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________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १४७ कायोत्सर्ग करते है तिसका कारण यह है की सांप्र तकालमें तिन देवताके सांनिध्यानावसें अर्थात् पूर्व कालमें यदा कदा एकवार कायोत्सर्ग करणेसें वे देव वे शासनकी प्रनावना निमित्त उपवनाशनादि करते थे,और सांप्रतकालमें कालदोषसें यदा कदा का योत्सर्ग करनेसें वे देव वे सांनिध्य नही करते है,इस वास्ते तिनकों नित्य प्रतिदिन कायोत्सर्ग द्वारा जा गृत करे हूए सांनिध्य करते है. इसवास्ते नित्य कायोत्सर्ग करते हैं. तिस नित्य कायोत्सर्गके कर ऐसें विशिष्ट अतिशयवान् वैयावृत्त्यकरादि देव जो है सो जागृत होते है. निःकेवल वैयावृत्त्य करनेवा ले प्रसिह देवताका कायोत्सर्गही नहीं करते है. किंतु शांतिकराणं इत्यादिकोंकाजी ग्रहण करना. तथा प्रनूतकाल अर्थात् बहुत दिनोसें पूर्वधरोके समयसें इन पूर्वोक्त देवतायोंका नित्य प्रतिदिन पूर्वाचार्य का योत्सर्ग करते आए है. इस वास्ते पूर्वोक्त देवतायों का नित्य कायोत्सर्ग करते हैं. इति गाथार्थः॥ ___ असें स्थित सिम हूए तो फेर क्या करना चाहि ये सो कहते हैं. विग्यविधायण इत्यादि १७०४ गाथा की व्याख्या ॥ विघ्नविघातके वास्ते आत्माके उपस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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