंके ऊपर पुराणी लिपियोंमे लिखे हुए ग्रंथ मोजु द है तिन सब ग्रंथों में सम्मदिछी देवा” यह पद लिखा दूया है. तो जिस पुरुषकों तिन पदकी जगें न वीन पद प्रदेप करतेजी कुछ जय नही आता है, प रंतु और इस्से आनंद मान लेता है तो फेर तिसकों अन्य पाप करणेसेंनी क्या जय होवेगा? जो अन्या यमें आनंद माने तिसकों न्यायवचन कैसे प्रिय लगें?
तथा श्रीपादीसूत्रका पाठ यहां लिखते हैं। सुथ देवया नगवई, नाणावरणीयकम्मसंघायं ॥ तेसिं खवेन सययं. जेसिं सधसायरे जत्ती॥१॥ व्याख्या॥ सूत्रपरिसमाप्ती श्रुतदेवतां विज्ञापयितुमाह सुअ० श्रुतदेवता संनवति च श्रुताधिष्ठातृदेवता जगवती पू ज्या ज्ञानावरणीयकर्मसंघातं ज्ञानघ्नकर्मनिवहं तेषां प्राणिनां कृपयतु क्यं नयतु । सततं येषां श्रुतमेवात गंनीरतया अतिशयरत्नप्रचुरतया च सागरस्तस्मिन जक्तिबहुमाना विनयश्च समस्तीति गम्यते ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १६ए इसकी नाषा लिखते है. सूत्रकी समाप्तिमें श्रुत देवीकों विज्ञापना करते है. सुब० ॥ श्रुतदेवता श्रु तकी अधिष्टात्री, देवी जगवती पूजने योग्य तिस्कू विनंति करते हैके ज्ञानावरणीय कर्मके समूहकों हे श्रुतदेवी तुं निरंतर दय कर दे, जिनपुरुषोंके जगवं तनाषित श्रुतसागरविषे जक्ति बहुमान है तिन पुरु षोंके झानावरणीयकर्मका समूहकों दय कर दे. इस पाठमें श्रुतदेवीकी विनंति करे तो ज्ञानावरणी यकर्मक्य होवे, ऐसा कहा है. इसवास्ते जो कोई श्रुतदेवीका कायोत्सर्ग और तिस्की शुश्का निषेध करता है, सो जिनमतके ज्ञानरूप नेत्रोंसे रहित है, ऐसा जानना. परंतु ऐसा जोले लोगोकों न कह नाकि यह हमारी निंदा करी है ? परंतु अपने हृद यमें कुब विचार करके मुखसें कथन करना तो सब तरहेंसें सुखदा होवेगा, जिसमें आपकों बहुत लान होवेगा, उलटा पासा आपका पड़ा गया है, तिसकों सुलटा करणासो आपकेही हाथ है सो अपबूज जावेगें अरु शुझमार्गकी राहपर चलेगें यह हमारा मनोरथ है सो आपकों उत्तम सुखके दाता है.
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
तथा श्रीयावश्यक चूर्यादिकों का पाठ ॥ चानम्मासि यसंवरिए सवेवि मूलगुणउत्तरगुणाएं बालोयां दाऊण पक्कि मंति खित्तदेवयाए य उस्सग्गं करेंति के पुं चानम्मासिगे सिद्यादेवताए वि का स्तग्गं क रेंति । यावश्यकचूर्णै० चानम्मासिए एगे नवसग्ग देवता का सग्गो कीरति संवव रिए खित्तदेवयाए वि कीरति दिन || श्रावश्यक चूर्णैौ । तथा श्रुतदेवाया श्रागमे महती प्रतिपत्तिर्दृश्यते तथाहि सुयदेवयाए यासायलाए श्रुतदेवताजीए सुयमहिठियं तीए या सायला नचि साऽकिंचित्करी वा एवमादि याव श्यकचूर्णे जा दिहिदा मित्ते ए देइ पाइएनरसुर समिद्धिं ॥ सिवपुररथं खाणारयाण देवी नमो ॥ आराधनापताकायां यत्प्रभावादवाप्यंते, पदार्थाः क ल्पनां विना ॥ सा देवी संविदे न स्ता, दस्तकल्पल तोपमा ॥ उत्तराध्ययनवृहद्वृत्तौ प्रणिपत्य जिनव रें वीरं श्रुतदेवतां गुरून् साधून् ॥ यावश्यकवृत्तौ, यस्याः प्रसादमतुलं संप्राप्य जवंति नव्यजिन नि वहाः ॥ अनुयोगवे दिनस्तां प्रयतः श्रुतदेवतां वंदे ॥ अनुयोगद्वारवृत्तौ ॥ इस उपरले पाठ आवश्यक चूर्णी में नवनदेवता यरु क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १७१ करणा कहा है. चातुर्मासीमे एकैक नवनदेवताका कायोत्सर्ग करते है, और संवत्सरीमें नवनदेवता, देवदेवताका कायोत्सर्ग करते है यह कथन श्राव श्यकचूर्मिमें है.
तथा आगममें आवश्यकचूमिमे श्रुतदेवताकी विनय नक्ति करनी कही है. सो पाठ ऊपर लिखा है तथा जो श्रुतदेवी दृष्टि देने मात्रसें जगवंतकी आशामें रत पुरुषोंकें नर सुरकी कड़ि देती है. यह कथन अाराधनापताका ग्रंथमें है.
तथा श्रुतदेवी हमको ज्ञानकी दात्री होवे यह क थन श्रीउत्तराध्ययनकी बृहछत्तिमें है.
तथा जिनवरें श्रीमहावीरकों,तथा श्रुतदेवताकों तथा गुरुओंकों नमस्कार करके आवश्यक सूत्रकी वृत्ति रचता हूं ॥ इति हारिनडीयावश्यकवृत्तौ ॥ ___ तथा जिन श्रुतदेवीका अतुल्य प्रसाद अनुग्रह क रके जव्य जीव जो है सो अनुयोगके जानकार होते है तिस श्रुतदेवीकों में नमस्कार करता हूं, यह कथन श्रीअनुयोगधारकी वृत्तिमें है. तथा श्रीनिशीथचू र्मिके शोलमें उद्देशेमें नाष्यचूर्णिमें साधुयोंकों वन देवताका कायोत्सर्ग करना कहा है, सो पाउ यहां
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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
लिखते हैं | ताहे दिसा नागममुपंता वालवुढ गनुस्स ररकणठाए वणदेवताए काउस्सग्गं करेंति । इत्यादि. तथा श्रीहरिनसुरिजीने श्रुतदेवताकी चौथी थु 5 रची है. “ यामुनालोलधूली ” इत्यादि, यह खुइ जैनमतमें प्रसिद्ध है.
तथा श्रीयामराजा ग्वालियरका तिस्का प्रतिबो धक श्रीवपट्टसूरि महाप्रजावक हुए हैं तिनोंका जन्म विक्रम संवत् ८०२ में हुआ है तिनोने एकैक तीर्थंकर के नामसें तथा संबंधसें प्रथम थु, दूसरी सर्व तीर्थकरोकी छु, तीसरी श्रुतज्ञानकी शु, अरु चौथी श्रुतदेवी, विद्यादेवी आदिककी थुइ इसतरें चौवीस चोक बांनवें शुइयां रचीयां है, तिनमें सर्वत्र चोथी थुइयोंमें अनुक्रमसें इन देवी देवतायों की स्तव ना करी है. तहां श्रीरूपनदेवके संबंधकी चौथी यु इमें वाग्देवताकी थुइ है. श्री अजितनाथके साथ अपराजिता देवीकी छुइ है, ऐसेही रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रश्रृंखला, वज्रांकुशी, प्रतिचका, काली, मान वी, पुरुषदत्ता, महाकाली, गौरी, गांधारी, मानसी, महामानसी, काली, महाकाली, वैरोट्या, वाग्देवता, श्रुतदेवी, गौरी, अंबा, यराट्, अंबिका, इसतरें अनु
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १७३ कमसें चौवीस धुश्योंमें इन देवतायोंकी स्तवना करी है. सो ग्रंथ गौरवताके जयसें सर्व थुश्यां तो यहां नही लिखते है, जेकर किसीकों देखनी होवे तो ग्रंथ मेरे पास है सो पाकर देख लेनी. तथापि तिनमेसें बावीशमें श्रीनेमिनाथके संबंधकी चार शुश्यां यहां लिख देते हैं. तथाच तत्पातः॥ चिरपरिचितलमी प्रोन्यसिौरतारा, दमरसदृशमा वर्जितां देहि नेमे ॥ नवजलनिधिमजाऊंतुनिर्व्याजबंधो दमरसह शमा वर्जितां देहि नेमे ॥ ७ ॥ विदधदिह यदाझा निर्वतौ शं मणीनां सुखनिरतनुतानोनुत्तमास्ते महां तः॥ ददतु विपुलनशं शग जिनेंशः श्रियं स्वः सुख निरतनुतानोनुत्तमास्ते महांतः ॥ ७६ ॥ कृतसमु तिबलर्दिध्वस्तरुगमृत्युदोष परममृतसमानमानसं पा तकांतं ॥ प्रतिदृढरुचि कृत्वा शासनं जैनचंई परममृ तसमानं मानसं पातकांतं ॥ ७७ ॥ जिनवचनक तास्था संश्रिता कम्रमानं, समुदित सुमनस्क दिव्यसौ दामनीरुक् ॥ दिशतु सततमंबा नूतिपुष्पात्मकं नः नमुदितसुमनस्कदिव्यसौदामनीरुक् ॥ ७ ॥
तथा श्रीजिनेश्वरसूरिका शिष्य और नवांगी वृत्ति कारक श्रीअनयदेव सूरिजीका गुरु नाइ, संसाराव
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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
स्थामें श्रीधनपाल पंमितका सगा भाई, संवत् १० २० के लगनगमें श्रीशोजनाचार्य महामुनि दूए तिनोने श्रीबप्पनह सूरिजीक । तरें चौवीस चोक बां नवे युश्यां रची है तिनमेंजी चौवीशे चोथी घुइयोंमें अनुक्रमसें श्रुतदेवता, मानसी, वज्रश्रृंखला, रोहि पी, काली, गंधारी, महामानसी, वज्रांकुशी, ज्वल नायुधा, मानवी, महाकाली, श्रीशांतिदेवी, रोहिणी, अच्युता, प्रज्ञप्ति, ब्रह्मशांति यद, पुरुषदत्ता, चक्रधरा, कपर्दिय, गौरी, काली, अंबा, वैरोट्या, अंबिका, इ नकी स्तवना करी है.
अब नव्य जीवोंकूं विचारणा चाहियें की जब श्री जिनेश्वरसूरिके उपदेशसें तथा पूर्वाचार्योंकी परंपराय सें, पूर्वाचार्यसम्मत चौथी थुइ है तो तिस्का निषेध करणा यह जिनाज्ञाधारक प्रामाणिक पुरुषका लक्ष ए नही है. क्योंकी जो पुरुष पूर्वाचार्योंकी व्याचर पाका छेद करे सो जमालिकी तरें नाशकों प्राप्त होवे. पैसा कथन श्रीसूयगडांग सूत्रकी निर्युक्तिमें श्री बाहु स्वामीनें करा है. सो पाठ यहां लिखतें है । याय रिए परंपराए, यागयं जो बेय बुद्धिए ॥ कोइ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १७५ वोडेय वाइ, जमालिनासं स नासे ॥ १॥ अर्थःआचार्योंकी परंपरायसें जो आचरणा चली आती सोवे तिस्को उबेद करने अर्थात् न माननेकी जो बु ६ि करे, सो जमालिकी तरें नाशकों प्राप्त होवे. ___ तथा श्रीवाणांगकी टीकामें श्रुतज्ञानदिके सात अंग कहे है. सूत्र, नियुक्ति, जाष्य, चूर्मि, वृत्ति, परं
रा, अनुनव, इनकों जो कोइ बेदे सों दूरनव्य अर्था { अनंतसंसारी है, जैसा कथन पूर्वपुरुषोंने करा है.
इस वास्ते रत्नविजयजी अरु धन विजयजी जेकर जैनशैली पाकर आपना आत्मोचार करणेकी जि झासा रखनेवाले होवेगे तो मेरेकों हितेनु जानकर
और क्वचित् कटुक शब्दके लेख देखके उनकेपर हित बदिलाके किंवा जेकर बहते मानके अधीन रहा होवें तो मेरेकों माफी बदीस करके मित्र नावसे इस पूर्वी क्त सर्व लेखकों बांच कर शिष्ट पुरुषोंकी चाल चलके धर्मरूपवृक्षकों नन्मूलन करनेवाला पैसा तीन शत का कदाग्रहको बोडके, किसी संयमि गुरुवार उपसंपत् लेके शुक्ष्प्ररूपक हो कर मिकों पावन करेंगे तो इन दोनोकाम नावेगा यहा हमारा आशीर्वाद है
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________________ ___ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। अथ निकट उपकारी गणिक्य श्रीमन्मणिविजयजी, महराजकी किंचित् गुरुप्रशस्ति लिखते है. // अनुष्टुब् वृत्तम् // तपागचे जगईये, जझिरे बुदिशालिनः॥ है श्रीमन्मणिविजयाख्या, गुरवः संयमे रताः॥१॥ यस्य धर्मोपदेशेन, निर्मलेन कति जनाः॥ / सम्यक्त्वं लेनिरे साधु, धर्म च लेनिरे कति // 2 // तेषां पट्टांबरे चंश, नरिशिष्यप्रशिष्यकाः॥ / श्रीमहदिविजयाख्या, बनूवुर्बुदिसागराः // 3 // निःसंगा निर्ममाः दांता, ये च पांचालनीति // ढुंढकारख्यं मतं हित्वा,जाताः संवेगनाजनम्॥४॥ तलिष्येण मयानंदविजयेन सविस्तरः // ग्रंथोऽयं गुफितः सम्यक्, चतुर्थस्तुतिनिर्णयः॥५॥ ए बुद्धिमांद्यवशात् किंचित्, यदशुक्ष्मलेखि तत् // णाका नवर्य संपरित्यज्य, शोधयध्वं मनीषिणः // 6 // होवे. पैसा कथनोनिधि-श्रीमद्-आत्मारामजी(आ नबाद स्वामीने राजविरचितः चतुर्थस्तुतिनिर्णयः॥ आयरिए परंपराए, समाप्तमिदम् //